सूर्यनाथ सिंह जनसत्ता के संजीदा पत्रकार ही नहीं हैं, बेहतर किस्सागो भी हैं. उनकी कहानियों में वह दुखा-रुखा गाँव अपनी पूरी जीवन्तता के साथ मौजूद रहता है जो अब भी विकास के वादों के सहारे ही जी रहा है, जो धीरे-धीरे हिंदी कहानी से गायब होता जा रहा है. फिलहाल यह कहानी- जानकी पुल.
एक्सप्रेस–वे, बिजली परियोजना और बिजनेस सेंटर खुलने की खबर आई तो साढ़े आठ गांवों के आधे से कुछ अधिक चेहरे खिल उठे। महुआझोंझ, पांडेपुर, मलदहिया, मिश्रौली, केसला, जमुई, बसनही, अब्दुलपुर और आधा आलमगंज। नौगांवा के नाम से मशहूर। एक बड़े वृत्त के रूप में बसे। बीच में इन गांवों के खेत–खलिहान। इन्हीं के भीतर से एक पतली नहरनुमा नदी निकलती है। बरसात के समय पता नहीं कहां से पानी लेकर आती है और इस कटोरानुमा इलाके को जलमग्न कर देती है। दूर–दूर तक पानी ही पानी। जैसे समंदर का फैलाव। मगर हफ्ता भर बरसात न हो तो सूखा पसर जाता है, जैसे छलनी में रखा पानी गायब हो जाए। सर्दियों में यह इलाका खूब हरा–भरा दिखता है। बाहर से आया कोई देखे तो इस इलाके की हरियाली पर लहालोट हो जाए।
नक्शा देखने की जरूरत नहीं। ये गांव उत्तर प्रदेश के नक्शे में हैं। जहां से पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बंटवारा शुरू हो जाता है, वही इनका सिवाना है। हालांकि ठीक–ठीक आज तक कोई नहीं बता पाया कि इनमें से कौन–सा गांव पूर्वी उत्तर प्रदेश के हिस्से में है और कौन–सा पश्चिमी के। धुर पूरब वाले इन्हें पश्चिम के खाते में डाल देते हैं तो पश्चिम वाले पूरब के। मगर इससे इनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। जैसे मस्त रहते आए थे, रहते हैं। हां, कभी–कभार यह कसक जरूर इनके मन में उभरती देखी गई कि दिल्ली से सटे इसी राज्य के पश्चिमी हिस्से के गांव कुछ ज्यादा खुशहाल होते गए हैं। जो सरकार आती है, उधर ही ध्यान देती है। एक ही सूबा, एक ही सरकार, मगर दो भाव! दिल्ली से सटा हिस्सा चमाचम और जैसे–जैसे पूरब खिसको अंधेरा और अंधेरगर्दी!
खैर, खबर लेके आया रामरख राजभर का मेठ। बसनही के बलेसर यादव का बेटा रामसरे। रामरख के भट्ठे पर पथवा, बोझवा, झोंकवा, लदाई–ढुलाई वगैरह करने वाले सब पर नजर रखने की जिम्मेदारी उसी पर है। कौन पथवा नहीं आया, किसने कम र्इंट पाथी, कौन बोझवा कदराही करता है, सबकी नस रामसरे के हाथ। किसके यहां कितनी र्इंट जाएगी, किसके पास कितना बकाया है, कौन भाव–ताव के चक्कर में पचीस रुपया सैकड़ा कम पर राजबली राय के भट्टे पर भागने का मन बना रहा है, उसे तोड़ के लाना है, सब रामसरे की चिंता। दिन भर इधर से उधर भागता फिरता है।
रामरख को रामसरे पर पूरा भरोसा है। कोई गड़बड़ी हो जाए तो एक बार को वे अपने सगे भाई पर शक कर लें, रामसरे पर नहीं। बस, सुबह–शाम भट्ठे का मुआयना करने, हिसाब लेने पहुंच जाते हैं, बाकी पूरा दिन इस नेता, उस नेता के संग गुजरता है। पिछली बार जिला पंचायत का अध्यक्ष पद महिला के लिए आरक्षित हुआ तो पत्नी को चुनाव लड़ा दिया। सारे जातीय समीकरण हल किया। निकल के आया कि दलित और सवर्ण भिड़ेंगे तो पिछड़ा का सारा वोट उन्हें विजयी बना देगा। मगर पड़ गया उल्टा। सारे बाबू–बाभन पलट गए। दलित कैंडिडेट को सपोर्ट कर दिया। कहा, रजभरवा को तो हम साथ उठाते–बैठाते रहे। उसका छुआ खाया–पीआ, नेवता–हंकारी सब किया। ऊ ससुर के पंख निकल आए। पूछा–ताछा भी नहीं, बताया तक नहीं, खड़ा कर दिया मेहरारू को। हमरे गोद में खेले, अब हमरे सिर पर मूतने की तैयारी! मूतने देंगे तब न! जिताओ भाई हरिजन महिला को, अहसान मानेगी। दाग भी धुलेगा कि हम दलितों को अच्छी नजर से नहीं देखते। बस, रामरख का गणित गया गड्ढे में।
मगर अब भी वे हिम्मत नहीं हारे हैं। राजनीति में घुस के हार मान जाए, वह नेता क्या! बार–बार गिर के चढ़ने की उम्मीद तो मरते दम तक बनी रहती है। सो, रामरख की सक्रियता बढ़ गई। लग गया लेबल समाजवादी पार्टी का। हर मीटिंग–बैठक में मौजूदगी जरूरी। हर धरना–प्रदर्शन, घेराव–हुलकाव में बंदोबस्ती ड¬ूटी। दिल्ली–लखनऊ से संपर्क साधे रखना जरूरी। इसी सक्रियता का नतीजा था कि सरकार की नई योजना के कागज पर अंतिम रूप लेने से पहले ही रामरख को जानकारी मिल गई। रामरख से वह खबर रामसरे ने चूसी और फिर सारा गांव स्वाद लेने लगा।
मीडिया तक पहुंचने में खबरों को भले एक–दो दिन लग जाएं, रामसरे के कान में आते ही अगिया बैताल हो जाती हैं। सननन इस कान से उस कान।
सो खबर फैल गई। पहले अब्दुलपुर, फिर बसनही में। भट्ठे से लौटते वक्त रामसरे के रास्ते में पहले अब्दुलपुर पड़ता था, इसलिए सबसे पहले वहीं। खैर, खबर फैली तो सब ओर पहुंच गई।
चर्चा शुरू। गांव के नवहे खुश कि अब उनके भी दिन फिरेंगे। पच्छिम चमक रहा है, अब हम भी चमकेंगे। दिखा देंगे दम। मगर बुढ़ऊ लोगों का मुंह लटक गया। चिंता हुई कि सदियों से कमाई पुरखों की जमीन–जायदाद खतम हो जाएगी। नवहों ने अपने बाप–दादों को डपटा, ‘का करेंगे जमीन–जायदाद लेके। कितने पुरखे गल–पच गए इसी जमीन में, क्या उखाड़ लिया। ढोते रहे जिनगी भर कपार पर गोबरही, लिथड़ते रहे कीचड़–कानो में। उगाया बासमती, खाया कुअरहा। सारा बढ़िया माल बनिया ले गए, आप खाते रहे मोटंजा। न दाल से भेंट न तरकारी से। रोटी–मट्ठा सरपेट के डकारते रहे, जैसे छप्पन भोग जीम लिया। मगर इतराते रहे कि बिधाता हैं देश के। आप न उगाएं तो सब भूखे मर जाएं, अकाल पड़ जाए, प्रलय आ जाए। इसी मुगालते में गुजार दी जिनगी। पाल लिए अल्लम–गल्लम रोग। न चला जाता है, न खाया। मुंह में दांत रहे न पेट में आंत। बइठ के दिन भर पादते–खांसते, हुंक्का पड़पड़ाते रहते हैं। फिर भी सारी दुनिया फोद पर टांगे फिरते हैं।… बंद कीजिए पुरखों का गुणगान, जमीन–जायदाद का अभिमान। जमाना बदल रहा है, चलने दीजिए हमको उसके हिसाब से।‘
बुढ़ऊ को बात लग गई। देर तक खांसने के बाद पौवा भर बलगम बगल में पड़ी राख पर उगला और बोलते भए, ‘एही जमीन पर पैदा हुए हो, इसी का खाके इस लायक बने हो कि आज अंगरेजी पाद रहे हो। हम मोटंजा खाए तभी तुम आज कपड़े में नील–टीनोपाल लगाके फटफटिया पर घूम रहे हो। अरे, ई जमीनिया है तभी तक मान–सम्मान अभिमान है, खाके फुटानी छांट रहे हो। जिस दिन नहीं रहेगी उस दिन कुक्कुर–सियार भी पूछने नहीं आएगा। बइठ के बजाते रहोगे हरमुनिया। हमसे तो बनिया सारा बढ़िया माल ले गया, मगर बाबू–भइया बोल के। ई जमीन नहीं रहेगी तो वही बनिया तुमको अपना चपरासियो नहीं रखेगा, लिखवा लो हमसे। ससुरो, अभी इतने काबिल नहीं हो गए कि अपने बाप–दादा से जबान लड़ाओ। गांड़ धोने का सहूर नहीं, पाद रहे हैं अंगरेजी। अभी हम मरे नहीं हैं। जो फैसला होगा, सारा गांव मिलके पंचायत में करेगा। तुम लोग कूदो मत ज्यादा।‘
नवहे चुप तो लगा गए, मगर चुप नहीं बैठे। उधर हुक्का गुड़गुड़ाता बूढ़ा समाज पुराने दिनों में खोया, जमीन बचाने की योजनाएं बनाने लगा, इधर नवहा दल सिगरेट–पान–गुटखा दबाए भविष्य के सपने संजोने लगा।
‘साला, बिजनेस सेंटर खुलेगा तो इस जिले का भाग जाग जाएगा। दिल्ली, बंबई, बंगलोर जाने का कौनो जरूरते नहीं। दस हजार की नौकरी के लिए ससुर खेत–बारी बेच के घूस देने का जुगत भिड़ाते रहे, फौज–पुलिस चीनी मिल में नौकरी तलाशते रहे, मगर हाथ कुछ न लगा। घोषित हो गए बिलल्ला। होना ही था। न ढंग का स्कूल न कॉलेज। दुनिया इंजिनीयरिंग, डॉक्टरी, मैनेजमेंट पढ़के अपनी किस्मत चमका रही है, हम गोबरहा स्कूल–कॉलेज में पढ़के सेना–पुलिस, बाबूगिरी से आगे सोच ही नहीं पाए। न कोई डॉक्टर ढंग का है न अस्पताल। आदमी इमरजेंसी में हो तो लखनऊ–दिल्ली पहुंचने से पहले ही टें बोल जाता है। फिर भी बुढ़ऊ लोग चिपके हुए हैं इसी जमीन से। चाहते हैं कि उन्होंने जो हमको दिया वही हम अपने बच्चों को भी दें। नहीं चलेगा जी अब ये सब। अब दिखाएंगे अपनी काबीलियत। खोलेंगे यहीं पर शोरूम, कमाएंगे दस–बीस हजार रोज। दस हजार महीना पर तो मनीजर रखेंगे ससुर शोरूम में।‘
‘हम तो भइया ट्रांसपोर्ट का सोचे हैं। खरीदेंगे चार ठो बस, लगा देंगे कौनो कंपनी में। सब काट–कूट के महीने का पचास हजार रुपया कहीं नहीं गया।‘
‘अपना तो प्रापर्टी का बिजनेस फिक्स है भइया। हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा।‘
‘हम तो भाई बनाएंगे फिलिम। भोजपुरी फिलिम में लागत कम, कमाई ज्यादा। एक भी चल गई तो तीन–चार पुश्त का इंतजाम पक्का।‘
‘अपना तो एक–दू ठो सीएनजी स्टेशन खोलने का इरादा है। सरकारो पैसा लगा रही है उसमें। सीएनजी गाड़ी का चलन बढ़ रहा है, मगर इधर इलाके में पंपे नहीं हैं, इसलिए लोग पेट्रोले वाली गाड़ी चला रहे हैं। पेट्रोल का दाम तो हर दस दिन में बढ़ रहा है, लोग परेशान हैं। सीएनजी स्टेशन खोलेंगे तो दिन भर लाइन लगी रहेगी। ई एक्सप्रेस–वे बनने दो, देखो कितना गाड़ी आता है, इस इलाका में। पीट के रख देंगे पैसा दुइए साल में।‘
‘ई एक्सप्रेस–वे बनेगा तो मजा हो जाएगा बंधु। अपनी गाड़ी में बैठे, यहां से चार घंटे में दिल्ली। सुबह जाओ, दिन भर काम करो, रात तक घर वापस।‘
‘अरे खाली एक्सप्रेस–वे नहीं, बुलेट ट्रेन की लाइन भी इधरे से निकालने की बात है। ससुर, बलिया से दिल्ली साढ़े चार घंटा में। यहां से तो ढाईए–तीन घंटा लगाओ। जाओ, सामान लादो, दुपहर तक घर।‘
‘काहें ट्रेन से जाएंगे बे। अपनी गाड़ी में जाएंगे। खरीदेंगे कोई फस्सकलास गाड़ी, होंडा सीआरवी, पजेरो, फोर्ड एंडेवर, टोएटा फरचूनर जैसी। एक्सप्रेस–वे पर भगाओ साली को दू सौ ढाई सौ की स्पीड में, कौनो चलान थोड़े कटेगा।‘ सिगरेट का कश खींच कर किसी ने कहा।
‘पहिले, नक्सवा तो आने दो। मुआवजा कितना मिलेगा, उसका हिसाब तो बनने दो। बुढ़ऊ लोग अलग राग अलापे पड़े हैं। पहिले उनको लाओ रास्ते पर।‘ घंटे भर घुलाए पान की लंबी पीक थूकने के बाद किसी ने टोका।
‘जमींदरा के बाबू ज्यादा नेतागिरी कर रहे हैं। समझा भइया जमींदर, उनको। न मानें तो भेज दे किसी तीरथ–बरत पर तीन महीना के लिए। तब तक मामला सेट कर लेंगे हम लोग। खड़मंडल करेंगे तो ठीक नहीं होगा भाई।‘
‘अरे कुछ नहीं होगा, बे। सब सरपंच के हाथ में है। वही दस्खत करके देगा सबकी तरफ से। उसको सेट करो। तुम्हारे साथ तो उठना–बैठना है, समझाओ उसको कि बुढ़ऊ पाटी को समझाए।‘
बस, तय हुआ कि सारे गांवों के सरपंचों को समझाओ। इनमें से एक भी खिलाफ गया तो मामला खटाई में।
पहले जैसा जमाना तो रहा नहीं कि किसी बड़े–बुजुर्ग को सर्वसम्मति से सरपंच बना दिया जाता था। अब नवहे आ रहे हैं, चुनाव लड़के। नया खून नई चाल। दिल्ली–लखनऊ से संपर्क बनाए रखते हैं और ले आते हैं नया–नया आइडिया। दिन भर ब्लॉक–कचहरी का चक्कर लगाते रहते हैं। सरकार क्या चाहती है, क्या दे रही है, सबकी जानकारी। गांव में नए–नए काम हो रहे हैं। नवहों का जमाना है भाई। जो चाहते हैं, वही होता है।
बुढ़ऊ पार्टी इस बात को मान चुकी है, मगर फिर भी वह अड़ी हुई थी जिद पर कि जैसे भी हो बाप–दादा की कमाई सेंत–मेंत में जाने नहीं देंगे।
‘शास्तर कहता है कि जर जोरू जमीन की जान देके भी रच्छा करनी चाहिए। बाप–दादा की कमाई को बढ़ाओ, बढ़ाओ नहीं तो गंवाओ तो मत। लेकिन ई लौंडे–लफाड़ी में संस्कार तो कौनो रहा नहीं। माटी में मिलाने पर तुले हैं सब इज्जत–आबरू।‘
‘संस्कार कहां से आएगा। पीने लगे दारू–सराब, मास–मच्छी खाने लगे। तामसी भोजन मति तो भरस्ट करेगा ही। दिन भर नेतागीरी। खेत–खलिहान में काम करते सरम आती है। कहां से रहेगा मोह उनमें बाप–दादों की कमाई जमीन–जायदाद से। बेच के उड़ाएंगे ससुरे गुलछर्रा। पड़े रहेंगे बीबी के पल्लू में।‘
‘जब तक जिंदा हैं, हम तो न जाने देंगे भइया इस तरह जमीन। लिखना तो हमी को है। तय कर लीजिए कि नहीं जाएंगे कचहरी, नहीं करेंगे जमीन का रजिस्टरी। देखते हैं, का कर लेते हैं नवहे।‘
मगर यह संकल्प कमजोर निकला।
पंद्रह दिन बीते नहीं कि आ गया पटवारी फरमान लेके। सुना दिया सबको कि नौगांवां की जमीन पर बिजली बनाने का कारखाना लगेगा, बिजनेस सेंटर खुलेगा, जिला भर के किसानों की सुविधा के सामान यहीं जुटाए जाएंगे। जो अनाज–तरकारी बाजार ले जाके बेचना पड़ता था, सब यहीं बिकेगा। उससे डिब्बाबंद माल तैयार होगा खाने का। यही सरकार का आदेश आया है।
सब गांवों में चहल–पहल शुरू। तय हो गया दिन नौगांवां की विशाल पंचायत का। उस दिन पहली बार गांव में पंचायत के लिए बड़ा–सा तंबू तना। पीने के पानी का इंतजाम, चाय–कॉफी का बंदोबस्त सरकार की तरफ से हुआ। कुर्सियां बिछीं, माइक लगा। पटवारी के साथ तहसीलदार, ब्लॉक प्रमुख, ब्लॉक विकास अधिकारी, थाने का दरोगा और पांच–सात सिपाही भी आए। सारे गांवों के सरपंच मौजूद।
बुढ़ऊ दल ने हंगामा किया, ‘नहीं देंगे जमीन‘। देर तक हो–हल्ला। कांव–कांव, झांव–झांव। फिर महुआझोंझ के सरपंच ने माइक पकड़ा, ‘दादा, आप लोग बेकार की जिद पर अड़े हैं। ई जमीन आपका हइए नहीं। हर जमीन सरकार का। जब तक चाहे, उसका इस्तेमाल किसी को करने दे, जब चाहे ले ले। जैसे किराए के मकान में कोई रहता है, किराया देता है, मगर मकान उसका तो नहीं होता। जब मकान मालिक चाहता है, खाली करा लेता है। आप इतने साल तक मालगुजारी देके इस पर खेती करते रहे, अब सरकार चाहती है कि यहां विकास के लिए बिजली का कारखाना लगे, सड़क बने, बिजनेस सेंटर खुले। अरे अपना इलाका चमाचाम होने वाला है। हर सुविधा यहीं। अब तक आप भागते थे शहर, अब शहर आपके दरवाजे। चौबीस घंटा बिजली, हर सामान का दुकान यहां। मगर आप जिद पर अड़े रहेंगे तो कोई फायदा नहीं। सरकार के पास अधिकार है कि आदेश पारित करके इस पर जबरन कब्जा कर ले। खून–खराबा होगा तो क्या आपको अच्छा लगेगा? जमीन का मुआवजा तो सरकार देइए रही है न, कर लीजिए दूसरा धंधा। खेतिए करना है तो खरीद लीजिए दूसरे गांव में जमीन। का फरक पड़ेगा। काहें बेकार में जान दिए पड़े हैं इस जमीन के पीछे।‘
बुढ़ऊ दल में खुसुर–फुसुर। मिला है सरपंचवा साला सरकार से। नवहों ने जरूर भरा है कान इसका।
मगर उसके बाद भी दूसरे गांवों के सरपंचों और ब्लॉक प्रमुख से लेके तहसीलदार तक जितने लोगों ने माइक पकड़ा, सबका सुर एक था। धमकी भी, नसीहत भी। सबका एक ही कहना, जमीन बेचने में ही भलाई है। बुढ़ऊ दल तुनक–बिदक के हताश–निराश वापस लौटा। हुक्का गुड़गुड़ाता–फुंफकारता रहा, मगर उसकी एक न चली। नक्शा–नवीसी, पैमाइश, मुआवजा वितरण वगैरह की दिन–तारीख तय हो गई।
हताश बुढ़ऊ दल ने कहा, ‘भइया अब जीना कितने दिन है हमको! समसान की ओर पैर बढ़ाए हैं। आगे तो इन्हीं नवहों को संभालना है सब कुछ, चाहे जैसे करें ससुरे।‘
‘अरे पहिले कहावत थी कि उत्तम खेती मद्धिम बान, अब बदल गई है। अब घूम गया विधि के विधान का चक्का। खेती गई सबसे नीचे। पहिले नंबर पर आ गई बान, बनियागिरी। अब तो भाई बनिया राज करेंगे। नेता और कारोबारी मिलके कर रहे हैं सासन। चाकरी दूसरे नंबर पर। बनिया–बाबू जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा अब तो। खेती को तो जाओ भूल। नवहे जो सोच–कर रहे हैं उसे चुप मार के देखो।‘ किसी ने परमज्ञानी की तरह उपदेश दिया।
‘मगर देख के मक्खी तो निगली नहीं जाती न, भइया। जब तक जिंदा हैं, देखा नहीं जाता।‘
‘बरदास तो करना ही पड़ेगा। सरकारे पीछे पड़ी है तो कहां तक लड़ेंगे उससे। सेना उसकी, पुलिस उसकी। दबा देगी गरजन हमारी। नवहे भी वही चाहते हैं, जो सरकार चाहती है। छोड़ दो ससुर मोह–माया। अब तो उठा ले परमात्मा जल्दी। छूटे सब जंजाल।‘
चैत का महीना बीतते न बीतते मुआवजे की पहली किश्त बंट गई। करार के कागज पर दस्तखत हो गए। पूरे इलाके का नया नामकरण हुआ– इंडस्ट्रियल विलेज। नौगांवा चौंका, अंग्रेजी नाम! मगर जल्दी ही चढ़ गया जबान पर।
खेत खाली हुए तो बड़े–बड़े बुलडोजर, रोलर, खुदाई–पाटा करने की मशीनें आने लगीं। गड़ गए जगह–जगह रावटी–तंबू। रोज किसी न किसी हाकिम–हुक्काम, सेठ–साहूकार, बिल्डर–व्यवसायी का दौरा। जहां–तहां चाय–पान गुटखे, छोले–कुल्चे, छोले–भटूरे की दुकानें खुलने लगीं। जो बनिए दिन भर एक ही बीड़ी को तीन बार सुलगाते–बुझाते–पीते थे, उनकी बन आई। गांव के जो ट्रैक्टर अब तक खेत जोतने, र्इंट–खाद–गन्ना वगैरह ढोने के काम आते थे वे किराए पर मिट्टी ढोने, पाटा फिराने के काम में लग गए। जो नवहे अपना खेत जोतने में शर्म करते थे वही उन पर पाटा फिराने लगे। चारों ओर हड़हड़–गड़गड़।
इसी हड़हड़–गड़गड़ में एक दिन पटवारी आया। सभी सरपंचों और नवहा दल के कान में फुसफुसाया– ‘अभी मुआवजे की तीन किश्तें आनी हैं। पहली किश्त तो साहब लोग खुद आके दे गए। अब लगाना पड़
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पालट्टिस और पूंजी का खेला है। बधाई।
गाँव नदी पर बांध बनने पर ही नहीं डूबते भूमंडलीय नाकेए बंदी में भी डूब जाते हैं । परिवर्तन की इस चमक -दमक के पीछे लूट की अमानवीय संस्कृति और मानवीय समवेदनाओं के क्षरण को देख पाने वाली आँख सूर्यनाथ के पास है । भाषा पर जबरदस्त पकड़ उनके पात्रों को पाठ के दौरान सजीव कर देती है । आप पढ़ ही नहीं रहे होते चलचित्र भी देख भी रहे होते हैं । बधाई ..
वाह… बहुत जीवंत रचना। सूर्यनाथ जी ने कहानी को लिखा ही नहीं, हमारे ताज़ा गांव-समाज को उसकी एक-एक धड़कन समेत रेशा-रेशा लिपिबद्ध कर दिया। कथाकार को बधाई और उपलब्ध कराने के लिए 'जानकी पुल' का आभार..
बेहद जीवंत भाषा में यथा स्थिति का बहुत बारीकी से प्रस्तुत वृत्तांत है सूर्यनाथ जी की यह कहानी. आर्थिक, सामिज और राजनैतिक परिदृश्य को इतनी गहराई से पकड़ा है कि इसका प्रभाव देर तक होंट करता है. लेकिन भाई, सूर्यनाथ ने इस कहानी के रास्ते एक सशक्त उपन्यास का अपव्यय कर दिया है. सूर्यनाथ इस पर अब काम करें.
रचना की निम्नलिखत पंक्तियाँ सूर्यनाथ की सचेत कलम का प्रमाण हैं.
धरती माई की छाती इतनी विशाल है कि पैसा पाप का हो चाहे पुन्य का, काला हो चाहे सफेद, सब चुपचाप दबा के रख लेती हैं।
अशोक गुप्ता
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