सैयद ज़मीर हसन दिल्ली के जेहनो-जुबान के सच्चे शायर हैं. उनकी शायरी में केवल दिल्ली की रवायती जुबान का रंग ही नहीं है, वह अहसास भी है जिसने दिल्ली को एक कॉस्मोपोलिटन नगर बनाए रखा है. उसके बिखरते जाने का दर्द भी है और उस दर्द से उपजी फकीराना मस्ती. दिल्ली कॉलेज में ४० साल पढाने वाले ज़मीर साहेब ने बहुत सुन्दर कहानियाँ भी लिखी हैं जिनसे ज़ल्दी ही आपका परिचय करवाएंगे. फिलहाल उनकी दो गज़लें- जानकी पुल.
१.
इश्क जिन्होंके ध्यान पड़ा वो पहले तो इतराए बहुत,
बूर के लड्डू खानेवाले पीछे फिर पछताए बहुत.
बस्ती-बस्ती करिया-करिया छानी ख़ाक ज़माने भर की,
आदमजाद कहीं ना पाए इंसानों के साये बहुत.
हिज्र की लंबी रात को हमने वादे के आधार पे काटा,
पिछले पहर तक रास्ता देखा भोर भई घबड़ाये बहुत.
लू के थपेड़े खाते-खाते किश्ते-तमन्ना सूख गया,
पानी की इक बूँद न बरसी बादल घिर-घिर आए बहुत.
झूठे आए सच्चा रोये दिल की बात कही ना जाए,
हम बैठे बस इक टुक देखें गैर तुम्हें परचाये बहुत.
कैसे-कैसे शोख तकाजे दिल दीवाना करता है,
रात के बाद इलाही तौबा सुनकर वो शर्माए बहुत.
बिरहा के मारे आशिक की अग्निपरीक्षा हाय गज़ब,
जेठ की गर्मी तो सह लेगा सावन आग लगाये बहुत.
दिल्ली उजड़ के बस न सकी फिर कद्रें सब नापैद हुईं,
दुनिया के कोने-कोने से लोग बसाने आए बहुत.
अगले वजादारों में बस अब ले-दे के ‘ज़मीर’ बचे हैं,
आगे इनकी बातें सुनते अब तो वे सठियाये बहुत.
२.
मुल्ला पंडित संत सयाने सब हमको समझाने आए,
सीधी सच्ची राह दिखाने अलबत्ता दीवाने आए.
फिरा किया मैं धूप में दिन की बहके-बहके क़दमों से,
शाम हुई दो घूँट पिए तो पीकर होश ठिकाने आए.
लाख छुपाने पर भी फैली इश्क की खुशबू मुश्क की मानिंद,
हमने तो कुछ भेद न खोला कानों तक अफ़साने आए.
जग में सूने-सूनेपन का अँधियारा जब फ़ैल गया,
तुम ना जाने किस नगरी से आशादीप जलाने आए.
राम के भक्त रहीम के दुश्मन ये कैसी अचरज की बात,
मंदिर-मस्जिद को पाखंडी लेकर स्वांग रचाने आए.
दश्ते-वहशतनाक से हमदम कल जो घर ले आए थे,
आज वही अहबाब हमें फिर जंगल तक पहुंचाने आए.
इश्क की मीठी आग में जलकर बुलबुल ने दम तोड़ दिया,
फूलों की बगिया में कैसी भंवरे आग लगाने आए.
दिल्ली में दिल्लीवालों की बोली का फुकदान हुआ,
जमना तट के मोती चुनने अहले-ज़बान हरियाने आए.
बात विकट असलूब निराला पुरखों का मद्दाह ‘ज़मीर’
किसके कल्ले में है ताकत तुझसे जीभ लड़ाने आए.
बहुत अच्छी गजल.खासकर 'सीधी सच्ची रह दिखाने अलबत्ता दिबने आये'.
वाह…प्रभात भाई…मज़ा आ गया…
बहुत ही अच्छी गज़लें . परिचय कराने के लिए धन्यवाद .