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सभ्यता की सुबह में इतिहास की सैर

वरिष्ठ संपादक-लेखक ओम थानवी ने ‘मुअनजोदड़ो’ लिखी भले यात्रा-वृतांत की शैली में है लेकिन पुस्तक में एक इतिहासकार-सी सजगता भी है, पुरात्वेत्ता-सी बारीकी भी और एक कलाकार की कल्पनाशीलता भी. लेखक-कवि-पत्रकार प्रियदर्शन का यह लेख इसी पुस्तक को समझने-समझाने का एक सुन्दर प्रयास है- जानकी पुल.


ओम थानवी की ख्याति मूलतः एक सुरुचिसंपन्न संपादक की रही है। हिंदी पत्रकारिता के निरंतर अधोपतन के दौर में उन्होंने `जनसत्ताको सारी सीमाओं के बीच और बावजूद बाजार के छिछलेपन और छिछोरेपन का खिलौना बनने नहीं दिया तो इसके पीछे वह संपादकीय और देशज दृष्टि भी रही जो हिंदी समाज की बौद्धिक क्षमता पर भरोसा और अभिमान करती रही। जनसत्ता में ही जब उन्होंने मूलतः यात्रा संस्मरणों पर केंद्रित अपना स्तंभ `अनंतरलिखना शुरू किया तो हिंदी के समानधर्मा पत्रकारों, लेखकों और पाठकों ने किंचित विस्मय के साथ पाया कि ओम थानवी सिर्फ सुरुचिसंपन्न संपादक नहीं, एक सजग और सरस लेखक भी हैं। उनका बेहद सावधान और नपा-तुला गद्य सिर्फ अपने विन्यास के लालित्य की वजह से नहीं, अपनी विषयवस्तु की सघनता के सहारे भी अपना एक बहुत गहरा और बहुपरतीय ठाठ और पाठ बनाता है। इन संस्मरणात्मक लेखों में बहुत कुछ ऐसा था जो संस्मरणों से आगे जाकर सरोकार और शोध के सिलसिले से जुड़ता रहा और पाठकों को बांधता ही नहीं, देर तक सोचने पर मजबूर करता रहा।
इन संस्मरणों का एक हिस्सा मुअनजोद़डो
जिसे मोहनजोदड़ो कहने का रिवाज चल पड़ा है- की यात्रा पर केंद्रित था जो अब पुस्तकाकार मुअनजोदड़ो के नाम से ही प्रकाशित हुआ है। कहने को यह किताब यात्रा संस्मरण है, लेकिन इसे पढ़ते-पढ़ते जैसे यात्रा और संस्मरण दोनों पीछे छूट जाते हैं, इतिहास हमारे साथ चल पड़ता है- 7000 साल पुराना सिंधु घाटी सभ्यता का वह इतिहास, जिसको लेकर तरह-तरह के दावे किए जाते हैं और जिसकी छाय़ाएं अलग-अलग ढंग से अब तक हमारे समाज, हमारी सभ्यता पर दिखाई पड़ती हैं। ओम थानवी बहुत मनोयोग से मुअनजोदड़ों के बारे में बताते हैं। वाकई जो किताब यात्रा संस्मरण की तरह शुरू होती है, वह अपनी विधा का अतिक्रमण करती हुई इतिहास की किताब में बदलती लगती है। एक बहुत ही सघन भाषा मुअनजोदड़ो की पूरी नगर योजना का वर्णन करती है। जैसे ओम थानवी ने इस छूटे हुए शहर के चप्पे-चप्पे को बार-बार बड़ी बारीकी से छान मारा हो। घर, कोठार, पथ-चौराहे, सार्वजनिक स्नानागार, कुंड, खेत, कुएं, नालियां, मूर्तियां- उऩकी दृष्टि से कुछ भी छूटा नहीं है। घरों और दीवारों की निर्मितियां देखते हुए वे पक्की और बडी ईंटों, चूने और चिरौड़ी के गारों और डामर तक पर गौर करते हैं और इस नगर योजना के सहारे मुअनजोदड़ो की सामाजिक संरचना का भी एक खाका खींचते हैं. ऐसा नहीं है कि मुअनजोदड़ो या मोहनजोदड़ो को लेकर यह सारी बातें पहली बार लक्ष्य की गई हैं। दरअसल यह सब कुछ बहुत जाना-पहचाना है जो इतिहास की अलग-अलग किताबों में बार-बार आता रहा है।
खुद ओम थानवी ने अपने निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले ऐसी कई किताबें ठीक से खंगाली हैं जिनका उल्लेख किताब के बीच में भी आता है। यही नहीं
, बहुत संभव है कि ओम थानवी के अपने दृष्टि विन्यास में भी इन किताबों की एक भूमिका रही हो। आखिर हमारी नज़र बाहर की रोशनी में ही ठीक से काम करती है। फिर सवाल है, इस किताब में नया क्या है? वह संतुलन जो आम तौर पर इतने पुराने इतिहास से जुड़े प्रसंगों को खंगालने, उनकी व्याख्या करने के क्रम में अक्सर छूटता लड़खड़ाता रहा है। ओम थानवी अपने निष्कर्षों में बहुत सावधान हैं। दरअसल वे कोई निष्कर्ष देते भी नहीं, कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों की सीमा ज़रूर बता देते हैं। इस क्रम में यह दिखता है कि बाहर की रोशनी उन्होंने उतनी ही ली है जिसमें नज़र को साफ दिखाई दे, इतनी नहीं जिससे आंखें चुंधिया जाएं या इतनी कम भी नहीं कि कुछ दिखाई न दे। मसलन ओम थानवी यह रेखांकित करने में वक्त नहीं लगाते कि सिंघु घाटी सभ्यता की खोज का श्रेय भले जॉन मार्शल को दिया जाता हो, लेकिन इसके वास्तविक हकदार वे भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता हैं जिनकी खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर जॉन मार्शल ने अपना पर्चा तैयार किया और जिसकी दुनिया भर में धूम मची। वे हीरानंद शास्त्री, डीआर भंडारकर, दयाराम साहनी, राखालदास वंद्योपाध्याय, माधव स्वरूप वत्स और काशीनाथ दीक्षित तक एक-एक नाम का उल्लेख करते हुए याद दिलाते हैं कि इतिहास के इस उत्खनन के वास्तविक नायक कई भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता रहे।
निश्चय ही यह भारतीयता से भावुक किस्म का लगाव नहीं है जो ओम थानवी को इस नतीजे तक ले आता है। यह बस तथ्य को सही परिप्रेक्ष्य में देखने और जांचने की आदत है जिसकी वजह से वे इस पूरे उत्खनन के वास्तविक सूत्रधारों का इतने विस्तार में जिक्र करते हैं। इस तथ्यात्मक परख की प्रामाणिकता और मौलिकता के और भी साक्ष्य दिखते हैं। जैसे कांसे में ढली निर्वसन युवती की प्रतिमा को नर्तकी या डांसिंग गर्ल नाम दिए जाने पर वे बहुत हल्का सा सवाल उठाते हैं- जैसे यह पूछते हुए कि यह युवती नर्तकी ही है, इसका क्या प्रमाण है। वे मुअनजोदड़ो की मोहरों और मूर्तियों में अभिव्यक्त होने वाली बारीकी और कलात्मकता को ठीक से सराह पाते हैं और इस बात को बडे करीने से रखते हैं कि वह एक साक्षर और सुरुचिसंपन्न सभ्यता थी।इसी तरह सिंधु घाटी सभ्यता को वैदिक सभ्यता से जोड़कर देखने और इसे मूलतः भारतीय बताने को बेताब दृष्टियों की वे अच्छी खबर लेते हैं और कई इतिहासकारों और सभ्यता समीक्षकों के अध्ययन की सीमाओं और उनके संकटों को रेखांकित करते हैं।
उन्हें अहसास है कि
`वैदिक संस्कृति को जबरन हड़प्पा युग में स्थापित करनेकी हिंदुत्ववादी परियोजना कितने खतरनाक ढंग से एक पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक बहस को अपनी राजनीति में समायोजित करने की कोशिश कर रही है। वे सिंधु घाटी से जुड़े रामविलास शर्मा. वासुदेवशरण अग्रवाल और राहुल सांकृत्यायन के निष्कर्षों को तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उनका साहसपूर्वक प्रतिवाद करते हैं। वे बहुत साफ शब्दों में लिखते हैं, `रामविलास जी सरस्वती की वेगधारा के सहारे वैदिक सभ्यता को हज़ारों साल पीछे ले गए, ज़ाहिरा तौर पर पुरातात्त्विक प्रमाणों की धारा के विरुद्ध।
लेकिन इतिहास के तर्क और पुरातत्त्व के साक्ष्य की बहस में ओम थानवी फिर भी एक पक्ष चुन कर खड़े हों, ऐसा नहीं है। उनका अपना एक इतिहास बोध और समाज बोध है जो उन्हें याद दिलाता है कि `निश्चय ही धीरे-धीरे स्वरूप लेने वाले भारतीय जीवन दष्टि के कुछ पहलुओं में हड़प्पा सभ्यता की छाप देखी जा सकती है। मसलन, सामूहिक स्नान कुंड की मौजूदगी। या फिर मुहरों पर `महायोगीकी छवि। जंगली पशुओं से घिरे महापुरुष आदि शिव हों न हों, उसे योग का आसन माना जा सकता है।
जाहिर है, यह किताबी दृष्टि नहीं है, न देसी-विदेशी विद्वानों के खंडन-मंडन से पैदा हुए तर्कजाल का नतीजा है। य़ह एक खुले हुए मन की देन है जिसे मुअनजोदड़ो के एक स्तूप के पास तपती हुई दुपहरिया में अचानक अपने राजस्थान की पारदर्शी धूप की याद आ सकती है, एक छूटे हुए शहर के सूने मकानों के बीच कुलधरा जैसा गांव याद आ सकता है। अतीत और वर्तमान से इस साझा पुल पर खडा कोई शख्स ही बड़ी आसानी से यह याद कर सकता है कि आज भी राजस्थान, पंजाब, गुजरात या हरियाणा में कुएं, कुंड, गली-कूचे, कच्ची-पक्की ईंटों के घर वैसे ही मिलते हैं। इसी खुलेपन से बनी दृष्टि यह कह सकती है कि `अगर देशज-विदेशज की भावुकता के जंजाल में कोई न पड़े तो वैदिक संस्कृति और सिंधु सभ्यता दोनों भारत के आदि इतिहास की शान हैंऔर यह प्रस्तावित कर सकती है कि `हम इसे भारतीय कह सकते हैं। लेकिन अब पाकिस्तान-बांग्लादेश के बंटवारे के बाद भारतीयता के लिए भी शायद कोई नया नाम ढ़ूढ़ना पड़े, जो उन्हें भी मंज़ूर हो।
बहरहाल, मुअनजोदड़ो के बहाने ओम थानवी सिंधु घाटी सभ्यता की कई अनसुलझी बहसों के अलग-अलग सिरे पकड़ते हैं। सिंधु घाटी के काल और समाज निर्धारण के अलावा इसकी अब तक गूढ़ बनी हुई लिपि पर भी उन्होंने विस्तार से चर्चा की है। लेकिन इतना सबकुछ होने के बाद भी `मुअनजोदड़ोइतिहास की किताब नहीं है। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह एक बहुत छोटी सी किताब है- सिर्फ 118 पृष्ठों की- जो कई मसलों पर टिप्पणी करती है, बल्कि इसलिए भी कि यह इतिहास लिखने के लिए लिखी नहीं गई है। इतिहास इसमें उतना ही आया है जितना ओम थानवी ने अपनी यायावर जिज्ञासा शांत करने के लिए खंगाला है- हालांकि यह फिर भी कम नहीं है। लेकिन मूलतः यह किताब इतिहास की गली में पहुंच भले जाती है, इसका मकसद कहीं ज़्यादा बड़ी सैर कराना है।और यह सैर बिल्कुल शुरू से शुरू हो जाती है। लेखक को कराची से मुअनजोदड़ो जाना है, रास्ते में कोहरा है जिसकी वजह से हवाई सफ़र मुफ़ीद नहीं और डाकुओं का डर है जिनकी वजह से सड़क का रास्ता ठीक नहीं। इस दुविधा में हमीद हारून के साथ चुटकी है और फिर लाड़काणा- जिसे अपने यहां लरकाना लिखने-बोलने का चलन है- के लिए बस का सफर। आधी रात को शुरू होने वाले इस सफ़र से पहले मां से हुई बातचीत का ज़िक्र है जिसे पाकिस्तान की यात्रा अंदेशे में डाल रही है और इस क्रम में एक छोटा सा लेकिन मानीखेज वाक्य है- विश्वास टूटता है तो आसानी से नहीं लौटता।
बाद में एक खस्ताहाल बस में सफर के दौरान अचानक शुरू हुए संगीत से नींद टूटती है तो आसानी से नहीं लौटती। लाड़काणा के रास्ते में रंगीन और कलात्मक पच्चीकारियों वाले ट्रक हैं जिनपर बने ट्रक चित्र एक दुहरा संप्रेषण संभव करते हैं- उन्हें ठीक से देखने के लिए आंख खोलने के अलावा हेडलाइट भी खोलनी पड़ती है। इसी रास्ते में आता है सेवण- और जैसे सबकुछ गायब हो जाता है
, एक सांस्कृतिक कौंध रह जाती है- क्योंकि यह सेवण सूफी फकीर शाहबाज़ कलंदर की जगह है जिन्हें मुस्लिम पीर मानते थे और हिंदू भर्तृहरि का अवतार। यहां लेखक का एक मन छूट जाता है। दरअसल ओम थानवी के लेखन की परतें कई हैं। पत्रकार होने के तथ्यान्वेषी अभ्यास से वे बारीक से बारीक चीज़ों पर नज़र डालते हैं और साहित्य और संस्कृति मर्मज्ञ होने के नाते उनके कई सूक्ष्म आशय खोज लेते हैं। यह किताब एक बार में पढ़ी जाती है, लेकिन दूसरी बार पढ़ना फिर भी जरूरी लगता है, क्योंकि यह एहसास बीच में होता चलता है कि इन बेहद संक्षिप्त पंक्तियों में- पंक्तियों के बीच की बात हड़बडी में छूट गई है। जिस दौर में हिंदी सिर्फ कहानी और कविता की भाषा के रूप में सिकुड़ती जा रही है या बॉलीवुड और बाज़ार की दुनिया में अंग्रेजी की छिछली नकल होने को मजबूर है, उस दौर में मुअनजोदड़ो जैसी किताब का आना हिंदी को उसका भरोसा लौटाने

 
      

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9 comments

  1. ओम थानवी की यह किताब इतनी रोचक है कि मैं एक ही बैठक में पढ़ गया। लेकिन मन नहीं भरा। बेहतर होता कि इसे विस्तार से लिखा जाता। इतिहास संबंधी विवादास्पद मुद्दे या तो उठाये न जाते, या उनके बारे में बहस को आगे बढ़ाया जाता। खैर, जैसी भी है, किताब अच्छी है। ओम जी को एक बार फिर बधाई!

  2. बहुत अच्छी समीक्षा है। ओम थानवी ने अपनी किताब में बहुत ही दिलचस्प ढंग से मुअन जोदड़ो की अपनी भौतिक और आध्यात्मिक यात्रा का वृतांत प्रस्तुत किया है जिसमें तथ्यों का पत्रकारिता के सच्चे आदर्शों के अनुरूप अन्वेषण भी है। हमारे यहां 'किस्सा' कहने की लंबी परंपरा रही है। वास्तव में मुअन जोदड़ो का किस्सा किताब के पन्नों पर बड़ी खूबसूरती से उतरा है।

  3. …यह किताब फिर से याद दिलाती है कि यात्राएं सिर्फ भूगोल में नहीं होतीं, वे इतिहास में भी होती हैं- दरअसल यात्राएं तभी सार्थक होती हैं जब वे आगे बढ़ने वाले रास्तों के जरिए पीछे छूट चुकी मंजिलों का भी पता बताती हैं। ओम थानवी की किताब मुअनजोदड़ों का पता भर नहीं बताती, वह वहां तक ले चलती है और फिर इतिहास की परत हटा कर उसका एक-एक हिस्सा हमें दिखाती है।…Jeevant tippani! BADHAI…

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