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ए. के. रामानुजन का लेख ‘तीन सौ रामायणें: पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार’

अभी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान सलमान रुश्दी को लेकर जो हुआ उससे एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर बहस की शुरुआत हो गई है. अधिक दिन नहीं हुए जब कट्टरपंथियों के दबाव में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से ए.के. रामानुजन के लेख ‘तीन सौ रामायणें: पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार’ को  हटा दिया गया था. सवाल है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में सरकार क्यों बार-बार कट्टरपंथियों के दबाव में आ जाती है. बहरहाल, रामानुजन का वह लेख सम्पूर्ण रूप से हिंदी में यहां दिया जा रहा है. बहुत आवश्यक भूमिका के साथ अनुवाद किया है हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक, कथाकार संजीव कुमार ने. प्रस्तुत है पहली बार वह लेख हिंदी में. इस अनुवाद को देने के लिए एक बार हम फिर देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित संजीव कुमार का आभार व्यक्त करते हैं- जानकी पुल.

नोट- फॉण्ट बदलने में कई स्थान पर ‘श’ की जगह पर ‘ष’ हो गया है और ‘ष’ के स्थान पर ‘श’. कृपया इसके लिए क्षमा करें और सुधारकर पढ़ें.
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तीन सौ रामायणें: पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार                               
ए. के. रामानुजन
हिंदी अनुवादः संजीव कुमार
मैसूर में जन्मे ए. के. रामानुजन (1929-1993) अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान और रचनाकार थे। कन्नड़ और अंग्रेज़ी में लोकसाहित्य, भाषाशास्त्र तथा दक्षिण एशियाई संस्कृति पर प्रचुर लेखन करने के साथ-साथ उन्होंने कविताओं और नाटकों की भी रचना की। 1959-62 में इंडियाना यूनिवर्सिटी में फ़ुलब्राइट स्कॉलर के तौर पर भाषाविज्ञान में शोधकार्य करने के बाद वे यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में दक्षिण एशियाई अध्ययन के शिक्षक नियुक्त हुए और तब से मृत्युपर्यंत वहीं रहे, हालांकि हावर्ड, विस्कान्सिन, कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले इत्यादि से भी उनका अध्यापन का रिश्ता लगातार बना रहा। उनकी दर्जनों प्रतिश्ठित पुस्तकों में से कुछ चुनिंदा इस प्रकार हैं: द इंटीरियर लैंडस्केप: लव पोयम्स फ्रॉम ए क्लासिकल तमिल ऐन्थालाजी, स्पीकिंग आफ़ शिवा, हाइम्स आफ़ द ड्राउनिंग, पोयम्स आफ़ लव एंड वार, फ़ोकटेल्स फ्रॉम इंडिया: ओरल टेल्स फ्रॉम ट्वेंटी इंडियन लैंग्वेजेज़, द स्ट्राइडर्स, रिलेशंस, सेकेंड लाइट, द कलेक्टेड पोयम्स आफ़ ए. के. रामानुजन।
रामानुजन का प्रस्तुत आलेख रामकथा की परंपरा में समाहित विविधता को समझने की दृष्टि से एक नयी ज़मीन तोड़ने वाले निबंध के रूप में समादृत है। दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. स्तर के इतिहास के पाठ्यक्रम में यह लेख पाठ्य-सामग्री के तौर में शामिल था। हिंदुत्ववादियों के मूर्खतापूर्ण विरोध के आगे झुकते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने 2011 के सितंबर महीने में मनमाने तरीके से इसे पाठ्यक्रम से निकाल दिया, वह भी ऐसे समय में जबकि उस विरोध में कोई दमखम रह नहीं गया था। हम इस लेख को हिंदी में प्रस्तुत कर पाठकों को दिखाना चाहते हैं कि वह विरोध कितना बेबुनियाद और बेमानी था और उसके रू-ब-रू विश्वविद्यालय की अतिरंजित सावधानी कितनी हास्यास्पद थी।
यह लेख मूलतः पाउला रिचमैन द्वारा संपादित पुस्तक ‘मेनी रामायणाज़: द डाइवर्सिटी आफ़ अ नैरेटिव ट्रेडिन’ में संकलित है। – संपादक
अनुवादक की ओर से:
अनुवादक संजीव कुमार 

१      रामायण शब्द संस्कृत व्याकरण के हिसाब से नपुंसक लिंग है और हिंदी के प्रचलन के अनुसार स्त्रीलिंग। यहां उसे स्त्रीलिंग में ही रखा गया है। स्त्रीलिंग के अनुरूप ही उसके रूप-परिवर्तन भी किये गये हैं, जैसे कितनी रामायणें। यह थोड़ा अजीब लग सकता है, लेकिन रामायण का बहुवचन रूप तो ऐसे ही बनेगा। अगर यह पुल्लिंग ब्द होता तो साथ में कारक चिह्न न होने की स्थिति में बहुवचन बनाते हुए कितने खेलकी तरह कितने रामायणकहते; स्त्रीलिंग है तो कितनी भूलेंकी तरह कितनी रामायणेंकहना होगा। इस बहुवचन रूप में जो थोड़ा अटपटापन महसूस होता है, वह इस कारण कि हम इस शब्द का बहुवचन में प्रयोग करने के अभ्यस्त नहीं रहे हैं। पर खुद को अभ्यस्त बनाना हमारी जि़म्मेदारी है, ख़ास तौर से रामानुजन के इस लेख को पढ़ते हुए, जिसका मुख्य ज़ोर ही रामायणों को बहुवचन में समझने पर है।
२. मैंने कोशिश की है कि मूल लेख के वाक्यों के आय, स्वर, शैली, क्रम इत्यादि से कम-से-कम विचलित हुआ जाये; विचलन हो तो बस उतना ही जितना हिंदी की प्रकृति के अनुरूप ढालने के लिए निहायत ज़रूरी है। हां, कहीं-कहीं अपनी ओर से शब्द या वाक्यांश जोड़ देने की ज़रूरत महसूस हुई। वहां मैंने उस शब्द या वाक्यांश को बड़े कोष्ठकों […, में रखा है।
३. अंग्रेज़ी में क्रियापदों का अलग से कोई सम्मानसूचक रूप नहीं है, पर हिंदी में बहुवचन के क्रियारूपों को एकवचन में सम्मानसूचक क्रियारूपों की तरह इस्तेमाल किया जाता है। अनुवाद में यह चीज़ ख़ासी दिक़्क़त पैदा करती है। आम चलन यह है कि अंग्रेज़ी में राम गोज़लिखा हो, तो हिंदी में राम जाते हैंहो जाता है और अंग्रेज़ी का रावण गोज़हिंदी में रावण जाता है। मैंने राम के साथ-साथ रावण के लिए भी सम्मानसूचक क्रियारूप इस्तेमाल किये हैं; यही इस लेख की मूल भावना के अनुरूप है।
४.     एक जगह भाषा पर विचार करने वाले दार्शनिक पीअर्स की शब्दावली की मदद लेते हुए रामानुजन ने अनुवाद के तीन प्रकारों की चर्चा की है; वहां मैंने शब्दावली को ज्यों-का-त्यों रहने दिया है। वस्तु को इंगित करने के तरीकों के आधार पर पीअर्स ने संकेतों (साइन) के तीन प्रकार बताये थेः आइकॉन, इंडेक्स और सिंबल। रामानुजन ने इसी को आधार बनाते हुए आइकानिक, इंडेक्सिकल और सिंबालिक अनुवादों की चर्चा की है। इनके आशय वे खुद स्पष्ट करते चलते हैं। इसलिए भी इनका हिंदी प्रतिशब्द ढूंढ़ने/गढ़ने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। अगर मैं इन्हें क्रमशः प्रतिमावत’, ‘सूचकऔर प्रतीकात्मककह भी देता तो क्या हासिल हो जाता! उल्टे, iconicity का अनुवाद करने में बुद्धि जवाब दे जाती (दे गयी, आप समझ ही सकते हैं)। फि़लहाल, इसे हिंदी में मैंने आइकानिकताकहा है। आशा है, यह आपको बहुत उचित नहीं भी, तो कम-से-कम मज़ेदार और संप्रेषणीय अवश्य लगेगा।
५.     श्री रामानुजन ने अपने अंग्रेज़ी लेख में वाल्मीकि रामायण का जो लंबा अंश उद्धृत किया है, वह खुद उनका और डेविड शुलमैन का किया हुआ अंग्रेज़ी अनुवाद है। उसका हिंदी में उल्था करने के बजाय मैंने हिंदी में उपलब्ध अनुवाद (जयकृश्ण मिश्र सर्वेषशास्त्री कृत) का इस्तेमाल किया है, जिसका हवाला यथास्थान दे दिया गया है। हिंदी में उपलब्ध इस बहुत उम्दा अनुवाद की एक ही दिक़्क़त है कि यह पद्यानुवाद है, इसलिए थोड़ा मुश्किल है। मात्राएं और तुक मिलाने की मजबूरी हो तो थोड़े बेतुके शब्द आ ही जाते हैं। मात्राएं और तुक मिलाने की चिंता अनुवादक की प्राथमिकताओं को प्रभावित करती हुई अगर कहीं-कहीं मूल से थोड़ा विचलित भी करवा देती हो तो कोई आश्चर्य नहीं। पर यह देख कर मैं निफिकिरहो गया कि मूल से थोड़ा-बहुत विचलन तो खुद रामानुजन के अंग्रेज़ी अनुवाद में भी है। महत्वपूर्ण यह है कि दोनों जगह इस थोड़े-बहुत विचलन से, उद्धृत प्रसंग के उस पक्ष पर कोई फर्क नहीं पड़ता जिसे सामने रखने के लिए उसे उद्धृत किया गया है।
ऽ      कम्ब रामायण का भी हिंदी में उपलब्ध आचार्य ति. शेषाद्रि का अनुवाद मेरे काम आया है, लेकिन उसे ज्यों-का-त्यों उद्धृत नहीं किया गया है, क्योंकि दोनों जगह पद-संख्याओं का अंतर देख कर मैं निफिकिरनहीं रह पाया। रामानुजन के अनुवाद के साथ उक्त हिंदी अनुवाद का मिलान करते हुए ऐसा भी लगता रहा कि वे जिन अलग-अलग संस्करणों को आधार बना रहे हैं, उनमें पदों की क्रम-संख्या के स्तर पर ही नहीं, कहीं-कहीं कथ्य के स्तर पर भी फ़कऱ् है; या संभव है, वह रामानुजन और आचार्य ति. शेषाद्रि के समझने का अंतर हो। जो भी हो, मैंने किया यह कि दोनों अनुवादों को एक-दूसरे से भिड़ाते हुए, और आचार्य षेशाद्रि के अनुवाद से कई जगह पूरे-पूरे वाक्य उधार लेते हुए, रामानुजन द्वारा उद्धृत पदों के मायने पूरी तरह से गद्य में लिख दिये, ज़ाहिर है, गद्य को भी थोड़ा काव्यात्मक बनाये रखने की कोषिष करते हुए।
ऽ      इस लेख का एक अनुवाद 2010 में वाक्पत्रिका में छप चुका है। जब मैंने अनुवाद-कार्य शुरु किया था, तब यह बात पता नहीं थी। पूरा होने के आसपास इसका पता लगा तो पहले थोड़ा अफ़सोस हुआ कि ख़ामख़ा अनुवाद कर डाला, लेकिन उस अनुवाद को देख लेने के बाद अफ़सोस जाता रहा।
संजीव कुमार
कितनी रामायणें? तीन सौ? तीन हज़ार? कुछ रामायणों के अंत में कभी-कभी यह सवाल पूछा जाता है कि रामायणों की कुल संख्या क्या रही है? और इस सवाल का उत्तर देने वाली कहानियां भी हैं। उनमें से एक कहानी यों है।
     एक दिन राम अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे कि उनकी अंगूठी गिर गयी। गिरते ही ज़मीन को छेदती हुई अंगूठी उसी में खो हो गयी। राम के विश्सनीय अनुचर, हनुमान, उनके चरणों में बैठे थे। राम ने उनसे कहा, ‘‘मेरी अंगूठी खो गयी है। उसे ढूंढ़ लाओ।’’
     हनुमान तो ऐसे हैं कि वे किसी भी छिद्र में घुस सकते हैं, वह कितना भी छोटा क्यों न हो! उनमें छोटी-से-छोटी वस्तु से भी छोटा और बड़ी-से-बड़ी वस्तु से भी बड़ा बन जाने की क्षमता थी। इसलिए उन्होंने अतिलघु आकार धारण किया और छेद में घुस गये।
     चलते गये, चलते गये, चलते गये और अचानक आ गिरे पाताललोक में। वहां कई स्त्रियां थीं। वे कोलाहल करने लगीं,, ‘‘अरे, देखो देखो, ऊपर से एक छोटा-सा बंदर गिरा है!’’ उन्होंने हनुमान को पकड़ा और एक थाली में सजा दिया। पाताललोक में रहने वाले भूतों के राजा को जीवजंतु खाना पसंद है। लिहाज़ा हनुमान शाक-सब्जि़यों के साथ डिनर के तौर पर उसके पास भेज दिये गये। थाली पर बैठे हनुमान पसोपेश में थे कि अब क्या करें।
     पाताललोक में जब यह सब चल रहा था, राम धरती पर अपने सिंहासन पर विराजमान थे। महर्शि वशिष्ठ और भगवन ब्रह्मा उनसे मिलने आये। उन्होंने राम से कहा, ‘‘हम आपसे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बात सुने या उसमें बाधा डाले। क्या आपको यह स्वीकार है?’’
     ‘‘स्वीकार है,’’ राम ने कहा।
     इस पर वे बोले, ‘‘तो फिर एक नियम बनायें। अगर हमारी वार्ता के समय कोई यहां आयेगा तो उसका शिरोच्छेद कर दिया जायेगा।’’
     ‘‘जैसी आपकी इच्छा,’’ राम ने कहा।
     अब सवाल था कि सबसे विश्वसनीय द्वारपाल कौन होगा? हनुमान तो अंगूठी लाने गये हुए थे। राम लक्ष्मण से ज़्यादा किसी पर भरोसा नहीं करते थे, सो उन्होंने लक्ष्मण को द्वार पर खड़े रहने को कहा। ‘‘किसी को अंदर न आने देना,’’ उन्हें हुक्म दिया गया।
     लक्ष्मण द्वार पर खड़े थे जब महर्शि विश्वामित्र आये और कहने लगे, ‘‘मुझे राम से शीघ्र मिलना अत्यावश्यक है। बताओ, वे कहां हैं?’’
     लक्ष्मण ने कहा, ‘‘अभी अंदर न जायें। वे कुछ और लोगों के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण वार्ता कर रहे हैं।’’
     ‘‘ऐसी कौन-सी बात है जो राम मुझसे छुपायें?’’ विश्वामित्र ने कहा, ‘‘मुझे अभी, बिल्कुल अभी अंदर जाना है।’’
     लक्ष्मण ने कहा, ‘‘आपको अंदर जाने देने से पहले मुझे उनकी अनुमति लेनी होगी।’’
     ‘‘तो जाओ और पूछो।’’
     ‘‘मैं तब तक अंदर नहीं जा सकता, जब तक राम बाहर नहीं आते। आपको प्रतीक्षा करनी होगी।’’
     ‘‘अगर तुम अंदर जाकर मेरी उपस्थिति की सूचना नहीं देते जो मैं अपने अभिशाप से पूरी अयोध्या को भस्म कर दूंगा,’’ विश्वामित्र ने कहा।
     लक्ष्मण ने सोचा, ‘‘अगर अभी अंदर जाता हूं तो मरूंगा। पर अगर नहीं जाता तो ये अपने कोप में पूरे राज्य को भस्म कर डालेंगे। समस्त प्रजा, सारी जीवित वस्तुएं जीवन से हाथ धो बैठेंगी। बेहतर है कि मैं ही अकेला मरूं।’’
     इसलिए वे अंदर चले गये।
     राम ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
     ‘‘महर्षि विश्वामित्र आये हैं।’’
     ‘‘भेज दो।
     विश्वामित्र अंदर गये। एकांत वार्ता तब तक समाप्त हो चुकी थी। ब्रह्मा और वशिश्ठ राम से मिल कर यह कहने आये थे कि ‘‘मर्त्यलोक में आपका कार्य संपन्न हो चुका है। अब रामावतार रूप को आपको त्याग देना चाहिए। यह शरीर छोड़ें और पुनः ईष्वररूप धारण करें।’’ यही कुल मिला कर उन्हें कहना था।
     अब लक्ष्मण ने राम से कहा, ‘‘भ्राता, आपको मेरा शिरोच्छेद कर देना चाहिए।’’
     राम ने कहा, ‘‘क्यों? अब हमें कोई और बात नहीं करनी थी। तो मैं तुम्हारा शिरोच्छेद क्यों करूं?’’
    लक्ष्मण ने कहा, ‘‘नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते। आप मुझे सिर्फ़ इसलिए छोड़ नहीं सकते कि मैं आपका भाई हूं। यह राम के नाम पर एक कलंक होगा। आपने अपनी पत्नी को नहीं छोड़ा। उन्हें वन में भेज दिया। मुझे भी दंड मिलना चाहिए। मैं प्राणत्याग करूंगा।’’
    लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे जिन पर विश्णु शयन करते हैं। उनका भी समय पूरा हो चुका था। वे सीधे सरयू नदी तक गये और उसके प्रवाह में विलुप्त हो गये।
    जब लक्ष्मण ने अपना शरीर त्याग दिया तो राम ने अपने सभी अनुयायियों, विभीषण, सुग्रीव और दूसरों को बुलाया और अपने जुड़वां पुत्रों, लव और कुष, के राज्याभिषेक की व्यवस्था की। इसके बाद राम भी सरयू नदी में प्रवेश कर गये।
    इस दौरान हनुमान पाताललोक में थे। उन्हें अंततः भूतों के राजा के पास ले जाया गया। उस समय वे लगातार राम का नाम दुहरा रहे थे, ‘‘राम, राम, राम …।’’
    भूतों के राजा ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’
    ‘‘हनुमान।’’
    ‘‘हनुमान? यहां क्यों आये हो?’’
    ‘‘श्री राम की अंगूठी एक छिद्र में गिर गयी थी। मैं उसे निकालने आया हूं।’’
    राजा ने इधर-उधर देखा और हनुमान को एक थाली दिखायी। उस पर हज़ारों अंगूठियां पड़ी थीं। सभी राम की अंगूठियां थीं। राजा हनुमान के पास वह थाली ले आया, उसे नीचे रख कर कहा, ‘‘अपने राम की अंगूठी उठा लो।’’
    सारी अंगूठियां बिल्कुल एक-सी थीं। ‘‘मैं नहीं जानता कि वह कौन-सी है,’’ हनुमान सिर डुलाते हुए बोले।
    भूतों के राजा ने कहा, ‘‘इस थाली में जितनी अंगूठियां हैं, उतने ही राम अब तक हो गये हैं। जब तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठा कर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।’’
    हनुमान वापस लौट गये।
    यह कथा सामान्यतः यह बताने के लिए सुनायी जाती है कि ऐसे हर राम के लिए एक रामायण है। रामायणों की संख्या और पिछले पच्चीस सौ या उससे भी अधिक सालों से दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एषिया में उनके प्रभाव का दायरा हैरतनाक है। जितनी भाषाओं में राम कथा पायी जाती है, उनकी फ़ेहरिस्त बताने में ही आप थक जाएंगे: अन्नामी, बाली, बंगाली, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावाई, कन्नड़, कश्मिरी, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, मराठी, ओडि़या, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलुगु, थाई, तिब्बती – पश्चिमी भाषाओं को छोड़ कर यह हाल है। सदियों के सफ़र के दौरान इनमें से कुछ भाषाओं में राम कथा के एकाधिक वाचनों (टेलिंग्स) ने जगह बनायी है। अकेले संस्कृत में मुख़्तलिफ़ आख्यान-विधाओं (प्रबंधकाव्य, पुराण इत्यादि) से जुड़े पच्चीस या उससे भी ज़्यादा वाचन उपलब्ध हैं। अगर हम नाटकों, नृत्य-नाटिकाओं, और शास्त्रीय तथा लोक दोनों परंपराओं के अन्य वाचनों को भी जोड़ दें, तो रामायणों की संख्या और भी बढ़ जाती है। दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशियाई संस्कृतियों में इनके साथ शिल्प और नक़्क़ाशी, मुखौटा-नाटकों, कठपुतली नाटकों और छाया-नाट्यों को भी अवश्य जोड़ा जाना चाहिए।  रामायण के एक अध्येता, कामिल बुल्के, ने तीन सौ वाचनों की गिनती की है।  कोई हैरत नहीं कि चौदहवीं सदी में ही एक कन्नड़ कवि कुमारव्यास ने महाभारत लिखना इसलिए तय किया कि उसने धरती को धारण करने वाले ब्रह्मांडीय सर्प शेषनाग, को रामायणी कवियों के बोझ तले आर्तनाद करते सुना। इस पर्चे में, जिसके लिए मैं बहुसंख्य पूर्ववर्ती अनुवादकों और विद्वानों का ऋणी हूं, मैं यह देखना चाहूंगा कि मुख़्तलिफ़ संस्कृतियों, भाषाओं, और धार्मिक परंपराओं में एक कथा के ये सैंकड़ों वाचन परस्पर कैसे संबंधित हैं: उनमें क्या-क्या अनूदित, प्रत्यारोपित, पक्षांतरित होता है।
वाल्मीकि और कम्बन: दो अहिल्याएं
ज़ाहिर है, ये सैकड़ों वाचन एक दूसरे से भिन्न हैं। मैंने प्रचलित शब्द पाठांतर (वर्जन्स) या रूपांतर (वैरिएन्ट्स) की जगह वाचन (टेलिंग्स) कहना पसंद किया है तो इसका कारण है कि पाठांतर और रूपांतर, दोनों शब्द यह आशय भी देते हैं कि एक कोई मूल या आदि पाठ है जिसे पैमाना बना कर इन भटकावों की पहचान की जा सकती है,। सामान्यतः वाल्मीकि की संस्कृत रामायण को वह दर्जा मिलता है, जो कि सभी रामायणों में सबसे आरंभिक और प्रतिश्ठित है। लेकिन जैसा कि हम देखेंगे, हमेशा वाल्मीकि के आख्यान को ही एक से दूसरी भाशा में ले जाने का काम नहीं होता रहा है।
शुरुआत करने से पहले कुछ अंतरों को चिह्नित कर लेना उपयोगी होगा। स्वयं परंपरा एक ओर रामकथा और दूसरी ओर वाल्मीकि, कम्बन या कृत्तिवास जैसे विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा रचित पाठों के बीच फर्क करती है। हालांकि बाद वाले कई पाठ भी लोकप्रिय स्तर पर रामायण ही कहे जाते हैं (मसलन, कम्बनरामायणम), लेकिन कुछ ही पाठों के नाम में सचमुच रामायण लगा हुआ है; इरामावतारम, रामचरितमानस, रामकियेन – इस तरह के नाम दिये गये हैं। वाल्मीकि द्वारा कही गयी रामकथा के साथ उनके संबंध भी जुदा-जुदा हैं। कथा और काव्य का यह पारंपरिक अंतर फ्रेंच के सुजेटऔर रेसिट’, या अंग्रेज़ी के स्टोरीऔर डिस्कोर्सके अंतर से मेल खाता है। 

 
      

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2 comments

  1. सबसे पहले तो इस शोधपूर्ण लेख को हिंदी पाठकों के एक बड़े वर्ग तक पहुँचाने के लिए मैं 'जानकी पुल' को धन्यवाद देता हूँ. भारत में जो धार्मिक जड़ता घर कर गयी है, और जिस तरीके से राजनीति, धर्म और अंधविश्वासों का घालमेल करके उसे सत्ता ने अपने अस्तित्व के साथ जोड़ दिया है, उससे इस बात से अधिक और क्या उम्मीद की जा सकती है कि हम खुद को 'स्टुपिड' (इसका हिंदी अनुवाद मैं नहीं जानता) परंपरा का हिस्सा समझने में ही गर्व का अनुभव करते हैं. इस लेख को पढने के बाद तो यह बात और भी स्पष्ट हो गयी है कि (उत्तर) भारतीय समाज में यह स्थिति पैदा करने के लिए सिर्फ और सिर्फ ब्राहमण जिम्मेदार हैं. यह भी अनायास नहीं है कि उत्तर भारत में रामकथा के सारे पाठ ब्राहमण मनोवृत्ति के पोषक पाठ हैं. इस लेख से यह बात भी सामने आई है कि किसी भी समाज को जानने के लिए ही नहीं, उसके परिनिष्ठित साहित्य को समझने के लिए भी लोक विश्वासों की परंपरा को जानना बहुत आवश्यक है. समाज का ही नहीं, साहित्य का भी वास्तविक इतिहास लोक विश्वासों के माध्यम से ही लिखा जा सकता है. करीब एक दशक पहले महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अशोक वाजपेयी ने यह कोशिश की थी, मगर मंशा ठीक होते हुए भी वह इसलिए सफल नहीं हो पाई क्योकि लोक दृष्टि का आधार न अशोक वाजपेयी के पास है, न नीलाभ के पास और न अपूर्वानंद के पास. अगर हम यह कहें की हिंदी के भद्र समाज की दृष्टि अनिवार्य रूप से ब्राह्मणवादी दृष्टि है तो कतई गलत नहीं होगा. जब हमारे पास लोक-दृष्टि है ही नहीं तो कैसे हम समाज की अंतर्धारा को समझ सकते हैं, कैसे उसे रच सकते हैं और कैसे उसका मूल्यांकन कर सकते हैं ? हिदी लेखन में जो एक अखिल भारतीय जातीय दृष्टि सिरे से गायब दिखाई देती है, उसका शायद यही कारण है. जब प्रेमचंद को शामिल करते हुए यह कहा जाता है कि हमारे पास कोई बंकिम, शरत या के. आर. नारायण तो क्या, सलमान रुश्दी के कलेवर का लेखक भी नहीं है तो क्या गलत कहा जाता है ? एक-आध हरिशंकर परसाई या श्रीलाल शुक्ल हैं तो उन्हें व्यंग्यकार कहकर मनोरंजक लेखन के खाते में डाल दिया गया. रेनू कितने कहाँ तक लोक के हैं ? या विजयदान देथा या शानी या अमृतलाल नागर… ये सभी लोग तो मुख्यधारा की और ललचाई नजर से ताकने वाले लेखक हैं. जहाँ तक हिंदी कवियों का सवाल है, वे तो आज तक भी रूमानी जमीं से मुक्त नहीं हो पाए हैं.

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