कल ‘समन्वय’ में उर्दू-शायर शीन काफ निजाम ने समां बंध दिया. उनको सुनना बहुत जीवंत अनुभव रहा. शायरी पर उन्होंने काफी विचारोत्तेजक बातें भी कीं. उनकी कुछ चुनिंदा ग़ज़लें हम पेश कर रहे हैं- जानकी पुल.
१.
आँखों में रात ख्वाब का खंज़र उतर गया
यानी सहर से पहले चिरागे-सहर गया.
इस फ़िक्र में ही अपनी तो गुजरी तमाम उम्र
मैं उसकी था पसंद तो क्यों छोड़ के गया.
आंसू मिरे तो मेरे ही दामन में आए थे
आकाश कैसे इतने सितारों से भर गया.
कोई दुआ हमारी कभी तो कुबूल कर
वर्ना कहेंगे लोग दुआ से असर गया.
पिछले बरस हवेली हमारी खंडर हुई
बरसा जो अबके अब्र तो समझो खंडर गया.
मैं पूछता हूँ तुझको ज़रूरत थी क्या निजाम
तू क्यूँ चिराग ले के अँधेरे के घर गया.
२.
वो कहाँ चश्मे-तर में रहते हैं
ख़्वाब ख़ुशबू के घर में रहते हैं
ख़्वाब ख़ुशबू के घर में रहते हैं
शहर का हाल जा के उनसे पूछ
हम तो अक्सर सफ़र में रहते हैं
हम तो अक्सर सफ़र में रहते हैं
मौसमों के मकान सूने हैं
लोग दीवारो-दर में रहते हैं
लोग दीवारो-दर में रहते हैं
अक्स हैं उनके आस्मानों पर
चाँद तारे तो घर में रहते हैं
चाँद तारे तो घर में रहते हैं
हमने देखा है दोस्तों को ‘निज़ाम’
दुश्मनों के असर में रहते हैं
दुश्मनों के असर में रहते हैं
३.
पहले ज़मीन बांटी थी फिर घर भी बंट गया
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया.
अब क्या हुआ कि खुद को मैं पहचानता नहीं
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छंट गया
हम मुन्तजिर थे शाम से सूरज के दोस्तों
लेकिन वो आया सर पे तो कद अपना घट गया
गांव को छोड़कर तो चले आए शहर में
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया
किससे पनाह मांगें कहाँ जाएँ, क्या करें
फिर आफताब रात का घूंघट उलट गया
सैलाबे-नूर में जो रहा मुझसे दूर-दूर
वो शख्स फिर अँधेरे में मुझसे लिपट गया.
४.
छत लिखते हैं दर दरवाज़े लिखते हैं
हम भी किस्से कैसे-कैसे लिखते हैं.
पेशानी पर, बैठे सजदे लिखते हैं
सारे रस्ते तेरे घर के लिखते हैं.
जबसे तुमको देखा हमने ख़्वाबों में
अक्षर तुमसे मिलते-जुलते लिखते हैं.
कोई इनको समझे तो कैसे समझे
हम लफ्जों में तेरे लहजे लिखते हैं.
छोटी-सी ख्वाहिश है पूरी कब होगी
वैसे लिखें जैसे बच्चे लिखते हैं.
फुर्सत किसको है जों परखे इनको भी
मानी हम ज़ख्मों से गहरे लिखते हैं.
५.
मौजे-हवा तो अबके अजब काम कर गई
उड़ते हुए परिंदों के पर भी कतर गई.
निकले कभी न घर से मगर इसके बावजूद
अपनी तमाम उम्र सफर में निकल गई.
आँखें कहीं, दिमाग कहीं, दस्तो-पा कहीं
रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई.
कुछ लोग धूप पीते हैं साहिल पे लेटकर
तूफ़ान तक अगर कभी इसकी खबर गई.
देखा उन्हें तो देखने से जी नहीं भरा,
और आँख है कि कितने ही ख़्वाबों से भर गई.
मौजे-हवा ने चुपके से कानों में क्या कहा
कुछ तो है क्यूँ पहाड़ से नद्दी उतर गई.
सूरज समझ सका न उसे उम्र भर निजाम
तहरीर रेत पर जो हवा छोड़ कर गई.
nizam sahab ke kahne hi kya… tamaam ghazlen umda hain.. bahut bahut shukriya inhe hamse share karne ka..
लाजवाब हैं हमारे अपने निजाम साहब…
अगर हरेक शेर के बीच मे जगह रहेगा तो गजल का प्रभाव और भी बढ़ जायेगा
is shaher me ye hadsa kaisa guzar gaya
insan to raha magar ehsas mar gaya
is saher me ye hadsa kais guzar gaya
insan toraha magar ehsas mar gaya
निजाम साहब ने क्या खूब लिखा है, उन्हें रूबरू भी सुना है, धन्यवाद प्रभात जी कि उनकी रचनाएँ फिर पढ़ने को मिलीं.
बहुत खूब.
निकले कभी न घर से मगर इसके बावजूद
अपनी तमाम उम्र सफर में निकल गई.
आँखें कहीं, दिमाग कहीं, दस्तो-पा कहीं
रस्तों की भीड़-भाड़ में दुनिया बिखर गई.
बहुत खूब! निज़ाम साहब को पढना, सुनना हमेशा एक अलग अनुभव से गुज़रना होता है, बहुत ही कमाल के हैं..आभार भाई!