अभिशप्त होकर जीनेवाले और विक्षिप्त होकर मरनेवाले लेखक भुवनेश्वर की यह जन्मशताब्दी का साल है. ‘ताम्बे के कीड़े’ जैसे एकांकी और ‘भेडिये’ जैसी कहानी के इस लेखक के बारे में उसे पढ़नेवालों का कहना है कि हिंदी में एक तरह से उस आधुनिक संवेदना का विकास भुवनेश्वर की रचनाओं से ही हुआ जिसका ५०-६० के दशक में हिंदी में व्यापक-स्तर पर प्रचलन हुआ. अकारण नहीं है कि प्रेमचंद ने जैनेन्द्र के अलावा उस दौर में जिस युवा प्रतिभा को भविष्य का रचनाकार बताया था वे भुवनेश्वर थे. उन्होंने ही हंस’ में १९३३ में भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ प्रकाशित किया. भुवनेश्वर की संभवतः पहली कहानी ‘मौसी’ को प्रेमचंद ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन ‘हिंदी की आदर्श कहानियां’ में स्थान दिया तथा उनका पाठकों से उस युवा लेखक का परिचय करवाते हुए उनकी भाषा को जैनेन्द्र कुमार की भाषा से अधिक साफ़-सुथरी बताया था. उन्होंने अपना पहला एकांकी संग्रह ‘कारवां’ प्रेमचंद को समर्पित किया. प्रेमचंद चाहते थे कि भुवनेश्वर ‘हंस’ से जुड़कर काम करें, पर किसी कारण ऐसा नहीं हो सका. हाँ, हंस में उनकी रचनाएँ निरंतर प्रकाशित होती रहीं. १९३५ में प्रकाशित ‘कारवां तथा अन्य एकांकी’ के बारे में विपिनकुमार अग्रवाल ने लिखा है कि उससे हिंदी में नए नाटकों की शुरुआत हुई. १९३८ में प्रकाशित ‘भेडिये’ कहानी के बारे में तो यह कहा भी जाता है कि नई कहानी के बीज दरअसल उसी कहानी में छिपे हैं.
शाहजहांपुर में एक खाते-पीते परिवार में पैदा होने वाले भुवनेश्वर की माँ बचपन में ही गुजर गई थी. इसके कारण उनको घर में घोर उपेक्षा झेलनी पड़ी. कम उम्र में घर छोड़कर जब इलाहबाद आये तो शाहजहांपुर में महज इंटरमीडिएट तक पढ़े इस लेखक के अंग्रेजी ज्ञान और बौद्धिकता का वहां के लेखकों पर आतंक छा गया. आदर्श और यथार्थवाद के उस दौर में इनकी रचनाओं ने दोनों के सीमान्तों को इस प्रकार उद्घाटित किया कि उनके बारे में तरह-तरह की किवदंतियां फैलने लगी. कहा गया कि उनके नाटकों पर जॉर्ज बर्नार्ड शा तथा डी. एच. लॉरेंस का प्रभाव है और उनकी कहानी ‘भेडिये’ पर जैक लंडन के ‘कॉल ऑफ वाइल्ड’ की छाया देखी गई. उनका प्रसिद्ध वाक्य है कि यथार्थवाद और आदर्शवाद का अंतर पाठक के मस्तिष्क में होता है, लेखक के मन में नहीं. उनके उन प्रयोगों को संदेह की नज़र को देखा गया जिनमें वे नए उभरते मध्य-वर्ग की विडंबनाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं और उसकी निरर्थकता को कटु सत्य की तरह उभारते हैं. उनके एकांकियों ‘प्रतिभा का विवाह’, ‘स्ट्राइकर’, ‘ऊसर’ के नामहीन चरित्र, उस कथाहीनता की सृष्टि करते हैं जो समय के साथ जीवन का मुहावरा बनकर मुखरित हुई. वे रचना को सृष्टि की पुनर्सृष्टि मानते थे इसीलिए उनके एकांकियों, उनकी कहानियों में कालातीतता का बोध है. ऐसी कालातीतता का जिसके तार भूत से नहीं भविष्य से अधिक जुड़ते हैं. प्रसंगवश, उनके एक एकांकी ‘एक साम्यहीन: साम्यवादी’ का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें एक ट्रेड यूनियन लीडर की पोल-पट्टी खोली गई है. शाहजहांपुर के मिल-जीवन के वातावरण वाले इस एकांकी में वामपंथी आंदोलन के प्रति जो हताशा दिखाई देती है वह आज के सन्दर्भ में अधिक प्रासंगिक लगती है.
‘कारवां’ की भूमिका में भुवनेश्वर ने यह लिखा है कि ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाज़े हैं.’ वास्तव में, उनकी कहानियों को पढते हुए अक्सर इस कथन का स्मरण हो आता है. उनको ‘भेडिये’ कहानी के लेखक के रूप में सिमटकर निपटा दिया जाता है लेकिन उन्होंने कम से कम दर्ज़न भर कहानियां लिखी. जिनमें संबंधों की वही संबंधहीनता है, वही निस्संगता है और ‘वस्तु’ में बदलता इंसानी जीवन है जिसे भेडिये की विशेषता बताया जाता है. ‘मास्टरनी’ का मिशनरी परिवेश, रेल यात्रा से जुडी कहानी ‘लड़ाई’ में खद्दर के प्रति व्यंग्य और नफरत, ‘एक रात’ कहानी की तटस्थता उनके उस मोहभंग को दिखाती है जो तर्काधारित समाज की तर्कहीनता की उपज कही जा सकती है. मोहभंग उनकी रचनाओं के स्थायी भाव की तरह है हिंदी में जिसे बाद में साठोत्तरी मुहावरे के तौर पर पहचाना गया.
भुवनेश्वर आजीवन बेदारोदीवर के घर में इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस में भटकते रहे. मित्रों का ठिकाना ही उनका ठिकाना होता, मित्रों के कपडे उनके कपडे. बाद में जब सब छूट गया तो बदन पर टाट लपेटकर घूमने लगे थे. कहते हैं. ‘ताम्बे के कीड़े’ और उसके बाद के तमाम एकांकी उन्होंने अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लिखा. बाद के दिनों में हिंदी से उनका ऐसा मोहभंग हुआ कि उन्होंने उस भाषा में लिखना ही छोड़ दिया. कहते हैं कि रद्दी कागज की दूसरी ओर वे अंग्रेजी में कविताएँ, कहानियां, एकांकी लिखा करते थे. जिनमें से कुछ कविताएँ ही बाद में प्राप्त हो सकीं और जिनका हिंदी अनुवाद शमशेर बहादुर सिंह और रमेश बक्षी ने किया. प्रेमचंद की मृत्यु पर भुवनेश्वर ने लिखा था- ‘शुरुआत में वह एक लिखने का शौक़ीन था, बीच में एक कठिन संग्राम करता हुआ कलाकार और बाद में एक कैरेक्टर.’ काफी हद तक ये पंक्तियाँ खुद भुवनेश्वर पर लागू होती हैं. वे सच्चे कलाकार की तरह साहित्य-साधना करना चाहते थे लेकिन बाद में साहित्य-समाज में उनको कैरेक्टर के रूप में अधिक याद किया गया.
उनकी जन्मशती के वर्ष में अगर उनकी रचनाओं का पुनर्मूल्यांकन हो तो शायद उनमें हमें अपने समय के कुछ सूत्र दिखाई दे जाएँ, उनकी प्रासंगिकता कुछ अधिक समझ में आये. उस ‘बोहेमियन’ कलाकार के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
भुवनेश्वर जी के विषय में विस्तृत जानकारी देने के लिए आभार !
बेहतरीन पोस्ट…
प्रभात रंजन जी, भुवनेश्वर पर एक चर्चा का माहौल बनाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. उन्हें बहुत धन्यवाद. भेडिये कहानी पर मेरा एक विस्तृत आलेख http://aadhunikhindisahitya.blogspot.com/ पर है. यह टिप्पणी मूल रूप से हंस के सितंबर 1991 अंक में 'मनुष्य की नियति का समय' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी. मित्रों से अनुरोध है कि इसे देखें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दें. आभार.- राकेश रोहित.
महान लेखक भुवनेश्वर के बारे में महत्वपूर्ण और जरूरी जानकारी आप हिंदी समाज के बीच पहुँचाने का अहम कार्य आप कर रहे हैं. बधाई! सुधी पाठकों और विज्ञ हिंदी समाज से अनुरोध है कि भुवनेश्वर की भेडिये कहानी पर एक विस्तृत आलेख http://aadhunikhindisahitya.blogspot.com/ पर भी देखें.
आपक बहुत बहुत आभार भुवनेश्वर के बारे में प्रासंगिक लेख हमसे साझा करने के लिए। भुवनेश्वर दुनिया के पहले 'अब्सर्ड प्लेराईट' थे हालांकि पहले अब्सर्ड प्लेराईट के रूप में सैमुअल बैकेट (वेटिंग फ़ॉर गोडो) का नाम आता है।
प्रभात जी ,महान कहानीकार 'भुवनेश्वर जी के विषय में विस्तृत जानकारी देने के लिए धन्यवाद !जीवन काल का अंतिम भाग बेहद त्रासद!कुछ प्रतिष्ठित संगीतकारों,फिल्म कलाकारों एवं साहित्यकारों के विषय में भी इस तरह की घटनाएँ वस्तुतः एक समूची व्यवस्था ,तमाम आडम्बरों ,और प्रगतिशीलता पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं !यदि भुवनेश्वर जी की कहानी ''भेडिये'या कोई अन्य पढवा सकें तो आभारी होंगे!