आज सत्यानन्द निरुपम की कविताएँ. वे मूलतः कवि नहीं हैं, लेकिन इन चार कविताओं को पढकर आपको लगेगा की वे भूलतः कवि भी नहीं हैं. गहरी रागात्मकता और लयात्मकता उनकी कविताओं को एक विशिष्ट स्वर देती है, केवल पढ़ने की नहीं गुनने की कविताएँ हैं ये. इस विचार-आक्रांत समय में प्रेम की ऐसी गहरी अनुभूति कविता के छूटे हुए मुहावरों की याद भी दिला जाती है. अब आपके और कविताओं के बीच से हटता हूँ- जानकी पुल.
१.
कुहूकिनी रे,
बौराए देती है तेरी आवाज़.
कहीं सेमल का फूल
कोई चटखा है लाल
तेरी हथेली का रंग मुझे याद आया है
आम की बगिया उजियार भई होगी
तेरी आँखों से छलके हैं
कोई मूंगिया राग री
गुलमोहर के फूल और
पाकड़ की छाँव सखि
पीपल-बरगद एक ठांव सखि
याद है तुमको वो गांव
फुलहा लोटे में गेंदे का फूल
मानो पोखर में तेरे कोई नाव
कैसा वो मिलना
जो बांहों का छूना
यूँ बतरस की लालच
या नयनन के जादू में
डूबना-पिराना
कुछ कहना न सुनना
वो हंसना तुम्हारा
कुएं में डाला हो
गगरी किसी ने
बूड-बूड के डूबना
जो आवाज़ आना
ऐसी ही तेरी आवाज़
अमिया के जैसी ही खुशबू तुम्हारी
रहती है बारहमासी
कच्ची सड़क पर ही बच्चों का हुल्लड
कंची का खेला, अंटी का झगडा
मारा है छुटकी ने
एड़ी धूरा में जो
बहती हवा संग बन के घुमेरा
उड़े बादलों के संग खेत-डडेरा
मुझे याद तेरे बालों की आई
कहीं गाँठ डाली किसी एक में थी
कैसा था टोटका
तू कैसे चिल्लाई
मारा सारंगी पे गच जो अचक्के
ऐसी थी तेरी आवाज़.
नाजो, सुनो ना…
ईया याद आती है
तुमको कभी क्या
मुझे याद अब भी है
दही का बिलोना
नैनू निकलते ही होंठों पर जबरन
रखना-लगाना
कहती थीं-
यूँ ही मुलायम रहेंगे
सचमुच, छुआ जब
तुम्हें, मैंने जाना
नैनू की तासीर मुलायम का माने
नैनू-सी तेरी आवाज़.
२.
तुम्हारी आमद तय थी
थाप सीढ़ियों पर पड़ी
किसी के पैरों की
कानों ने कहा-
यह तुम नहीं हो
और तुम नहीं थी
सोचता हूँ
कानों का तुम्हारे पैर की थापों से
जो परिचय है, वह क्या है…
कुछ अनाम भी रहे जिंदगी में
तो जिंदगी सफ़ेद हलके फूलों की
भीनी-भीनी खुशबू-सी बनी रहती है
यह ख्याल आते ही
सोचना छोड़, देखने लगता हूँ
तुम्हारी राह…
खुशबू के कल्ले-दर-कल्ले फूटते हैं
कमरे के कोने में!
३.
और जब मैंने
तेरे नाम की पुकार लगानी चाही
होंठों के पट खुल न सके
कंठ की घंटियाँ बजें कैसे!
बस…दीये जलते हैं
आँखों में
और हिय में तेरे होने का
अहसास रहता है.
अमलतास के फूल खिल चुके
हवा धूप में रंग उड़ाए फिरती है
तेरी देह-गंध मेरी देह से मिटती ही नहीं
मन बौराया रहता है
मैना फिर आज तक दिखी ही नहीं
वह आख़री शाम थी
तुम्हारे जाने की
आसमान में जब भी टूटता है कोई तारा
मैं तुम्हारे आने की खुशी मांगता हूँ
जब भी खिडकी में उतर आता है
उदासी का पखेरू
मैं तेरे होंठों की खबर पूछता हूँ
और बरबस
एक नाज़ुक सी मुसकुराहट
मेरे होंठों पर
छुम-छ-न-न नाच जाती है
मुझे मालूम है
तुमने देखा है कोई सपना
मैं उसे विस्तार देता हूँ
हम बैठे हैं
किसी ऊँचे टीले के आख़री छोर पर
और नीचे नाचता है मोर
हवा पकड़ रही है जोर
बादल घिर आए हैं
पड़ने लगी हैं बौछारें
रिम-झिम
हम अपनी हथेलियाँ
पसार चुके हैं
मोर अपने पंख समेट चुका
दूर कहीं बिजली कड़की
और तुम डरी नहीं!
पिटने लगी तालियाँ…
मैं तुम्हारे बंधे हुए केश खोल देना चाहता हूँ सखि
आओ, उतरो, आहिस्ते
तुम्हें थामने को हाथ बढ़ाता हूँ
हवा गुदगुदाकर फिसल जाती है
…
ओह! तुम कहीं और हो
तुम्हें पुकार भी तो नहीं पाता…
४.
कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर बोल गया
सूरज माथे से आखों में में उतर रहा
मगर…
कई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी ही बजी हो
दौड़कर देहरी तक पहुंचा तो
शिरीष का पेड़ भी अकेला है
ओसारे पर किसी की आमद तो नहीं दिखती
सड़क का सूनापन आँखों में उतर आता है
कहीं गहरे से सांस एक भारी निकलती है
लगता है अपना ही बोझ खुद ढोया नहीं जायेगा
हवा में हाथ उठता है
किसी का कंधा नहीं मिलता
अंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हैं
उम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैं
बेचैनी की तपिश माथे में सिमट आती है
खूब-खूब पानी का छींटा भी दिलासा नहीं देता
जाने दिल को जो चाहिए
वह चाहिए ही क्यों
हर सवाल का हरदम जवाब नहीं होता
लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि
रास्ते अनुत्तरित दिशाओं को जाते हों
Soft ,sweet n spontaneous flow of human emotions-beautiful.
bahut hi masoom kavitayein hain bhaai.. badhai
जय हो। कुछ कविताएं मुझे भी समझ में आ जाती है। मैं खुश हूं। आभार।
और बरबस
एक नाज़ुक सी मुसकुराहट
मेरे होंठों पर
छुम-छ-न-न नाच जाती है
kaha chupa baitha tha ye kavi
निर्दोष, निर्मल और निरुपम कविताएं… बधाई!
नायक , नायिका और पृष्ठ्भूमि के बिच में ये निर्दोष भावनाए …. वाकई , दिल को को छू गया इन सब का मिलना !!
आप सबने मेरी कवितायें पढ़ीं, बहुत-बहुत शुक्रिया!
Very nice . . .
wah…
शब्द से आनंद मिला।
निरुपमजी समझ नहीं पा रहा हूं कि आपको बधाई दूं या आपके भीतर ये अनूभूति जगानेवाली आपकी सखी/संगिनी को। चलिए दोनों को दे देते हैं, बराबर-बराबर बांट लीजिएगा।
भविष्य के लिए शुभकामनाएं
प्रमोद
Nirupam ki kavitaon ne sukhad ashchary diya. Bahut sahaj aur anokhi abhivyaktiyan. Badhai. – Manisha kulshreshtha
man gaye nirupam ji…
जाने दिल को जो चाहिए
वह चाहिए ही क्यों
हर सवाल का हरदम जवाब नहीं होता
bahut sunder bhai
अमलतास के फूल खिल चुके
हवा धूप में रंग उड़ाए फिरती है
तेरी देह-गंध मेरी देह से मिटती ही नहीं
मन बौराया रहता है
हवा में हाथ उठता है
किसी का कंधा नहीं मिलता
उम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैं
adbhut…….
जो 'मूलतः कवि नहीं है'…उनकी कविताओं का अपना मजा है. सत्यानन्द जी की कविताएँ पढ के जो अनुभूति हुई उसको एक शब्द में 'आनंद' कह सकता हूँ…:)
मुझे मालूम है
तुमने देखा है कोई सपना
मैं उसे विस्तार देता हूँ
ऐसी कोमलता !
हूँ!नजदीक से देखकर कविताएं जितनी अच्छी लगी दूर से भी उतनी ही पसंद आ रही हैं 🙂
khub sir ji…
अंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हैं
उम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैं
ओह! तुम कहीं और हो
तुम्हें पुकार भी तो नहीं पाता…
कुहूकिनी रे
सारी कविताएं एक ही डोर में पुही हुई …ताज़ी
kaise likhi itni sundar kavitaaye. poora din mahka diya. phir se padhungi. aabhar.
"कानों का तुम्हारे पैर की थापों से
जो परिचय है, वह क्या है." बहुत सुन्दर
prem ki khushbu se bhingi.. saras aur manohari.