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फ़िल्मी गीतों को साहित्य की ऊंचाई देने वाले मजरूह सुल्तानपुरी

कल मशहूर शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की पुण्यतिथि थी. उनके फ़िल्मी गीतों को लेकर प्रस्तुत है एक दिलचस्प लेख, लिखा है संगीतविद युनुस खान ने. साथ में उनके लिखे ५० सर्वश्रेष्ठ गीतों की सूची भी दी गई है- जानकी पुल.



आमतौर पर लोगों को लगता है कि एक रेडियो-प्रेज़ेन्‍टर के बड़े मज़े होते हैं। दिन भर बस मज़े-से गाने सुनते रहो, सुनाते रहो। लेकिन ये सच नहीं है। अपनी पसंद के गाने सुनने और श्रोताओं की पसंद के गाने सुनवाने में फ़र्क़ होता है। इस हफ्ते में एक दिन मुझे मजरूह सुल्‍तानपुरी के गाने सुनवाने का मौक़ा मिला—और उस दिन वाक़ई मज़ा आ गया। मजरूह मेरे पसंदीदा गीतकार हैं और इसकी कई वजहें हैं। 

मजरूह ने फिल्‍म-संगीत को ‘शायरी’ या कहें कि ‘साहित्‍य’ की ऊंचाईयों तक पहुंचाने में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया। उनके कई ऐसे गाने हैं जिन्‍हें आप बहुत ही ऊंचे दर्जे की शायरी के लिए याद कर सकते हैं। फिल्‍म ‘तीन देवियां’ (संगीत एस.डी.बर्मन, 1965) के एक बेहद नाज़ुक गीत में वो लिखते हैं—‘मेरे दिल में कौन है तू कि हुआ जहां अंधेरा, वहीं सौ दिए जलाए, तेरे रूख़ की चांदनी ने’। या फिर ‘ऊंचे लोग’ (संगीतकार चित्रगुप्‍त, 1965) में उन्‍होंने लिखा—‘एक परी कुछ शाद सी, नाशाद सी, बैठी हुई शबनम में तेरी याद की, भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की, जाग दिल-ऐ-दीवाना’। इसी तरह फिल्‍म ‘फिर वही दिल लाया हूं’ में उनका एक बड़ा ही प्‍यारा गाना है—‘आंचल में सजा लेना कलियां, ऐसे ही कभी जब शाम ढले, तो याद हमें भी कर लेना’(संगीतकार ओ.पी.नैयर, 1963)। ये वो गाने हैं जिन्‍हें अगर सुबह-सुबह सुन लिया जाए तो कई दिनों तक ये हमारे होठों पर सजे रहते हैं। असल में ये प्‍यार की फुहार में भीगी नाज़ुक कविताएं हैं। अफ़सोस के साथ आह भरनी पड़ती है कि हाय…कहां गया वो ज़माना….अब ऐसे गीत क्‍यों नहीं आते।

मजरूह बाक़ायदा शायर थे। मुशायरे पढ़ा करते थे। पढ़ाई ‘हकीमी’ की कर रखी थी। और एक बार सन 1945 में बंबई आए तो ‘कारदार फिल्‍म्‍स’ के ए.आर.कारदार ने फिल्‍मों में लिखने का न्‍यौ‍ता दिया, मजरूह ने ठुकरा दिया, पर बाद में क़रीबी दोस्‍त और अज़ीम शायर जिगर मुरादाबादी ने ज़ोर दिया तो मान गए। बस उसी साल सहगल की फिल्‍म ‘शाहजहां’ में लिखा—‘उल्‍फत का दिया हमने इस दिल में जलाया था, अरमान के फूलों से इस घर को सजाया था, एक भेदी लूट गया, हम जी के क्‍या करेंगे, जब दिल ही टूट गया’। कोई कह सकता है कि ये सहगल का एकदम शुरूआती गीत है।

मजरूह के शायराना गीतों का सरताज है फिल्‍म ‘दस्‍तक’ का गाना—‘हम हैं मताए-कूचओ बाज़ार की तरह’। इसी तरह अगर आप उनकी साहित्यिक ऊंचाई को देखना चाहें तो फिल्‍म ‘आरती’ का गाना याद कीजिए—‘कभी तो मिलेंगी बहारों की मंजिल राहें’। या फिर फिल्‍म ‘ममता’ का गाना—‘रहें ना  रहें हम महका करेंगे’। यहां आपको बता दें कि फिल्‍म ‘चिराग़’ के प्रोड्यूसर ने जब ज़ोर दिया कि फ़ैज़ की नज़्म की एक पंक्ति ‘तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्‍या है’ का इस्‍तेमाल करके गीत रचें तो मजरूह ने ज़ोर दिया कि पहले ‘फ़ैज़’ की इजाज़त लाईये। तब जो गीत बना उसकी दूसरी लाइन है—‘ये उठें शम्‍मां जले, ये झुकें शम्‍मां बुझे’। जबकि फ़ैज़ ने लिखा था—‘तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात/ तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्‍या है’।

मजरूह की सबसे बड़ी ख़ासियत ये रही है कि सन 1945 से लेकर साल 2000 तक वो सक्रिय रहे। और नौशाद से लेकर एकदम नए-नवेले संगीतकारों तक सबके साथ काम किया। बेहद साहित्यिक गीतों से लेकर बहुत ही खिलंदड़ और मस्‍ती-भरे अलबेले बोलों वाले गीत भी मजरूह ने लिखे। जितनी लंबी-सक्रियता और कामयाबी मजरूह की रही है—उसके जोड़ में बस उनसे कहीं जूनियर पर बराबर के प्रतिभाशाली आनंद बख्‍शी ही याद आते हैं। बहरहाल…मजरूह के खिलंदड़ गीतों को याद करें तो ‘c.a.t. cat cat यानी बिल्‍ली’ (फिल्‍म ‘दिल्‍ली का ठग’, संगीतकार रवि सन 1958) याद आता है। जिसमें मजरूह लिखते हैं—‘अरी बावरी तू बन जा मेरी ज़रा सुन मैं क्‍या कहता हूं/ तुझे है ख़बर ऐ जाने जिगर, तू कौन और मैं क्‍या हूं’ G. O. A. T. GOAT. GOAT माने बकरी, L. I. O. N. LION. LION माने शेर/ अरे मतलब इसका तुम कहो क्‍या हुआ’। ज़रा सोचिए कि नोंक-झोंक वाले गाने की ऐसी बनावट के बारे में क्‍या मजरूह से पहले या बाद में किसी ने सोचा। या फिर ‘गे गे रे गेली ज़रा टिम्‍बकटू’ (फिल्‍म ‘झुमरू’, संगीतकार किशोर कुमार, सन 1961)। इस गाने में मजरूह ने आगे क्‍या लिखा है ज़रा वो भी देखिए—भंवरे को क्‍या रोकेंगी दीवारें/कांटे चमकाएं चम चम तलवारें/पवन जब चली, ओ गोरी कली/मैं आया तेरी गली, कोई क्‍या कहेगा/ मैं हूं लोहा चुंबक तू/ गे गे गेली’। ऊट-पटांग अलफ़ाज़ वाले इस गाने की लाईनें भी कमाल की हैं। हैं कि नहीं। ज़रा फिल्‍म जालसाज़ के गाने पर ग़ौर कीजिए। ‘ये भी हक्‍का वो भी हक्‍का/ हक्‍का बक्‍का/ दुनिया पागल है अलबत्‍ता/ डाली टूटी फल है कच्‍चा/ बाग़ लगाया पक्‍का‘।

यानी मजरूह कैरेक्‍टर के मिज़ाज़ के मुताबिक़ लिखते हुए भी तहज़ीब और शाइस्‍तगी से ज़रा भी नहीं हटते थे। ऐसे गानों की फेहरिस्‍त भी देख ही लीजिए ज़रा। हास्‍य-अभिनेता मेहमूद की पहचान बन चुका ‘दो फूल’ फिल्‍म का गीत ‘मुत्‍तु कुड़ी कवाड़ी हड़ा’। ‘जोड़ी हमारी जमेगा कैसे जानी’ (फिल्‍म ‘औलाद’, चित्रगुप्‍त, सन 1968), ‘तू मूंगड़ा मैं गुड़ की डली’ (फिल्‍म ‘इंकार’, संगीत राजेश रोशन, सन 1978) ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं कि आय लव यू’( फिल्‍म ‘ख़ुद्दार’, संगीतकार राजेश रोशन, सन 1982)  वग़ैरह।

मैंने पहले भी कहा कि मजरूह ने कभी शालीनता को नहीं छोड़ा। एक मिसाल लीजिए—उनका गाना है—‘आंखों में क्‍या जी, रूपहला बादल’। ये गाना आसानी से अश्‍लील हो सकता था। पर ज़रा देखिए मजरूह ने क्‍या लिखा—‘बादल में क्‍या जी, किसी का आंचल, आंचल में क्‍या जी, अजब-सी हलचल’। कमाल का गाना है ये। फिल्‍म ‘नौ दो ग्यारह’ (सन 1957)।


लेकिन मजरूह की असली ताक़त थे वो गाने जो फिल्‍म की मांग के मुताबिक़ लिखे गए। लेकिन उनमें शायरी के हिसाब से है काफी वज़न। नासिर हुसैन के साथ मजरूह का काफी पुराना नाता था। 1957 में जब नासिर हुसैन ने फिल्‍म ‘पेइंग-गेस्‍ट‘ लिखी तो उसके गीत मजरूह ने ही रचे। ‘चांद फिर निकला मगर तुम ना आए/ जला फिर मेरा दिल करूं क्‍या मैं हाय’ (संगीतकार एस.डी.बर्मन) जैसे गाने थे इस फिल्‍म में। इसके बाद नासिर निर्देशक बने और फिर बने प्रोड्यूसर। मजरूह उनके लिए लगातार लिखते रहे। कहते हैं कि फिल्‍म ‘तीसरी मंजिल’ (सन 1966) के लिए ‘पंचम’ यानी आर.डी.बर्मन के नाम का सुझाव उन्‍हीं ने दिया था। इसी फिल्‍म के एक गाने का जिक्र करना चाहता हूं। ‘तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां’। इस गाने में मजरूह लिखते हैं—‘कहीं दर्द के सहरा में रूकते चलते होते/ इन होठों की हसरत में तपते-जलते होते/ मेहरबां हो गयीं ज़ुल्‍फ की बदलियां/ जाने-मन जानेजां/ तुमने मुझे देखा’। मजरूह का एक-एक शब्‍द जैसे धड़क रहा है इस गाने में। इसी फिल्‍म का एक और गीत लीजिए। ‘दीवाना मुझ सा नहीं/ इस अंबर के नीचे/ आगे हैं क़ातिल मेरा/ और मैं पीछे-पीछे’। बाक़यदा उर्दू-शायरी वाला मिज़ाज है इस गाने में। नासिर हुसैन के साथ लंबी फेहरिस्‍त है मजरूह की फिल्‍मों की। फिर वही दिल लाया हूं, तीसरी मंजिल, बहारों के सपने, प्‍यार का मौसम, कारवां, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, ज़माने को दिखाना है, क़यामत से क़यामत तक, जो जीता वही सिकंदर और अकेले हम अकेले तुम।

आज फिल्‍म-संगीत की जो हालत है, मजरूह इससे काफी दुखी थे। ‘आती क्‍या खंडाला’ जैसे गानों को उन्‍होंने एक समारोह में ‘कलम के साथ वेश्‍यावृत्ति’ कहा था। आज मजरूह साहब बहुत याद आ रहे हैं और हम उनके दीवाने उनकी याद को सलाम कर रहे हैं।

मजरूह के पचास बेमिसाल गानों की फ़ेहरिस्‍त
1. आ महब्‍बत की बस्‍ती बसायेंगे हम / फ़रेब 
2. आंचल में सजा लेना कलियां/ फिर वही दिल लाया हूं।
3. दिल पुकारे/ ज्‍वेल थीफ
4. कभी तो मिलेंगी बहारों की मंजिल/ आरती
5. आपने याद दिलाया / आरती
6. आयो कहां से घनश्‍याम/ बुड्ढा मिल गया।
7. नदिया किनारे हिराए आई/ अभिमान
8. अब तो है तुमसे/ अभिमान
9. तेरे मेरे मिलन की ये रैना/ अभिमान  
10. ये है बॉम्‍बे/ सी आई डी
11. ऐ दिल कहां तेरी मंजिल/ माया
12. कोई सोने के दिल वाला/ माया
13. जा रे उड़ जा रे पंछी/ माया
14. हम बेखुदी में तुमको/ काला पानी
15. कहीं बेख्‍याल होकर/ तीन देवियां
16. भोर भये पंछी/ आंचल
17. जलते हैं जिसके लिए। सुजाता
18. रहें ना रहें हम/ ममता
19. चल री सजनी अब क्‍या सोचे/ बंबई का बाबू
20. तेरी आंखों के सिवा/ चिराग
21. फिल्‍म दोस्‍ती के सभी गीत
22. हुई शाम उनका / मेरे हमदम मेरे दोस्‍त
23. चांद फिर निकला/ पेइंग गेस्‍ट
24. तुमने मुझे देखा/ तीसरी मंजिल
25. हम हैं राही प्‍यार के/ नौ दो ग्‍यारह
26. दिल जो ना कह सका/ भीगी रात
27. दिल का दिया जला के गया/ आकाशदीप
28. दिल की तमन्‍ना थी/ ग्‍यारह हज़ार लडकियां
29. वादियां मेरा दामन/ अभिलाषा
30. गा मेरे मन गा/ लाजवंती
31. गे गे गेली ज़रा/ झुमरू
32. जाग दिल-ए-दीवाना- ऊंचे लोग
33. हम हैं मताए-कूचओ-दस्‍तक
34. हमसफ़र साथ अपना/ आखिरी दांव
35. ये है रेशमी/ मेरे सनम
36. लाल लाल होंठवा/ लागी नाहीं छूटे रामा
37. पवन  दीवानी/ डॉ विद्या
38. ना तुम हमें जानो/ बात एक रात की।
39. भीगी पलकें ना उठा/ दो गुंडे
40. रूक जाना नही/ इम्तिहान
41. संध्‍या जो आए/ फागुन
42. सावन के दिन आए/ भूमिका
43. सुरमां मेरा निराला/ कभी अंधेरा कभी उजाला
44. वो तो है अलबेला/ कभी हां कभी ना
45. हाय रे तेरे चंचल नैनवा/ ऊंचे लोग
46. चांदनी रे झूम/ नौकर
47. आ री निंदिया/ कुंआरा बाप
48. ऐ दिल मुझे ऐसी जगह/ आरज़ू
49. माई री/ दस्‍तक
50. प्‍यार का जहां हो/ जालसाज़  
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yunus.radiojockey@gmail.com  लेखक विविध-भारती में कार्यरत हैं।
 
      

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18 comments

  1. युनुस खान जी निःसंदेह एक अच्छे रेडियो-प्रस्तोता हैं।लेकिन, तनिक विचार कीजिए कि उन्हें संगीतविद् कहना क्या सही है!
    संगीत को जानना और संगीत के बारे में जानना मेरी समझ से दो अलग-अलग बाते हैं (होनी चाहिए)।

  2. युनुस खान जी निःसंदेह एक अच्छे रेडियो-प्रस्तोता हैं।लेकिन, तनिक विचार कीजिए कि उन्हें संगीतविद् कहना क्या सही है!
    संगीत को जानना और संगीत के बारे में जानना मेरी समझ से दो अलग-अलग बाते हैं (होनी चाहिए)।

  3. युनुस खान जी निःसंदेह एक अच्छे रेडियो-प्रस्तोता हैं।लेकिन, तनिक विचार कीजिए कि उन्हें संगीतविद् कहना क्या सही है!
    संगीत को जानना और संगीत के बारे में जानना मेरी समझ से दो अलग-अलग बाते हैं (होनी चाहिए)।

  4. युनुस खान जी निःसंदेह एक अच्छे रेडियो-प्रस्तोता हैं।लेकिन, तनिक विचार कीजिए कि उन्हें संगीतविद् कहना क्या सही है!
    संगीत को जानना और संगीत के बारे में जानना मेरी समझ से दो अलग-अलग बाते हैं (होनी चाहिए)।

  5. युनुस खान जी निःसंदेह एक अच्छे रेडियो-प्रस्तोता हैं।लेकिन, तनिक विचार कीजिए कि उन्हें संगीतविद् कहना क्या सही है!
    संगीत को जानना और संगीत के बारे में जानना मेरी समझ से दो अलग-अलग बाते हैं (होनी चाहिए)।

  6. बहुत अच्छा लिखा यूनुस जी ने हम उनके इन लेखों को दैनिक भास्कर में अक्सर पढ़ते हैं,और मजरूह सुल्तानपुरी जी तो हैं ही लाजवाब

  7. लाजवाब है युनुस भाई… किस सुनहरे अतीत में ले चले हमें…शुक्रिया तहे दिल से…

  8. क्या याद दिलाई है! श्रद्धांजलियाँ। बड़ी मधुर यादें जुड़ी हैं उनसे। मुंबई में उनका घर कबाब खाने का सबसे अच्छा अड्डा होता था एक जमाने में। फिर महबूब स्टूडियो में उनके साथ घंटों बैठना, नौशाद जी के घर जाना। वे कितने प्यारे इन्सान व शायर थे। मैंने उन पर एक लेख मलयालम में लिखा था जो 'मातृभूमि' पत्रिका में छपा था।

  9. बहुत जानकारियों से भरा भीना-भीना सा लेख, जिसमें मजरूह की शख्सियत और बहुत विविधताओं भरे गीतों की जमीन को नजदीक से देख-समझ पाया। बहुत से बार-बार सुने हुए और मेरे पसंदीदा गीत याद आए और बार-बार याद आए। इस सुंदर लेख को पढ़वाने के लिए आभारी हूँ प्रभात। जानकी-पुल सुंदर, बहुत सुंदर है। कभी-कभी इससे गुजरने का सुख लूँगा। सस्नेह, प्र.म.

  10. badhiyaa

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