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नयी पीढ़ी उन्मुक्त होकर जीना चाहती है

नमिता गोखले भारतीय अंग्रेजी की प्रमुख लेखिका हैं. अंग्रेजी साहित्य के ‘बूम’ के दौर में उनके उपन्यास ‘Paro: Dreams of Passion’ की बड़ी चर्चा हुई थी. अभी हाल में ही उनकी कहानियों का संचयन आया है ‘The Habit of Love’. प्रस्तुत है उनसे एक बातचीत. बातचीत की है हिंदी के जाने-माने पत्रकार शशिकांत ने. यह बातचीत हिंदुस्तान टाइम्स समूह की मासिक पत्रिका कादम्बिनी के मार्च अंक में पहले प्रकाशित हो चुकी है– जानकी पुल
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1. बतौर लेखिका आज के भारतीय समाज को आप कितना खुला हुआ और कितना बंद देखती हैं?

होली हर रंग का त्यौहार है। वसंत ऋतु से इसका गहरा सम्बन्ध है। स्पेन और लातिन  अमेरिका के कार्निवल भी इन्ही खुली उन्मुक्तताओं के जश्न हैं। भारतीय पारम्परिक साहित्य और मिथकों में उन्मुक्तता और आनंद का वर्णन पाया जाता है। शायद मुगल और  विक्टोरियन काल के दौरान इन प्रथाओं में संकीर्णता आ गयी। भारत के हर वर्ग और समाज की हर परत की अपनी  अलग पहचान है, तो ऐसे में सामान्यीकरण करना मुश्किल है। 


2. आज की नई पीढ़ी को देखकर आपको लगता है कि पुरुष प्रधान भारतीय समाज और उसके सामंती रवैये में बदलाव आ रहा है या अभी भी भुत कुछ बदलाव की गुंजाइश है?


हर समाज में बदलाव की गुंजाईश होती है, और होनी भी चाहिए। भारतीय समाज के बारे में भी मेरी यही राय है। मैं भारतीय समाज को लेकर बहुत आशावादी हूँ। मुझे लगता हैं कि भारतीय स्त्री और पुरुष में यह क्षमता है कि वे अपने पूर्वाग्रहों और रूढि़वादिता से आगे बढ़ सकें। पूर्वाग्रह और रूढि़वादिता हमें पीछे की ओर धकेलते हैं। हमें इनसे आगे बढ़ना ही चाहिए।


आज की नयी पीढ़ी को जब मैं देखती हूं तो मन को सुकून मिलता है। एक ओर जहां नवयुवतियों में उत्साह और हौसला नजर आता है, वहीं नवयुवकों में भी नए जमाने के हिसाब से खुद को ढालने का जज्बा दिखायी देता है। 


यहीं हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहां पितृसत्ता और पुरुषत्व का आधिपत्य सदियों से चला आ रहा है। इनसे जूझना इतना आसान नहीं है, लेकिन सिनेमा, टेलिविजन और मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण फर्क तो पड़ने लगा है। दरअसल नयी पीढ़ी उन्मुक्त होकर जीना चाहती है।


3. भारतीय स्त्रियों ने पारिवारिक-सामाजिक ढाँचे में रहते हुए स्त्री मुक्ति की राह बनाई है। इस संघर्ष को आपने व्यक्तिगत तौर पर कितना महसूस किया है?


मैं एक कुमाऊंनी हूँ। हमारे यहाँ स्त्रियां तुलनात्मक रूप से आजाद खयालों की रही हैं। मेरी अपनी स्थिति भी कुछ ऐसी रही की मेरे मन में कभी कोई ऐसी बाधाएं नहीं आयीं। कॉलेज के दिनों में मैंने Germaine Greer की  ‘Female Eunuch’ पढ़ी, जिसका मेरी इस ओर की सोच पर बहुत गहरा असर पड़ा। 


फिर अठारह साल की उम्र में मेरी शादी एक बहुत ही लिबरल मराठी परिवार में हुई। मेरे पति राजीव गोखले ने मुझे जबरदस्त इमोशनल सपोर्ट दिया और मेरी ननद- श्रीमती सुनंदा भंडारे – जो एक वकील और हाईकोर्ट की जज थी, मेरी लिए प्रेरणा स्रोत थीं, साथ ही एक सहेली भी। 


जब मेरा उपन्यास पारो प्रकाशित हुआ – जो अपने आप में काफी बोल्ड था और जिसने भारतीय मध्यवर्ग की परम्पराओं और सामाजिक सीमाओं को हिलाया था – तो मेरे परिवार ने मुझे बिलकुल नहीं टोका। 


दरअसल मेरा हर उपन्यास स्त्री मन को टटोलने का एक प्रयास है. साथ ही एक कोशिश है स्त्री मन के बारे में सोचने, सीखने और उसके विस्तार को बढ़ाने की. मेरा एक और उपन्यास है- इन सर्च ऑफ़ सीता‘. इस उपन्यास ने बहुत सारी स्त्रियों और पुरुषों को प्रभवित किया। उन्हें अपने मूल आदर्शों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित किया। 


4. हमारे यहाँ आज भी कुछ ऐसे सांस्कृतिक कर्म हैं जो स्त्री को बांधते हैं (दहेज़ वगैरह) और कुछ ऐसे भी जो उसे मुक्त करते हैं. होली जैसे त्यौहार इसकी मिसाल हैं. मुक्ति और बंधन के सांस्कृतिक द्वंद्व को आप किस निगाह से देखती हैं?


वास्तव में देखा जाए तो जिन्दगी में हम खुद को अपने बंधनों से सीमांकित करते हैं। और यही बंधन हमें आगे बढ़ने के लिए उकसाते भी हैं। मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ क्योंकि न मेरे अपने परिवार, न मेरे ससुराल और न मेरी बेटियों के घर में मुझे दहेज की प्रथा से रू-ब-रू होना पड़ा। 


हमारे यहाँ का संयुक्त परिवार हर पीढ़ी की औरत को एक जबरदस्त आधार और नेटवर्क प्रदान करता है। हमें संयुक्त परिवार की इस व्यवस्था को बचाए रखने की जरूरत है। 


संयुक्त परिवार व्यवस्था में अपनी अलग-अलग भूमिका में एक भारतीय स्त्री अपने परिवार को विकसित करती है, अपनी रहस्यात्मक शक्ति से उसे बल देती है और अपनी अस्मिता से उसकी पहचान कराती है। 


मुझे नहीं लगता कि आज इक्कीसवीं सदी में भारतीय स्त्री अगर मर्दों की तरह बन जाये (हाय एंड हील्स पहनने वाली मर्द बन जाये) तो उसमें कोई बहुत बड़ी बात है।

 
      

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8 comments

  1. बहुत खुली और बेबाक बातें कही हैं नमिताजी ने, जो उनका अपने जीवन-संघर्ष से कमाया अनुभव है। यही बात उनके लेखन से प्रमाणित भी होती है। एक अच्‍छा संवाद प्रस्‍तुत करने के लिए प्रभात को बधाई।

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