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एस. आर. हरनोट की कहानी ‘बेजुबान दोस्त’

आज एक कहानी एस. आर. हरनोट की. वे कोई ‘स्टार’ लेखक नहीं हैं, लेकिन एक सजग और संवेदनशील लेखक हैं. हिमालय का जीवन उनकी कहानियों में जीवन्तता के साथ धडकता है. उदाहरण के लिए यह कहानी ‘बेजुबान दोस्त’, जिसमें हिमालय के नष्ट होते पर्यावरण की चिंता है, उसका दर्द है. शायद यही कारण है कि हरनोट की यह कहानी मेरी प्रिय कहानियों में है. पढेंगे तो अच्छा लगेगा- जानकी पुल.
                                                                                                                                                                                                                                             
                 किसन की आदतें समझ से परे हो गई हैं।
                                उसके अम्मा-बापू और दादू उसको लेकर काफी परेशान रहते हैं। वह घर का इकलौता बेटा है। उसकी ऊल-जुलूल हरकतों से घर के ही नहीं गांव-परगने तक के लोग परेशान रहते हैं। इसी वजह से उसकी पढ़ाई-लिखाई भी नहीं हो पाई है। जब वह दूसरी कक्षा में था तो उसकी क्लास के एक बच्चे ने गुलेल से एक चिडि़या मार दी थी। बस फिर क्या था, किशन पगला गया। उसने बच्चे को खूब पीटा और फिर उसी की गुलेल से उसकी एक आंख फोड़ दी। किशन को खूब मार तो पड़ी ही, स्कूल से भी निकाल दिया गया। गांव के बच्चे भी उस घटना के बाद उसके साथ कभी नहीं खेले। इस अकेलेपन ने उसे कई दिनों तक निराश-हताश किए रखा। लेकिन धीरे-धीरे उसका लगाव पशुओं और पक्षियों से होने लगा। मौसमों से होने लगा। बादलों से होने लगा। पेड़ों और झाडि़यों से होने लगा। घाटियों और धारों से होने लगा। तितलियों से होने लगा।
                                किशन अब नौ बरस का हो गया है। पर उसका जिस तरह का पहनावा है उससे उसकी उम्र का अंदाज लगाना मुश्किल है। मां-बाप ने शायद ही कभी नया कपड़ा उसे सिलाया होगा। वैसे अब उसे कपड़े देने की जरूरत भी नहीं पड़ती। गांव का कोई न कोई आदमी उसे कुछ न कुछ दे दिया करता है। इसलिए कभी उसके बदन पर उसके नाम का कपड़ा नहीं होता। वह हमेशा लम्बा बन्द गले का कुरता पहने रहता है। उसके उपर एक पुरानी सदरी। नीचे फटी-पुरानी जीन की पैंट। एक झोला भी वह हमेशा कन्धे पर टांगे रहता है। उसके बाल बेतरतीब से माथे और आंखों पर बिखरे रहते हैं। बालों में भीतर तक धंसे-फंसे चील के नुकीले चिलारू बाहर आने को बेताब। लम्बे बालों के नीचे कानों का केाई अता-पता नहीं। गोल-मटोल मुंह और छोटी नुकीली सी ठोड़ी। नाक माथे की तरफ हल्का सा तना हुआ। उसका ऊपर वाला ओंठ दाएं तरफ से कटा हुआ है जिससे आगे के दो दांत हमेशा बाहर झांकते रहते हैं। कई लोग इसी कारण उसे खंडु कह कर भी पुकारते हैं। उसके ओठों पर हमेशा एक हल्की सी मुस्कान तैरती रहती है। उसके मन में जो कुछ चलता रहता होगा शायद यह उसी की चमक है जिसका नूर उसके चेहरे पर कोई भी देख सकता है। सदरी और कुरते की जेबों में कुछ न कुछ भरा रहता है। किसी में नमक तो किसी में बासी रोटियों के टुकड़े। किसी जेब में चावल तो किसी में जंगल के करूंदु-बैर। पावं में कभी एक तरह के जूते नहीं होंगे। एक में चप्पल तो दूसरे में प्लास्टिक का जूता। कभी वह नंगे पावं ही चला रहता है।
किशन तो जनम का चरवाहा था
                               
                                स्कूल से हटने के बाद किशन कई दिनों तक घर पड़ा रहा। कुछ दिनों के बाद उसे घर वालों ने पशुओं को चुगाने का काम दे दिया। धीरे-धीरे गांव के कुछ और लोगों ने भी उसे यह जिम्मा सौंप दिया था। एक साल के भीतर ही वह पशु चुगाने में पारंगत हो गया। उनके साथ उसका खूब मन भी लगने लगा था।
                                गांव के किसानों के कई गाय-बैल इतने खराब थे कि खूंटे से खुलते ही पखले को सींग से मारने उनके पीछे भाग जाते। पर मजाल है कि किशन के साथ कभी ऐसा हुआ हो। कोई बैल या दूसरा पशु कितना ही सींगमार क्यों न होता, किशन को देख कर ऐसे सहज हो जाता जैसे वह उसी का पाला हो। यही नहीं गांव के खूंखार किन्नौरी कुत्ते जो हमेशा काटने के डर से बन्धे रहते, किशन को देख उनकी आंखों में प्यार सा उमड़ पड़ता। अब तो वह जिस बैल, कुत्ते, भेड़-बकरी या बिल्ली तक को प्यार से बुलाता वे उसके पास चले आते और किशन उनसे बतियाता रहता। उसके घर में दो बैल, तीन गाय और कुछ भेड़-बकरियां थीं। उनका तो वह जैसे सगा हो गया था। गाय कभी दूध न देती और बिगड़ जाती तो उसकी अम्मा किशन को बुला लिया करती। किशन जैसे ही गौशाला की दहलीज पर जाता गाय चुपचाप दूध देने लग जाती। घर वालों को उसकी हरकतों पर कई बार अचरज भी होता। गांव के बच्चे और बड़े अब घर-बाहर या खेत-खलिहान में यह ध्यान रखते कि किसी जानवर या पक्षी को किशन के सामने न भगाए या मारे। यदि किशन ने ऐसा करते देख लिया तो उसकी खैर नहीं। वह किसी को कुछ भी कर सकता था। यहां तक कि उसके सामने अपने पशुओं या कुत्ते तक को कोई फटकार नहीं लगा सकता था। 
                                घर के आंगन में जितने भी पेड़ थे उन सभी पर किशन ने छोटे-छोटे पौ लगा रखे थे। जंगल में वह जहां  पशुओं को चुगाने जाता वहां भी कई पेड़ों की टहनियों पर उसने कुछ न कुछ टांगा होता जिनमें वह रोज पानी डाल दिया करता। देर-सवेर सभी पक्षी उनसे पानी पीते। वह खुद बांवड़ी और नल से पानी लाता और पौ में भरता रहता। छत पर उनको बासी रोटियां डालता। जौ डालता। चावल डालता। अब तो वह किसी भी घर में मांगने भी चला जाता था। जानता था कि कुत्ते या पक्षियों को रोटी-दाना उनके घर में ज्यादा नहीं होता, इसलिए वह गांव में घूमता और लोग उसके झोले में रात की बची रोटियां डाल देते। कुछ दाने डालते तो कुछ चावल डाल देते। पहले गांव वालों को भी उसकी आदतें समझ नहीं आती थीं। लेकिन धीरे-धीरे उसके बावलेपन से उन्हें प्यार होने लगा और उन्हें अब अनाज देना अच्छा लगने लगा था।
                                इतना ही नहीं जब वह अपने पशुओं को लेकर जंगल जाता तो दूसरे पशु भी उसके झुण्ड में चले आते। जबकि गांव के पशु एक दूसरे से इतनी इरख रखते कि देखते ही लड़ जाया करते। पर किशन को देखते वे ऐसा नहीं करते। पशु जब चरते रहते तो वह तितलियों के पीछे भागने लगता। तितलियां भी उसके चारों तरफ इकट्ठी हो जाती, जैसे वह किशन न होकर कोई वनफूल हो। कई बार तो छोटे-छोटे हिरनों और खरगोशों को भी लोगों ने उसके आसपास मंडराते देखा था। पता नहीं उसके पास  ऐसा क्या जादू था ? कोई नहीं जानता था।
नयातोड़की ज़मीन और फैक्ट्री का लगना
                   किशन का परिवार बहुत गरीब था। सरकार की तरफ से बड़ी मुश्किल से उन्हें पांच बीघे का नयातोड़ तो मिला था पर उसके साथ सिमैंट फैक्ट्री लगने के बाद उस ज़मीन पर खतरे के बादल मंडराने लगे थे। इस नएतोड़ की ज़मीन भी  फैक्ट्री की हदों में गिनी जाने लगी थी जो सरकार ने कम्पनी को लीज पर दे दी थी। इसके साथ कम्पनी ने कई दूसरे जमींदारों की ज़मीने भी खरीदनी शुरू कर दी थी। पहले सभी ने पुरजोर विरोध किया था लेकिन धीरे-धीरे सब ठंडा होता चला गया। कारण पंचायतों के कुछ प्रधान और बड़े जमींदार थे जिन्होंने चुपके-चुपके कम्पनी वालों से समझौता कर लिया था और अपनी थोड़ी-थोड़ी जमीनों का करोड़ों रूपए वसूला था। कम्पनी के लिए यह पैसा देना इसलिए नहीं दुखा कि इसी बहाने वे पंचायतों में बसे गांव-गांव तक पहुंचने शुरू हो गए थे। जिन किसानों के पास थोड़ी ज़मीन थी और रोजी-रोटी के कोई बड़े साधन नहीं थे, उनके लिए कम्पनी का विरोध करना सूरज के सामने दिया जलाना था।  इसलिए मजबूरन उन्हें भी अपनी ज़मीने देनी पड़ी थी। इन में कुछ ऐसे भी सिरफिरे थे जिन्होंने अपने बाप-दादाओं की जमीनें बेच दी थी। ये बिचैलिए किस्म के लोग थे। पहले-पहल मेहनत-मजदूरी किया करते थे। लेकिन जमीन बेचकर पैसे मिलने का ऐसा चस्का पड़ा कि अपने पास सिर ढकने तक जगह न बची। ऐसा नहीं था कि उन्हें पैसा अच्छा नहीं मिला था। पर वे कम्पनी और बड़े जमीदारों के मायाजाल में फंसते चले गए और किसी को कानोकान भनक तक न लगी थी। उनकी जमीनों और घासणियों को बिकवाने का काम बिचैलियों ने ही किया था। उन लोगों ने अपनी जमीनों के तो अच्छे पैसे वसूले ही थे पर साथ जिन्हें जमीन बिकवाने के लिए राजी किया था उसके एवज में भी कम्पनी से लाखों की कमीशन खा गए थे।
                                जो लोग समझदार थे उन्होंने कम्पनी से मिले पैसों से अच्छे मकान बना लिए और दूसरी जगहों पर जमीने भी खरीद ली थी। परन्तु कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हें बैठ कर पैसा बरबाद करने की आदत पड़ गई थी। वे या तो जुए में पैसे गंवा देते या दिन-रात शराब पीकर मस्त रहते। बसों में बैठते तो पैसों की ठीस मार कर दूसरे यात्रियों को परेशान करतें। दूकानों में हुड़दंग मचाते। घरों में बच्चों-बीबियों को मारते-पीटते रहते। काम कुछ नहीं करते थे। सारा-सारा दिन किसी घर के लैंटर या किसी दूकान के बरामदे में बैठ कर दारू भी छकते रहते और ताश की चैकडि़यां भी लगी रहती। यानी देखते ही देखते फैक्ट्री के साथ लगी पंचायतों के गांव का माहौल ही बदल गया था। कुछ गिने चुने लोग जो जमीन से मिले पैसे से तरक्की करना चाहते थे वे भी कुछ दिनों में नंगे हो गए थे। उन्हें कम्पनी के अफसरों ने कई तरह के लालच में फंसा दिया था। कम्पनी की तरफ से अच्छा-खासा कर्ज देकर उनसे ट्रक खरीदवाए थे। व्यापार का ज्यादा अनुभव न होने की वजह से वे बेचारे कर्जे की किश्तें भी पूरी नहीं लौटा पाए। जो ट्रक उन्होंने लिए थे वे भी एक ऐसी कम्पनी से लिए गए जिनमें पुराने और सैकिण्ड हैंड पूर्जे थे। इसलिए वे दो-चार चक्कर लगाकर हर कहीं खड़े हो जाते। फिर उनकी मुरम्मत भी कम्पनी के द्वारा बताई वर्कशोपों पर होती रहती। दूसरे उनमें रखे ड्राइवर और कण्डक्टर ही ज्यादा पैसा खा जाते और मालिकों को हमेशा घाटा ही बताते। इस तरह कईयों के तो दीवाले निकल गए थे। लेकिन कम्पनी का काम दिनोदिन बढ़ रहा था।
                कम्पनी के पीछे सरकार थी। उनके मन्त्री थे। बड़े अफसर थे। इसलिए जब कभी कहीं भी विरोध के स्वर उठते तो वे बिना सुनाई के दब जाते। इलाके के थाने उनके थे। प्रधान, सैक्ट्री उनके थे। इन्सपैक्टर उनके थे। पटवारी-तहसीलदार उनके थे। यहां तक कि इलाके का विधायक भी कम्पनी का होकर रह गया था।
                जिन किसानों ने ज़मीनें नहीं दी थी उनकी मुसीबत भी कम नहीं थी। सिमैंट के लिए जिस पहाड़ी से पत्थर जाता वहां दिन-रात ब्लास्ट होते रहते। उनसे कई मकानों में दरारें आ गई थीं। कुछ मकान तो गिर ही गए थे। मुआवज़े के नाम पर किसानों को आधी रकम भी नहीं मिल पाती थी। कईयों के तो चक्कर लगते रहते और उतने में मकान गिर जाता था। लोग रात को सो नहीं सकते थे। दिन को खेतों में काम नहीं होता था। कभी दिन को भी बलास्ट होते तो खेतों को बाहते-बाहते बैल खोलने पड़ते थे। औरतों को घास काटते-काटते खाली लौटना पड़ता था। आसपास के स्कूलों में बच्चों का पढ़ना दूभर हो गया था।
                                सरकार यह दावा भी करती नहीं थकती थी कि उस सिमैंट फैक्ट्री में अधिकतर कामगर स्थानीय ही हैं लेकिन सच्चाई यह थी कि किसी भी बड़े काम में वहां का कोई व्यक्ति नहीं था। जो कुछ गिनेचुने थे वे पत्थरों की खानों में मजदूर का काम करते थे।
उस छोटी सी नदी का गुम होना    
                               
                                उधर कम्पनी ने अपनी एक अलग तरह की छवि बना ली थी। साथ की पंचायतों में वे खूब दान करते। कई परिवारों की बेटियों के ब्याह तक के खर्च स्वयं वहन करते। स्कूल के भवनों को बनवाते। जगह-जगह पानी के नल और हैंडपम्प लगवा देते। मन्दिरों की मुरम्मत करवाते। सराय बनवाते। देवताओं की जातरा और मेले करवाते। यानी ऐसे तमाम कार्य जिनसे उनकी छवि धर्मात्मा, समाजसुधारक की बनी रहे, वे निरन्तर करते रहते। यहां तक कि शहरों में बड़े-बड़े सांस्कृतिक आयोजनों को वे ही पैसा देते। उन्हें स्पांसर करवाते। पर्यावरण दिवस पर तो वे ज्यादा ही सक्रिय रहते। करोड़ों रूपए खर्च कर देते। क्योंकि वे जानते थे कि फैक्ट्री लगाने से पहले पूरे प्रदेश में पर्यावरण प्रदूषित होने के डर से उनका विरोध होता रहा था। इसी मुद्दे के चलते उन्हें कई सालों तक स्वीकृति नहीं मिली थी। लेकिन जेसे-कैसे उन्होंने उसे हासिल कर लिया था। इसलिए इस दिवस को वे विशेषतौर पर मनाते। इस दिन सारे कायक्रमों पर खर्च कम्पनी ही करती। वे हजारों सफेद-हरी टोपियां और टी-शर्टस बनवाती और लागों के साथ सभी बच्चों को भी बांट देती।
                                भीतर की बात यह थी कि जिस इलाके में फैक्ट्री लगी थी उसके आसपास धूल-मिट्टी से लोगों का जीना दूभर हो गया था। खेतों में फसलें पहले जैसी नहीं उगती। घर आंगन धूल से सने रहते। दिन को तो फैक्ट्री की चिमनियां खामोश रहती पर आधी रात के बाद वे धुआं उगलना शुरू कर देती और चार बजे सुबह तक आसमान धुएं के बादल से घिर जाता। लोगों की समझ में यही आता कि आसमान में बादल छाए हैं। जिसे पता भी होता वह कर भी क्या लेता।
                                फैक्ट्री के साथ नीचे एक पहाड़ी नदी बहती थी। जिसमें बारह महीने पानी रहता था। उससे कई पंचायतों के घरों को पानी जाता था। कई सौ बीघे जमीनें सींची जाती थीं। अधिकतर क्यार उसी के किनारे थे। जिनमें लोग धान और हरी सब्जियां उगाया करते। लेकिन देखते ही देखते वह नदी ही गायब हो गई थी। लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए कम्पनी की तरफ से कई विशेषज्ञ बुलाए गए लेकिन उन्होंने प्राकृतिक रूप से नदी सूखने के ही तर्क दिए। लोगों के पास विश्वास करने के सिवा चारा भी क्या था लेकिन सच्चाई यह थी कि लगातार ब्लास्टों से नदी के स्त्रोत ही नीचे धंस गए थे। फिर जो लम्बी सुरंग कम्पनी फैक्ट्री तक पत्थरों की सप्लाई के लिए खोद रही थी उस नदी का बहाव उन्होंने भीतर ही भीतर उसकी तरफ मोड़ लिया था। हालांकि उसमें पहले जैसा पानी नहीं रहा था लेकिन गुजारे लायक तो था ही।
सुरंग और अनुष्ठान की तैयारी
                               
                                कम्पनी ने जहां फैक्ट्री लगाई थी उससे पत्थर की खानें बहुत दूर थी। इसलिए वहां तक पत्थर-मिट्टी पहुंचाने के लिए एक लम्बी सुरंग बनाना जरूरी था।  
                                सुरंग की खुदाई का जब काम शुरू हुआ तो कम्पनी के नाक में दम भर गया। उनके मजदूर जितना मलवा खोदते उससे दुगुना हर सुबह वहां पड़ा मिलता। सुरंग के निर्माण में कोई भी स्थानीय मजदूर नहीं था। एक दिन मलबे के नीचे कई मजदूर दब कर मर गए थे परकिसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। कम्पनी के अफसरों ने उनकी लाशों को भी इतनी सफाई से ठिकाने लगाया कि किसी को कोई अतापता नहीं लगा। इसलिए सुरंग का काम सुचारू रूप से चले उनके एक ज्योतिष ने काम का दोबारा शुभारम्भ पांच जीव बलियों से करने का उपाय सुझाया था। इस महा बलि-अनुष्ठान में एक बच्चा, एक बकरा, एक मूर्गा, एक भैंसा और एक मोर चाहिए था। हालांकि यह बात खुले तौर पर किसी को भी पता नहीं थी लेकिन उन्हीं में से एक मजदूर ने कहीं शराब पीकर यह उगल दिया था। बच्चा लाना बहुत कठिन था। इसलिए कम्पनी वालों को यह बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई थी। वे उसके लिए कोई भी कीमत दे सकते थे। यह बात उन्होंने अपने विश्वासपात्र पंडित मणि राम को बताई थी और साथ लाखों रूपए देने का भी लालच दे दिया।
                               
                                कम्पनी जब भी कोई धार्मिक आयोजन या पूजा-पाठ करती तो पंडित मणि राम को ही बुलाया करती थी। उसे पैसा भी अच्छा-खासा मिल जाया करता। वह उनका बेहद विश्वसनीय आदमी बन गया था। देखते ही देखते उसका दो मंजिला पक्का मकान बन गया था। उसके बड़े बेटे के पास दो छोटी गाडि़यां और एक ट्रक भी आ गया था। जिस घर में कभी रोटी के लाले पड़े रहते वह रात-रात में इतनी तरक्की कर जाए, इसका तो भगवान ही मालिक। उसके कम्पनी के अफसरों से सम्बन्धों की खूब चर्चा रहती।
                                 पंडित कई दिनों तक इसी पशोपश में रहा कि क्या किया जाए ?  अचानक उसे किशन का ख्याल आया। वह अकेला ही सारा-सारा दिन पशुओं के पास रहता था। पंडित मणि राम ने यह कार्य किशन के गांव के एक विश्वासपात्र बिचैलिए को सौंपा था ताकि उसे किसी अनहोनी की भनक तक न लगे। किशन को उसने दिलासा दिया गया था कि उसे पूजा में बैठना है जिसके लिए उसे खूब रूपए दिए जाएंगे। उसे यह भी समझाया गया कि वह इस बात को किसी को न बताएं। किशन को बड़ी मुश्किल से मनाया गया था। वह सुबह जैसे ही पशुओं के पास गया वह आदमी उसे अपने साथ ले गया। उसे नए कपड़े दिए गए। नहलाया-धुलाया गया और एक ऐसी जगह रखा गया जो निपट अंधेरी थी। किशन वहां अकेला नहीं था। उस जगह एक मोर, एक मूर्गा, एक बिल्ली भी बांध कर रखी गई थी। किशन उनको देख कर हैरान सा रह गया। उसे देख कर वे आजादी के लिए छटपटाने लगे थे। उसे वहां अब कुछ अजीब सा लगने लगा था। उसने वहां रखी नंगी तलवारें भी देखीं जिनमें खून के निशान पहले से मौजूद थे। उनमें सिंदूर और मौली बन्धी थी। किशन अब घबरा गया था। वह भागना चाहता था और साथ उन जानवरों और पक्षियों को भी आजाद करवाना चाहता था।
                                देर रात जब उसे लेने लोग आए तो वहां न  किशन था और न दूसरे जानवर। पंडित मणिराम को तो जैसे काठ मार गया। कम्पनी के अफसरों में भी हड़कम्प मच गया था। उन्होंने बहुत पीछा किया लेकिन जंगली रास्तों का वह अच्छा-खासा वाकिफ था जिससे वह बच गया। दूर आकर उसने वह रात एक अन्धेरी गुफा में काटी थी। उसका गांव वहां से दूर था इसलिए दूसरे दिन शाम तक भी वह गांव नहीं लौटा था। दूसरे उसे कम्पनी के लोगों का भय भी था कि वे उसे पकड़ कर दोबारा न ले जाएं।
                                किशन के गायब होने की खबर चारों तरफ आग की तरह फैल गई थी। देर रात जब न किशन घर लौटा और न किसी के पशु गांव लौटे तो उसके घर वालों ने गांव वालों के साथ मिलकर उसकी तलाश शुरू कर दी थी। वह जिस जंगल में पशुओं के साथ दिनभर गुजारता जब वे वहां गए तो देख कर दंग रह गए कि सारे पशु एक जगह जमा है। उनके साथ भेड़-बकरियां भी हैं और दो-चार कुत्ते भी। पर किशन का कहीं अता-पता नहीं है। जैसे-कैसे लोगों ने पशुओं को गांव तक पहुंचाया और दूर-दूर तक जंगलों में किशन को रात भर तलाशते रहे परन्तु उसकी कहीं सार-खबर नहीं मिली। कई तरह की शंकाएं लोगों और उसके घर वालों को खाए जा रही थी।
                                किशन घर में कुछ न बताए इसलिए कम्पनी के एक अफसर के साथ दो-तीन दूसरे कर्मचारी भोर होने से पहले ही गांव में आकर पहुंच गए थे। वे लगातार उसके घरवालों को सांत्वना देते रहे। उन्होंने जंगल और गांव के आसपास अपने कई लोग तैनात कर दिए थे कि किशन सबसे पहले उनकी पकड़ में आए ताकि उसके ढूंढने का श्रेय उन्हें ही मिले। उन्हें यह भी विश्वास था कि किशन अगर कोई ऐसी-वैसी बात बताएगा तो लोग उस सिरफिरे का आसानी से यकीन नहीं करेंगे। फिर जिस तरह की हमदर्दी वे जता रहे थे उससे तो उन पर कतई शक नहीं हो सकता। वह जैसे ही जंगल के बीहड़ों से सुबह निकला कम्पनी के लोगों के साथ गांव के लोगों ने उस पकड़ लिया। वह सहमा हुआ तो था ही। लेकिन गांव के अपनों को देख कर उसकी हिम्मत लौट आई थी। सबसे पहले कम्पनी के अफसरों ने ही उससे पूछ-ताछ शुरू की थी कि वह अपने गुम होने का रहस्य बताए। लेकिन उनके चेहरे तो उसने पहले ही देखे हुए थे इसलिए मारे डर के वह चुपचाप रहा। यहां तक कि अपने पिता व दादू के पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया।
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6 comments

  1. prakriti ke saath ek adbhut tadatmay ki kahaani. aise anek kishan chahiye aaj ke parivesh me. company ke dohre charitr ne british samraajy se lekar vartmaan sarkaar ke sabhi chehre dikhai diye. ek bahut samvedansheel aur vishvsneey kahani. lekhak iske liye badhai ke paatr hai. aur prbhaatji hamesha kee tarah aapki post anokhi hoti hee hai. aabhaar.

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