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नारी का मन और उसकी कलम

कवयित्री, संगीतविद वंदना शुक्ला ने स्त्री-लेखन को एक अलग ही नज़रिए से देखा है. मन और कलम के द्वंद्व के रूप में. स्त्री-लेखन के इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि. कई महत्वपूर्ण सवाल उठाने वाला एक महत्वपूर्ण लेख- जानकी पुल.



नैतिक शिक्षा या नागरिक शास्त्र (सिविक्स) विषय में कुछ वाक्य पढाए जाते थे ,और आगा पीछा तो सब स्मृति धुंध में गायब हो गया कहीं कोई चिन्दियों से अवशेष बाकी हैं अब भी, जैसे ‘’अहिंसा परमो धर्म , ‘’हिन्दुस्तान गांवों में बसता है, अंत में सच्चाई  की जीत होती है, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, सब्र का फल मीठा वगैरह-वगैरह जो आश्चर्यजनक रूप से बस एक वाक्य प्रकट रहा, वह था ‘समय अपनी उम्र के साथ रूप बदलता है, सो इसी ‘’रूप’’ का चमत्कार  था शायद, होश आते आते ‘’नागरिक शास्त्र’’ के कुछ पाठों का इतिहास में बदल जाना | बहरहाल, किताबों में जब हिन्दुस्तान गाँवों में रहा करता था उस वक़्त की बात है, कुछ किताबें दस्तावेज़ प्रस्तुत करती थीं जिनमे से एक ,संयुक्त परिवार के गुणों के विषय में भी हुआ करता था(ज़ाहिर है कि उसकी अगुआई स्त्रियां ही किया करती थीं ), जिसके पीछे पीछे धैर्य, त्याग, सहयोग जैसे शब्द (जो तब  नव-जवान थे ,आज जैसे थके हारे पराजित नहीं) हाथ बांधे बांधे घूमा करते थे परिवार के सदस्यों के आजू-बाजू. हालांकि तमाम चन्दामामाओं, नंदनों, बाल भारतीयों, परागों, अमर चित्र कथाओं, गीता प्रेस गोरखपुर की नैतिक प्रतिबद्धताओं में वर्णित पन्ना धाय का त्याग, झाँसी की रानी की कुर्बानी, सीता की पतिनिष्ठा ,शकुंतला का विरह, रानियों के जौहर, इंदिरा गांधी का शौर्य, इत्यादि स्त्रियों की जांबाजी और त्यागादि देख-पढकर गर्व से सिर ऊंचा हो जाता था, लेकिन जब इतिहास की किताब को चेहरे से हटाने की बारी आई तो वर्त्तमान का परिदृश्य कुछ और ही था |
सामन्तवादी परिवेश (मानसिकता), का क्षरण और संयुक्त परिवारों के ,तथाकथित स्थितिजन्य विघटन से गुजरते हुए परिवारों का एकल होते चले जाना, दरअसल नारी मुक्ति की शुरुआत कही जा सकती है. हमारे यहाँ कुछ तथ्य (ऊपर के वाक्यों की तर्ज़ पर )आप्त वाक्य बना दिए जाने और पीढ़ियों को घुट्टी में पिलाये जाने की परम्परा रही, उन्ही के ध्वस्त होने का वक़्त था ये, अच्छा था या बुरा इस पर अलग अलग राय थी और है. ये प्रसाद,शरदचंद ,रेणु, प्रेमचंद,पन्त, महादेवी वर्मा आदि का दौर था ,अपने ही अधिकारों से वंचित और निर्वासित नारी की विडम्बना का युग ! लेखन ही एक मूक ज़रिया था आत्म दया,पुरुष भर्त्सना, कुंठाओं और अवसाद को प्रकट करने का, विद्रोही या आक्रामक तेवर का युग तो मूलतः बाद की घटना है | भारत की नई नई आजादी ने घुटनों चलना ही शुरू किया था ज़ाहिर है कि वैचारिक और व्यवस्थात्मक उठापटक का दौर था |
इतिहास गवाह है कि यही वह समय था जब स्त्री ने तयशुदा उसूलों और नियमों से बाहर जाकर अदम्य साहस का परिचय दे मुक्ति संघर्ष का शंख नाद किया | इनमें से सबसे अधिक प्रयास लेखन के द्वारा किये गए संभवतः इसलिए कि वो उनके सबसे सन्निकट और सुविधाजनक सम्प्रेषण-माध्यम  था| सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया कहती हैं ‘’मेरी कहानियों के पीछे वे समस्त विसंगतियाँ हैं ,जिनकी मूक दर्शक बनकर बैठना मुझे गवारा ना हुआ ‘’|
हिन्दी की  वरिष्ठ लेखिकाओं द्वारा लिखा गया सार्थक साहित्य सबूत है उस बैचेनी का,जिसने  उस वक़्त जब स्त्री मुक्ति की छटपटाहट ने करवट लेनी ही शुरू की थी,निडर हो अपने लेखन द्वारा समाज में एक नई क्रांति की नीव रोंपी थी मन्नू भंडारी,ममता कालिया,सूर्यबाला,नासिरा शर्मा,मृदुला गर्ग,शिवानी,कुर्तुएल ए हैदर,आदि इसकी मिसाल हैं |
हिंदी जगत से अलहदा यदि उर्दू में देखें तो सर्वोपरि सर्व सम्मत से उत्कृष्ट लेखिका ‘’इस्मत चुगताई’’का नाम ही ज़ेहन में आता है !किसी ने कहा है’’उर्दू अदब में एक दुस्साहसी स्त्री का नाम खोजना हो तो इस्मत चुगताई …उनकी बेबाक बयानी ,चाहे स्त्री मुद्दों पर हो या कुरीतियों पर उनका बेबाक लेखन स्त्रियों के हक में बुलंदी से आवाज़ उठाता और उनके हालातों को बखूबी उजागर करता ! उनकी जागरूकता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वो पहली मुस्लिम महिला थीं जिन्होंने स्नातक उपाधि हासिल की थी इतना ही नहीं उन्होंने ”प्रोग्रेसिव रायटर्स ऑफ़ एसोसिएशन की बैठक अटेंड की थी| उन्होंने उसी वक़्त बेचलर ऑफ़ ”एज्युकेशन की  डिग्री भी हासिल की| कहने का मकसद सिर्फ इतना कि आज के समय में ये सब सामान्य घटनाएँ हैं लेकिन जिस काल की  बात की जा रही है वो भी एक मुस्लिम परिवेश में वो एक मिसाल से कम  नहीं और यही प्रोग्रेसिव्नेस उनके लेखन की एक न सिर्फ विशेषता है बल्कि अन्य लेखिकाओं से उनको विशिष्ट भी बनाती  है!
 नारी मुक्ति की आकांक्षा और प्रयास न सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व का एक साझा प्रयास रहा समय और परिस्थियों के अनुसार 1960 तक सीमोन द बोउवार की किताब ‘’द सेकेण्ड सेक्स’’ और ब्रेत्ती फ्राईदें की ‘’द फेमिनिन ‘’ने नारी समाज में हलचल पैदा कर दी थी और एक विश्व व्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया था | आज ग्लोब्लाइजेशन  का शोर है ,भले इसे  ,’नएयुग की आवश्यकता बताकर महिमामंडित किया जा रहा हो  ,पर सच तो यह है कि ‘’वैश्वीकरण ने सिर्फ राष्ट्रीयता की सीमा को ही नहीं तोडा है बल्कि विचार , धर्म , शिक्षा, स्त्री पुरुष संबंधों तक को प्रभावित किया है |
’’आत्म सम्मान की प्यास और तेज होती है |लगातार किसी के इशारे पर नाचने का मन नहीं करता |कम खाओ,कम ही पियो,कम कम हँसो-बोलो,ये करो ये नहीं ,अब सोओं अब उठो अब इस प्रश्न का ज़वाब दो,अब चुप्पी ही साध जाओ ‘’……..अनामिका के उपन्यास दस द्वारे का पिंजरा से उद्धृत पंक्तियाँ …..|
ये नारी मन का उद्वेलन,कुलबुलाहट उसकी आतंरिक वेदना का ताजातरीन रूप है ,जो दर्शाता है कि आज भी नारी कमोबेश उसी दुविधा और पीड़ा में है जो पच्चीस- तीस बरस पहले थी बस स्वरूप बदल गया है  जहाँ आजादी  के कुछ बाद तक वो घोषित रूप से पीडिता थी ,इस बाजारवादी संस्कृति में उस पर आजादी के भ्रमों का भडकीला आवरण चढ गया है (या चढ़ा दिया गया है ),जिसके भीतर भी एक कुंठित छटपटाहट है जो उसके साहित्य,असहमतियों,जन आन्दोलनों जैसे संप्रेषणों से छनकर बाहर आती रहती है| तस्लीमा नसरीन मानती है कि ‘’शिक्षित और स्व निर्भर होने के बावजूद इस नारी विरोधी समाज में स्त्रियाँ शारीरिक गुलामी से मुक्ति नहीं पा सकतीं ‘’|
नारी मन और उसकी पीडाओं को ना सिर्फ कहानी उपन्यासों कविता स्त्री विमर्श ,नाटकों आदि के माध्यम से स्त्री ने प्रस्तुत किया , बल्कि सच और झकझोर देने वाली आत्मकथाएँ भी लिखीं ,जिससे  समाज में एक तरह की वैचारिक हलचल का माहौल पैदा हुआ| निस्संदेह ये एक दुस्साहसी कदम था जो प्रमुखतः पुरुष सत्ता और उसकी स्त्री के प्रति मनोवृत्ति को उजागर तो करता ही था ,उनकी अपनी अस्मिता के लिए भी संकट का विषय रहा |1975 में अंग्रेज़ी की मशहूर कवियत्री कमला दास की आत्मकथा ‘’माय स्टोरी ‘’नाम से छपी |इसमें एक विवाहेत्तर सम्बन्ध की आकांक्षा रखने वाली ऐसी सभ्रांत मलियाली परिवार की लड़की की कहानी है जो वैवाहिक जीवन के नाकाम हो जाने पर किसी बाहरी प्रेम की तलाश करती है|गौरतलब है कि उस समय में विवाहेतर संबंधों की तलाश और समाज द्वारा स्वीकार्य एक बड़ी बात थी | हालांकि उन्होंने काफी बदनामी और जोखिम का सामना किया लेकिन अपनी बात बेबाकी और निर्भयता से कहने में सफल रहीं |उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा ‘’मै चाहती थी कि स्वयं को उंडेल दूँ ,कोई सा भी रहस्य लुका छुपी ना रहने दूँ ,ताकि जब समय आये मेरे कूच का , तो विदा हो सकूँ एकदम से निर्मल अन्तः करन लिए ‘’ |(उमेश चतुर्वेदी कादम्बिनी से साभार)|लेकिन आत्मकथा के सन्दर्भ में प्रसिद्द लेखिका मालती जोशी का मानना है,’’हम जिंदगी अकेले नहीं जीते  कई लोगों की जिंदगियां हमसे जुडी रहती हैं |जब हम बेबाक होकर अपनी दास्तान कहने लगते हैं ,तो अपने साथ और भी लोगों को बेपर्दा कर देते हैं .हर कोई इस तरह अनावृत होकर जीना पसंद नहीं करता ‘’|
ये धारणा गलत है,कि दूसरे देशों में स्त्री अपेक्षाकृत इन विडंबनाओं से मुक्त है क्यूँकि वह आजाद है| इतिहास साक्षी है,कि महिलाओं की स्थिति कमोबेश सभी देशों में दयनीय रही,उन्हें हर जगह दोयम दर्जे का नागरिक माना गया | गौरतलब है कि 8 मार्च को महिला दिवस की शुरुआत भी ऐसे ही एक स्त्री मुक्ति के आन्दोलन के रूप में हुई |  1908 को न्यूयार्क की एक टेक्सटाइल फेक्ट्री में काम करने वाली हज़ारों महिलाओं ने पहली बार एक विशाल रैली निकाली ,जिसमे उन्होंने अपने काम की स्थितियां परिवर्तित करने की मांग की थी!तभी से हर वर्ष इसी दिन ‘’अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ‘’मनाया जाता है!  कामगार महिलाओं की लड़ाई को वैचारिक मुद्दों से जोड़ते हुए ब्रेटी  फ्रायड मैन ,सिमोम द बुवा की किताबो में शारीरिक श्रम में गैर बराबरी के और कम वेतन के मुद्दों के साथ साथ पितृसत्तात्मक समाज और सामाजिक परिद्रश्य पर स्त्री के प्रति दोयम दर्जे की अवधारणाओं पर खुलकर विरोध दर्ज किया गया |इस सन्दर्भ. में मेरी वालास्तान्क्राफ्त ने ‘’विन्दीकेशन ऑफ द राईट्स वीमेन’’लिखा तो हिन्दुस्तान में भी ताराबाई शिंदे ने ‘’स्त्री पुरुष तुलना’’लिखी|
पश्चिमी देशों में स्त्री मुक्ति के आंदोलनों की लहर विश्वयुद्ध के खिलाफ व तकनीकी ,आर्थिक,सामाजिक ,राजनैतिक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने का संघर्ष है ,लिहाजा उनके सरोकार और हिस्सेदारी ज्यादातर राजनैतिक परिद्रश्यों और सामाजिक स्थितियों को उजागर और वर्णित करने में अधिक रही |
सार्दीनियाँ (इटली) की नोबेल पुरूस्कार विजेता ग्रेजिया देलेदा का 1926 में लिखा गया एक अंश ….. उन्होंने लिखा है ‘’ मैंने आरम्भ में ( 13 वर्ष की उम्र में) इटली का सही चित्र अपनी रचना में प्रस्तुत किया था ये सोचकर कि इसे पढकर इटली वासी बहुत खुश हो जायेंगे क्यूँकि ये उनकी अपनी त्रासदियों का चित्र है लेकिन इसे ज्यादा लोगों ने पसंद नहीं किया मेरी सारी अभिलाषाओं पर पानी फिर गया स्थिति यहाँ तक हो गई कि पुस्तक प्रकाशित होने पर मै पिटते पिटते बची |’’ ये एक उदाहरण है ,लगभग नौ दशकों पहले की स्थिति का | पोलेंड की प्रसिद्द कवियत्री विश्वावा ज़िम्बोर्सका की आरम्भिक कवितायें पूंजीवादी सभ्यता की विरोधी तथा मेहनत कश मजदूर वर्ग के समर्थन की कवितायेँ हैं |यद्यपि उन्होंने कहा ‘’जिंदगी राजनीति से अलग होकर नहीं रह सकती,फिर भी मै अपनी कविताओं में राजनीति से दूर रहती हूँ,(लगभग 1954 के आसपास उन्होंने प्रेम कवितायेँ लिखना प्रारम्भ किया|”) उन्होंने स्पष्ट  किया कि ‘’ मेरी कवितायेँ मुख्यतः लोगों और उनकी ज़िंदगी के बारे में होती हैं ‘’
हालांकि पश्चिम की लेखिकाओं ने भी अपने देश की स्त्री की दुर्दशा को लिखा है पर चूँकि उनकी समस्याएं स्वाभाविकतः अलग थीं इसलिए उसे उस द्रष्टि से लिखा गया जैसे अमेरिका की अश्वेत लेखिका टोनी मॉरिसन का स्वयं का जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा उनके पिता किसान थे| परिवार का जीवन बहुत गरीबी में बीता था |उन्होंने अपने विश्व विख्यात उपन्यास ‘’बिलवेड’’में एक स्त्री की मनोदशा का मार्मिक चित्रण किया है ,जिसका सारांश है , ‘’एक अश्वेत महिला मार्गरेट गार्नर दासी के रूप में काम करती है |एक दिन छुटकारे की मंशा से वह चुपचाप भाग जाती है,और सबसे पहले अपनी जान से अधिक प्यारी बेटी की हत्या कर देती है ताकि बेटी को गुलामी की यंत्रण ना भोगनी पड़े स्थिति की पराकाष्ठा ये,कि उस पर मुकदमा बेटी की हत्या का नहीं बल्कि एक भावी गुलाम की चोरी का चलाया जाता है| ‘’उनके लेखन को नोबेल पुरूस्कार काले लोगों के जीवन अनुभव के लिए ही प्रदान किया गया जो स्वयं उन्होंने एक अश्वेत महिला होने के नाते देखा था संघर्ष किया था |इस के विपरीत नेदीन गौर्दीमर दक्षिण अफ्रीका की श्वेत उपन्यास लेखिका हैं ,और ‘’श्वेत’’ होने के  नाते उन्हें सब सुविधाएँ प्राप्त थीं बावजूद इसके उनका सारा लेखन रंग भेद की नीति के विरुद्ध है|1953 में लिखे गए ‘’द लाईंग डेज़’’उपन्यास में उन्होंने अफ्रीकी महिला के व्यापक होते हुए द्रष्टिकोण का चित्रण किया है |स्वयं श्वेत लेखिका होने के बावजूद,1987 में उन्होंने वहां के अश्वेत लेखकों के संघ बनाने में सहायता की |वे स्वयं अफ्रीकन नेशनल कोंग्रेस की मेंबर रहीं | पाकिस्तान की प्रसिद्द लेखिका नाहीद ने वहां की स्त्री को लेकर आत्मकथा में कुछ गंभीर मुद्दे उठाये हैं | नार्वे की सुप्रसिद्ध लेखिका सीग्रित उन्द्सेट की कहानियों के मुख्य विषय भी स्त्री प्रसंग ही रहे |इनकी कहानियों /उपन्यासों में प्रमुखतः मातृत्व और स्त्री दशा का बहुत जीवंत वर्णन मिलता है| नार्वे की नागरिक होने के बावजूद इनकी रचनाओं में ज्यादातर डेनिश माता का ही चित्रण  मिलता है गौरतलब है कि सीग्रिड की माता डेनिश थीं |उनका सबसे चर्चित उपन्यास है ‘’जैनी’’| सीग्रिड ने नारी मन पर अनेक कहानियां/उपन्यास लिखे जैनी उन्ही में से एक है उसकी कहानी यह है,’’नायिका अध्ययन करने के लिए नॉर्वे छोड़कर रोम चली जाती है वहां उसका परिचय हेल्ज़ से होता है जो मानसिक और नैतिक साहस में दुर्बल है|वह उसके साथ ऐसा स्नेह रखती है,जो पत्नी और माता के प्रेम का सम्मिश्रण होता है |वापस नॉर्वे आकर वो उसे भूल नहीं पाती ,अंततः वो फिर रोम चली जाती है जहाँ हेल्ज़ उसे नहीं मिलता कुछ दिनों तक कला में अपने आप को डुबोना चाहती है पर नहीं भुला पाती इसका अंत दुखद है |’’ | उल्लेखनीय है उन्होंने अपने नोबेल पुरूस्कार की आधी राशि और अपनी किताबों से होने वाली पूरी आय सभी धर्मों के अनाथ बेसहारा बच्चों के लिए दान कर दी थी . हिन्दी की सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका कृष्ण सोबती कहती हैं , ‘you can take liberties with yourself only if you create a large space for yourself…A vast sky….
 कुछ लेखिकाएं जो हिंदी साहित्य की अग्रणी महिलाएं हैं उनकी कहानियां/उपन्यास /आलेख  अत्यंत सारगर्भित और हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कहे जा सकते हैं जैसे  ‘’मात्र देह नहीं औरत ‘’….(मृदुला सिन्हा )!’’आम औरत जिंदा सवाल’’(सुधा अरोड़ा)….’’औरत अपने लिए’’(लता शर्मा )…..’’जीना है तो लड़ना सीखो’’(वृंदा करत)….’’इस्पात में ढलते स्त्री’’(शशिकला राय)…’’स्त्री का आकाश’’(कमला सिंघवी )….आदि!
मधु किश्वर उन चुनिन्दा लेखिकाओं में से एक हैं ,जिन्होंने सत्तरवें दशक में स्त्री और  ह्यूमेन राईट्स मूवमेंट्स में खुलकर हिस्सेदारी की | मधु स्त्री सरोकारों की पत्रिका मानुषी की संपादक रहीं |
भोगे हुए यथार्थ का लेखन ह्रदय और विचारों को अपेक्षाकृत अधिक उद्वेलित करता है | युद्ध  या गुलामी  की स्थितियों में लिखा गया लेखन सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला साहित्य है |हिन्दुस्तान में भीष्म साहनी, मंटो,फैज़,सईद अख्तर,बिस्मिल,भगतसिंह ,दिनकर,व विदेशी लेखकों में  ,मोपांसा,मेक्सिम गोर्की,इमरे कर्तेज़,क्लौड सिमोन, कामिलो जोस थेला आदि इसके उदाहरण हैं | कुछ महिलाओं ने भी अपने साहित्य में युद्ध की विभीषिकाओं का वर्णन किया है |सेल्मा लागर्लेफ़ स्वीडिश महिला थीं ,उन्होंने नरसंहार का वर्णन किया तथा युद्ध की कारुणिक स्थिति और विभीषिका की घोर निंदा की |उल्लेखनीय है कि जर्मन यहूदी कवियत्री  Nelly  Sachs  ने द्वतीय विश्व युद्ध में यहूदी लेखकों से कहा था कि वे अपने साथियों के कष्टों की ओर ध्यान दें | नेली का प्रसिद्द कविता संग्रह ‘’जर्नी इंटू ए डस्टलेस रेल्म’’ में जर्मन में यहूदियों पर जो भयंकर अत्याचार हुए थे, उनका वर्णन किया गया है |
यथार्थ गतिमान होता है
 
      

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17 comments

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  2. vicharneey gyanvardhak aalekh ..

  3. Very much well said

  4. sahitya comes from mind,heart n feelings, n you cant bifercate mind into male and female categories, jahan nar aur anri ka bhed khatam ho jaye, bas bhavnayon ki bat ho wahi to sahiya hai………..

  5. Bahut hi sundar aur gyanvardhak lekh k iye badhayi.

  6. = सुप्रभात = निद्रा टूटी –
    तो शरीर में कुछ सुस्ती – शायद रात को देर तक काम की वज़ह से . . .
    = तभी दूर मंदिर से . .
    घंटे . की आवाज़ . . साथ ही . . ॐ . . के गूंज की मधुर . ध्वनि . . .
    = ऐसा चमत्कार . .
    शरीर की सारी सुस्ती गायब . . जीवन के सारे कष्ट एक पल में दूर . . .
    = आज बात . .
    देवों के देव . . महादेव . . .की
    = याद आयी . . . पुराणों में वर्णित . . कथाओं की . जिसमे स्वयं . देवी – देवताओं द्वारा अपनी मनोकामनाओ की पूर्ति हेतु . . भगवान् भोलेनाथ की अराधना की गई –
    = भगवान् राम .
    ने स्वयं . . रावण . . पर विजय प्राप्त करने हेतु . . सागर तट पर . . शिवलिंग . . की स्थापना कर . . पूजन – अर्चन किया गया . . वो . . शिवलिंग . . बाद में . . . रामेश्वर . . के नाम से विख्यात हुआ . . एक ओर आश्चर्यजनक जानकारी के अनुसार . . इसकी प्रतिष्ठा स्वयं . . महाविद्वान रावण . . ने ब्राम्हण के रूप में की . .
    = एक ओर जानकारी के अनुसार . .
    दानवों . .के साथ युद्ध में जब . . भगवान् विष्णु . . असफल हो गये . . तो कैलाश पर्वत में भगवान् विष्णु ने " हरीश्वर " नामक . . शिवलिंग की स्थापना कर प्रतिदिन 1000 कमलपुष्पो को चढाते हुए " विष्णुसहस्त्रनाम " का पाठ लगातार कई वरसों तक किया . . जिससे प्रसन्न होकर . . भोलेनाथ . . ने भगवान् विष्णु . .को . " सुदर्शन चक्र " प्रदान किया – तत्पश्चात विष्णु जी ने दानवों का संहार किया . .
    = माता सती
    . . जिनका शरीर श्याम वर्ण का था . . . गौर वर्ण . धारण करने के लिए" माता सती " ने " गौरीश्वर " नामक शिवलिंग की स्थापना की . . ओर एक पैर पर खड़े होकर आराधना की ' भगवान् शिव " प्रसन्न होकर माता सती को गौर वर्ण का कर दिया माता सती को आज भी " गौरी " नाम से पूजा जाता है . .
    = द्वापर युग में भगवान् कृष्ण ने बटुकांचल पर्वत पर 7 महीने तक " भोलेनाथ " की पूजा कर अनेक वरदान प्राप्त किये . . .
    = ओर बहुत से प्रमाण है – जब देवताओं ने " भगवान् शिव " की आराधना की . . ओर अपने कष्टों को दूर किया . . .
    = आप सोचिये . . जब " भोलेनाथ " की आराधना से " देवताओं " के दुःख दूर हो सकते है . . तो हम तो एक . . साधारण मनुष्य . है . .

  7. bahut rochak va padhniy aalekh

  8. Naari Shakti ko salaam

  9. Naari Shakti ko salaam

  10. स्त्रियों के लिए प्रेरणादायक लेख !!

  11. बहुत सुन्दर, सार्थक प्रस्तुति| धन्यवाद|

  12. पहला सवाल स्त्री मुक्ति के मायने क्या हैं?

  13. स्त्री के शोषण, संघर्ष और यात्रा पर अच्छा आलेख है. आखिर के पैराग्राफ में उठाए गए सवाल आगे की यात्रा में पथदर्शक का काम करेंगे.

  14. समस्या पर संतुलित चिंतन करता हुआ…

  15. सुंदर और विचारणीय !!!

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