चीन के विद्रोही कवि जू युफु ने एक कविता लिखी ‘it’s time’, skype पर. इस अपराध में उन्हें सात साल की सजा सुनाई गई है. वही कविता यहां हिंदी अनुवाद में. लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का यह सबसे बड़ा मामला है. क्या इसकी निंदा नहीं की जानी चाहिए?
कविता
यही वक्त है, चीन के लोगों!
यही वक्त है.
चौक सब लोगों का है.
यही वक्त है अपने दो पैरों से चौक की ओर बढ़ने का
और अपना चयन करने का.
यही वक्त है
चीन के लोगों यही वक्त है .
गीत सबका होता है.
समय आ गया है
अपने गले से अपने दिल का गीत गाने का.
यही वक्त है
चीन के लोगों यही वक्त है
चीन सबका है
यही वक्त है
अपने संकल्प से
यह चुनने का
कि चीन आखिर कैसा होगा?
आवाज़ फिर भी उठेगी…
कलम की ताक़त को रौंदा नहीं जा सकता.
बहुत ओजस्वी! और इंकलाबी!
चीन आखिर कैसा होगा , किसी चीनी लेखक को ये सवाल पूछने का हक क्यों नहीं होना चाहिए .सवालों का गला घोंट कर उन सवालों से से न अमरीका बच सकता है , न चीन .
अभिव्यक्ति और संकल्प को कुचलने की हर कोशिश निंदनीय है….
"चौक" जो प्रतीक बन गया है पिछले बाईस सालों में "विमति" की अभिव्यक्ति का, तो साथ ही उसके दमन का भी, एक पात्र जैसा बन गया है इस कविता में. एक-एक शब्द लोगों की सचेतनता और सजगता को बढ़ाने का काम करता है. अभिव्यक्ति पर अंकुश कहीं भी लगे उसका प्रतिकार होना चाहिए. सत्ताधीशों को समझना तो चाहिए ही कि बहुत देर तक जनता की आकांक्षाओं का गला घोंट कर नहीं रखा जा सकता. इस क्रम में मुझे वोज्ज्नेसेंस्की की छोटी सी कविता मुझे सहसा याद हो आई : "जब वे हम पर/ पदाघात करते हैं/ तो वे आसमान के/ उभार को लतियाते हैं."
आखिर कैसा होगा चीन? ऐसा गीत तो अमेरिका भी गाता है, चीनवासियों के लिए, निश्चय ही इरादे अलग-अलग होंगे। कवि के बारे में कुछ और भी दीजिएगा। उन पर कार्वाई की निंदा तो की ही जानी चाहिए।