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भुवनेश्वर की एक दुर्लभ कहानी ‘मास्टरनी’

भुवनेश्वर के जन्म-शताब्दी के साल में उनकी एक लगभग गुमनाम कहानी प्रस्तुत है. १९३८ में प्रकाशित इस कहानी को देखिये अपने समय की रचनाओं से कितनी अलग संवेदना की कहानी है- जानकी पुल.
मास्टरनी
उस रोज सुबह से पानी बरस रहा था. साँझ तक वह पहाड़ी बस्ती एक अपार और पीले धुंधलके में डूब सी गई थी. छिपे हुए सुनसान रास्ते, बदनुमा खेत, छोटे-छोटे एकरस मकान- सब उसी पीली धुंध के साथ मिलकर जैसे एकाकार हो गए थे.
औरत घरों के दरवाज़े बंद किये सूत सुलझा रही थीं. आदमी पास के एक गांव में गए थे. वहां मिशन का एक क्वार्टर था और एक भट्टी. वाकई, वहां बारिश की धीमी, एकरस और मुलायम छपाछप के कोई और आवाज़ नहीं आ रही थी.
चार बजने से कुछ ही मिनट पहले एक कॉटेज का दरवाज़ा खुला. यह कॉटेज मामूली मकानों से भी नीची और छोटी थी. उसके चरमराते हुए लकड़ी के जीने से पांच-छह लड़के-लड़कियां उतर, बूढ़े किसानों की तरह झुककर, अपने बस्तों से बारिश बचाते, चुपचाप घुमावदार रास्ते पर चलकर आँखों से ओझल हो गए. जब तक वह दिखलाई देते रहे, उनकी मास्टरनी तानी हुई चुपचाप खड़ी उसी ओर देखती रही. फिर वह दरवाज़े को मजबूती और अवज्ञा से बंद करके भीतर चली गई.
वह एक अधेड़ ईसाई औरत थी- कठिन और गंभीर. दो साल पहले ईसाईयों के इस गांव में आकर, एक हिन्दुस्तानी मिशनरी की मदद से उसने यह स्कूल खोला था. इन दो सालों में उसका चेहरा और भी लंबा, और भी पीला और स्वाभाव और भी चिड़चिड़ा हो गया था. गांव में रहते हुए भी वह गांव से जैसे अलग थी. स्त्रियां उससे डरती थीं मर्द उसको एक मर्दानी अवज्ञ से देखते थे.
आज के इतने नीले-नीले पहाड़ों और इस घने धुंध के सामने वह काँप सी उठी और दिन भर अपने दोनों हाथों को बगल में इधर-उधर फिराती रही.
इसके बाद बस्ती फिर सुनसान हो गई. सिर्फ एक बार मास्टरनी ने अपना द्वार खोलकर झाँका और फिर तुरंत ही बंद कर लिया.
करीब छह बजे जब धुंध का पीलापन पहाड़ों के साथ नीला हो रहा था, आखिरकार बस्ती में एक मानव दिखाई दिया. लंबा रोगी सा एक सोलह-सत्रह साल का लड़का. पुराना फौजी कोट पहने था. कालर के बाहर उसने अपनी मैली कमीज़ निकाल रखी थी. कीचड़ बचाने के लिए वह सड़क के इस तरफ से उस तरफ मेंढकों की तरह फुदक रहा था. लकड़ी के गहने हुए जीने पर आकर उसने संतोष की सांस ली और एक भीगे कुत्ते की तरह अपने आपको झाडकर जीने पर चढ़ गया.
‘लुसी बहन, बड़ा अँधेरा है.’ पास आते ही वह चिल्ला उठा था.
‘टू टू.’ मास्टरनी ने अपने हाथ छोड़कर कहा और और फिर धीरे-धीरे चलकर छत से टंगी हुई लालटेन जला दी. उस छोटे से गंदे और अँधेरे कमरे में रौशनी लालटेन से खून की तरह बहने लगी.
इस बीच टूटू बारिश और रास्ते पर भुनभुनाकर अपने बड़े और भारी कोट को टांगने की जगह खोज रहा था.
‘मैं कहता हूँ, तुम्हारे पास कोई कपडा है- कम्बल का टुकड़ा-उकड़ा. मैं जुटे साफ़ करूँगा.’
मास्टरनी ने चुपचाप झुककर उसके जूते साफ़ कर दिए. टूटू बराबर अपने जूतों की तरफ देखता हुआ ‘नहीं-नहीं’ कह रहा था.
मास्टरनी ने वैसे ही झुके-झुके पूछा, ‘घर पर सब अच्छे हैं.’  
मेरे पास तुम्हारे लिए सैकड़ों खत हैं, सिर्फ मुरली तुमसे खफा है. तुमने उसके मोज़े खूब बुने. वह जाड़े से नीली पड़ी जा रही है.
उसने अपनी बहिन को खत दे दिया और रौशनी के पास जाकर अपने भींगे बालों पर हाथ फेरने लगा. बीच-बीच में वह कुछ बुदबुदा उठता था. मास्टरनी पत्रों से सिर उठाकर उसकी तरफ देखती और फिर पढ़ने लग जाती थी.
अब उसने खत एक ओर रखकर इस सोलह साल के लंबे-चिकने युवक की तरफ देखना और उसके बारे में सोचना शुरू कर दिया. वह उसके बिक्कुल बचपन के बारे में सोचने लगी. जबकि उसके गरम मुलायम जिस्म को चिपटाकर वह एक पके हुए फल की तरह हो जाती थी.
‘तुम खत नहीं पढ़ रही हो’, उसने सहसा घूमकर कहा.
‘पढ़ लिया.’
उसका भाई खड़ा-खड़ा उसकी तरफ देखता रहा और फिर यह देखकर कि वह खत पढ़ चुकी है, बुदबुदा सा उठा, ‘मुरली के मोज़े. और मम्मी ने कहा है…’
मास्टरनी ने जैसे चाकू से काटा, ‘और पापा कैसे हैं.’
टूटू ने भांडों सा मुंह बनाकर कहा- ‘वैसे ही.’
पापा रोगी, परित्यक्त, उपेक्षित- उसे कभी भी न लिखते थे और इसीलिए उससे कुछ मांगते भी न थे.
‘तुम क्या करते हो.’
‘मैं-मैं रोज सवेरे-शाम पादरी तिवारी के साथ काम करता हूँ. मम्मी जान ले लें अगर मैं काम न करूँ. मुरली और मम्मी झमकती फिरती हैं.’
‘तुम मर्द हो’, उसकी बहिन ने जैसे स्वप्न में कहा और फिर वह वैसे ही टहलने लगी.
‘मैं दो साल में पादरी हो जाऊंगा’, टूटू ने कुछ गर्व और दिल्लगी से कहा.
कुछ देर वह दोनों चुप रहे. मास्टरनी ने एक संदूक पर बैठकर जल्दी-जल्दी बुनना शुरू कर दिया. बीच-बीच में एक अजीब और कड़वी मुस्कान उसके पीले और दागदार होंठों पर छा जाती थी.
टूटू एन उसी वक्त अपने चारों ओर के गंदे कमरे की टूटी कुर्सियों और मैले तकिये की ओर देखकर बार-बार सहम जाता था.
‘यह क्या. मुरली की स्टोकिंग है.’
‘देखते नहीं हो’, और मास्टरनी भौंक सी उठीं.
जबसे वह यहाँ आया था, टूटू का मन भीगते हुए कम्बल की तरह हर मिनट भारी होता जा रहा था. वह अपनी बहिन, अपने घर के बारे में इस तरह सोच रहा था जैसे वह दूरबीन से नए नक्षत्र देख रहा हो.
किसी के पैरों का जीने पर शोर हुआ. दो छोटी-छोटी लड़कियां हाथ पकडे हुए अंदर आइन. वह गबरून की ऊंचे-ऊंचे फ्राकें पहने थीं और उनके चेहरों पर किसानों की सी झुलस थी.
उनमें से बड़ी लड़की ने खाट पर एक मैली तामचीनी की प्लेट रख दी. उस पर एक लाल रुमाल पड़ा था. फिर अपनी छोटी बहन का हाथ पकड़कर वह खड़ी हो गई.
‘तुम क्या प्लेट चाहती हो?’
दोनों लड़कियों ने एकसाथ सिर हिलाकर कहा, ‘हाँ.’
उसने उठकर उसमें से चार अंडे और अधपके टमाटर और एक सस्ता पीतल का बूच निकाल लिया.
‘अपने बाप से कहना कि टीचर ने कहा है- हाँ’ और उसने खड़े होकर फिर दोनों हाथ बगलों में भींच लिए.
लड़कियां चुपचाप जैसे आई थीं वैसे ही चली गईं.
टूटू उनको बराबर एक विचित्र दिलचस्पी से देखता रहा. उनके जाने पर वह खिडकी की तरफ मुंह करके बोला, ‘तुम चाय नहीं पीती, लुसी बहिन.’
मास्टरनी एकाएक बीच कमरे में खड़ी हो गई.
‘सुनो, यह पांच रुपये हैं, और यह मुरली का स्टोकिंग और यह मम्मी का सिंगारदान. और कहना कि कोई मुझसे और कुछ न मांगे. सब मर जाएँ, गिरजे में जा पड़ें.’
पागलों की तरह दो छोटे-छोटे और सिकुड़े हाथों से रुपये, स्टोकिंग और सिंगारदान का अभिनय कर रही थी और बोल ऐसे रही थी जैसे उसका सारा खून जम रहा हो.
टूटू ने बड़ी पीड़ा से कहा, ‘लुसी बहिन.’
‘मेरे पास कुछ नहीं है- कुछ नहीं है. तुम मेरा घर झाड़ लो.’ और उसने खिडकी धमाके से बंद कर दी.
मास्टरनी अपने पलंग पर जाकर बैठ गई. उसके दोनों हाथ उसकी पत्तियों को जकड़े थे. आज सारी जिंदगी के छोटे-बड़े घाव अचानक चसक उठे थे. कुछ सोचने की ताब उसमें न थी.
बाहर से किसी ने भराई हुई आवाज़ में कहा, ‘टीचर मैं आ सकता हूँ.’
टूटू उस तरफ बढ़ा. पर घृणा से दौड़ते हुए मास्टरनी ने दरवाजा आधा खोल, बाहर जा बंद कर लिया. टूटू ने उसकी झलक ही देखी थी. वह एक बुझे हुए चेहरे का अधेड़ किसान था- ऐसे जैसे संडे को गिरजों में टोपियां उतारकर भीख मांगते हैं.
एक मिनट में मास्टरनी लौट आई. उसका चेहरा पहले से भी सख्त था. उसने टूटू को देखकर उधर से मुंह फेर लिया और अपने आप बुदबुदाकर कहा:
‘मैं ही क्यों… तुमसे मुझे कोई सरोकार नहीं- तुम लोगों से मैं पूछती हूँ…’
और वह हथेलियों को बगलों में भींचकर और तेजी से टहलने लगी.
‘मैं जैसे ज़िंदा दफन हो गई हूँ. पर मुझे कब्र की शांति दे दो.’ वह वाकई हाथ फैलाकर शांति मांग ताहि थी.
टूटू गुमसुम बैठा हुआ रौशनी को घूर रहा था. सहसा उसने टूटू का हाथ पकड़ लिया.
‘जाओ, सोओ.’
टूटू ने आज्ञा का पालन किया.
मास्टरनी वैसे ही टहल रही थी. फिर चूर होकर उसी चारपाई पर गिर पड़ी.
टूटू आखिर चुप हो रहा. कमरे में सन्नाटा छा गया था.
केवल दूर-दूर पर रात के पोर वो पहरेदारों… के विचित्र स्वर चारों तरफ पहाड़ों से टकराकर इस कमरे में गिर-गिर पड़ते थे.  
 
      

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7 comments

  1. दिलचस्प कहानी है। अपनी संवेदना में कहानी बिलकुल भी प्रेमचन्द के काल की नहीं मालूम होती।
    आपका ब्लौग अच्छा है, कई दिलचस्प चीज़े आप छापते रहते हैं।

  2. वाह अदभुत बात
    आपका बुकमार्क कर लेता हूं
    सादर

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