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एक विदेशी की नज़र में एशिया की रेलयात्राएं

 

हाल में ही पेंगुइन-यात्रा प्रकाशन से प्रसिद्ध लेखक पॉल थरू की किताब ‘द ग्रेट रेलवे बाज़ार’ इसी नाम से हिंदी में आई है. जिसमें ट्रेन से एशिया के सफर के कुछ अनुभवों का वर्णन किया गया है. हालाँकि पुस्तक में एशिया विशेषकर भारत को लेकर पश्चिम में रुढ हो गई छवि ही दिखाई देती है, लेकिन कहीं-कहीं लेखक के ऑब्जर्वेशन्स दिलचस्प है. एक ज़बरदस्त पठनीय पुस्तक का हिंदी में आना स्वागतयोग्य कहा जा सकता है. हालांकि पुस्तक पढते हुए मेरी तरह आपके भी मन में तमाम तरह की असहमतियां उठ सकती हैं, फिर भी यह एक पैसावसूल किताब है- जानकी पुल.
 
पॉल थरू की ख्याति यात्रावृत्तान्त्कार के रूप में रही है लेकिन १९७५ में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘द ग्रेट रेलवे बाजार’ का महत्व के कारण हमारे लिए अलग हैं. एक तो यह कि लेखक ने ये रेलयात्रायें एशियाई मुल्कों में की हैं. रेल भारत सहित एशियाई मुल्कों में आमजन की सबसे बड़ी सवारी रही है. दूसरे, इस कारण भी कि रेलयात्राओं के वृत्तान्त होने के कारण पुस्तक में उन मुल्कों के सामान्य जन-जीवन की एक झांकी भी लेखक ने प्रस्तुत करने की कोशिश की है. यात्रा शुरु होती है लंदन से पेरिस की रेलयात्रा से. लेकिन पुस्तक में ज़्यादातर एशियाई मुल्कों की प्रसिद्ध रेल-मार्गों की यात्राएं हैं. जैसे तेहरान एक्सप्रेस, लाहौर तक फ्रंटियर मेल, कुआलालम्पुर के लिए गोल्डन एरो, सिंगापुर जाने के लिए नौर्थ स्टार नाईट एक्सप्रेस, ट्रांस साइबेरियन एक्सप्रेस, ओसाका के लिए कोडामा ट्रेन आदि.
लेकिन हम भारतियों के लिए इस पुस्तक में खास दिलचस्पी की बात यह है कि पुस्तक में सबसे अधिक यात्राएं लेखक ने भारतीय रेलों की हैं. भारत के कुछ प्रसिद्ध रेलमार्गों की. इसमें शिमला के लिए प्रसिद्ध कालका मेल की यात्रा भी है, तो दूसरी ओर लेखक ने रामेश्वरम तक लोकल ट्रेन में भी यात्रा की है, जो प्रसंगवश, पुस्तक का सबसे अच्छा यात्रा-वृत्तान्त है. इनके अलावा बम्बई(अब मुंबई) के लिए राजधानी मेल की यात्रा है, हावड़ा मेल की यात्रा है, जयपुर से दिल्ली मेल की यात्रा है. कुल मिलकर, लेखक की कोशिश है कि रेल यात्राओं के बहाने एक अखिल भारतीय छवि पुस्तक में प्रस्तुत की जा सके, उत्तर-दक्षिण-पश्चिम की यात्राओं के माध्यम से. लेकिन दुर्भाग्य से सम्पूर्ण पूर्व इस यात्रा में अनुपस्थित है, जिसके बिना भारत की शायद ही कोई छवि पूरी मानी जा सकती है. बहरहाल, जो यात्रा-वृत्त पुस्तक में हैं बात उनके सन्दर्भ में ही की जानी चाहिए. पुस्तक में जो है वह आखिर क्या है? इस सवाल का उत्तर उतना आसान भी नहीं है. कारण यह है कि इन यात्रावृत्तों के माध्यम से लेखक ने एशियाई संस्कृति को करीब से देखने का प्रयास किया है और उसके माध्यम से एशिया की एक छवि भी गढ़ने की कोशिश की है. यह देखने की बात है कि वह छवि आखिर क्या है, उस छवि में आखिर नया क्या है? लेखक ने रेलगाड़ियों को लगातार चलते रहने वाले बाज़ार कहा है. पश्चिम से शुरु होकर पूरब की ओर होने वाली यह यात्रा क्या उस बाज़ार को समझने की कोशिश कही जा सकती है? संयोग से १९७५ में, जब लेखक ने ये यात्राएं कीं तब बाज़ारवाद का वह दौर नहीं शुरु हुआ था, जिसने स्थानीय संस्कृतियों के स्थान पर एक जैसी संस्कृति का प्रसार शुरु किया. पुस्तक में अलग-अलग संस्कृतियों की विभिन्नताएं हैं, जो इस यात्रावृत्त को संस्कृति-यात्रा में बदल देता है.
लेकिन इस संस्कृति यात्रा की मुश्किल यह है कि इसमें लेखन ने जिसन देशों की रेल-यात्राओं के वृत्तान्त लिखे हैं उनमें उन देशों की पश्चिम की रुढ हो चुकी छवि को ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. उदाहरण के लिए, तेहरान की यात्रा के बाद ईरान के बारे में लेखक की यह टिप्पणी कि ‘पैसा ईरानियों को एक दिशा में खींचता है, धर्म उसे दूसरी दिशा में खींचता है और इसका नतीजा यह होता है कि वह एक ऐसा जीव बनकर रह जाता है जो सिर्फ औरत के पीछे दौड़ता रहता है.’ अफगानिस्तान के बारे में उसका यह मत कि वहां लोग हशीश खरीदने और काबुल तथा हेरात के होटलों में अश्लील हरकतें करने आते हैं या पाकिस्तान में उसे धार्मिक कट्टरता के कारण नस्लवाद का अनुभव उसी तरह होता है जिस तरह से लंदन में होता है. अगर भारत की बात करें तो लेखक ने ईमानदारी से यह स्वीकार किया है कि ‘मेरे जेहन में भारतीय शहर की छवि किपलिंग से आई है’. वास्तव में, रुडयार्ड किपलिंग ने ही आधुनिक यूरोप के समक्ष भारत की एक ऐसी छवि प्रस्तुत की जो आजतक भरता के सन्दर्भ में रुढ बनी हुई है. लेखक रेल से एक गंतव्य तक पहुँचता है, कुछ दिन वहां ठहरता है, फिर अगली यात्रा पर चल देता है. किताब में इसी दौरान के ‘ऑब्जर्वेशन्स’ हैं. हावड़ा मेल में चढ़ने से पहले उसे टैक्सी ड्राइवर सावधान करता है कि रुपए-पैसे ज़रा ध्यान से रखना नहीं तो जेबकतरे जेब काट लेते हैं. हुगली नदी के घाटों पर उसे छठ का पर्व मनाते बिहारी दिखाई डे जाते हैं. लेकिन वह भारतीय जीवन के ‘एक्जाटिक’ वर्णन के साथ-साथ इस तरह की तिपनियाँ करना भी नहीं भूलता कि ‘भारत में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई इमारतों को देखकर ऐसा लगता है जैसे वे को घेराबंदी करने के लिए बनाई गई हों.’ लेकिन साथ ही वह भारत की गरीबी के दृश्य भी दिखाते हुए चलता है. बालासोर उसे चेचक की राज्द्गानी दिखाई देती है. वह प्रसिद्ध लेखक मार्क ट्वेन द्वारा दी गई ‘हिंदू’ की परिभाषा को याद दिलाना भी नहीं भूलता कि वे लोग गल चुकी धोतियों को चट्टानों पर पटक-पटक कर उन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं. लेकिन उसकी यह टिप्पणी दिलचस्प है कि ‘एशिया में सुबह के समय सभी चीज़ों की साबुन से ज़बरदस्त धुलाई चलती है.’
बहरहाल, लेखक ने ज़्यादातर यात्राएं उच्च श्रेणियों में नहीं की हैं, इसलिए किताब में अगर सामान्य जन-जीवन की झांकियां हैं तो उसे कुछ विचित्र नहीं कहा जा सकता. हमारे अपने लेखकों ने भी रेल-यात्राओं को लेकर जो किताबों में लिखा है उनमें भी कमोबेश इसी तरह के वर्णन मिलते हैं. हिंदी के व्यंग्यकारों ने भी रेल-यात्राओं पर खूब हाथ आजमाया है. बहरहाल, कहीं-कहीं लेखक की टिप्पणियां हमें सोचने को मजबूर कर देती हैं, ‘सामान्य भारतीय को अपने धर्म या अपने देश भारत या बाकी चीज़ों की बहुत कम जानकारी है. कुछ लोग तो बहुत साधारण सी चीज़ों को भी नहीं जानते, जैसे हिंदू विचारधारा या इतिहास. मैं नायपॉल से सौ फीसदी सहमत हूँ. वे किसी पश्चिमी आदमी के सामने अनजान नहीं बनना चाहते, लेकिन ज़्यादातर भारतीय अपने मंदिरों, ग्रंथों और बाकी चीज़ों के बारे में कोई खास जानकारी नहीं रखते, यहाँ तक कि टूरिस्टों से कम जानकारी रखते हैं- और कुछ तो न के बराबर जानकारी रखते हैं.’
पुस्तक पूरी तैयारी और शोध के बाद लिखी गई है. हिंदी में गजेन्द्र राठी के अनुवाद ने हिंदी के पाठकों के लिए कुछ और सरस बना दिया है. यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे आप पढ़ने शुरु करें तो समाप्त किये बिना नहीं रुकेंगे. लेखक के विचारों से सहमति-असहमति अपनी जगह है. पुस्तक पढते हुए मैं सोचता रहा कि हिंदी में सबसे अधिक पुस्तकें अंग्रेजी से अनुवाद होकर आती हैं. फिर इस रोचक पुस्तक को हिंदी में आने में ३५ साल क्यों लग गए?

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10 comments

  1. जानकीपुल को पढ़ना याने की पर्स खाली करना अब ये किताब भी लेनी पड़ेगी

  2. रूचिकर… किताब पढ़ने का मन करने लगा। आभार…

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