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मार्केज़ जीवन-प्रसंग: पत्रकारिता से सीखे लेखन के गुर

मार्केज़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वास्तव में पत्रकारिता और उपन्यास एक माँ की ही संतानें हैं। अपनी एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि केवल एक तथ्य पत्रकारिता को संदिग्ध बना देता है जबकि कहानी-उपन्यास में अगर कोई एक तथ्य सही हो जाए तो वह पूरी कृति को वैधता प्रदान कर देता है। साहित्य के अलावा पत्रकारिता उनका दूसरा बड़ा आकर्षण रहा है। साहित्य और पत्रकारिता के रिश्ते के संबंध में एक बातचीत में उन्होंने डेनियल डेफो के उपन्यास द जर्नल ऑफ द प्लेग इयर का हवाला दिया। इस उपन्यास में प्लेग का वर्णन इतना विश्वसनीय है कि लगता ही नहीं है कि लेखक को उसका प्रत्यक्ष अनुभव न हुआ हो। उसको पढ़ने के बहुत दिनों बाद तक मार्केज़ को यही लगता रहा कि लंदन में आए प्लेग का लेखक ने पुस्तक में आंखों देखा वर्णन किया है। बाद में उनको पता चला कि जब लंदन में प्लेग आया था तो उस समय डेफो की उम्र सात साल से भी कम थी। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रकारिता सी तथ्यपरकता उपन्यास या कहानी को पाठकों की नजर में विश्वसनीस बना देती है।
साहित्यिक संस्कार तो उनके अंदर स्वाभाविक तौर पर आए मगर पत्रकारिता से जुड़ाव संयोगवश हुआ। कोलंबिया की राजधानी बोगोटा में अशांति फैलने के बाद कार्ताजेना नामक कस्बे में कर लॉ में नाम लिखाकर मार्केज़ ने नए शहर में नए सिरे से अपने आपको जमाना शुरु कर दिया। वे फिर अपने पुराने रंग में लौटने लगे थे। लॉज में रहना वहां के लड़कों के साथ सप्ताहांत की रातों को रात-रात भर कैरेबियाई धुनों पर नाचना। ऐसी एक रात उनकी मुलाकात अपने एक पुराने मित्र मैनुअल जपाटा से हुई। वह वहां रहकर लोगों का खैराती अस्पताल बना हुआ था। वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता था, कैरेबियाई संगीत का प्रचारक था और किसी की भी सहायता के लिए तत्पर रहनेवाले नौजवान के रूप में जाना जाता था। दोनों मिले बिछड़े शहर बोगोटा के बारे में बातें करते रहे। फिर मैनुअल ने मार्केज़ को सुझाव दिया कि तुम पत्रकारिता में अपना भाग्य क्यों नहीं आजमाते हो।
एक महीने पहले वहां एक उदारवादी नेता ने एल युनिवर्सल नामक अखबार का प्रकाशन शुरु किया था। उसके संपादक का नाम था क्लीमें मैनुअल जबाला जिनकी संगीत के विशेषज्ञ तथा साम्यवादी के रूप में ख्याति थी। उनके मित्र जपाटा ने बताया कि वे नए लोगों को ढूंढ रहे थे। उसने बताया कि वे एक ऐसे संपादक हैं जो चाहते हैं कि पत्रकारिता को सूचना-संग्राहक भर नहीं होना चाहिए। उस समय पत्रकारिता के नाम पर कोलंबिया के सबसे पिछड़े समझे जानेवाले शहरों में से एक कार्ताजेना में इसी तरह की पत्रकारिता का जोर था। उनको सुनकर अच्छा लगा कि कोई पत्रकारिता की हदों को चुनौती देनेवाला संपादक उनके अपने ही शहर में है। मैनुअल जपाटा की बातों को उन्होंने ध्यान से सुना लेकिन आरंभ में उन्होंने अपने दोस्त की बात में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। 

कारण उन्होंने अपनी आत्मकथा में बताया है कि उस समय तक उनके अंदर लेखक बनने का संकल्प और दृढ़ हो चुका था। उनको पत्रकारिता करना अपने इस संकल्प से विचलन लगता था। वे तो बड़े-बड़े लेखकों जैसा लिखकर उनके जैसा ही लेखक बनने का ख्वाब देखते थे। बोगोटा में रहते हुए उनकी तीन कहानियां छप चुकी थीं। आलोचकों, मित्रों से पर्याप्त सराहना भी मिल चुकी थी। लेखक के रूप में प्रसिद्धि की मंजिल करीब दिखाई दे रही थी। ऐसे में पत्रकारिता उनको अपने लक्ष्य से भटकाव लग रहा था। लेकिन उनके दोस्त ने बहुत समझाया। पहली बार उसी ने बताया कि साहित्य और पत्रकारिता में ज्यादा अंतर नहीं होता है। दोनों का संबंध लिखने से ही होता है। फिर पत्रकारिता करने से लिखने का अभ्यास भी बना रहता है।
उसकी सलाह के बाद जब उन्होंने सोचा तो एल युनिवर्सल से जुड़ने पर उनको तीन परिणाम साफ तौर पर दिखाई देने लगे- इससे जीवन थोड़ा सम्मानजनक हो जाता, एक ऐसे पेशे से जुड़ाव हो जाता जिसको अपने आपमें सम्मानित समझा जाता था, सबसे बढ़कर क्लीमें जबाला के साथ काम करने का मौका मिलता जो उनके हिसाब से अपने समय में बेहतरीन पत्रकारों में थे। यह सोचकर उनको थोड़ी झिझक भी हो रही थी कि इतना बड़े पत्रकार से काम किस तरह मांगें। उनके दोस्त ने उसी समय संपादक से बात की और अगले दिन की मुलाकात तय कर दी। मार्केज़ ने लिखा है कि उनकी वह रात बेचैनी में कटी। अगले दिन तैयार होकर उन्होंने मकान मालकिन से एल युनिवर्सल जाने का रास्ता पूछा और अखबार की पुरानी औपनिवेशिक इमारत में तय समय पर पहुंच गए।
वे अंदर ऑफिस में भी गए, उन्होंने जबाला को वहां कागजों के अंबार के पीछे काम करते हुए भी देखा। लेकिन अपनी झेंप के कारण वे संपादक से बिना मिले ही लौट आए। कमरे में आकर सिगरेट पीते हुए आंद्रे जीद की किताब काउंटरफिटर्स पढ़ने लगे। करीब पांच बजे उनका मित्र आकर उनके ऊपर चिल्लाने लगा कि तुमने इतने बड़े संपादक के बेशकीमती समय का ध्यान नहीं रखा। वे तय समय पर तुम्हारा इंतजार करते रहे और तुम नहीं पहुंचे। जानते हो, देश में वे किसी को इंतज़ार करवाने की छूट नहीं देते। आखिरकार, जब वे अपने मित्र के साथ उससे मिलने पहुंचे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब संपादक जबाला ने उनको ‘एल स्पेक्टादोर’ में उनकी छपी कहानियों से याद किया। यही नहीं उसने उसी अखबार में छपी उस प्रसिद्ध आलोचक की टिप्पणी भी पढ़ रखी थी जिसने उनको भविष्य के महत्वपूर्ण लेखक के रूप में देखा था।
जैसे ही संपादक ने उनकी कहानियों की चर्चा की तो मौका देखकर उनके दोस्त मैनुअल ने प्रसंग छेड़ा। उसने कहा कि युनिवर्सिटी से खाली समय में यह अखबार के लिए काम कर सकता है। आश्चर्य की बात थी कि संपादक ने भी कहा कि मैंने भी यही सोचा था जब इसको मिलने का समय दिया था। उसी समय उसने मार्केज़ की मुलाकात अखबार के मालिक से यह कहते हुए करवा दी कि यह वह संभावित लेखक है जिसके बारे में आपसे मैंने बात की थी। उसने भी मुस्कुराते हुए मार्केज़ का स्वागत किया। संपादक ने नौकरी वगैरह या लिखने के संबंध में आगे कोई बात नहीं की। बस चलते समय अगले दिन आ जाने के लिए कहा। कहा कि वह उनकी मुलाकात मशहूर कवि, चित्रकार और एल युनिवर्सल के स्टार लेखक हेक्टर रोजस हेरेजा से करवाएंगे। जो बाद में कोलंबिया के प्रसिद्ध कवि-चित्रकार बने तथा उस समय जिनकी उम्र महज 27 साल थी। 

उस काम को लेकर वे कुछ खास उत्साहित नहीं थे लेकिन अगले दिन तय समय पर वे अखबार के ऑफिस पहुंचे तो इसका भी कोई खास कारण था। सुबह-सुबह उनका रूममेट उनके पास एल युनिवर्सल अखबार लेकर आया। उसका संपादकीय पृष्ठ खुला हुआ था। आश्चर्य की बात थी कि उस पर मार्केज़ के बारे में लिखा हुआ था। लिखा था कि एक प्रसिद्ध लेखक हमारे शहर में आया हुआ है और उनक लेखन की तारीफ में कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं। उनको सुखद आश्चर्य इस बात का हुआ कि लिखने वाला और कोई नहीं उनके आदरणीय संपादक जबाला थे। मार्केज़ ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उस दिन के बाद उनके अंदर कुछ हमेशा के लिए बदल गया। शायद अपने लेखन को लेकर उसके बाद से ही उन्होंने गंभीरता से सोचना शुरु कर दिया। उससे पहले वे लोगों से अलग दिखने के लिए लेखन करते थे, उसके पीछे कोई गंभीर सोच नहीं दिखाई देती थी। उनमें कलात्मक चमक तो थी मगर विषयवस्तु साधारण होता था। इसीलिए उस दौर के लेखन को बाद में उन्होंने एक तरह से नकार दिया।
बहरहाल, ‘एल युनिवर्सल से उनका रिश्ता बतौर लेखक कायम हो गया। उनसे संपादक ने कुछ अनुभवपरक लिखने को कहा। ऐसा कुछ जो अनौपचारिक तो हो मगर उसमें समाज के किसी पहलू को लेकर टिप्पणी भी हो। मार्केज़ ने कार्ताजेना शहर में आने और पहली रात को हुए अनुभवों को आधार बनाकर कुछ लिखा कि किस तरह वह रात उनको खानाबदोशों की तरह गुजारनी पड़ी थी, किस तरह पुलिस ने उनको पकड़ लिया था। जब उसको लेकर वे संपादक के पास गए तो संपादक उस लेख को पढ़ा और उसे मार्केज़ को वापस करते हुए कहा, इसमें कोई संदेह नहीं कि यह लेख सुंदर साहित्य का नमूना है लेकिन अखबार में इसे छापना संभव नहीं है। नहीं छापने के संपादक ने दो कारण बताए। एक तो यह कि यह बहुत निजी है इसीलिए मैंने इसे साहित्यिक कहा और दूसरे इसको लिखते समय तुम यह बात लगता है भूल गए कि हम सेंसरशिप के दौर में पत्रकारिता कर रहे हैं। 
इससे पहले मार्केज़ ने केवल कहानियां ही नहीं लिखी थी। जब वे जिपाकीरा के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते थे तो उन्होंने तरह-तरह की चीजें लिखीं, कभी कोई राष्ट्रीय उदघोषणा,  मेस में मिलने वाले खाने को लेकर विरोधपत्र आदि-आदि। इसके बावजूद कि उनके पास अपनी माँ द्वारा वापस भेजे हुए असंख्य पत्र थे जिनकी भाषा उन्होंने ठीक करके भेजी थी वे अपने स्कूल में लेखक के रूप में जाने जाते थे। किसी को कुछ भी लिखवाना हो तो उनके पास ही आता। लेकिन अखबार में लिखना कितना चुनौतीपूर्ण होता है इसका अंदाजा उनको वह लेख लिखकर हुआ। संपादक की मेज पर एक लाल पेंसिल हुआ करती थी जिसका उपयोग वह लेख को संपादित करने के लिए करता था। उसने मार्केज़ के उस पहले अखबारी लेख में भी बड़ी बेरहमी से लाल पेंसिल चलाई। बाद में वह लेख छपा भी लेकिन उसमें इतना कुछ बदलाव हो चुका था कि वह उनको अपना लेख ही नहीं लग रहा था।
उससे पहले पत्रकारिता को लेकर मार्केज़ की धारणा अच्छी नहीं थी। वे यह मानते थे कि अखबारी लेखन निम्नकोटि का लेखन होता है। लेकिन एल युनिवर्सल की टीम से जुड़ने के बाद उनकी यह धारणा बदलने लगी। अखबार में जल्दी ही उनका दैनिक स्तंभ शुरु कर दिया गया और वे जमकर लिखने लगे। उनको पहली खुशी यह हुई कि लेखन के माध्यम से वे अपना खर्च चला सकने की हालत में आ गए। उन्होंने अपने माता-पिता को इसके बाद एक पत्र लिखा जिसमें उनको सूचित किया कि अब वह अपनी पढ़ाई का खर्च खुद वहन करने में सक्षम हो गए हैं। जिसमें यह अंतर्निहित था कि अब वे उस पढ़ाई को छोड़ने के लिए स्वतंत्र थे जो उनके ऊपर थोपी गई थी। उस दिन उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया कि अगर वकालत उन्होंने पास भी कर ली तो कभी उस पेशे को अपनाएंगे नहीं। अखबार में बतौर लेखक काम शुरु करने के बाद उनकी अंतरात्मा को बड़ी शांति मिली। 
 मार्केज़ ने अखबार में नियमित लिखना शुरु किया। उनके कॉलम का नाम था न्यू पैराग्राफ। उस कॉलम में उन्होंने नियमित रूप से देश के राजनीतिक-सांस्कृतिक हालात पर लिखना शुरु किया। उन्होंने विविध स्तरों का जीवन जिया था, पेंटिंग से लेकर संगीत, लेखन तक अनेक तरह के काम किए थे। 21 साल की उम्र में जीवन के विविध अनुभवों का फायदा उनको पत्रकारिता में हुआ। उन्होंने बड़े दार्शनिक ढंग से देश के राजनीतिक हालात को लेकर लेख लिखे। किसी क्षेत्र के संगीत के बारे में कुछ लिख दिया, सिनेमा पर लिख दिया। कहने का मतलब उनका कॉलम मुक्त-प्रकृति का था। अनेक तरह के विषयों पर लिखते हुए उन्होंने बराबर इस बात का ध्यान आरंभ से ही रखा कि विषय को इस तरह से प्रस्तुत किया जाए कि पाठकों का उससे जुड़ाव हो। उनका कॉलम उस दौर में पढ़ा जाने लगा।
मार्केज़ ने उस दौर को याद करते हुए अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सेंसरशिप के उस काल में पत्रकारिता की शुरुआत करना अपने आपमें रचनात्मक चुनौती थी। किस तरह से अवाम के दिल की बात अखबार में लिखी जाए, किस तरह ऐसे लिखा जाए कि सरकारी नीतियों की उनमें आलोचना भी हो जाए और सेंसरशिप से बचाव भी हो जाए। इस चुनौती का सामना उन्होंने बखूबी किया। लक्षणात्मक भाषा में लिखने में वे इतने माहिर हो गए कि कुछ दिनों बाद संपादक ने उनको संपादन पृष्ठ को पूरी तरह से संचालित करने की जिम्मेदारी सौंप दी। वही संपादकीय लिखते, उस पृष्ठ पर छपनेवाली सामग्री का निर्धारण करते और ध्यान रखते। और हाँ! सेंसरशिप का भी।
उन दिनों कोलंबिया में पुलिस अत्याचार बहुत बढ़ गया था। कर्फ्यू के कारण पुलिस को असाधारण अधिकार मिले हुए थे। उन्हीं दिनों पास के ही शहर कारमेन द बोलीवार में पुलिस ने शांतिपूर्ण किए जा रहे एक प्रदर्शन के प्रति बर्बरता बरती। उन दिनों सेंसर के कारण इस प्रकार की खबरें जनता तक पहुंच नहीं पाती थीं। मार्केज़ को लगा इस बात को अवाम तक पहुंचाना चाहिए। इस तरह से कि सेंसरशिप से वह बच भी जाए। उन्होंने पहला लेख बिना बाइलाइन के लिखा जिसमें मांग की कि सरकार को आक्रमणों की जांच करवानी चाहिए तथा जो भी व्यक्ति इसके लिए जिम्मेदार हों उनको दंडित भी करना चाहिए। यह नहीं लिखा कि किनके आक्रमण की वे बात कर रहे हैं- जनता या पुलिस के। लेख इस प्रश्न के साथ समाप्त हुआ- कारमेन द बोलीवार में क्या हुआ? लेकिन वास्तव में क्या हुआ था इसकी कोई चर्चा नहीं की गई।
उसके बाद रोज-रोज संपादकीय पृष्ठ पर यह प्रश्न पूछा जाने लगा सेंसरशिप कानूनों को छकाते हुए। जिससे सरकार कुछ जागरुक हो और जनता के बीच यह बात भी जाए कि कारमेन द बोलीवार में क्या हुआ था? अखबार की ओर से इस सवाल ने एक तरह से आंदोलन का रूप ले लिया। सरकार ने पहले तो उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया। उनको लगा होगा कि अखबार अपने आप कुछ दिनों बाद शांत हो जाएगा। लेकिन धीरे-धीरे शहर में इस बात को लेकर चर्चा होने लगी कि आखिर कार्ताजेना में क्या हुआ था? अखबार की लोकप्रियता भी बढ़ रही थी और यह सवाल भी लोगों को परेशान करने लगा था। उनकी पत्रकारिता का आरंभ ही संकट के दौर में हुआ जिसने उनको लेखक के रूप में चतुर बनाया। किसी स्थानीय प्रसंग को सार्वजनिक संदर्भों से जोड़ना सिखाया। 

 
      

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5 comments

  1. aapka blog bahut achcha hai, aap aise hi niymit rahiye….

    shukriya

  2. जादुई यथार्थ के प्रणेता के विषय में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद. पत्रकारिता और साहित्यिक लेखन के सम्बन्ध में मार्खेज़ के विचारों से परिचय पहली बार आपके माध्यम से हो रहा है.
    एक बार पुनः धन्यवाद.

  3. बहुत बढ़िया है प्रभात जी। नियमित रूप से पढ़ रहा हूं। काफी कुछ सीखने भी मिल रहा है। धन्यवाद। इतनी अच्छी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए। -ravi buley

  4. बहुत सुंदर।

  1. Pingback: Papaya punch fryd

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