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‘इस्ताम्बुल’ पढ़ने से ईस्ट और वेस्ट का अपना विजन बनता है

सुपरिचित कवयित्री, अनुवादिका और लेखिका अपर्णा मनोज ने ओरहान पामुक की प्रसिद्ध पुस्तक ‘इस्ताम्बुल’ पर लिखा है. पूर्व और पश्चिम की सभ्यता के संगम स्थल को लेकर पामुक ने स्मृति-कथा लिखी है और उसका विश्लेषण अपर्णा जी ने डायरी की शैली में किया है. बहुत मार्मिक और रोचक- जानकी पुल.  



अपनी डायरी से :
१९ जून २०११
अर्णव
आप जब दुनिया में बहुत रम गए हो या कहूँ कि अघा गए हो  तो अचानक अपने को नितांत अकेला कर लेना , इतना अकेला कि आपके भीतर से आने वाली आवाजें बहुत स्पष्ट सुनाई देने लगें . विस्मृति के नेगेटिव्ज़ कभी न भुला देने वाली तस्वीरें देते हैं , बिलकुल उस तरह जैसे छायाचित्र रोशनी की मांग करता है , लेकिन इस रोशनी को बाँधने के लिए उसे गहरे कालेपन से गुज़रना होता है : एक डार्करूम से . एकांत आपको ऐसी ही सजीव तस्वीरें सौंपता है . ओरहान पामुक के इस्तांबुल को पढ़ना इसी एकांत में ठहरना था . एक एलीजी से निकलना था . एक हुज़ुन में खो जाना था.
पढ़ते-पढ़ते आप पामुक के बचपन में खो जाते हैं . एक ऐसा विस्मयकारी चित्र खिंचता जाता है , जिसमें किसी मृत सभ्यता का गहरा अवसाद है , जीवन का चिंतन है और समय की उलझी हुई अंतरंगता है . ये पामुक का अपना जीवन वृत्तांत है  – १९५२ में एक बुर्जूआ परिवार में जन्म की कथा .. उसमें बनता-बिगड़ता देश, काल, वातावरण ; बहुत स्पष्ट ईमानदार कथोपकथन और न जाने कितने घटनाक्रम .. ये सब आपको शहर से जोड़ते हैं , समुदाय से जोड़ते हैं , परिवारों से जोड़ते हैं , राजनीति और विश्वयुद्ध में ले जाते हैं और आखिर में एक बच्चा आपको बहुत कुछ कहता -बोलता सुनाई देता है , जिसके पास अपनी बात को सिद्ध करने के लिए तर्क भी है और अपने छोटे-छोटे अनुभव भी . आप अभिभूत हो जाते हैं . किंकर्तव्यविमूढ़ .
पामुक ने ऑट्टोमन साम्राज्य के धीरे-धीरे होते पतन को देखा , जिसका दर्द शहर पर बादलों की तरह लदा रहा . यही कारण है कि उनकी पुस्तक इस हुज़ुन से बाहर नहीं आ पाती . वह जीवन को मेलेंकली से जोड़ते हैं ; पर इसमें निराशा नहीं है . पलायन नहीं है . हार के सामने चुप रह जाने का भाव भी नहीं है . मेरे लिए इस हुज़ुन को हेंडल करना भारी लग रहा था . बार-बार संवेग बेकाबू हो जाते और निविड़ ख़ामोशी भीतर तक रिस जाती .मैंने देखा कि  इस्तांबुल के हुज़ुन को लेकर लेखक बहुत पोसिटिव हैं . वे इसे “जीवन को देखने की रीत कहते हैं – जो आखिरकार अस्वीकृतियों में स्वीकृति तलाशती है .” उनके लिए ये एलीजी पर्सनल नहीं है . ये पूरे शहर के वजूद का हिस्सा  है ,अपने ही ढंग का . उसके साम्प्रदायवाद से लेकर उसकी प्रतिबद्धताओं का हिस्सा है . तोल्स्तोय ने भी कहा था कि “शहरों के सुखों का अनुवाद परिवार होते हैं ; वे ही उनकी सही व्याख्या होते हैं, इसलिए हर शहर का अवसाद उसका अपना अवसाद होता है .” मसलन पुर्तगाल में लिस्बन का  सौदाद  (saudade )  जिसके लिए खालीपन शब्द भी अपूर्ण अर्थ देता है . स्पेन में बुर्गोस की उदासी त्रिस्त्ज़ा (Tristeza ) का पर्याय है . वहीँ बूय्नसआयर्स का दुःख मुफा (mufa ) है . इसी तरह पामुक ने इस्तांबुल की पीड़ा को हुज़ुन कहा है . मैं इसे अपने देश की राजधानी दिल्ली से कनेक्ट करके देख रही हूँ.  राजनीति से बोझिल और दबे इतिहास की उच्छ्वास से आहत इस शहर के विषाद को क्या नाम दूँ . कोई अलग शब्द दिमाग में नहीं आ रहा . यहाँ के स्थानिक इसे साझा करते आये हैं  . इस शहर की मेलेंकली का पर्याय इस शहर का अपना नाम है, दिल्ली  बस . ऐसा मैंने पामुक को पढ़ने के बाद सोचा .
हुज़ुन का अर्थ समझाते हुए पामुक कहते हैं कि ये एक तुर्की शब्द है , जिसका मूल अरेबिक से है . कुरान में ये शब्द पांच बार आया है, हजेन के रूप में . ये शब्द रूहानी ग़म का द्योतक है . सूफियों के लिए ये अध्यात्मिक पीड़ा है . इसका  अहसास तब होता है जब हम खुदा से दूर होते हैं . संत जॉन के अनुसार इसे भोगने वाला पीड़ा में इतना डूब जाता है कि वह स्वतः ही डिवाइन की ओर उन्मुख होता है . इस तरह ये तलाशने के बाद की स्थिति है . sought – after state .  पर पामुक ने इसके नए अभिप्राय खोजे हैं . वे कहते हैं कि ये एक सामुदायिक एक्सप्रेशन है . एकाकी अन्यमनस्कता नहीं . किसी का व्यक्तिगत दर्द नहीं है , बल्कि एक ऐसा काला अहसास- जिसे करोड़ों साझा करते हैं . इस्तांबुल पढ़ते समय मैंने इस हुज़ुन को महसूस किया , इतनी दूर अपने शहर में बैठकर .
इस्तांबुल में पामुक अपने मन की कहते हैं , पर इसे मैं सपाट बयानबाज़ी या विशद इतिहास को जानने -समझने की दृष्टि कतई नहीं मानती . मेरे लिए इसके सैंतीस पाठ एक बार में घूमकर खींचे हुए एक यायावर लेखक के छाया चित्र हैं , जिन्हें एक बच्चा अपनी तरह से सीख रहा है . इस बच्चे में मैं पूरा शहर बड़ा होते देखती हूँ … एक ऐसा शहर जो कभी महान साम्राज्य की छाया में पल्लवित हो रहा था , एक ऐसा शहर जिसके मन को छूती नदी बोस्फोरस बह रही है , जहां की ज़मीन वहाँ आने वाले साहित्यकारों , लेखकों और कलाकारों की पदचापों से अभी भी सजग है, और इन सबसे ऊपर – वह नैसर्गिक सौन्दर्य जो अनायास आपको मोहित करता है और न जाने कैसा नुमाया शहर का दर्द जो आपकी नसों में दौड़ेगा , आपको विचलित करेगा और आप हुज़ुन हो जायेंगे .
एक छोटी सी पड़ताल के साथ पामुक अपनी बात शुरू करते हैं . पाठ का प्रील्यूड .  ये उत्सुकता एक बच्चे की  उत्सुकता है . एक तस्वीर को लेकर पैदा हुई उत्सुकता जैसी अमूमन बच्चों में रहती है . ये एक भड़कीला चित्र है , जो यूरोप से लाया गया था और बच्चे की आंट के घर लगा है . पांच वर्ष के बालक को संबोधित करके आंट अकसर कहा करती हैं : ” देखो , ये तुम हो .”  पामुक के लिए , (ये चित्रित बालक , जिसकी शक्ल कुछ उससे मिलती है और जो उसके जैसी ही टोपी लगाये है ) अब उसका ही प्रतिरूप हो गया है . वह दूसरे ओरहान के रूप में उसी शहर में , किसी और के घर में  समानांतर जिन्दगी जी रहा है . पांच वर्ष का पामुक इस बालक से अपने ख्वाबों में दहशत भरी चीख के साथ मिलता है या फिर वह बड़ी बहादुरी से कस के आँखें बंद कर लेता है – दोनों एक -दूसरे को घूर रहे हैं ” एक क्रूर चुप्पी में , भयावहता के साथ .” जैसे एक इस्तांबुल दूसरे इस्तांबुल को डरा रहा हो , हौंट कर रहा हो ; रहस्यपूर्ण छायाएं छायाओं की उपस्थिति में मुखर हो रही हों . वह सारे शहर को ब्लैक एंड व्हाइट में देखता है , जो प्राचीन भग्नावशेषों और पुराने छायाचित्रों में झलक रहा है . बालक को लगता है जैसे ये टूटी ईमारतें अपने पुराने किसी भूतीया वजूद के टोने में मोह ग्रस्त हैं और ये स्मारक भविष्य के किसी विध्वंस की और संकेत कर रहे हैं . पढ़ते -पढ़ते इस विध्वंस की आवाज़ मैं सुन सकी . अपने पास के सन्नाटे में ये कैसी आवाज़ थी .
पामुक का शहर एक मनोवैज्ञानिक के रोशार्क टेस्ट की तरह एम्बीग्युटी में सांस लेता शहर है , जो अपनी पहचान तलाश रहा है . फैले हुए इंकबोल्ट में छिपे किसी व्यक्तित्व की तलाश जैसा. ये चित्र पाठक को अपनी ओर खींचते हैं और इंफाईनाइट व्याख्याएं बनती जाती हैं . एक पचास साल का अधेड़ अपनी स्मृतियों की आँखों से विगत देख रहा है . उसे बच्चा बने रहना है तब तक जब तक वह अपने भीतर की अंतिम तस्वीर दुनिया को नहीं दिखा दे . कितनी बिखरी-बिखरी यादें हैं . अव्यवस्थित . माता-पिता की मुश्किल रिलेशनशिप , एक सनकी दादी , भाई के साथ जद्दोजहद करता उसका मैत्री सरीखा रिश्ता , यौन जागरूकता और उसकी अपनी खोज से मिली नयी सोच , अंतहीन जिज्ञासा , लगातार औरों को देखना , पढ़ना .. कुल मिलाकर इतना तय कर सका बालक कि भविष्य में उसे एक लेखक बनना है .  पामुक का ये अदम्य जीवट क्या किसी युवा को मोटिवेट नहीं करेगा . युवा ही क्यों .. किसी भी उम्र में , कभी भी , किसी भी समय हमें इस जिजीविषा की ज़रुरत रहती है . अपने सन्दर्भ में इसने मुझे बहुत प्रभावित किया .
इस्तांबुल को पढ़ना ईस्ट और वेस्ट को लेकर अपना विज़न बनाने जैसा लगा . ऑट्टोमन टर्की और यरोपियन टर्की के बीच में एक अलग जडवत कर देने वाला शहर पनपता दिखाई देता है . इस्तांबुल के खंडहरों में अपनी अस्मिता खोजता तुर्क , दूसरी तरफ एक मोडर्न शहर . मुझे रह-रहकर कभी ग़ालिब की दिल्ली याद आती तो कभी शोर में खोई दिल्ली . मस्जिद की अज़ान के साथ चर्च की घंटियाँ , सिनेगोग की पूजा , ये सब मिलाकर निरपेक्ष शहर का संकेत करते हैं , लेकिन भारत की तरह यहाँ का अपना हुज़ुन है .. साम्प्रदायिकता , दंगे और उनकी काली तस्वीरें एक विरोधाभास खड़ा करती हैं . पामुक का इस्तांबुल इसी हुज़ुन में सांस लेता नज़र आता है .
एक बार फिर इधर का रुख लूँगी. अभी इस्तांबुल मन के कोने में रख छोड़ा है . इसे पकने में समय लगेगा . शेष फिर .
तुम्हारी अपर्णा
 
      

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10 comments

  1. डायरी के पन्नों से झांकता सृजन का एक नया आयाम…
    बधाई अपर्णा दी!

  2. श्रृष्टि का नियम है बदलाव ..जब कि सब कुछ बदल सकता है ..पर बदलाव कभी नहीं बदलता सतत चलता रहता है ..क्रांति ही उसका एक रूप है ..जो हमारी सभ्यताओं ने देखा जाना ..और उत्प्पन हुवी मिटी .. एक संवेदनशील मन उसको सहज नहीं स्वीकारता ..और बालक मन तो बिलकुल भी नहीं ..और हुजुन में खो कर महान लेखक पामुक की कलम से इस्ताम्बुल की रचना ..जिसमे उनके शहर का पतन, और बालक पामुक का अपने समान्तर पामुक से एक (पेंटिंग में) वाद और फिर एक लेखक के रूप में खुद को स्थापित करना … वाह अपर्णा दीदी आपने भी इस्ताम्बुल की विवेचना के जरिये ज्यू ऑटोमन की सेर करा दी हो .. जब आपकी विवेचना से बालक और उसके गिर्द का संसार और उसकी ख्वाहिश अपने भीतर की अंतिम तस्वीर दुनिया के सामने लाने की .. इतनी जीवंत सी लग रही हो तो पामुक की लेखनी का क्या कहना .. दीदी! आपका शुक्रिया आपकी कलम बहुत सक्षम है .. जो लेखक के भावों को इतने संक्षिप्त में भी हम तक पहुचा सकी …

  3. itna mohit karne wali bhasha me kisi kriti ki pathkiya teep pahli baar padhi.Aparna ji ko badhai itne sundar aur bejod rochak gadhya k liye

  4. इस्ताम्बुल को अपर्णा ने इतनी आत्मीयता से सहेजा है कि नन्द जी से सहमत होते हुए मैं भी कहूँगा कि यह आलेख 'सर्जना का स्वाद' देता है. हम जैसों द्वारा लिखी जा रही शुष्क समीक्षाओं से बिलकुल अलग…हिन्दी को ऐसे सर्जनात्मक पाठकों की बहुत ज़रूरत है…बधाई…

  5. Orhan Pamuk ke upanyas 'ISTAMBUL' par patra shaili mein likhi Aparna ki ye sanshlisht pratikriya apane aap mein ek nai sarjana ka aaswad deti hai. Istambul maine abhi nahin padha, (ichchha hai ki Aparna ki is pratikriya ke bad main pahali fursat mein ise hasil karoon aur fauran padh loon.) wakai adbhut vivechan hai. aur in panktiyon mein to jaise saar hi nichod kar rakh diya hai – 'एक पचास साल का अधेड़ अपनी स्मृतियों की आँखों से विगत देख रहा है . उसे बच्चा बने रहना है तब तक जब तक वह अपने भीतर की अंतिम तस्वीर दुनिया को नहीं दिखा दे . कितनी बिखरी-बिखरी यादें हैं . अव्यवस्थित . माता-पिता की मुश्किल रिलेशनशिप , एक सनकी दादी , भाई के साथ जद्दोजहद करता उसका मैत्री सरीखा रिश्ता , यौन जागरूकता और उसकी अपनी खोज से मिली नयी सोच , अंतहीन जिज्ञासा , लगातार औरों को देखना , पढ़ना .. कुल मिलाकर इतना तय कर सका बालक कि भविष्य में उसे एक लेखक बनना है . ' Aabhar Aparna, tum wakai adbhut pathak ho.

  6. पामुक ने इस्तांबुल की पीड़ा को हुज़ुन कहा है . मैं इसे अपने देश की राजधानी दिल्ली से कनेक्ट करके देख रही हूँ. राजनीति से बोझिल और दबे इतिहास की उच्छ्वास से आहत इस शहर के विषाद को क्या नाम दूँ . कोई अलग शब्द दिमाग में नहीं आ रहा . यहाँ के स्थानिक इसे साझा करते आये हैं . इस शहर की मेलेंकली का पर्याय इस शहर का अपना नाम है, दिल्ली बस ….

    अपर्णा में इसमे अपने देश को देख पा रही हू…मेरी जन्मभूमि जिसके निवासियों में गहरा अविश्वास है…बड़ा डर सा लगता है…
    प्रस्तुति मार्मिक है…सामयिक भी..
    सुमन केशरी

  7. "वह नैसर्गिक सौन्दर्य जो अनायास आपको मोहित करता है और न जाने कैसा नुमाया शहर का दर्द जो आपकी नसों में दौड़ेगा , आपको विचलित करेगा और आप हुज़ुन हो जायेंगे .""——-'इस्ताम्बुल' के लिए लिखी अपर्णा जी की इन पंक्तियों का अपना सोंदर्य है जो हमें न सिर्फ मोहित करता है बल्कि पामुक के आभामंडल से दूर उनके हुजुन को समझने की नज़र देता है.

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