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क्या नाट्यशास्त्र आज भी प्रासंगिक है?


कवयित्री, नाट्यविद, संगीत-विदुषी वंदना शुक्ल हमेशा कला-साहित्य के अनछुए पहलुओं को लेकर बहुत गहराई से विश्लेषण करती हैं. जिसका बहुत अच्छा उदाहरण है यह लेख- जानकी पुल.
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अभिनय का विस्तृत विवेचन करने वाला विश्व का सबसे प्रथम ग्रन्थ आचार्य भरत मुनि कृत ‘’नाट्य शास्त्र’’ हैभरतमुनि का नाट्यशास्त्र ऐसा ग्रन्थ है कि वह शिल्प के नियमों और पद्धतियों का विश्वकोश ‘’बन हमारे समक्ष आता हैनाट्यशास्त्र के उद्गम और विकास का इतिहास बड़ा रोचक रहा हैशास्त्र में लिखा गया है कि‘ ‘जब त्रेता युग का प्रारंभ हुआ,उस समय मनुष्यों में क्रोध दुःख ईर्षा द्वेष आदि का समावेश हो गया था मानव समाज पीड़ित रहने लगा तब  देवराज इन्द्र ने ब्रम्हा जी के समक्ष याचना की मनोरंजन से युक्त कोई क्रीडा युक्त ऐसा साधन बताइए जिसमे देखने और सुनने के गुण सन्निहित हों! इन्द्र ने यह भी प्रार्थना की कि वह साधन समाज के समस्त वर्गों के हित के लिए उपियुक्त होना चाहिएतब  ब्रम्हा जी ने चार वेदों का स्मरण किया ,और ऋग्वेद से पाठ्य,सामवेद से गान,यजुर्वेद से अभिनय,और अथर्व वेद से रस का चयन कर पंचम वेद के रूप में नाट्य शास्त्र की स्रष्टि की !ब्रम्हा जी ने इसे ‘’भरत मुनि तथा उनके पुत्रों को सौंप दिया और इस नाट्य कला का प्रचार करने के लिए कहा |’
भरत मुनि ने नाट्यवेद के अंतर्गत बारह हज़ार श्लोकों कि रचना की |नाट्यशास्त्र के आठवें अद्ध्याय में अभिनय शब्द के निर्माण और स्वरुप का विस्तृत वर्णन किया गया है !
भरत मुनि ने अभिनय के प्रमुख रूप से चार भेद बताये हैं !वे हैं (१)-आंगिक-(२)-वाचिक (३)-आहार्य (४)-सात्विक !आजकल ‘’अभिनय’’ का अर्थ ‘’एक्टिंग’’ से लिया जाता है !परन्तु नाट्यशास्त्र’’में अभिनय का अर्थ ‘’एक्टिंग’’ न होकर कुछ अलग है !वस्तुतः नाट्यशास्त्र में ‘’अभिनय’’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक और वृहद है !आजकल अभिनय नाटक का एक अंग मात्र होता है ,किन्तु नाट्य शास्त्र में नाट्य नामक  तत्व ,अभिनय का एक अंग हुआ करता था !’’अभिनय’’ के अंतर्गत गायन,वादन,नर्तन,मंच शिल्प,काव्य,आध्यात्म,दर्शन,योग,मनोविज्ञान,प्रकृति आदि अनेक विषयों को समाहित किया गया है !
(१)-आंगिक अभिनय-
तत्र आन्गिको अन्गैनिदअर्शितः ‘’अर्थात यह विभिन्न अंगों द्वारा निदर्शित किया जाता है इसलिए इसे आंगिक कहा जाता है |अंगों का विभाजन शास्त्र में अंग,प्रत्यंग और उपांग के रूप में किया गया है !नाट्यशास्त्र में कहाँ मुखज,कहाँ चेष्टा कृत,का प्रयोग किया जाना है इसका विधिवत वर्णन है !अंगिकतीन प्रकार के बताये गए हैं (१)-मुखज -(२)-शारीरिक (३)चेष्टा ! द्रष्टि के २० भेदों का और वर्णन मिलता है!छः अंग हैं सिर,हाथ,कटी ,वक्ष,पाद,|मुखज में नेत्र,भ्रकुटी,नासिका,अधर,कपाल,चिबुक इन्हें उपांग  कहा गया |सिर की मुद्राएँ ८ प्रकार की होती हैं !द्रष्टि के आठ भेद- ,भयानक स्मिता ,अद्भुत,रौद्र,वीर वीभत्स आदि !अष्ट नायिकाओं के रूप में स्त्रियों कि विभिन्न भाव भंगिमाओं के के सम्बन्ध में दीर्घ निर्देश दिए गए हैं |विभिन्न रसों में उनके प्रयोगों की विधियों को विस्तृत रूप से स्पष्ट किया गया है |
रसों के विस्तार को बहुत बारीकी से समझाया गया है !जैसे क्रोध के संभावित कारन हैं (१)-शत्रु के कारन (२)-गुरुपन (३)-सेवक (४)-अकारण (५)-प्रियतमा के कारन !
अभिनय-
(१)-शत्रु के कारन पात्र भ्रकुटी ऊपर करता है,आस्तीन चढ़ाता है ,आँखें विस्फारित करता है,होंठ कंपकंपाता है …
(२)-गुरुपन के कारन संयम  से काम लेता है !अश्रु व पसीना पोंछता है ,मुख पर दया के भाव लाता है !
(३)-सेवक के कारन –तर्जनी उठाकर चेतावनी देता है ,,आँखें तरेरता है,भ्रकुटी खींचता है,ऑंखें विस्फारित करता है
(४)-अकारण –क्रोध के लक्ष्य की ओर देखता है ,पश्चाताप के भाव,मलीनता
(५)-प्रियतमा के कारन –तिरछा देखना ,धीरे धीरे चलना,कनखियों से देखना !
इस प्रकार प्रत्येक  रस के कारन और अभिनय की बारीकी का विस्तृत वर्णन मिलता है !
प्रसिद्द रंगमंच कलाकार एवं गज़ल गायिका रीता गांगुली के अनुसार ‘’लगभग पैतीस वर्ष पहले मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्ध्यालय ज्वाइन किया !तब हमने सबसे पहले ‘’मूवमेंट्स और माईम’’की  शरुआत की  !मूवमेंट्स के लिए अंग सञ्चालन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है |आंगिक अभिनय में लय निहित,द्रश्य,विज्युअल,समय,परिप्रेक्ष्य द्रश्य निर्माण करता है |
(२)-वाचिक अभिनय-
वाणी द्वारा प्रकट होने वाले भावों की व्याख्या और उसके प्रयोगों के नियम बताये गए हैं |अभिनय करते समय पात्र को किस प्रकार गान करना चाहिए ?कितनी मात्राओं के छंदों को किस लय और ताल में गाना चाहिए |किस पात्र को संस्कृत भाषा बोलनी चाहिए ,किसे प्राकृत आदि !नृत्य करते समय कथा प्रसंगों के भावों को अभिनय के साथ मिलकर किस प्रकार नर्तक को उन्हें व्यक्त करना चाहिए ?
उल्लेखनीय है ,कि संस्कृत नाटक का इतिहास बहुत समृद्ध रहा !पतंजलि के महाभाष्य से लेकर भवभूति ,शूद्रक कृत-म्रछ्कतिक (the little clay cart )भास् कृत स्वप्न वासवदत्ता,दूवाक्यम,मध्यमव्यायोग कालिदास कृत कुमार संभव,विक्रमोर्वशीयम,अभिज्ञान शाकुंतलम, चर्चित रहे | उल्लेखनीय है कि संस्कृत नाटक प्रायः उन विद्वानों द्वारा रचे जाते थे जो नृत्य,संगीत,कवित्त में पूर्णतः प्रशिक्षित होते थे |अतः मंचन का उद्देश्य शिक्षा और मनोरंजन दौनों होते थे | हर्मेन्युतिक्स पद्धति(प्रत्येक ग्रन्थ को पढ़ने का एक विशेष अनुसाशन .जिसे अंग्रेजी में हर्मेन्युतिक्स कहा जाता है ), का ज़िक्र करते हुए गौतम चटर्जी  कहते हैं ‘’इस पद्धति में भरत एक शीर्षना शब्द है |इस शब्द के शीर्ष में तीन अक्षर हैं ,भ र और त| भ माने भाव ,र माने रंग और त माने ताल |जो आचार्य भाव,रंग और ताल को जानता है वह भरत है !’’
 कालिदास का नाटक ‘’अभिज्ञान शाकुंतलम ‘’सर्वाधिक चर्चित रहा जिसको सबसे पहले अंग्रेजी और जर्मन भाषा में अनुवादित होने का गौरव प्राप्त हुआ |इस नाटक में नाट्य शास्त्र की शास्त्रीयता का विधिवत उल्लेख मिलता है उदाहरण के लिए एक द्रश्य में जब दुष्यंत को मत्स्य के पेट से अंगूठी मिल जाती है,और उन्हें सब कुछ स्मरण हो आता है तो वो शकुंतला को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं !जब शकुंतला कर्णव ऋषि के साथ महल में पहुँचती है तो दुष्यंत की पत्नी हंस्पदिका एक मार्मिक गीत गाती है !जिसमे राजा को उनकी मधुर वृत्ति के लिए उलाहना दिया गया है !’’नाटक में गीत संगीत नृत्य ,अभिनय सभी पक्षों को उचित स्थान दिया गया है| केरल के सुप्रसिद्ध रंग-निर्देशक, श्री कवलम नारायण पणिक्कर ,जिन्होंने भास् के लगभग सभी नाटकों का ना सिर्फ मूल संस्कृत में मंचन किया है, बल्कि नाट्यशास्त्र के नियमों,प्रारूप का पालन भी | ये अनुभव एक अद्भुत संयोग था जो मैंने ना सिर्फ देखा बल्कि पणिक्कर द्वारा निर्देशित दो संस्कृत नाटकों में अभिनय भी किया ,और नाट्यशास्त्र की प्रासंगिकता और श्रेष्ठता को अनुभव किया |
इन नाटकों में नाटक के सूत्र को जोड़ने वाला पात्र ‘’सूत्रधारकहलाता था !यानि ‘’Holder of the strings or threads ‘’|पात्र गायन और शारीरिक तकनीक में प्रवीण होते थे !महिला पात्रों के अभिनय में पुरुष महिला अथवा मिश्रित कोई भी पात्र हो सकता था !सर्वाधिक महत्त्व ‘’अभिनय’’को दिया जाता था अभिनय के दो प्रकार होते थे
(१)-लोक्धामी (Realistic)-
(2)-नाट्य धर्मी-(conventional)-
(३)-आहार्य अभिनय 
इसके अंतर्गत वेश भूषा ,रूप सज्जा ,तथा मंच के द्रश्य विधान का वर्णन किया गया है |सिर से लेकर पांवों तक के आभूषणों की  सूचि प्रस्तुत की गई है !कुछ विशेष पात्रों के लिए मुखौटे लगाने और उन्हें बनाने कि विधि पर पर भी प्रकाश डाला गया है ! स्त्रियों के केश विन्यास की अनेक विधियाँ तथा मुख के अंतर्गत बिंदी,काजल,तथा दांतों की साज सज्जा तक को लिया गया है !
इस प्रकार नाट्यशास्त्र में वर्णित आहार्य अभिनय इतना महत्वपूर्ण है कि उसके अभाव में अभिनय की सम्पूर्णता की कल्पना ही नहीं की जा सकती !
(४)-सात्विक-अभिनय 
सात्विक अभिनय का आधुनिक शब्दावली में सीधा अर्थ है ‘’मनोविज्ञान का द्रश्यशील परिवर्तन’’!सात्विक अभिनय को नाट्यशास्त्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है !उसके अनुसार इसके बिना उच्च कोटि का अभिनय संपन्न नहीं किया जा सकता !
सात्विक अभिनय के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने आठ सात्विक भावों कि चर्चा की हैं !स्वेद,रोमांच,वेपथु,कंप,वैवार्न्य,प्रलय,अश्रु तथा स्वर भंग !इस सम्बन्ध में वह स्वयं कहता है कि बहुत प्रयत्न करने पर भी इनको संपन्न करना बहुत दुष्कर है !
इनमे से किसी भी अंग को छोड़ देने से उसका पात्र एक निर्जीव कठपुतली से अधिक और कुछ नहीं रह जाता !आज भी सफल अभिनय के लिए ये चारों प्रकार के अभिनय बहुत महत्त्व पूर्ण हैं !और उनके बिना अभिनय की सार्थकता अपना पूर्ण कलात्मक स्वभाव ग्रहण नहीं कर पाती !
नाट्यशास्त्र की प्रासंगिकता
समय परिवर्तन का वाहक है |समय के मिजाज़ को समझना और उसी तरह व्यवहार करना ज़रूरी होता है |कला व साहित्य में निस्संदेह एतिहासिक दस्तावेज़ का अपना खासा महत्व और उपियोगिता होती है !,उन्ही को सीढ़ी बना अगली पीढियां सृजनात्मक गतिविधि की ओर बढती है |वस्तुतः मन की कई तहों के भीतर जब कोई विचार कोई बौद्धिक सृजनात्मक छटपटाहट होती है तब कला का ज़न्म होता है !हर कला का अपना अलग फ्लेवर अलग महत्त्व होता है |मनुष्य के अंतर्मन से उठती संवेदनाएं कला के माध्यम से ही बाह्य जगत में अपनी आँखें खोलती हैं !कला स्वयं को हर युग में ‘’आप डेटेड’’करती है !जैसे पुरानी धारणा थी ,कि ‘’कला की साधना एकांत में ही संभव है’’,संगीत चित्रकला मूर्तिकला जैसे एकल कलाओं में ये व्याख्या सहज हो सकती है लेकिन नाटक जो मूलतः एक ‘’सामूहिक कला ‘’है (एकल अभिनय में भी श्रोता भी नाटक के सहयात्री ही तो होते हैं )में ये विचार तर्कसंगत नहीं !किसी ने कहा है ‘’हर बड़ा सर्जक रूटीन ढांचे को तोड़ता है ..नया बनाता है ‘’और ये सृजनात्मकता  के द्रष्टिकोण से उचित भी है !जहा तक नाटक का प्रश्न है यदि इतिहास पर नज़र डालें तो पाएंगे की पहले नाटक सशक्त पर जटिल कथ्य के होते थे | दरअसल कोई भी कला स्वयं को काल की समसामयिक स्थितियों से अलग नहीं रख सकती !उसमे देशकाल,समाज की छवि का दिग्दर्शन होता है ,और होना चाहिए !पौराणिक काल में प्रायः धार्मिक और सामाजिक नाटक लिखे गए !देश की परतंत्रता के पश्चात देशभक्ति और तत्कालीन सामाजिक विसंगतियों से सम्बंधित नाटकों का वर्चस्व रहा ! एतिहासिक नाटकों के इसी दौर में  सामंत वादी नाटक लिखे खेले गए !जैसे ‘’यहूदी कि बेटी’’..अन्य विषयों में नारी मुक्ति की छटपटाहट ,गरीबी,,  दलित व्यथा संबंधी विषयों को कथ्य बनाया गया !आज़ादी के बाद लिखे गए नाटकों में विविधता दिखाई देती है !कुछ विषय प्रायः हर युग में ज्वलंत रहे जैसे नारी दशा,दलित प्रश्न ,तत्कालीन सामाजिक विसंगतियाँ ! हर संवेदन शील लेखक नए क्षितिज का विस्तार करता है ,भाषा शिल्प की खोज और सशक्त समसामयिक कथ्य पर भरोसा करता है !एक सफल नाटककार के लिए कल्पना शक्ति,यथार्थ बोध और ‘’ओब्ज़र्वेशन बहुत महत्वपूर्ण हैकविता कहानी नाटक कुछ भी हो,जहाँ तक उनके कथ्य का प्रश्न है ,वे रचनाकार पैदा नहीं करता बल्कि समाज ,या अपने परिवेश में से उन्हें चुनकर निकालता है,उन्हें पोषित और पोलिश करता है,और अपने विशिष्ट शिल्प में उसे पाठक,दर्शक के सामने प्रस्तुत करता है अतः कथ्य एक विस्मृत अनुभूति है जबकि शिल्प उसका संवाहक या माध्यम |अन्य कलाओं की तरह ,समकालीन नाटकों पर भी बाजार का प्रभाव है कला में एक व्यक्तिगत स्वछंदता होती है जैसे  हर कपोल कल्पना को साहित्य के ज़रिये साकार कर सकते हैं सत्य है ‘’ खोज की सच्ची यात्रा नई ज़मीनें खोजने में नहीं ,नई आँखें हासिल करने में है |’’
इसमें कोई संदेह नहीं ,कि पुरातन साहित्य या कला को पढकर चिंतन मंथन करके ही उसके नए स्वरूप का अविर्भाव किया जा सकता है|जहा तक नाट्यशास्त्र के अनुसरण करने की बात है बावजूद कुछ व्यवहारगत अथवा अन्य विसंगतियों के (जिनके चलते उनका अक्षरशः पालन करना दुष्कर है) सच ये भी है कि रूप परिवर्तन भले ही कर लिया जाय पर उसके बिना नाटक की कल्पना नहीं की जा सकती !
अर्थातभरत मुनि का नाट्य शास्त्र नाटक का एक सुव्यवस्थित एवं सम्पूर्ण ग्रन्थ है,जिसमे हर अंग को बारीकी और विस्तार से समझाया गया है! न सिर्फ आज बल्कि सदैव प्रासंगिक रहेगा! यह एक ऐसा शास्त्र है जो रंगमंच और अन्य कलाओं का एक प्रमुख स्तंभ है ,जिसके इर्द गिर्द तमाम नवीन प्रयोग,उपकरण,कल्पनाएँ सजीव होती हैं |
हालांकि नए प्रयोगों के नाम पर नाट्य की इस शास्त्रीयता को नज़रंदाज़ भी किया जाता रहा है ,जैसे मूक अभिनय,संगीत/नृत्य विहीन नाटक,आदि ये नाटक के कथ्य की मांग भी होता है इसके पीछे अनेक व्यवहारिक दिक्कतों की विवशता को भी नकारा नहीं जा सकता ,लेकिन प्रयोग या विवशता एक अलग मुद्दा है पर किसी भी कला या साहित्य की शास्त्रीयता एक मील का पत्थर तो है ही |
 
      

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13 comments

  1. वंदना, आपसे कुछ और विश्लेषण की उम्मीद थी पर आपने विश्वविद्यालयी उत्तरों की तरह लिख दिया । सामान्य जानकारी की बजाय कोई नया दृष्टिकोण होता तो अच्छा लगता ।

  2. महोदय
    नाटक का जन्म त्रेता युग से हुआ,तथा ये अथर्व वेद से घनिष्ट रूप से संबद्ध है |आपने लिखा है कि लोकाभिव्यक्ति क्या शास्त्रीय अर्थों में नाट्य के अंतर्गत आ सकती है? नाटक मूलतः एक लोकधर्मी कला है | नीलम मानसिंह द्वारा निर्देशित नाटक जसमा ओडन से लेकर ,अलखनंदन के चन्दा बेडनी तक देखे गए और केरल के निर्देशक कवलम नारायण पणिक्कर के निर्देशन में (जो अक्षरतः नाट्य शास्त्र के तत्वों पर आधारित थे स्वयं अभिनीत किये गए ,लोक नाटकों में नाटकों मं गीत संगीत सहज ग्राह्यता ,मंच,श्रृंगार यानी नाट्यशास्त्र के नियमों का सहजता से प्रयोग हुआ है कोई आरोपण नहीं दिखता इसकी वजह यह हो सकती है कि नाट्य शास्त्र में शास्त्रीय बंदिशें नहीं हैं |भरत स्त्रियों के प्रति भी नरम रुख रखते हैं |उल्लेखनीय है कि अरस्तु ने भी स्त्रियों को दोयम दर्जे का ही दिखाया है पुरुषों के अधीन और उद्दत चरित्र को पालन ना करने वाली |उदाहरण स्वरुप शास्त्रीय संगीत में श्रुति, मात्रा ग्राम मूर्छना जैसे जटिल शब्द नाट्य शास्त्र में प्रयोग नहीं होते | कैथार्सिस,या हैलेनिक सिद्धांतों या धारणाओं से नाट्य शास्त्र कहीं अधिक ग्राह्य ,पूर्ण और कलात्मक प्रभावों को व्यक्त करने वाला है |’’द्वंद्व’’से आपका क्या तात्पर्य है नहीं समझ पा रहे हैं |यदि आप ‘’वर्ण व्यवस्था’’को इससे जोड़कर देखते हैं तो आज के युग में इसे एक संकीर्ण सोच की तहत लिया जायेगा | हमारी दरअसल समस्या यही है कि पुरानी सड़ी गली मान्यताएं समाप्त होने की ज़रूरत बताते हुए भी हम उन्हें छोडना नहीं चाहते |जहाँ तक नाट्य शास्त्र का प्रश्न है पौराणिक होने के बावजूद आज भी प्रासंगिक है नवीन प्रयोगों आविष्कारों की गुंजाइश से परिपूर्ण है |’’सृजन का प्रवाह’’ब्राह्मणत्व या वर्ण व्यवस्था से नहीं रुका हुआ है बल्कि नाट्यकला के कुछ तकनीक और व्यावहारिक वजहें हैं जैसे हिन्दी के नाटक कम लिखे जाना और दूसरे चूँकि नाटक मूलतः एक सामूहिक कला है उत्तर आधुनिक विकास की आंधी और बाजारवाद की मानसिकता से साहित्य और कलाएं दौनों ही प्रभावित हुई हैं |लेकिन कोई भी कला या साहित्यिक विधा मरणासन्न भले ही हो जाये पर उसे ज़िंदा रखने वाली शक्तियां उसे मरने नहीं देतीं |

  3. Reply
    महोदय
    नाटक का जन्म त्रेता युग से हुआ,तथा ये अथर्व वेद से घनिष्ट रूप से संबद्ध है |आपने लिखा है कि लोकाभिव्यक्ति क्या शास्त्रीय अर्थों में नाट्य के अंतर्गत आ सकती है? नाटक मूलतः एक लोकधर्मी कला है | नीलम मानसिंह द्वारा निर्देशित नाटक जसमा ओडन से लेकर ,अलखनंदन के चन्दा बेडनी तक देखे गए और केरल के निर्देशक कवलम नारायण पणिक्कर के निर्देशन में (जो अक्षरतः नाट्य शास्त्र के तत्वों पर आधारित थे स्वयं अभिनीत किये गए ,लोक नाटकों में नाटकों मं गीत संगीत सहज ग्राह्यता ,मंच,श्रृंगार यानी नाट्यशास्त्र के नियमों का सहजता से प्रयोग हुआ है कोई आरोपण नहीं दिखता इसकी वजह यह हो सकती है कि नाट्य शास्त्र में शास्त्रीय बंदिशें नहीं हैं |भरत स्त्रियों के प्रति भी नरम रुख रखते हैं |उल्लेखनीय है कि अरस्तु ने भी स्त्रियों को दोयम दर्जे का ही दिखाया है पुरुषों के अधीन और उद्दत चरित्र को पालन ना करने वाली |उदाहरण स्वरुप शास्त्रीय संगीत में श्रुति, मात्रा ग्राम मूर्छना जैसे जटिल शब्द नाट्य शास्त्र में प्रयोग नहीं होते | कैथार्सिस,या हैलेनिक सिद्धांतों या धारणाओं से नाट्य शास्त्र कहीं अधिक ग्राह्य ,पूर्ण और कलात्मक प्रभावों को व्यक्त करने वाला है |’’द्वंद्व’’से आपका क्या तात्पर्य है नहीं समझ पा रहे हैं |यदि आप ‘’वर्ण व्यवस्था’’को इससे जोड़कर देखते हैं तो आज के युग में इसे एक संकीर्ण सोच की तहत लिया जायेगा | हमारी दरअसल समस्या यही है कि पुरानी सड़ी गली मान्यताएं समाप्त होने की ज़रूरत बताते हुए भी हम उन्हें छोडना नहीं चाहते |जहाँ तक नाट्य शास्त्र का प्रश्न है पौराणिक होने के बावजूद आज भी प्रासंगिक है नवीन प्रयोगों आविष्कारों की गुंजाइश से परिपूर्ण है |’’सृजन का प्रवाह’’ब्राह्मणत्व या वर्ण व्यवस्था से नहीं रुका हुआ है बल्कि नाट्यकला के कुछ तकनीक और व्यावहारिक वजहें हैं जैसे हिन्दी के नाटक कम लिखे जाना और दूसरे चूँकि नाटक मूलतः एक सामूहिक कला है उत्तर आधुनिक विकास की आंधी और बाजारवाद की मानसिकता से साहित्य और कलाएं दौनों ही प्रभावित हुई हैं |लेकिन कोई भी कला या साहित्यिक विधा मरणासन्न भले ही हो जाये पर उसे ज़िंदा रखने वाली शक्तियां उसे मरने नहीं देतीं |

  4. मेरे उक्त विश्लेषण पर कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि वर्ण का सन्दर्भ आज उस रूप में नहीं उठाया जा सकता. मगर यह सन्दर्भ वर्ण का तो कतई नहीं है, वर्ण केन्द्रित उस समूची सोच का है, जिसके आधार पर विशाल मानव समूह को आज्ञाकारी पशु की तरह संगठित किया गया. यही नहीं, उसकी कंडीशनिंग करके न सिर्फ उसका अपने लिए इस्तेमाल किया गया, शोषणकर्ता को उसका प्रभु मानते हुए शोषित के जो कला-रूपक चित्रित किये गए, उन्हें ही उसके जीवन का अंतिम सत्य मानने के लिए विवश किया गया. सवाल यहाँ जीवन के आदर्श और यथार्थ का भी नहीं था, एक तयशुदा सोच को जीवन का सत्य मानने की मजबूरी और उसके अनुसार अपने सुख-दुखों के निर्धारण की मजबूरी का था. चरित्र को, जिसे वे लोग 'नट' कहते थे, उसका अपना संसार तो था ही नहीं, वह तो कठपुतली था/थी, जिसकी अपनी 'कथा' तो नचाने वाले के हाथ में थी. न कथा उसकी थी और न 'कथ्य'. सब कुछ नचाने वाले का था.
    वंदना शुक्ल ने अपने विश्लेषण में कहा है, ''इसमें कोई संदेह नहीं कि पुरातन साहित्य या कला को पढकर चिंतन मंथन करके ही उसके नए स्वरूप का अविर्भाव किया जा सकता है. जहाँ तक नाट्यशास्त्र के अनुसरण करने की बात है बावजूद कुछ व्यवहारगत अथवा अन्य विसंगतियों के (जिनके चलते उनका अक्षरशः पालन करना दुष्कर है) सच ये भी है कि रूप परिवर्तन भले ही कर लिया जाय पर उसके बिना नाटक की कल्पना नहीं की जा सकती !…
    ''अर्थात, भरत मुनि का नाट्य शास्त्र नाटक का एक सुव्यवस्थित एवं सम्पूर्ण ग्रन्थ है, जिसमे हर अंग को बारीकी और विस्तार से समझाया गया है, न सिर्फ आज बल्कि सदैव प्रासंगिक रहेगा! यह एक ऐसा शास्त्र है जो रंगमंच और अन्य कलाओं का एक प्रमुख स्तंभ है, जिसके इर्द गिर्द तमाम नवीन प्रयोग, उपकरण, कल्पनाएँ सजीव होती हैं.''
    वंदना यह भी कहती हैं, ''कथ्य एक विस्मृत अनुभूति है जबकि शिल्प उसका संवाहक या माध्यम. अन्य कलाओं की तरह ,समकालीन नाटकों पर भी बाजार का प्रभाव है. कला में एक व्यक्तिगत स्वछंदता होती है जैसे हर कपोल कल्पना को साहित्य के ज़रिये साकार कर सकते हैं सत्य है… खोज की सच्ची यात्रा नई ज़मीनें खोजने में नहीं ,नई आँखें हासिल करने में है |’’ वह फिर टिप्पणी करती हैं, ''हालांकि नए प्रयोगों के नाम पर नाट्य की इस शास्त्रीयता को नज़रंदाज़ भी किया जाता रहा है, जैसे मूक अभिनय,संगीत/नृत्य विहीन नाटक आदि, ये नाटक के कथ्य की मांग भी होता है इसके पीछे अनेक व्यवहारिक दिक्कतों की विवशता को भी नकारा नहीं जा सकता, लेकिन प्रयोग या विवशता एक अलग मुद्दा है, पर किसी भी कला या साहित्य की शास्त्रीयता एक मील का पत्थर तो है ही.''
    मजेदार बात है कि इसी शिल्प और कथ्य के चयन के औजारों पर, जिन पर सदियों से उनका कब्ज़ा है और जिन्हें वे लोग सदियों से उत्कृष्टता के नाम पर प्रचारित करते रहे हैं, उन्होंने सृजन के प्रवाह को रोका हुआ है और हर आने वाली पीढ़ी पर अपनी मर्जी आरोपित करते रहे हैं. यहाँ सृजक के अपने पक्ष का तर्क ही कहाँ पैदा होता है. ऐसे में आज कहाँ प्रासंगिक है नाट्यशास्त्र ?

  5. अतीत की सृजन अवधारणाओं और उनसे उपजी कला-दृष्टियों पर आज नए सिरे से सोचे जाने की जरूरत है. इसमें शक नहीं कि नाट्यशास्त्र एक संश्लिष्ट और सम्पूर्ण काव्य-दृष्टि है, मगर है तो हमारे ब्राह्मण-प्रधान समाज के अंतर्विरोंधों की अभिव्यक्ति ही. 'सम्पूर्ण दृष्टि' अपने-आप में कोई अंतिम और स्थिर अवधारणा नहीं है. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हिन्दू समाज में लिखने-पढने… इस रूप में चिंतन-मनन… का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को था, इसलिए समूचे शिष्ट-साहित्य का द्वंद्व एक-रेखीय है… ब्राह्मणों के द्वारा ब्राह्मणवाद का विरोध. हम पढ़े-लिखे लोग आजकल 'नाट्यशास्त्र' के प्रतिपक्ष में लोक-नाट्य का उल्लेख करते हैं, मगर लोकाभिव्यक्ति क्या शास्त्रीय अर्थों में 'नाट्य' के अंतर्गत आ सकती है? अतीत अकेले में कभी द्वद्वात्मक नहीं होता, इस रूप में वह एक मानसिक शगल होता है… 'भारत एक खोज' की तरह. दरअसल वह द्वंद्वात्मक तभी बनता है, जब उसे वर्तमान के साथ जोड़कर देखा जाता है. इसीलिए चाहे सृजन (नाट्य) में हो या चिंतन में, द्वंद्व को सबसे अधिक महत्व दिया गया है. यह द्वंद्व आम आदमी की नियति है, जबकि खाते-पीते आदमी का शगल. जरा गौर करें, नाटक की 'पञ्च कार्यावस्थाओं'' में 'द्वंद्व' का उल्लेख नहीं है. नाटक में भी और दर्शन में भी, यह अवधारणा कलाओं और चिंतन के क्षेत्र में 'वर्त्तमान' या 'यथार्थ' की आँख के साथ आई. मगर लोक में यह सर्वत्र है, क्योंकि वहां 'भावक' भी और 'भावुक' भी ब्राह्मण नहीं हैं, अपने में मस्त, मगर अपने समूचे परिवेश के अंतर्विरोधों को एक-दूसरे के साथ बांटते हुए सामान्य व्यक्ति हैं. आज भी अतीत की इस एकरेखीय अभिव्यक्ति को पसंद करने वाले वही तो लोग हैं… वही, जो हिंदूवादी अतीत का गुणगान करते हैं, 'भारत एक खोज' से लेकर रवीन्द्र और अज्ञेय के भारत में अपना जातीय इतिहास देखते हैं जो बाहर से देखने पर बड़ा सुखकर लगता है, मगर जिसके दरवाजे पर पांव रखते ही वह असुविधाजनक लगने लगता है. सुनने में अटपटा लगता है, मगर एक खास सन्दर्भ में जब पंकज बिष्ट ने 'अज्ञेय की विधवाएं' पद का उल्लेख किया था तो वह गलत कहाँ था? यह भी अनायास नहीं है कि दर्शन और विचार के क्षेत्र में द्वंद्व का सबसे पहले प्रयोग हीगेल और कार्ल मार्क्स ने किया था जो आम लोगों की अपेक्षाओं में से पैदा हुई कला-दृष्टि की उपज थे… प्राचीन भारतीय समाज के सन्दर्भ में ब्राह्मण-शोषित समाज की सोच में से उत्पन्न.

  6. poora lekh padha maine .. bahut rochak hai.. hamari viksit parmpraaon ko ham bhool chuke hain aur sahmat hoon ke पुरातन साहित्य या कला को पढकर चिंतन मंथन करके ही उसके नए स्वरूप का अविर्भाव किया जा सकता है|

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