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सच को सपने की तरह लिखने वाला लेखक

 महान लेखक मार्खेज़ के जीवन और लेखन पर मेरा यह लेख ‘अहा ज़िंदगी’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था- प्रभात रंजन 
बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली लेखकों में माने जाने वाले लेखक गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ ने अपने बारे में लिखा है कि मेरा आरंभिक जीवन कठिन लेकिन जादुई था लेकिन बाद का जीवन सार्वजनिक और रहस्यमयी। वास्तव में इसी कठिन लेकिन जादुई आरंभिक जीवन में मार्केज़ के उस लेखन के सूत्र छिपे हुए हैं जिसने उनके सार्वजनिक जीवन को शानदार बनाया और रहस्यमयी भी। 6 मार्च 1927 को कोलंबिया के एक लगभग गुमनाम से कस्बे अराकाटक में अपने नाना के घर पैदा हुए मार्केज़ ने बचपन के करीब नौ साल वहीं गुज़ारे। लुई सांतियागा और गाब्रिएल एलिजियो की संतानों में वे सबसे बड़े थे। अराकटक के उस उन्मुक्त जीवन के अक्सों को जब उन्होंने साहित्य में ढालना शुरु किया तो आलोचकों ने उसे जादुई यथार्थवाद की संज्ञा दी- ऐसा यथार्थ जो सपने की तरह लगता हो। अराकाटक में बिताए गए बचपन के उन दिनों ने लेखक के रूप में गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ को गहरे प्रभावित किया। बरसों बाद अपने दोस्त प्लीनियो मेंदोज़ा के साथ बातचीत की पुस्तक फ्रेगरेंस ऑफ ग्वावा में उन्होंने बचपन के उस कस्बे को याद किया है। अराकाटक उस दौर में केले के बागानों के लिए जाना जाता था जिसकी खेती के लिए वहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां आती थीं।
अराकाटक शहर तथा उसके उस घर का उनके जीवन और लेखन में महत्व तब और समझ में आता है जब हम उनकी आत्मकथा लिविंग टु टेल द टेल  पढ़ते हैं। उसमें उन्होंने विस्तार से अपने नाना के उस घर और उससे जुड़ी स्मृतियों की चर्चा की है। उन्होंने लिखा है- मेरे भीतर सबसे स्पष्ट और निरंतर स्मृति लोगों की नहीं उस मकान की है जिसके अंदर अराकाटक में मैं अपने नाना-नानी तथा बाकी अन्य रिश्तेदारों के साथ रहता था। वह घर मेरे अंदर लगातार आते किसी सपने की तरह है जिसे मैं अभी भी देखता हूं। अपने जीवन में जब भी मैं जगता हूं मुझे अनुभूति होती है कि मैं सपने में उस घर के अंदर था, चाहे वह सच न हो लेकिन अपने इस सपने में मेरा इतना विश्वास रहा है कि मैं रोज उस सपने के साथ ही जागता रहा हूं। जबकि सच यह है कि मैं उस घर में एक बार को छोड़कर कभी वापस नहीं गया, उम्र के किसी भी दौर में, किसी भी कारण से, लेकिन मैं अपने को वहीं पाता हूं। जैसे मैंने वह घर कभी भी नहीं छोड़ा हो।
मार्केज़ को वह घर अक्सर याद आता था जिसके बगीचे में उमस भरी रातों में चमेली की तेज मह-मह गंध टंगी रहती थी और जिसके अनगिनत कमरों में जब-तब मृत रिश्तेदारों के गाने की आवाज़ें आया करती थीं। जब घर के ऊपर रात उतरती- लिली और चमेली की भरपूर खुशबू और झींगुरों की टर्ररर्र… से गाढ़ी हो चुकी उष्णकटिबंधीय रात- पांच साल के गाब्रिएल की नानी उसे कुर्सी पर चिपकाए रखतीं- घर भर में टहल रहे मृतकों की कहानियां सुना कर। आंट पेत्रा थीं, अंकल लाजारो थे और आंट मार्गारिता थीं- ख़ूबसूरत मार्गारिता मारकेज़ जिनकी मृत्यु कम आयु में हो गई थी पर जिनकी स्मृति परिवार की दो पीढ़ियों के भीतर सुलगती रही थी। अगर तुम हिले, नन्हे बच्चे से नानी कहा करतीं, अपने कमरे से आंट पेत्रा बाहर निकल आएंगी या शायद अंकल लाजारो। ये सभी पात्र अपनी तमाम स्थानीयताओं के साथ उनकी कहानियों-उपन्यासों में आवाजाही करते दिखाई देते हैं।
उनके बचपन के महानायक थे नाना निकोलस मार्केज़। उनके जीवन और उनकी रचनाओं में भी नाना की उपस्थिति एक मिथक पुरुष की तरह है या उस वीर पुरुष की तरह जिसे शहर में सब गर्व और सम्मान के साथ देखते थे, सब जिसकी वीरता और मर्दानगी की चर्चा किया करते थे। जब मार्केज़ उनकी उंगली पकड़कर शहर में निकलते और शहर के लोग हजार दिनों की लड़ाई के उस नायक का अभिवादन करते तो बालक मार्केज़ भी अपने आपको  महत्वपूर्ण समझने लगते थे। कर्नल निकोलस मार्केज़ ने कोलंबिया के इतिहास के सबसे रक्तरंजित युद्धों में से एक एक हजार दिनों के युद्ध में भाग लिया था। हालांकि जिन उदारवादियों की तरफ से वे लड़े थे वे उस लड़ाई में हार गए थे लेकिन उस युद्ध के दौरान निकोलस ने जो वीरता दिखलाई थी उसको लेकर उस तटीय इलाके में अनेक किस्से प्रचलित हुए। उनका वास्तविक जीवन उतना खुशहाल नहीं था लेकिन इसकी शिकन उन्होंने कभी अपने चेहरे पर नहीं आने दी।
बूढे कर्नल अपने नाती का बहुत ध्यान रखते थे। वे उसके सारे प्रश्न ध्यान से सुनते और उनके जवाब इस तरह से देते कि बच्चे की जिज्ञासा शांत हो सके। जब उनके जवाब से बालक मार्केज़ संतुष्ट नहीं हो पाता तो वे कहते, चलो देखें, शब्दकोश क्या कहता है? (तब से गाब्रिएल ने उस धूलभरी पुस्तक का आदर करना सीखा, क्योंकि उसके अंदर सारे प्रश्नों के उत्तर होते थे)। विश्वकोश और शब्दकोश देखने की आदत उनकी आज तक नहीं गई। जब शहर में सर्कस आता, वे बच्चे का हाथ पकड़कर उसे सर्कस के अलग-अलग कलाकारों और कूबड़ वाले ऊंटों के बारे में बताया करते, वे बताते कि किस तरह सर्कस में इन सबको इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाता है ताकि वे लोगों का मनोरंजन कर सकें। इसी तरह पहली बार बर्फ देखने वे अपने नाना के साथ ही गए थे जिस दृश्य के स्मरण से वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड उपन्यास आरंभ होता है। नाना के साथ ही पहली बार मार्केज़ ने सिनेमा भी देखा था। याद नहीं कि वह फिल्म कौन सी थी लेकिन उसकी छवियां उनके अंदर बहुत बाद तक कौंधती रहीं।
कहने का मतलब है नाना के संग-साथ ने मार्केज़ को नौ साल तक की उम्र तक ही बाहरी दुनिया का ऐसा ज्ञान करवाया जो ताउम्र उनके साथ रहा।  कहा जा सकता है कि किताबी दुनिया में घुसने से पहले मार्केज़ को नाना ने हर उस चीज का व्यावहारिक ज्ञान करवाने का प्रयास किया था जिनके बारे में जानने को बच्चे उत्सुक रहते हैं। बाद में मार्केज़ की किताबी शिक्षा के लिए इस ज्ञान ने ठोस आधार का काम किया। नाना मार्केज़ के लिए पिता की तरह थे क्योंकि उनको अपने पिता के साथ रहने का अवसर नहीं मिल पाया था। बचपन में मार्केज़ को लगता था उनके पिता नहीं हैं। पिता की कमी को उनके नाना ही पूरा करते थे। उन्होंने एक पिता की तरह ही अपने नाती को पाला। वे कभी अपने पिता के उतने करीब नहीं हो पाए जितना कि अपने नाना के करीब थे।
1967 में वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के प्रकाशन और उसकी अप्रत्याशित सफलता के बाद स्पेनिश भाषा के एक अन्य उपन्यासकार मारियो वर्गास ल्योसा ने उनसे एक बातचीत के दौरान पूछा था कि उनके बचपन को प्रभावित करनेवाला सबसे प्रमुख व्यक्ति कौन था, वह व्यक्ति कौन था जिसकी उनको अब भी याद आती हो, तो मार्केज़ ने जवाब दिया, मेरे नाना। वास्तव में नाना और उनके किस्से मार्केज़ की प्रेरणा के सबसे बड़े स्त्रोत रहे। वे उनकी रचनाओं में कभी कर्नल बुएंदियो तो कभी किसी और रूप में आते रहे, उनके किस्से आते रहे, उनकी छवियां आती रहीं। महानायक की छवि, बड़े-बड़े सपने देखनेवाले, पुरुषोचित वीरता, पेंशन की प्रतीक्षा करते बूढ़े, परस्त्रीगामी मर्द, अपनी आन की रक्षा में तत्पर नायक, अवैध संतानें- मार्केज़ की कुछ ऐसी कथानक रुढ़ियां हैं जिनके केंद्र में कहीं न कहीं उनके नाना कर्नल निकोलस मार्केज़ की छवि रही।
बाहर नाना की सार्वजनिक दुनिया थी तो घर में उनकी नानी दोन्या त्रांकीलीना का दबदबा था जिनको घर के लोग प्यार से मीना बुलाया करते। मार्केज़ ने अगर बाहरी दुनिया के रहस्य अपने नाना से जाने तो नानी से उन्होंने वे किस्से सुने, अविश्वसनीय सी लगनेवाली घटनाओं से वाकिफ हुए जिसे तर्काधारित आधुनिक संसार में बकवास कहा जा सकता है लेकिन उनकी नानी उनमें विश्वास करती थीं। अपने एक इंटरव्यू में मार्केज़ ने उनके बारे में कहा है कि वह अलौकिक चीज़ों के बारे में इस तरह बातें किया करती थीं मानो वे रोज़मर्रा की घटनाएं हों। दृढ़ इच्छाशक्ति और गहरी नीली आंखों वाली इस छोटे कद की औरत के लिए जीवितों और मृतकों के बीच किसी भी तरह की कोई विभाजन रेखा नहीं थी, जैसे-जैसे वह बूढ़ी और अंधी होती गई, यह रेखा और भी धुंधली पड़ती  गई। यहां तक कि अपने जीवन के अंतिम काल तक आते-आते उन्हें मृतकों से बतियाते और उनकी आहों, आंसुओं और शिकायतों को सुनते सुना जा सकता था।
ऐसा नहीं है कि नानी की याद उनको केवल उनके सुनाए किस्सों के कारण ही है। मार्केज़ ने उनको उदार और मजबूत स्त्री के रूप में याद किया है। मार्केज़ ने अपने नाना के परस्त्रीगमन के बारे में लिखा है। वे बहुत सालों तक गृहयुद्ध में लड़ते रहे। इस दौरान अनेक स्त्रियों से उनके संबंध बने। इन संबंधों के कारण अलग-अलग नौ संतानें भी हुईं। उनके मरने के बाद भी अगर उनकी नानी को किसी के बारे में यह पता चलता कि वह उनके पति की विवाहेतर संबंध से पैदा हुई संतान है तो वे उसे अपने घर ले आतीं और सबसे कहती थीं कि आखिर यह भी तो अपना ही खून है। खुद भले अभावों में रहती हों लेकिन वैसी संतानों को अच्छी तरह से खिला-पिलाकर ही विदा करती थीं। इस तरह की बातों के लिए उनके मन में अपने पति के प्रति किसी प्रकार का मैल नहीं रहता था।
जब घर के हालात बिगड़े तो उन्होंने अपने हुनर से गृहस्थी की गाड़ी चलाने में मदद की। उनके नाना के पास कुछ जमीन थी जो उन्होंने किसानों को जोतने के लिए दे रखी थी। उस कड़े वक्त में भी उन्होंने किसानों से जमीन खाली करवाने से इंकार कर दिया। नियमित आमदनी का घर में कोई स्त्रोत नहीं बचा। घर की इज्जत बचाने के लिए उनको अराकाटक का अपना घर गिरवी रखना पड़ा। उस घर को जिसने उनके जीवन को इस शहर में प्रतिष्ठापूर्ण बनाया था। लेकिन क्या करें हालात ही कुछ ऐसे हो चले थे। जब कुछ भी नहीं बचा तो नानी मीना ने घर के अंदर बेकरी चलाना शुरु कर दिया। उनकी बनाई हुई टॉफियां-चाकलेट शहर भर में बिकती थीं। घर के पिछवाड़े में उन्होंने सब्जी उगानी शुरु कर दी, मुर्गियां और बत्तख पालने शुरु कर दिए। जिनके अंडे बेचने से घर में रोजाना के खर्च के पैसे आने लगे। सब्जियां भी शहर के घरों में बिकने जाने लगीं।
बहरहाल, नाना-नानी के व्यक्तित्व का यह द्वंन्द्व बाद में उनकी रचनाओं में भी दिखाई देने लगा। मजेदार बात यह है कि मैं अपने नाना की तरह का बनना चाहता था- यथार्थवादी, बहादुर और बेखौफ- लेकिन नानी की रहस्यमयी दुनिया का आकर्षण मुझे उनकी ओर भी ले जाता था, उनके अलौकिक किस्सों का आकर्षण ही कुछ ऐसा था’, मार्केज़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है। मार्केज़ की जो जादुई यथार्थवाद की शैली है उसमें यथार्थ और कल्पना का यही द्वंद्व दिखाई देता है। ऐसा यथार्थवाद पारंपरिक विश्वासों को जिससे अलग नहीं समझा जाता- वे उनके नाना-नानी के दो भिन्न संसारों की छवियों की तरह हैं। यह द्वंद्व अलग-अलग रूपों में उनकी अनेक रचनाओं में दिखाई देता है। तर्क और विश्वास का यही द्वन्द्व उनकी रचनाओं की प्राणशक्ति है और उनके लेखन शैली की सबसे बड़ी विशेषता भी। नाना की छवि और नानी की किस्सागोई लेखक मार्केज़ के साथ हमेशा बने रहे।
मार्केज़ अपने घर में नाना के अलावा दूसरे पुरुष थे। इसलिए उनका बचपन लाड़-प्यार से ही सराबोर ही नहीं था बल्कि उनको लेकर परिवार में हर कोई तरह-तरह के सपने बुनता था। नाती को दीवारों पर चित्र बनाते देखकर नाना ने कहा गाबितो चित्रकार बनेगा। लेकिन मार्केज़ ने उसको लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखाया क्योंकि पेंटर का मतलब उन्होंने समझा दरवाजे की रंगाई करनेवाला जिसमें उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि करीब चार साल की उम्र में जो लोग उनको जानते थे वे उनको याद करते तो कहते वह तरह-तरह की कहानियां बनाता था। उनकी सुनाई ज्यादातर कहानियां रोजमर्रा की घटनाओं को लेकर होती थीं। वह उनको इस तरह सुनाते कि कहानियां लगने लगतीं। अक्सर वे बड़े-बुजुर्गों की कही हुई बातों को ही अपने अंदाज में सुना दिया करते। वह भी नए ढंग से। इस तरह से कहानियां सुनाते देखकर अतीन्द्रिय शक्तियों में जबर्दस्त आस्था रखनेवाली उनकी नानी इस नतीजे पर पहुंची कि हो न हो यह लड़का बाद में भविष्यवक्ता निकले।
पिता आर्थिक मजबूरियों के कारण अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए थे। इसलिए वे चाहते थे कि उनका बेटा खूब अच्छी तरह पढ़े। वे मार्केज़ की कहानियां सुनाने की आदत से परेशान रहते थे और उनको लगता था कि नाना के घर में रहकर उनका लड़का झूठ बोलना सीख गया है। बहरहाल, मार्केज़ की शिक्षा-दीक्षा आरंभ हुई लेकिन शुरु-शुरु में उन्होंने स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में खास रुचि नहीं दिखाई। उन दिनों जिस पहली पुस्तक में उनकी दिलचस्पी पैदा हुई वह द थाउजेंड एंड वन नाइट्स का स्पेनिश अनुवाद था जिसकी फटी-चिटी प्रति उनको अपने घर में मिल गई। बहरहाल, उस किताब को डूबकर पढ़ते देख उस दिन उसके घर के एक सदस्य ने कहा था- अरे! यह लड़का तो एक दिन लेखक बननेवाला है। इस तरह करीब छह साल की उम्र में पढ़ने को लेकर वे पहली बार गंभीर हुए उसके बाद किस्से-कहानियां सुनने-सुनाने के अलावा उनको पढ़ने में भी उनका मन खूब रमने लगा। किताबों की रहस्यमयी दुनिया उनको आकर्षित करने लगी।
घर के हालात अच्छे नहीं रह गए थे लेकिन मार्केज़ के माता-पिता मुतमइन थे कि किसी भी कीमत पर उनकी पढ़ाई जारी रहनी चाहिए। इसका एक कारण यह भी था कि स्कूल में उनके बारे में सब कहने लगे थे लड़का पढ़ने में अच्छा है। इसलिए परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए भी उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। घर के खर्चे को चलाने के लिए तकरीबन दस साल की उम्र से ही मार्केज़ को भी कुछ न कुछ काम करना पड़ा। इसमें बचपन का चित्रकारी का अभ्यास काम आया। नए शहर में दुकानों के साईनबोर्ड लिखने का काम करने लगे। इस काम के बदले उनको उन दिनों पाँच पेसो मिलते थे। यही नहीं अनेक दुकानदार ग्राहकों के लिए उनसे अच्छे अक्षरों में इस तरह के संदेश भी लिखवाते- अगर आपको कोई सामान दिखाई न दे रहा हो तो पूछिए या जो व्यक्ति उधार देता है उसे अपने पैसे के लिए भागना पड़ता है। एक बार उन्होंने स्थानीय बस पर उसका निशान पेंट किया जिसके एवज में उनको पचीस पेसो मिले, जो उस समय उनके लिए बड़ी कमाई थी। कम उम्र में ही उनको कमाई के नए-नए स्त्रोत तलाशने पड़ते थे। एक बार उन्होंने रेडियो द्वारा आयोजित की गई गायन की एक प्रतियोगिता में केवल इसलिए हिस्सा लिया क्योंकि उसमें जीतनेवाले को इनामस्वरूप पाँच पेसो मिलनेवाले थे। उस प्रतियोगिता में उन्होंने गाना गाया और दूसरे स्थान पर रहे। लेकिन उनको इस बात की कोई खास खुशी नहीं हुई। अफसोस जरूर इस बात का रहा कि प्रथम न आ पाने के कारण इनाम की राशि से हाथ धोना पड़ा और समय भी गंवाना पड़ा। जिसमें पेंट करके वे कुछ पैसे तो कमा सकते थे।
इस तरह के कामों में जब उनका समय काफी बीतने लगा तो उनके पिता को लगा कहीं यह न हो कि बेटे की पढ़ाई ही छूट जाए इसलिए करीब बारह साल की उम्र से ही उनको पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया गया। घर की भरी-पूरी दुनिया से निकलकर वे हॉस्टल की चहल-पहल भरी दुनिया में आकर रहने लगे। जब वे 16 साल के हुए तो उनकी माँ ने ज़िद ठान ली कि उनका बेटा राजधानी बोगोटा के अच्छे कॉलेज में पढ़ने जाएगा। पास में पैसे तो नहीं थे लेकिन उत्साह था। वह चमकते सूर्य के इलाके से बादलों से घिरे ऐसे उदास शहर में आया था जहां कोई उसका इंतजार नहीं कर रहा था। वह पहली बार किसी महानगर में आया था। शुरु-शुरु में वह उन स्थानों को याद करके रोया करता था जिनको बहुत पीछे छोड़ आया था। अकेलेपन और उदासी का यह एक नया तजुर्बा था।
अकेलेपन को दूर करने के लिए व्यवस्थित रूप से यहीं उन्होंने साहित्य की पढ़ाई की। यहीं उन्होंने प्राचीन स्पेनिश-कोलंबियाई साहित्य का अध्ययन किया। इसी दौरान उन्होंने फ्रॉयड का अध्ययन किया और फ्रेडरिक एंगेल्स के लेखन में उनकी दिलचस्पी जगी। उन्हीं दिनों उनकी दिलचस्पी स्पेनिश कविता में जगी और वे निकारागुआई कवि रुबेन डोरियो, पाब्लो नेरुदा, लोर्का जैसे कवियों के प्रभाव में कविताएं लिखने लगे। उन दिनों उन्होंने अनेक प्रेमियों के कहने पर उनकी तरफ से उनकी प्रेमिकाओं के लिए कविताएं भी लिखीं। इस संबंध में एक रोचक प्रसंग यह है कि एक बार किसी प्रेमी ने उनकी कविता अपनी प्रेमिका को भेजी। कुछ दिनों बाद उस लड़की ने वही कविता उनको यह कहते हुए सुनाई कि उसके प्रेमी ने उसके लिए कितनी अच्छी कविता लिखी है। उन दिनों मार्केज़ ने अनेक प्रेम कविताएं लिखीं। हालांकि बाद में बड़े लेखक बनने के बाद मार्केज़ उनको अपनी कविता मानने से इंकार करते रहे। उनकी कविता उस समय कोलंबिया के बड़े अखबारों में से एक एल तिएंपो के साहित्यिक परिशिष्ट में प्रकाशित हुई। यह अलग बात है कि उनकी पहली प्रकाशित रचना छद्म नाम से लिखी गई थी- जेवियर गार्सेस के नाम से। स्कूल में अपनी पढ़ाई से न सही लेखन के कारण उनकी एक विशिष्ट पहचान बनी और कहीं न कहीं इसी दौरान उनके अंदर यह सपना भी पलने लगा कि आगे कैरियर लेखक के रूप में ही बनाना है। 
पिता चाहते थे कि या तो उनका बेटा डॉक्टर बने या पादरी और सबसे तो अच्छा यह हो कि वकील बने। उस समय कोलंबिया में वकालत से अच्छा कोई पेशा नहीं माना जाता था। कारण यह था कि उस दौर में वहां जितने भी बड़े नेता थे वे सब वकील थे। उनके पिता ही नहीं माँ को भी यह लगता था कि बेटे के वकील बन जाने से उनकी भी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी जिसे उनके पिता अथक संघर्ष के बावजूद हासिल नहीं कर पाए थे। लेकिन मार्केज़ तो लेखक बनना चाहते थे। उन्होंने जब अपने फैसले के बारे में पिता को बताया तो उन्होंने मार्केज़ से कहा था कि अगर लेखक बनोगे तो कागज़ खाकर गुजारा करना पड़ेगा। बात सच भी थी क्योंकि तब कोलंबिया में लेखन के बदले मानदेय तक देने का चलन नहीं था। ऐसे में अगर कोई पढ़-लिखकर कहे कि वह लेखक बनना चाहता है तो उस समय के माहौल में इससे बड़ा आत्मघाती फैसला कोई और नहीं हो सकता था। खैर, मार्केज़ की माँ ने बीच का रास्ता निकाला और उनसे कहा कि अपने पिता का मन रख लेने के लिए वकालत की पढ़ाई भी उनको कर लेनी चाहिए और लेखक वकालत की पढ़ाई पूरी करके भी की जा सकती है। उन्होंने अपने माता-पिता का मन रखने के वकालत में दाखिला ले लिया।
हालांकि पहले दिन से ही उनका मन वकालत की पढ़ाई में नहीं लगा। उन्होंने कक्षाओं से गोल होना शुरु कर दिया। उनके उस दौर के एक मित्र ने याद किया है कि उस समय वे साहित्य के जैसे नशे में रहते थे। हमेशा लेखकों के बारे में बातें करते रहते- डॉस पैसो, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, विलियम फॉकनर, हर्मन हेस्स, टॉमस मान और फ्योदोर दॉस्तोव्यस्की जैसे रूसी लेखकों के। उनमें कम ही कोलंबियाई या लैटिन अमेरिकी लेखक होते थे। वे शहर के बाज़ारों में जाकर कैफे में बैठते और वहीं अपने प्रिय लेखकों को पढ़ने में समय बिताते। हॉस्टल के एक कमरे में तब इतने लड़के रहते थे कि वहां लिखने-पढ़ने की जगह बिल्कुल नहीं रहती थी। ऐसे में विश्वविद्यालय के विद्यार्थी शहर के कैफे को अपने पढ़ने का अड्डा बनाते। कैफे के मालिकान भी उनको बैठने की जगह वैसे ही दे दिया करते जैसे वे अपने बाकी ग्राहकों को दिया करते थे। इस तरह फटेहाली में भी उनकी पढ़ाई बड़े स्टाइल से चलती रही।
वकालत की पढ़ाई से विमुख होकर कैफे में बैठकर पढ़ने और कविताएं लिखने के उस दौर में ही एक दिन उनके साथ रहने वाले एक लड़के ने उनको काफ्का की पुस्तक मेटामॉर्फोसिस की प्रति लाकर पढ़ने के लिए दी। मार्केज़ ने उस लेखक का नाम तो नहीं सुना था मगर उसके अनुवादक होर्खे लुई बोर्खेज की रचनाओं से वे अच्छी तरह परिचित थे। कायांतरण( मेटामॉर्फोसिस) की उस कहानी ने उनका रूपांतरण कर दिया- कवि का गद्यकार के रूप में। जैसे ही उन्होंने पहली लाइन पढ़ी- एक सुबह जब ग्रेगरी साम्सा असहज सपने से जगा तो उसने पाया कि अपने बिस्तर पर वह एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका है। पढ़कर वह इतना चमत्कृत हुए कि अपने आपसे कह उठे, ओह! इसी तरह तो मेरी नानी बात किया करती थीं। उस दिन उनको साहित्य को लेकर यह बात समझ में आई कि उसे इस तरह भी लिखा जा सकता है कि वह अविश्वसनीय लगे तथा उतना ही जीवन से जुड़ा भी। बाद में मार्केज़ ने लिखा है कि काफ्का ने उनकी कल्पनात्मक संभावनाओं का विस्तार कर दिया। बाद में एक लेखक के तौर पर इसके कारण यह समझ और विश्वास विकसित हुए कि कल्पना सरीखी लगने वाली घटनाओं का भी इस तरह से वर्णन किया जा सकता है मानो वे दैनंदिन की घटनाएं हों- जादुई यथार्थवाद के रूप में जिस शैली को बाद में आलोचकों ने पहचाना।
उन्होंने कहानियां लिखने की शुरुआत की। उनकी पहली ही कहानी थर्ड रेजिग्नेशन जो कोलंबिया के सबसे मशहूर अखबार एल स्पेक्तादोर में प्रकाशित हुई। वकालत की पढ़ाई की दिशा में कोई खास प्रगति तो नहीं हुई लेकिन उनकी कुछ और कहानियां उसी अखबार के साहित्यिक परिशिष्ट में छपी। एल स्पेक्तादोर के साहित्यिक स्तंभकार ने तो इन आरंभिक कहानियों के आधार पर ही यह घोषणा भी कर दी कि गाब्रिएल गार्सिया मार्केज़ के रूप में साहित्य की दुनिया में एक सितारे का आगमन हो चुका है। इस सबका प्रभाव उनके ऊपर यह पड़ा कि उन्होंने वकालत से विमुख होकर साहित्य के बारे में सोचना शुरु कर दिया। आखिरकार 21 साल की उम्र में उन्होंने वकालत की पढ़ाई से पीछा छुड़ाया और पूरी तरह से मसिजीवी हो गए। कार्ताजेना नामक कस्बे के एक छोटे से अखबार एल युनिवर्सल में न के बराबर मिलने वाली तनख्वाह की बदौलत।
पत्रकारिता का यह दौर उनके जीवन में लंबा चला। पत्रकारिता के दौरान उनके लिखने की शैली इस तरह की थी कि उसने उनको पाठकों के बीच हमेशा उनको लोकप्रिय बनाए रखा। वे एक लिख्खाड़ पत्रकार साबित हुए और पाठकों की रुचि-अरुचि का आकलन कर लेते थे। किस वक्त किस विषय पर कलम चलाया जाए जिससे पाठक उसमें रुचि लेंगे इस बात की उनको गहरी समझ थी। करीब 6 साल तक उन्होंने अनेक छोटे-बड़े कस्बाई अखबारों में काम किया जो लेखक के तौर पर तो उनके लिए तोषप्रद रहा लेकिन आर्थिक तौर पर वे ठन-ठन गोपाल ही बने रहे। 1954 में करीब 27 साल की उम्र में उनको पत्रकारिता की दुनिया में पहला बड़ा ब्रेक मिला। उनको राजधानी बोगोटा के मशहूर अखबार एल स्पेक्तादोर में काम करने का अवसर मिला। पहली बार एक बड़े व्यावसायिक अखबार से जुड़ने के बाद पत्रकारिता के प्रति उनका मिशन भाव प्रोफेशन भाव में बदल गया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने जीवन के उस पहले बड़े अवसर का उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। एल स्पेक्तादोर ने पहले उनको गद्य-लेखक के रूप में पहचान दी थी अब उससे जुड़कर पत्रकार के रूप में उनकी राष्ट्रीय पहचान बनी। अखबार से जुड़ने के पहले सप्ताह में ही उन्होंने एक ऐसा लेख लिखा जिस तरह के लेख आम तौर पर पत्रकार नहीं लिखा करते थे। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ हाल में ही विधवा हुई थीं। मार्केस ने एक लेख लिखा द क्वीन अलोन जो उनके संभावित अकेलेपन को लेकर था। इस लेख की सराहना हुई और धीरे-धीरे मार्केज़ ने कला-संस्कृति से जुड़े विषयों पर लिखने की जगह उस अखबार में बनाई। उन्होंने नियमित तौर पर सिने समीक्षा लिखने की शुरुआत की। कोलंबियाई पत्रकारिता में ऐसा पहली बार ही हो रहा था। अपने लेखों में वे पटकथा, संवाद, निर्देशन, छायांकन, ध्वनि, कटिंग, संगीत आदि सिनेमा के तकनीकी पहलुओं

 
      

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7 comments

  1. sach ke sapne….bahut badhiya lagi post…abhi yahi pad payi bahut lambi post thi par kuch bhi anavashak nahi lga…

  2. Beautiful fictionary wonder.
    Truth is a Dream.
    Man is becoming.
    Woman is a Dream.

    Very 'Rare' is Aware Everywhere.

  3. bahut sundar prastuti,

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