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अज्ञेय के साहित्य के प्रति उदासीनता के पीछे क्या वजह रही?

अज्ञेय की जन्मशताब्दी के अवसर पर आज प्रसिद्ध आलोचक मदन सोनी का यह लेख जिसमें उन्होंने उस पोलिमिक्स को समझने-समझाने की कोशिश की है जिसने साहित्य की स्वाधीनता के सवाल को उठाने वाले अज्ञेय को साहित्य के प्रसंग से ही बाहर कर दिया. मदन जी के शब्द हैं, प्रसंगवश यहाँ इस विडम्बना की ओर भी ध्यान जाता है कि अशोक जी (अशोक वाजपेयी) इन्हीं दशकों के दौरान जारी रही उस पॉलिमिक्स का हिस्सा होने से खुद को नहीं रोक सके जिसने अज्ञेय को अप्रासंगिक साबित करने और अन्ततः उनको प्रसंग से बाहर कर देने का कुत्सित अभियान चलाया। आज वही अशोक वाजपेयी धूम-धाम से उनकी जन्मशताब्दी का आयोजन कर रहे हैं. एक गंभीर विमर्शात्मक लेख, जो अज्ञेय के लेखन-चिंतन को नितांत नए परिप्रेक्ष्य में देखता है- जानकी पुल.
साहित्य के स्वराजके सन्दर्भ में, या उसको गढ़ने में अज्ञेय के योगदान पर चर्चा करने से पहले साहित्य का स्वराजपर थोड़ी-सी ऊहापोह ज़रूरी प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि यह अवधारणा इसी में निहित दो अन्य अवधारणाओं, यानी साहित्यऔर स्वराजका अगर परोक्षतः निषेध नहीं करती, तो भी वह इनकी अपर्याप्तता की ओर संकेत करती हुई खुद को इनके विकल्प के रूप में तो पेश करती ही है। विकल्पअगर कुछ ज़्यादा तीखा शब्द हो, तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि वह खुद को इनके बावजूद पेश करती है। हम कह सकते हैं कि साहित्य का स्वराजजैसे पद का इस्तेमाल करते हुए हम एक ऐसे स्वराज की आकांक्षा कर रहे हैं जो उस आदर्शतम स्वराजके बावजूद है जिसकी अवधारणा हम आमतौर से राजनैतिक विमर्श के भीतर करते हैं। दूसरी ओर, वह उस साहित्यके भी बावजूद एक आकांक्षा है जो अपने भीतर किसी राजनैतिक विमर्श की सिद्धि में ही अपनी चरितार्थता और सार्थकता देखता है। इस तरह हम मानों यह कह रहे हैं कि, महज़ स्वराज अपने आप में अपर्याप्त है, और स्वराज के बावजूद हमारे लिए साहित्य ज़रूरी है, और इसी के साथ यह भी कि ऐसा साहित्य भी अपने में अपर्याप्त है जो स्वराज समेत किसी भी तरह के राज के नियमों से खुद को अधिप्रमाणित करता हो। हम एक अर्थ में, अगर मम्मट की अवधारणा के सहारे कहें तो, साहित्य की ‘‘अनन्यपरतन्त्रता’’ की बात कर रहे हैं। लेकिन अगर स्वराजअपने आप में अपर्याप्त है, अगर साहित्य के लिए उसमें भी परतन्त्रता की सम्भावना है, तो फिर हम उसका इस्तेमाल साहित्य के गुण-धर्म को परिभाषित करने के लिए क्यों करें, जैसा कि हम साहित्य का स्वराजजैसा पद गढ़कर कर रहे हैं? यह इस प्रयोग का अन्तर्विरोध प्रतीत होता है। यह पद उस अर्थ में व्याघात पैदा करता है, जो उसीसे अभिप्रेत है। या फिर शायद एक पुनरुक्ति; क्योंकि वह ‘‘अनन्यपरतन्त्रता’’, जिसे साहित्य का गुण-धर्म माना गया है, ‘स्वराजका भी गुण-धर्म, बल्कि उसका पर्याय हैं। लेकिन यही चीज़ें -यह अन्तर्विरोध, और वदतोव्याघात, और पुनरुक्ति- जो इस पद की विमर्शात्मकता को विसर्जित करती, या इसे एक विमर्शात्मक पद के रूप में व्यर्थ साबित करती प्रतीत होती हैं, इसे एक साहित्यिक पद के रूप में रचती है। अपने अर्थ के साथ इस पद का यह अत्यन्त असामंजस्य ही इसे एक सार्थक पद बनाता है। क्योंकि यही वे चीज़ें हैं (और इनमें हम विरोधाभास, हेत्वाभास, उत्प्रेक्षा, आत्म-सन्देह, आत्म-छल, आत्मखण्डन जैसी चीज़ों को भी शामिल कर सकते हैं) जो साहित्य के उस अद्वितीय हस्ताक्षर को, उसके स्वत्व को, गढ़ने में योग करती हैं जिनके सहारे वह अन्य विमर्श-रूपों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बनाता है। साहित्य का स्वराजएक गल्प है; ऐसा गल्प जो एक सचाई में तब्दील या चरितार्थ होने की अपनी सम्भावना को मरीचिका के नियम की तरह धारण किये होता है। एक ऐसा गल्प जो उसको गढ़ने और पढ़ने वाली दुनिया से उधार ली गयी सचाईयों में भी संक्रिमित होकर स्वयं उन सचाइयों को आत्मसन्देह से भर दे सकता है। अगर विभिन्न साहित्यिक कृतियों की साहित्यिकता को लेकर तमाम तरह के मतभेदों की मौजूदगी और उनकी अन्तहीन सम्भावनाओं के बावजूद हम साहित्य नामक चीज़ के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, तो निश्चय ही इसलिए कि वह एक संहत और व्यवस्थित सृष्टि है, जिसके अपने नियम-कायदे, अपनी परम्परा है। लेकिन इसी के साथ-साथ वह ऐसी सृष्टि भी है जो अपनी सीमाओं का, अपनी रचना के नियमों का, अपनी परम्परा का निरन्तर उल्लंघन करने में ही विकसित होती है। दूसरे शब्दों में, उसकी सृष्टि उन्हीं नियमों से होती है जो उसके संहार के भी नियम हैं। एक अर्थ में वह अनन्यपरतन्त्रभी नहीं है, क्योंकि अनन्यपरतन्त्रतामें जिस स्व की अधीनता की बात है, साहित्य का वह स्व, उपर्ययुक्त कारणों से, खुद ही हमेशा अनिश्चित, अस्थिर बना रहता है।
यह सब, ज़ाहिर है, किसी अन्य व्यवस्था में, स्वयं स्वराजनामक आदर्शतम व्यवस्था में भी, सम्भव नहीं है। स्वराज में भी उसके संघटनात्मक नियमों के उल्लंघन की छूट न तो उसके उस स्व को होगी जिसका कि वह राज होगा, और न ही किसी अन्य को होगी। इसलिए, एक तरह से, यह शायद सिर्फ़ साहित्य में, या कह लें साहित्य के स्वराजमें, ही सम्भव है कि आप इस तरह का पद गढ़ सकते हैं, और उम्मीद कर सकते हैं कि उसको निरे रेह्टॉरिक की तरह नहीं बल्कि एक अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति की तरह लिया या पढ़ा जाएगा। यह निश्चय ही एक विषयान्तर है, लेकिन साहित्य को परिभाषित करना या उसे उसकी पारिभाषिकता में याद करना हर बार ज़रूरी लगता है, तो इसलिए क्योंकि एक तो हमारा ज़्यादातर साहित्य-विमर्श उसके स्वभाव की इस अद्वितीयता की विस्मृति पर खड़ा होता है, या कम से कम उसकी अनदेखी तो करता ही है, दूसरे इसलिए- और इस नुक़्ते पर मेरी ऊहापोह उतनी अप्रासंगिक शायद न लगे – कि कहीं ऐसा न हो कि अज्ञेय के लेखन में व्यापक रूप से व्याप्त स्वतन्त्रता या स्वाधीनता के प्रश्न-मात्र हमारे मन में अज्ञेय को साहित्य का सुराजी मानने का प्रलोभन जगाने लगें- इसके बावजूद कि, ज़ाहिर है, स्वतन्त्रता किसी भी तरह के स्वराज की अनिवार्य शर्त है। यह सच है कि स्वाधीनता अज्ञेय के लिए सबसे बड़ा मूल्य रहा है। वे शायद अकेले आधुनिक लेखक हैं जिन्होंने इस आधुनिक मूल्य को उसकी तमाम सम्भव गहराइयों, आयामों और बारीकियों में पहचाना और व्याख्यायित किया, उसे महज़ एक राजनैतिक मूल्य के दर्जे से उपर उठाते हुए, होने मात्र की एक अनिवार्यता के रूप में, व्यक्ति, समाज और संस्कृति के आत्मबोध, आत्माभिव्यक्ति और सृजनशीलता की शर्त के रूप में, रेखांकित किया, उसका दृढ़ आग्रह किया, उसके लिए अनेक मोर्चों पर संघर्ष किया। अज्ञेय इस दृष्टि से भी शायद अकेले आधुनिक लेखक हैं जिन्होंने उस आत्मचेतना को पूरी उत्कटता के साथ अपने लेखन में प्रतिष्ठित किया जोकि स्वाधीनता की पूर्व-शर्त है। यह आत्मचेतना, कभी मुखर तो कभी अन्तःसलिल रूप में, उनके समूचे लेखन में व्याप्त है; वह उनके काव्य-नायक की, उनके चरितनायकों की, यहाँ तक कि उनके चिन्तनशील सेल्फ़ की भी पहचान का एक प्रमुख लक्षण रही है। और अज्ञेय इस दृष्टि से भी निश्चय ही अकेले आधुनिक लेखक हैं जिन्होंने उस अन्य को भी उतनी ही उत्कटता के साथ लेखन में प्रतिष्ठित किया जो स्वाधीनता के लिए एक अनिवार्य चुनौती है। उनका मैंया ममकभी भी आत्मनिर्भर, स्वयंपर्याप्त न होकर हमेशा अन्य या ममेतरकी पूर्वापेक्षा करता है। अन्य उनकी आत्मचेतना का अनिवार्य संघटक तत्व है; वह अन्य के अस्तित्व की स्वीकृति में, उसके साथ रिश्ता बनाने की प्रक्रिया में आकार लेती है। अज्ञेय का पूरा लेखन स्वाधीनता के इन दो बुनियादी संघटकों –मैंऔर अन्य’- और इस द्वित्व से पोषण प्राप्त करते वैयक्तिक/निर्वैयक्तिक, भोक्ता/द्रष्टा, षब्द/सत्य, सत्य/तथ्य, रूप/अरूप, आत्मकथा/जीवनी जैसे अनेक द्वित्वों और इनके बीच तनाव की चेतना से आविष्ट है। यहाँ हम अज्ञेय के ऐसे अनेक कथनों का स्मरण कर सकते हैं जिनमें स्वाधीनता के प्रति उनकी दृष्टि और आकांक्षा रूपायित होती है: पहला मूल्य स्वाधीनता है और उसके बाद यह कल्पना है कि मूल्य के लिए प्राण दिये जा सकते हैं; प्राण से बड़ा भी कोई मूल्य होता है। यह मानव की सृष्टि है, यही संस्कृति और सभ्यता का मूल्य है।
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स्वाधीन होना अपनी चरम सम्भावनाओं की सम्पूर्ण उपलब्धि के शिखर तक विकसित होना है।
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स्वतन्त्रता मानव-मन का नहीं, मानव-आत्मा का कुसुमन है।
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उस शोध और संघर्ष को -स्वाधीनता की अन्तहीन ललक को ही- स्वाधीनता का सारसत्त्व कह सकते हैं।
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चेतन विवके से निर्दिष्ट होकर जीना ही स्वाधीन जीना है। यह स्वाधीनता निर्भयता की अवस्था है।
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आत्मचेतन विकसन ही तो स्वतन्त्रता है।
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क्या कोई अकेले स्वाधीन हो सकता है?
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स्वाधीनता की सच्ची कसौटी मैं नहीं, ममेतर है।
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साहित्यकार ऐसे समाज में स्वाधीन न

 
      

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7 comments

  1. अज्ञेय 'प्रसंग-बाहर' कब हुए ! क्या यह इसलिए नहीं कहा जा रहा ताकि उन्हें 'प्रसंग' में लाने का श्रेय खुद को मिल जाए !

  2. नवनीत जी अज्ञेय के अज्ञेय होने के पीछे कुछ हाथ तो कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम का रहा होगा? जिस स्वतंत्रता की बात की गयी है अज्ञेय के लिये उसका अर्थ वहीं से सिद्ध होता था।

  3. बहुत ही दु:ख की बात है कि हम किसी लेखक के प्रति उदासीन होने या प्रसंशक होने के दावे या फ़तवे जारी करें.. यह हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य है कि हम लेखक की रचना को खेमों में बंटा देखते हैं जबकि हर लेखक की कसौटी उसका लेखन होना चाहिए. एक पाठक और लेखक के रूप में मुझे कभी नहीं लगा कि अज्ञेय जी का लेखन ऎसा है कि कोई उनके प्रति उदासीनता का विचार भी मन में ला सके. हर लेखक अपने अपने प्रतिमान और मुहावरे घड़ता है और अपनी अलग पहचान रखता है. यह जरुरी नहीं कि प्रेमचंद के हर पाठक को निर्मल वर्मा, अज्ञेय या कृष्ण बलदेव वैद प्रभावित करें इसके उलट यह भी कि निर्मल वर्मा, अज्ञेय या वैद साह्ब पसंद आए.. सवाल यह है कि वे साहित्य में कौन से अराजक तत्त्व हैं जो इस तरह के मिथ गढते हैं और वालीवुडी तर्ज पर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास करते हैं और दुर्भाग्य कि हासिल कर भी लेते हैं..अज्ञेय सिर्फ़ अपने कारण अज्ञेय हैं न कि अशोक वाजपेयी या मदन सोनी के कारण..

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