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हिंदी अनुवाद में अमिताव घोष का उपन्यास ‘सी ऑफ पॉपीज़’

हिंदी में अमिताव घोष का सी ऑफ पॉपीज़ अफीम सागर के नाम से प्रकाशित हुआ है. ध्यान रहे कि इस उपन्यास की कथा का क्षेत्र पूर्वी भारत है. कहानी उस दौर की है जब वहाँ से लोगों को गिरमिटिया बनाकर मॉरिसस और कैरेबियाई देशों में भेजा जा रहा था. हिंदी अनुवाद में यह उपन्यास हिंदी के पाठकों को कुछ अपना-अपना सा लगेगा. इसलिए अंग्रेजी उपन्यास की की गई समीक्षा यहाँ प्रस्तुत है. अफीम सागर उसका अनुवाद है इसलिए इसकी कथा का एक आभास पाठकों को हो जायेगा.
अमिताव घोष अंग्रेजी में लिखने वाले समकालीन भारतीय लेखकों में प्रथम पंक्ति के लेखकों में गिने जाते हैं। सलमान रूश्दी और विक्रम सेठ के साथ घोष को उन लेखकों में गिना जा सकता है जिनके उपन्यासों ने भारतीय अंग्रेजी लेखन की विश्वव्यापी पहचान स्थापित की। सी ऑफ पॉपीज उनका सातवां और अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी उपन्यास कहा जा सकता है। तीन खंडों में समाप्त होने वाली कथा का यह पहला खंड है। इतिहास, विशेषकर ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास उनके लेखन का प्रस्थान बिंदु रहा है। इस उपन्यास में भी ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास का एक ऐसा प्रसंग है जिसको लेकर अंग्रेजी में ज्यादा लिखा नहीं गया है, जिसको नजरंदाज किया जाता रहा है। इसी कारण प्रकाशन के पहले से ही यह उपन्यास लगातार सुर्खियों में रहा है। अब इसका हिन्दी अनुवाद भी आ गया है.
सी ऑफ पॉपीज उपन्यास में नाम के अनुरूप कथा के दो संदर्भ हैं- अफीम और समुद्र। इस उपन्यास में उन्नीसवीं सदी के इतिहास के दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाया गया है- एक, नगदी फसल के रूप में बिहार और बंगाल में अफीम का बड़े पैमाने पर उत्पादन जिनको चीन के बाजारों में बेचकर ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मुनाफा कमा रहे थे और दूसरे मॉरीशस में अंग्रेजों के लिए गन्ने की खेती करने के लिए भारत से विस्थापित किसानों को गिरमिटिया बनाकर भेजा जाना। प्रसंगवश, वहां भेजे जानेवाले मजदूरों को गिरमिटिया इसलिए कहा जाता था क्योंकि भेजे जाने से पहले उन लोगों को धन देकर बदले में उनके साथ एग्रीमेंट साइन किया जाता था। वह धन उनके परिवार वालों को चला जाता। एग्रीमेंट को वे अपनी स्थानीय भाषा में गिरमिट कहा करते थे। इस तरह गिरमिट साइन करने वाले गिरमिटिया कहाए।
इससे पहले भी अनेक उपन्यासों में अमिताव घोष ने इतिहास के विशेष कालखंड और उससे जुड़ी कथा को उपन्यास का आधार बनाया है। इस संदर्भ में उनके उपन्यास द ग्लास पैलेस की चर्चा की जा सकती है। इसकी कथा के लिए उन्होंने १८८५ के बर्मा युद्ध से ठीक पहले का कालखंड चुना। उस युद्ध के पीछे ब्रिटिश उद्देश्य व्यावसायिक था। वह था चंदन के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना। सी ऑफ पॉपीज के संदर्भ में इस उपन्यास का स्मरण इसलिए हो आता है क्योंकि द ग्लास पैलेस की तरह ही सी ऑफ पॉपीज में इतिहास के एक विषेश कालखंड के संदर्भ में कथा कही गई है। उपन्यास की कहानी १८३८ में चीन के साथ हुए ऐतिहासिक अफीम युद्ध से ठीक पहले आरंभ होती है। इस युद्ध का उद्देश्य भी व्यावसायिक था- अफीम का अबाध व्यापार।
उपन्यास में अफीम की खेती से जुड़ी अनेक कथाओं के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि किस तरह ब्रिटिश औपनिवेशिक शिकंजे में भारतीय समाज आर्थिक रूप से जर्जर हो रहा था। उपन्यास में गाजीपुर के पास के एक गांव में रहने वाली दीठि(हिन्दी अनुवाद में उसका नाम दिति है जो सही नही कहा जा सकता, बंगला समाज में दीठी नाम बहुत सामान्य है) की कहानी है जिसके सारे खेत अंग्रेजी सरकार के कारकुनों ने अफीम की खेती के लिए पट्टे पर ले लिए हैं, जिसके कारण उसके घर की माली हालत बहुत बुरी हो चुकी है। उसका पति हुकुम सिंह गाजीपुर के सदर अफीम फैक्ट्री में काम करता है। वह अफीमखोर हो जाता है और मर जाता है।
इसी तरह उपन्यास में रशखाली का जमींदार नीलरतन हालदार की कहानी है जिसके खेतों में अफीम उपजाया जाता था। उसकी जमींदारी धोखे से एक अंग्रेज हड़प लेता है। नीलरतन हालदार का अंग्रेजों की कानून व्यवस्था में अगाध विश्वास था लेकिन अंग्रेज जज उसी के खिलाफ फैसला सुनाता है। इन दो कथाओं के माध्यम से लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि जमीन के पेशे से जुड़े हर तबके को उसकी पुश्तैनी जमीन से वंचित किया जा रहा था- कहीं जबरन तो कहीं धोखे से। उपन्यास की कथा में इन सबको या तो बंदी बनाकर या गिरमिटिया बनाकर मारीच द्वीप भेजे जाने के लिए जुटाया जा रहा है।
उपन्यास का नाम भले सी ऑफ पॉपीज है लेकिन इसमें न तो अफीम व्यापार का कोई सीधा संदर्भ आया है न ही उस अफीम युद्ध का जिसकी इस उपन्यास के संदर्भ में बार-बार चर्चा की गई है। ५१५ पृष्ठों का यह उपन्यास एक वृहत उपन्यास-त्रयी का पहला ही खंड है। हो सकता है आगे के खंडों की कथा में इसके संदर्भ आएं। उपन्यास के आरंभ में जरूर यह वर्णन आता है कि बनारस के बाद गंगा के दोनों ही किनारे अफीम के खेतों से पटे हुए थे। किसान अफीम को किस तरह तैयार करके गाजीपुर कर अफीम फैक्ट्री में भेजते और गाजीपुर की फैक्ट्री में किस प्रकार अफीम का परिशोधन किया जाता था, इसका उपन्यास में विस्तार से वर्णन आया है। अफीम का दवाओं के लिए किस तरह उपयोग किया जाता था-उपन्यास में इसके संदर्भ भी आते हैं। लेकिन इस उपन्यास की मूल कहानी यह नहीं है।
उपन्यास की मूल कथा इबीस नामक जहाज और उस पर सवार अलग-अलग यात्रियों की है। गिरमिटियों के साथ इस जहाज पर कई ऐसे यात्री भी थे जिनको दुर्भाग्य उस जहाज पर ले आया था। जहाज अंग्रेज व्यापारी बेंजामिन बर्नहम का था। बर्नहम साहब कलकत्ता में व्यापार करते थे और इस कहावत से अच्छी तरह वाकिफ थे कि कलकत्ते से दो ही चीजें ले जाने लायक होती हैं-अफीम और कुली। जबसे चीन के साथ अफीम के व्यापार में मुश्किल आने लगी तबसे वे मारीच द्वीप यानी मॉरीशस जहाज से कुली या गिरमिटिया भेजने के काम में लग गए। उपन्यास में यह संदर्भ भी आता है कि कुली भेजने के काम में मुनाफा कम होता था। बर्नहम साहब ने असली कमाई तो अफीम के व्यापार से ही की थी। यह संदर्भ भी आता है कि इबीस नामक वह विशाल जहाज पहले अफीम ढोने का काम करता था।
जहाज पर यात्रा करने वालों में एक अमेरिकी यात्री जाचारी रीड है, एक फ्रेंच अनाथ लड़की पॉलेट है जो अपने अंग्रेज अभिभावक बर्नहम साहब से छिपकर भाग रही है। उसी जहाज में नील हालदार भी है जिसे एक कैदी की तरह ले जाया जा रहा है। दीठि भी किसी और नाम से उस जहाज में यात्रा कर रही है। उसके पति के देहांत के बाद उसके परिवार वाले उसे सती बनाना चाह रहे थे लेकिन पति की चिता से उसे अछूत जाति का कलुआ बचाता है। दोनों विवाह कर लेते हैं। उस समय के समाज में यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी कि एक ठाकुर औरत किसी अछूत से शादी कर ले। जान बचाने के लिए वे दोनों भी उस जहाज में गिरमिटिया बनकर शामिल हो जाते हैं। इसके अलावा एक चीनी यात्री भी है जो अफीमखोर हो चुका है। चीनी अफीमखोर यात्री की कल्पना लेखक ने शायद इसलिए की है ताकि यह दिखाया जा सके कि किस तरह अफीम के व्यापार के कारण चीनी नागरिकों की दुर्दशा हो रही थी, क्यों चीन अफीम के व्यापार का विरोध कर रहा था।
जहाज में सवार होने के बाद वे सभी अपनी पिछली पहचानों को भूल जाते हैं और एक सामूहिक पहचान का हिस्सा हो जाते है- एक दूसरे के लिए वे जहाज भाई-जहाज बहन हो जाते हैं। उपन्यास का बड़ा हिस्सा जहाज यात्रा को लेकर ही है। अनजान द्वीप जाने वाले उन यात्रियों में किस तरह के संबंध विकसित होते हैं, किस तरह विपत्ति अलग-अलग राष्ट्रीयताओं और पहचानों को एक सूत्र में बांध देती है- उपन्यास में इसका बहुत अच्छी तरह वर्णन किया गया है।
लेखक ने इस उपन्यास में कालखंड विशेष के इतिहास, वहां की भाषा और मिथकों को प्रस्तुत करने की जीवंत शैली अपनाई है। यह शैली उनके पिछले उपन्यास द हंग्री टाइड से मिलती-जुलती है। मॉरीशस जैसे देशों में जाने वाले गिरमिटियों के साथ वहां जाने के बाद किस तरह के अत्याचार किए गए इसको लेकर काफी लिखा गया है। लेकिन इस तरफ इतिहासकारों-उपन्यासकारों की नजर कम ही गई है कि आखिर वे क्या हालात थे कि पूरबिया लोगों को अपनी जमीन, अपना घर छोड़कर कुली बनकर विदेश जाना पड़ा। लेखक ने इस उपन्यास में दिखाया है कि वे सारे किसान थे जो अफीम की खेती के कारण बर्बाद हो रहे थे और उन खेतिहरों के सामने खेत-मजदूर बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था।
केवल कथा ही नहीं भाषा के स्तर पर भी इस उपन्यास का विशेष महत्व है। कथा के स्तर पर तो यह उपन्यास अलग-अलग विभिन्न धरातलों का स्पर्श करता ही है उस परिवेश को जीवंत बनाने के लिए लेखक ने अलग-अलग भाषाओं का भी एक कोलाज तैयार किया है। उपन्यास भले अंग्रेजी भाषा का है पर हिन्दी के पाठकों के लिए यह उपन्यास विषेश महत्व का हो जाता है क्योंकि इसमें हिन्दी भाषा का बहुतायत में प्रयोग किया गया है। हिन्दी के अलावा सी ऑफ पॉपीज में बांग्ला और लश्करी(जिस भाषा में जहाज के लश्कर बात करते थे) भाषा का भी जमकर प्रयोग किया गया है। लेकिन यह उपन्यास याद किया जाएगा भोजपुरी भाषा के प्रयोगों के कारण।
गिरमिटिया बनकर मॉरीशस जाने वाले ज्यादातर लोग भोजपुरी भाषी थे इसलिए आद्यंत उपन्यास में भोजपुरी भाषा का प्रयोग किया गया है। हालांकि जिस तरह की भोजपुरी का इसमें प्रयोग दिखाई देता है वह किताबी भाषा अधिक प्रतीत होती है। लेखक ने पुस्तक के अंत में जॉर्ज ग्रियर्सन की भोजपुरी व्याकरण संबंधी पुस्तक का हवाला दिया है। कई जगह सही संदर्भ में भोजपुरी का प्रयोग नहीं हो पाया है। उदाहरण के लिए मैं क्या कहूं के संदर्भ में का कहतबा का प्रयोग जबकि का कहीं होना चाहिए, इसी तरह आगे के बात कल होई की जगह आगे के बात कल होइले का प्रयोग। इस तरह के छोटे-छोटे प्रयोग उपन्यास का मजा किरकिरा कर देते हैं। लेकिन यह भी सचाई है कि यह उपन्यास अंग्रेजी के पाठकों के लिए है इसलिए लगता है लेखक ने भोजपुरी भाषा के बारे में गहराई से शोध करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। महाकाव्यात्मक प्रकृति के इस उपन्यास में इस तरह की कमी खटकती है।
भोजपुरी लोकगीतों का उपन्यास में अच्छा उपयोग किया गया है, जैसे, आग मोर लागलबा, अरे सगरो बदनिया, टस-मस चोली करे बढ़ेला जोबनवा या सखिया हो, सैंया मोरे पीसे मसाला, सखिया हो, बड़ा मीठा लागे मसाला। अपने पिछले उपन्यास द हंग्री टाइड में भी अमिताव घोष ने बांग्ला भाषा का बहुत सुंदर उपयोग किया है। सी ऑफ पॉपीज हिन्दी और भोजपुरी मिश्रित अंग्रेजी भाषा के लिए भी याद किया जाएगा। लेखक ने ऐसा कथानक चुना है जिससे भोजपुरी और हिन्दी भाषी लोगों की संवेदनाएं भी जुड़ी रही हैं।
उपन्यास में जहाज यात्रा पूरी करके मारीच द्वीप नहीं पहुंच पाता है। बीच समुद्र में ही तूफान के कारण जहाज ठहर जाता है। कहा जा सकता है कि कहानी बीच में ही ठहर जाती है। लेकिन आगे के खंडों की कथा के लिए रोचकता बरकरार रखने में लेखक सफल रहा है। भोजपुरी समाज के विस्थापन की ऐसी कथा अभी तक हिन्दी में भी नहीं लिखी गई है। इस अर्थ में सी ऑफ पॉपीज बहुत प्रासंगिक है। इस दृष्टि से देखें तो इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद माकूल कहा जाएगा.
प्रभात रंजन 
 
      

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4 comments

  1. आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी के बाद इसे पढ़ने का मन है।

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