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केदारनाथ अग्रवाल की नज़र में कवि पन्त

२०११ जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशताब्दी का साल है. इस अवसर पर हम समय-समय पर उनकी रचनाएँ देते रहेंगे. प्रस्तुत है उनका यह लेख जो उन्होंने कवि सुमित्रानन्दन पन्त पर लिखा है. पन्त की कविता-व्यक्तित्व का दिलचस्प पाठ- जानकी पुल.
प्रभात में, पन्त के पल्लव(पात) देखते ही, साहित्य सृजकों ने सुयश की वर्षा प्रारम्भ कर दी. अपनी ख्याति से अधिक पन्त ने ख्याति पाई. अपने सम्मान से अधिक पन्त ने सम्मान पाया. अपने श्रेय से अधिक पन्त ने श्रेय पाया. पन्त होनहार थे, उन्होंने सुयश से लाभ उठाया था. कविता के साथ-साथ उन्होंने अपनी काया भी बनायी. सर पर केशों का भार रखकर वह सुनहले बने. पहाड़ी परुषता त्यागकर वह दोआब की कोमलता और मृदुलता लेकर चले. नर में नारी को यथाशक्ति प्रकट करके बढे. साहित्य में जैसे एक अवतार हुआ. हिंदी के साहित्यिक उस अवतार को मानने लगे. पन्त की प्रसिद्धि में पन्त की कविता और काया दोनों ने योग दिया, यह प्रत्यक्ष है, सत्य है और अमिट है.
मैंने पन्त को देखा है, परखा है- एक बार नहीं, अनेक बार. मैंने ऐसा अनुभव किया है जैसे मैं रूप ही रूप देख रहा हूँ, किसी पुरुष को नहीं. निराला को देखकर यह भाव नहीं हुआ. तब तो सर्वांग पुरुष सामने दृष्टिगोचर हुआ था. पन्त की विचित्रता इसी में है कि उन्होंने कवि के पुरुष को पूरा ओझल कर दिया है ताकि वह साहित्य-क्षेत्र में प्रकट पुनः रीतिकालीन कवि बनकर, नायक-नायिका भेड़ में डूबने-उतराने का साहस न करे. पन्त के पुजारी इसे पन्त की साधना कहते हैं. पन्त के आलोचक इसे पन्त का पतन कहते हैं.
पन्त जनसमुदाय में बैठकर गुमसुम रहते हैं. सब बोलते हैं किन्तु वह मौन रहते हैं. अकेले में, एकाध मित्रों के साथ, चाहे पन्त जैसे रहते हों, मैं नहीं कह सकता. जनसमुदाय के पन्त भद्र से भी अधिक भद्र, शिष्ट से भी अधिक शिष्ट और सभ्य से भी अधिक सभ्य हैं. कोई उनसे अप्रसन्न नहीं हो सकता. जो बोलता है उससे मंद-मृदु स्वर में बोल देते हैं. असहमत होने पर भी विषय के पक्ष-विपक्ष में दृढता नहीं दिखाते, केवल मत प्रकट कर देते हैं. प्रत्यंचा चढ़ाकर तीर मारना, घायल करना और आमने-सामने का मोहरा लेना पन्त ने जाना ही नहीं. वह सबके मेल को विरोध से खंडित नहीं करते. मेल रखकर सबके प्रिय बने रहते हैं. कविता भी उनकी सबको प्यारी लगती है. निराला और पन्त में बड़ा अन्तर है.
पन्त ने जीविकोपार्जन नहीं किया, केवल कव्योपार्जन किया है. ड्राइंग-रूम के वातावरण में  पले-पोसे हैं, साफ़-सुथरे रहे हैं, अर्थोपार्जन से दूर रहे हैं, श्रमिक नहीं, स्वप्नद्रष्टा रहे हैं; भूले रहे हैं और खोये रहे हैं. पन्त ने दुनिया देखी है, ह्रदय में दुनिया को नहीं आने दिया. एकमात्र देखकर, बौद्धिक रूप में, पन्त ने उसे व्यक्त कर दिया है. अनुभूति से भर नहीं दिया. पन्त काव्य का प्रयोजन जानते थे इसी से काव्य के प्रयोजन में सफल होते रहे; संसार का प्रयोजन नहीं जानते, इसी से उसमें प्रवेश नहीं पा सके. संसार में प्रवेश न करने के कारण ही पन्त की कविताओं में जीवन की नसों का तनाव नहीं मिलता. संगीत से साधा स्वर मिलता है किन्तु जीवन का बोल नहीं फूटता. ‘युगवाणी’ पन्त के विचार-अध्ययन की देन है. ‘ग्राम्या’ पन्त के तटस्थ ग्राम-दर्शन की अनुभूतिहीन कृति है. पन्त का नहीं यह पन्त के जीवन-संस्कृति का दोष है. पन्त क्लर्की करते और तब कविता करते, तब निस्संदेह पन्त से पीड़ित-शोषित मनुष्य की सच्ची कविता निकलती. अभी तक पन्त ने कविता लिखी है, जीवन नहीं लिखा. कविता से जूझे हैं, जीवन से नहीं जूझे. कोशों में बंद शब्दों को पन्त ने खोजा है, दड़बों में बंद आदमियों को नहीं. उन्होंने जीवन के अलंकारों को नहीं प्राप्त किया, काव्य के अलंकारों से अपनी कविता को सजा-बजा दिया है. एक बार किसी ने कहा था कि यदि वह हिन्दी का सूत्रधार होता तो पन्त को पहले दुनिया की पढ़ाई पढ़ने के लिए कई साल के लिए काव्य-क्षेत्र से दूर भेज देता है और फिर जीवन देखे पन्त से कविता लिखवाता. सच है, मैं इस कथन से पूर्ण सहमत हूँ. वह पन्त कागज़ की कविताओं का पन्त नहीं होता, जीवन की दौड़ती खून की धारा का कवि होता, प्रगतिशील पन्त होता, प्रोपगंडा का पन्त न होता. निराला तड़प उठते हैं, पन्त तडपते नहीं. निराला चौड़ी, देर तक ठहरने वाली सांस की कविता लिखते हैं, पन्त सांस के साथ उड़ जानेवाली लघु-लघु.
पन्त ने भावी पत्नी पर कविता लिखी थी किन्तु वह भावी पत्नी तब छापे के अक्षरों को छोड़कर सशरीर प्रत्यक्ष नहीं हो सकी. पन्त ने उसी की आशा में अब तक किसी सुन्दरी से संसार में नाता जोड़ा. यह सुना मैंने अवश्य है कि पन्त के केश भार को कंधे और अँगुलियों से कुछ युवतियों ने उलझाया- सुलझाया है किन्तु किसी ने पन्त के हृदय को भी संवारा है, यह कहना संभव नहीं है. पन्त कुछ वर्ष पूर्व देखने में कुमार(bachelor) प्रतीत होते थे, उम्र कम थी, ताजगी थी, शरीर में चमक थी. अब आयु अधिक हो गई है, केश-भार शिथिल हो गया है, तन की द्युति-चमक लोप हो गई है, काया में गृहस्थी की सी स्थूलता आ गई है. अब अब पन्त को कुमार कहने में संकोच करना पड़ेगा. वह अपनी कविताओं में ‘अम्बियों से उरोज को भी प्रकट करने लगे हैं. जो सुमित्रानंदन भाभी के चरण तक नहीं देखते थे, वही अब उरोज तक पहुँचते हैं. संकोच मिट गया है, दृष्टि नारी तक जाती है. हां, उसमें नारी का स्पर्श-पुलक अभी शायद नहीं फूला.
चाय के प्रेमी हैं. गरम सांस भरती, उच्छ्वास छोड़ती, प्याले की चाय को पन्त बारम्बार चूमते हैं. एक बार नहीं, दिन में सौ-सौ बार. तृप्त हो जाते हैं. पन्त पतली चाय का संग-साथ कभी नहीं छोड़ते.
पन्त के स्वर में कर्म की क्षीणता, नुपूरों की ध्वनि की संकोच भरी गुंजार और अवगुंठन को खलने के बाद नामित-नयन की वाणी दोनों का नपा-तुला समन्वय है. पन्त का कंठ केशों की सुनहरी छाया में फूटा था और इसी से उसमें कोमलता और मृदुलता है.
बया से साभार
 
      

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8 comments

  1. केदार जी की बेबाक नज़र को सलाम !

  2. पन्त को जितना पढ़ा और जिस उम्र में पढ़ा वे मन को छूते हैं … हाँ , टीस नहीं पैदा हुई या होती है पर एक आनादि सौन्दर्य में आस्था अवश्य पैदा होती है . निराला दर्द को कुरेदकर बाहर निकालते हैं ; एक आह्लाद देता है तो दूसरा प्रत्यंचा चढ़ाकर धूप से लड़ता नज़र आता है . सुन्दर लेख !

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