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समुद्र का जहाँ मिलन होता है चांद में घुली धरती से

नीता गुप्ता यात्रा बुक्स की प्रकाशक ही नहीं हैं बेहद संवेदनशील लेखिका भी हैं. इस यात्रा संस्मरण को ही देखिये. बिना अधिक वर्णनात्मकता के कितनी सहजता से वे हमें अपनी यात्रा में शामिल कर लेती हैं. कुछ यात्राएं मन की भी होती हैं. डोवर से कैले तक की यात्रा भी ऐसी ही एक यात्रा है- जानकी पुल


मुझे रेलवे स्टेशन के नाम से ही घबड़ाहट होती है. लेकिन जब मैं लन्दन के सेंट पेंक्रास स्टेशन पहुंची, तो खुद ब खुद मेरे होंठों पर, इसी जगह पर अमिताभ बच्चन का फिल्माया गाना झूम बराबर झूम आ गया.
यहाँ का माहौल कुछ-कुछ मॉल जैसा था. हर तरफ दुकानें, कैफे नज़र आ रहे थे. प्लेटफार्म सलीके से पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण की ओर जाने वाली ट्रेनों के हिसाब से बंटे थे. और यूरोस्टार का एक अलग ही प्लेटफार्म था, जहाँ शैम्पेन बार पर वेटिंग की सुविधा भी थी.
हां अगर मैं पेरिस के लिए यूरोस्टार लेती तो मैं दो घंटे १५ मिनट में लन्दन से पेरिस पहुँच जाती. कोई भी समझदार यही करता. लेकिन मैंने समझदारी कब दिखाई है? मुझे डोवर से कैले की रोमांचक यात्रा बोट से ही करनी थी. जैसे सदियों से होता आया था. मुझे अतीत हमेशा आकर्षित करता रहा है. दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि लन्दन से पेरिस की यह यात्रा बोट और बस द्वारा मात्र ३२ पौंड में की जा सकती है, जबकि यूरोस्टार में इसी यात्रा के सैकड़ों पौंड लग जाते हैं.
मैंने अपनी यात्रा थोड़ी और कठिन कर ली. सेंट पेंक्रास से मैंने डोवर प्रायरी स्टेशन के लिए ट्रेन ली, कुछ पुराने दोस्तों के साथ ठहरने के इरादे से. मेरी ट्रेन दो मिनट पहले ही पहुँच गई. मेरे दोस्त नियत समय पर पहुंचे. इस बीच मैं अपने भारी सूटकेस के साथ दो प्लेटफार्म पार कर स्टेशन से बाहर निकल आई. (क्यों हम भारतीय इतना सामान लादकर ही सफर पर निकलते हैं? मेरे आसपास के यात्री एक-एक पिट्ठू लटकाए बड़े मज़े में घूम रहे थे. यह गंभीर रूप से सोचने की बात है.) मुझे ज़ोर की भूख लग रही थी और ये लोग चाहते थे कि मैं सबसे पहले डोवर का कासल(दुर्ग) देख आऊँ, इससे पहले कि वहाँ का गेट बंद हो जाए. उनका तर्क था कि कल तुम चली जाओगी फिर मौका नहीं मिलेगा. मैं उनको क्या बताती- कि मैं कितनी थकी थी? कि मैं बिलकुल टूट चुकी थी-मन से और तन से? क्या वे यह समझ पाते कि यह सफर एक बहाना था अपने आत्मविश्वास को फिर से खोजने का, जो मैं खो चुकी थी. आखिर में हमने एक समझौता किया कि वे मुझे डोवर की मरीना पर छोड़ेंगे और मैं खुद डोवर कैसल घूमकर शाम तक घर लौट आउंगी. मैं एक कैफे के सामने उतर गई और वे मेरा भारी सूटकेस लेकर घर लौट गए.
उनके जाते ही मैंने सबसे पहले कैफे में जाकर एक स्ट्रांग कापुचिनो ऑर्डर की और एक सैंडविच खरीदा. मैं इन्हें लेकर डोवर बीच पर उतरी और वहीं एक कोने में बैठकर सबसे पहले पेटपूजा की. आगे समुद्र था, जहाँ चारो ओर सीगल चिड़िया चक्कर लगा रही थी और मेरे पीछे थे डोवर के मशहूर चाक मिट्टी के पहाड़ व उन पर कासल अपनी शालीनता में विराजमान था.
डोवर का समुद्री तट रेतीला नहीं अपितु पथरीला है. मैंने इसके बारे में मैथ्यू आर्नल्ड की विषादपूर्ण कविता डोवर बीच में पढ़ा था. कहा जाता है कि यह कविता उन्होंने अपनी पत्नी के लिए हनीमून के दौरान लिखी थी. शायद यह कविता उनके भाववादी और यथार्थवादी अंतर्मन के बीच हो रहे संघर्ष को दर्शाती है. शायद यही कविता मुझे यहां खींच लाई, उस साहित्यिक सफर को दुबारा शुरु करने के लिए, जो मैथ्यू आर्नल्ड ने शुरु किया था.
अगले दिन, ठीक बारह बजे मैं फेरी स्टेशन पहुंची. लगभग घंटे भर बाद हम बोट पर चढ़े. दोस्तों के कहे अनुसार मैं बड़े शीशे वाले फ्रंट डेक पर आकर बैठ गई. यहां से डोवर के मशहूर चाक मिटटी के सफ़ेद पहाड़ को दूर जाते देखना बेहद खूबसूरत था. इस बीच खाना खाने वालों की कतार लगने लगी. तीन बज चुके थे. सभी भूखे थे. मैं भी लाइन में लग गई. जब तक मेरी बारी आई बस एक ठंढा सा टुकड़ा चिकन पाई का बचा था. इस यात्रा में खाने के मामले में मेरा बैड लक खराब चल रहा था. लेकिन पेरिस पहुँचकर यह कमी मैंने अच्छी तरह पूरी कर ली.
चिकन पाई खाकर मैं अपने मैथ्यू आर्नल्ड की कविताएँ बगल में दबाए ऊपर ओपन डेक पर चली गई. आर्नल्ड की कविता में इसी यात्रा का ठीक उलट वर्णन है. वे फ़्रांस के कैले तट से डोवर बीच तक के सफर को इसमें सजाते हुए, प्रकृति के सौंदर्य से शुरुआत करके चिंतन तक सफर पूरा करते हैं. यह कविता उस दौर में लिखी गई थी, जब डार्विन की ओरिजिन ऑफ स्पेसीज छपी थी और इसने क्रिश्चियन समाज में खलबली मचा दी थी. उस दौर की अनिश्चितता का अवसाद इस कविता में भी झलकता है.
डोवर बीच
कविता की कुछ पंक्तियाँ, मेरे लफ़्ज़ों में…
समुद्र आज शांत है
आओ पास खिड़की के, कितनी मधुर है ये रात
समुद्र का जहाँ मिलन होता है चांद में घुली धरती से
सुनो! यह घिसती गरजती आवाज़
पत्थरों की, जिन्हें लहर अपने आगोश में लेकर वापस उछाल देती है
इंसान की वेदना का स्वर भी शामिल है इस आवाज़ में, एक नई सोच भी
सुनाई देती है उत्तरी सागर के इस किनारे
मैं बहुत खुशनसीब थी कि उस दिन मौसम खुशनुमा था. नीले आसमान में हलके रुई के बादल नज़र आ रहे थे. समुद्र भी शांत था. यह बात कहनी ज़रूरी है कि इन देशों में ऐसा कम होता है. बोट पर भी कई यात्रियों ने मुझे इसका अहसास करवाया. लगभग डेढ़ घंटे में हमारा जहाज़ कैले तट पर पहुंचा. दूर से ही यहां के सुनहरे रेतीले तट मुझे मंजिल का सुखद अहसास करवा रहे थे. मुझे मैथ्यू आर्नल्ड की दूसरी कविता ‘सैंड्स ऑफ कैले’ की की कुछ लाइनें याद आईं… तो कैले इन द ग्लिटरिंग सन…  


(यह निबंध लोकमत समाचार के दीपभव में 2011 प्रकाशित हो चुका है)।      
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6 comments

  1. नीता जी ने सहजता और बेतकल्‍लुफी से यात्रा के रोमांच को यहॉं सहेजा है और इस वृत्‍तांत में कविता गूँथ कर इसे संवेदनशील बना दिया है। मेरा साधुवाद।

  2. भाववादी और यथार्थवादी अंतर्मन

  3. रोचक और लगाव भरा विवरण.

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