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अनैतिक तो जीवन में कुछ नहीं होता

हिंदी कहानी में प्रियंवद का अपना मकाम है. जादू-जगाती भाषा, अनदेखे-अनजाने परिवेश-पात्र प्रियंवद की कहानियों में ऐसे आते हैं कि पाठक दांतों तले ऊँगली दबाते रह जाते हैं. न उनके लेखन में कोई झोल है न जीवन में. इस बातचीत से तो ऐसा ही लगता है. उनसे यह बातचीत प्रेम भारद्वाज ने रोहित प्रकाश और अशोक गुप्त के साथ की है. ‘पाखी’ से हमने इसे साभार लिया है- जानकी पुल.
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प्रेम भारद्वाज: प्रियंवद जी सबसे पहले आपका स्वागत है। आप कानपुर से यहाँ हमसे बातचीत करने आए। हमारे अनुरोध को स्वीकारा आपने। शुरुआत करते हैं हल्के-फुल्के अंदाज में। कहानी-लिखना शुरू किया आपने 1980 में। उस समय कहानी लिखते हुए आपके जो अनुभव थे, जो सोच थी और आज भी कहानी लिख रहे हैं- पूरा एक फासला गुजरा है। क्या फर्क महसूस करते हैं?
प्रियंवद: देखिए, एक लेखक के रूप में फर्क आया है। वह सबसे बड़ा फर्क तो यही कि शुरुआती कहानियों में जो ज्यादा भावुकता थी उसमें कमी आई। हालांकि लोग कहते हैं कि पहले आप अच्छी कहानियाँ लिखते थे अब नहीं लिखते। मैं  सोचता हूँ उस तरह की भावुकता या भाषा, जो एक फ्लावरी टच था-वो न हो। दूसरा फर्क ये कि इधर कहानियों को लेकर पिछले 57 साल में एक समझ बनी है और वह ये कि इतिहास और दर्शन भी साहित्य का हिस्सा होते हैं। मतलब मेरे हिसाब से साहित्य, इतिहास और दर्शन तीन अलग विषय नहीं हैं। यह पूरा एक त्रिकोण है। आप एक कोण से खड़े होकर दूसरे, फिर दूसरे से तीसरे पर जाते हैं। आज मैं कहानी लिखता हूँ और इन चीजों को नहीं पकड़ पाता तो बात नहीं बनती।
प्रेम भारद्वाज: आप लेखक ही क्यों बनना चाहते थे? प्रियंवद: नहीं, मैं लेखक नहीं बनना चाहता था। इत्तिफाक से बन गया। अगर सारिका में पहली ही कहानी पुरस्कृत नहीं होती तो शायद न भी बनता। बनना तो मैं चाहता था इतिहास का प्रोफेसर। पीएचडी भी कर रहा था और सिनोप्सिस भी एक्सेप्टेड था। मुझे हमेशा इतिहास साहित्य से प्रिय रहा। बहुत ज्यादा। इतिहास तो मेरे ऊपर जादू करता है। आज भी करता है। कविता वगैरह लिखता या पढ़ता जरूर था। उसी दौर में पहली कहानी लिखी और भेज दी। पहली ही कहानी पुरस्कृत हो गयी तो लगा कि दूसरी लिखें।
अशोक गुप्ता: दायित्व भी बढ़ गया।
प्रियंवद: दायित्व की समझ तो उस समय नहीं थी। दूसरी कहानी भी धर्मयुग में छप गयी। तीसरी पिफर सारिका में छप गयी। तो पागल होने के लिए काफी था और कहानीकार बनने के लिए भी।
अशोक गुप्ता: आपने जैसे अभी एक बात कही कि शुरू में भावुकता अधिक होती है। लेकिन मैं एक संदर्भ बताना चाहता हूँ, नदी होती लड़की कहानी आपकी कब की है? उसमें  भावुकता नहीं, गहरी संवेदना है।
प्रियंवद: कहानी लिखते तब करीब-करीब 10 साल बीत गए थे। उसमें भावुकता नहीं है। 
प्रेम भारद्वाज: सारिका में आपकी एक और कहानी छपी थी। उसका नाम था बहती हुई कोख। उसको पता नहीं आपने संग्रह आईना घर में क्यों नहीं लिया।
प्रियंवद: मुझे लगा इस कहानी में भावुकता ज्यादा है। इसलिए रोक ली। 
अशोक गुप्ता: अपनी खरगोश कहानी को आप भावुकता की श्रेणी में रखेंगे या संवेदना की।
प्रियंवद: नहीं, उस वक्त तो भावुकता छंट चुकी थी। वो करीब 16 साल बाद की कहानी है। भावुकता 34 साल में ही छंट गयी थी। लेकिन ये इतिहास और दर्शन की समझ नहीं थी। समाज की इतनी समझ नहीं थी। मैं लिखता रहा, भाषा को साधता रहा। कोशिश करता रहा कि चीजों को पकडू़ं।
अशोक गुप्ता: दर्शन की दस्तक आर्तनाद में भी दिखाई देती है।
प्रियंवद: हाँ! आर्तनाद में वो आयी थी।
प्रेम भारद्वाज: क्या वो टर्निंग प्वाइंट है?
प्रियंवद: आर्तनाद की बड़ी मजेदार बात है। आर्तनाद को मैंने लिखा उपन्यास के रूप में था। करीब 250 पृष्ठों का पहला उपन्यास। गिरिराज जी को मैंने कहा कि भाई साब मैंने एक उपन्यास लिखा है। उन्होंने उसे राजेन्द्र यादव को भेज दिया। मेरा राजेन्द्र यादव से तब कोई संपर्क नहीं था। गिरिराज जी ने उनको बताया कि देखो ये उपन्यास है, एक नए लड़के ने लिखा है। उन्होंने उपन्यास पढ़ा वापस भेजा और एक चिट्ठी गिरिराज जी को भेजी। वो चिट्ठी मेरे पास आज भी है।
प्रेम भारद्वाज: क्या लिखा था?
प्रियंवद: तुम इसके दुश्मन हो जो इतनी गंदी रचना को छापने की बात कर रहे हो। गिरिराज जी ने चिट्ठी मुझे दे दी। 
प्रेम भारद्वाज: आप चौंके?
प्रियंवद: नहीं, इसमें चौंकने वाली बात नहीं थी। इतनी समझ तब तक मुझमें आ गयी थी। मतलब मेरे अंदर वो एरोगैंस नहीं था …बहुत ध्यान दिया राजेन्द्र जी की बात पर। कोई ऐसा कह रहा है तो जाहिर है वो सही कह रहा है। एक क्षण के लिए भी मेरे अंदर ये नहीं आया कि मैं सही हो सकता हूँ, वो गलत। मैंने मान लिया कि बात बिल्कुल ठीक है और ये छपने लायक नहीं। उसके बाद फिर जब ‘हंस शुरू हुआ। पहली बार मैं राजेन्द्र यादव से मिलने गया। मुलाकात हुई तो बात आयी। वो मुलाकात एक अलग किस्सा है। बहरहाल, उस उपन्यास को बाद में मैंने छोटा किया। 250 पन्ने को छोटा करके एक लंबी कहानी बनायी तो जाहिर है उसमें वही आया जो उसका निचोड़ था।  
रोहित प्रकाश: अब तक जो बातें हुई हैं। उसमें इतिहास और साहित्य बार-बार आ रहे हैं। मैं दोनों में आवाजाही करता रहता हूँ। भावुकता और गहरी संवेदना, इतिहास और दर्शन का जो मिला-जुला प्रभाव है। उसमें कैसे फर्क करें। क्योंकि जब इतिहास लिखते हैं तो आप इतिहास सम्मत कोई समझ विकसित करते हैं, तब क्या उसमें भावुकता नहीं होती है।
प्रियंवद: बहुत आसान है। साहित्य लेखन में भावुकता का मतलब-एक तो भाषा सघन नहीं होती। मतलब 10 शब्द में आप जो बात कह सकते हैं उसके लिए 20 शब्द लिख रहे हैं तो आप भावुक हैं। दूसरे अपने छोटे-छोटे मामूली अनुभव भी बहुत बड़े लगते हैं- खासतौर से प्रेम-प्रसंग वगैरह। लगता है कितनी बड़ी बात है, इसको लिखो। जब आप समय के साथ थोड़ा सा ग्रो करते हैं, दूसरों को पढ़ते हैं दूसरों को, अपने उस्तादों से मिलते हैं। तो वे रेती लेकर छांटते हैं आपके इन दाएं-बाएं जो निकले हुए होते हैं। तो उनमें भावुकता सबसे पहले छंटती है।
रोहित प्रकाश: भावुकता को जो मैं समझता हूँ… जब आप इतिहास लिखें, साहित्य लिखें, दर्शन लिखें उसमें एसेंसियली शामिल होती है। गहरी संवेदना और भावुकता में कोई ट्रांजिशन नहीं है।
प्रियंवद: हाँ ये बात हम आगे अभी कर लेंगे। हालांकि इतिहास में कितनी भावुकता और कितनी नहीं, इस पर बात की जा सकती है। लेकिन साहित्य की भावुकता बहुत स्पष्ट होती है। जैसे शुरू में गीत लिखते हैं। हमने जब शुरुआत की तो जिस गीतकार को पढ़ा, उसकी तरह गीत लिख दिया। बच्चन को पढ़ा तो बच्चन की तरह गीत लिख दिया- भावुकता इसी को कहते हैं।
अशोक गुप्ता: भावुकता और संवेदना में सबसे बड़ा अंतर ये है कि संवेदना विचार का प्रथम बिंदु है। संवेदना से विचार शुरू होता है। भावुकता विचार अवरुद्ध करती है। आपका सोचना बंद हो जाता है।
प्रेम भारद्वाज: मंटो की कहानियों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या वे बहुत भावुक कहानियाँ हैं।
रोहित प्रकाश: नहीं भावुकता उसका कंटेंट हो सकती है, लेकिन भावुकता के मन मिजाज में रहकर नहीं लिखी गयी हैं।
प्रियंवद: भावुकता शब्द को अगर आप पकड़ लें, तो भाव के बिना तो कुछ नहीं है। प्रश्न है भाव को आपने रखा कैसे है, और उस भाव को बिना पूरी तरह से पकाए कहानी में उड़ेल दिया।
अशोक गुप्ता: भावुकता के कोई निमित्त नहीं होते, संवेदना का निमित्त होता है। एक व्यक्ति के दुख में उसके साथ दुखी होना या एक व्यक्ति के दुख में उसके स्थान पर दुखी होना, दोनों में अंतर है। जब उसको दुखमुक्त करने के लिए उसके स्थान पर दुखी होने के निमित्त में पहुंचते हो, तो एक वैचारिक प्रक्रिया आपको लानी होती है कि हम दुख के लक्षणों के सहारे दुख के केन्द्र तक पहुंचें और एक प्रक्रिया शुरू करें उसके जीतने की, वो रचनात्मक है। भावुक होना रचनात्मक नहीं है क्योंकि वो रो रहा है। उसके बगल में आप भी बैठे रो रहे हैं। 
प्रेम भारद्वाज: प्रेमचंद ने अमृत राय से कभी कहा था कि हिन्दी कहानी से मृत्यु कम हो रही है या खत्म हो रही है। मृत्यु को लगातार बने रहना चाहिए। आपकी अधिकांश कहानियों में मृत्यु आती है और बार-बार आती है। अलग-अलग संदर्भ और परिप्रेक्ष्य लिये। आपने शायद इस सवाल के जवाब में कहीं कहा भी है कि मृत्यु मुझे आकर्षित करती है। मेरी जिज्ञासा ये है कि मृत्यु के प्रति ये जो आकर्षण है, वह कोई रचनात्मक भाव लिए है, सूफियाना है, दार्शनिकता, औधड़पन है, बोहेमियन है -क्या है?
रोहित प्रकाश: जोड़ कर रहा हूँ कि इसमें मिलान कुंदेरा का तो कोई योगदान नहीं?
प्रियंवद: नहीं! मिलान कुंदेरा का योगदान नहीं है इसलिए कि मृत्यु पर हजारों सालों से हमारे भारत में सबसे ज्यादा बात की गयी है, मिलान कुंदेरा तो बहुत बाद के हैं। देखिए, जितना जीवन जरूरी है उतना ही मृत्यु भी। आप मृत्यु को, उसके रहस्यों, उसकी सारी बातों को भी तब समझेंगे जब उसके आस-पास से कभी गुजरेंगे। जैसे गालिब का वो शेर है- तू कहां थी ए अजल ए नामुरादों की मुराद, मरने वाले राह तेरी उम्र भर देख किए! तो दुनिया में मृत्यु बड़ी महत्वपूर्ण। जरा देखिए- ना मुरादों की मुराद, मरने वाले राह तेरी उम्र भर देखा किए, पास जब छायी, उम्मीदें हाथ मलकर रह गयी दिल की नब्जें छूट गयी और चारागर देखा किए। आप मृत्यु के बिना शायरी नहीं कर सकते, कविता नहीं कर सकते। मृत्यु के बिना रचनात्मकता हो ही नहीं सकती। अगर आप मृत्यु नहीं समझते तो आप जीवन पर एक शब्द लिख नहीं सकते।
रोहित प्रकाश: मृत्यु में जाकर हम नहीं लिखते हैं, हम मृत्यु की अवस्था में रहकर भी नहीं लिखते। डिटैच होकर लिखते हैं। मतलब आँख पर किताब रखकर तो हम नहीं पढ़ पाएँगे, दूर ले जाकर पढ़ेंगे तो पढ़ पाएंगे कहीं। ये तो अवस्था नहीं।
प्रियंवद: देखिए ये तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन मैं ये जरूर कह सकता हूँ कि मृत्यु की अवस्था में जाकर जीवन आपको साफ दिखाई देता है। मृत्यु के लिए कभी जीवन में हल्का शब्द इस्तेमाल मत कीजिए। बहुत बड़ी, बहुत गंभीर चीज है।
अशोक गुप्ता: आपकी कहानी खरगोश में अविनाश अपनी प्रेमिका को इन्ट्रड्यूस करके कहता है- मृत्यु। मृत्यु संबोधन है उसमें। उसमें दार्शनिकता का एक तत्व झलकता है। लेकिन है वो पूरी रूमानियत। दुष्यंत ने तो कहा भी है न मौत में तो दर्द हो जाए एक चीते की तरह/जिंदगी न जब छुआ एक फासला रख के छुआ।
प्रियंवद: मृत्यु को बुरा कहता आपको कोई नहीं दिखेगा। न ही दुनिया का कोई दार्शनिक ऐसा मिलेगा जो कहे- मृत्यु बुरी चीज है।
प्रेम भारद्वाज: ओशो ने कहा है- मैं मृत्यु सिखाता हूँ… 
प्रियंवद: कोई नहीं कहता। कोई धर्मगुरु नहीं मिलेगा जो कहे मृत्यु बुरी चीज है। कोई लेखक नहीं मिलेगा जो कहे मृत्यु बुरी चीज है और कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसकी अपने जीवन के अंतिम वक्त तक आते-आते अंतिम कामना मृत्यु की नहीं रह जाए।
प्रेम भारद्वाज: आपके आकर्षण का प्रमुख कारण क्या है? 
प्रियंवद: भाई इतनी विराट चीज, इतनी रहस्यमय चीज मुझे आकर्षित करती है। मुझे जीवन का कुछ भी रहस्य आकर्षित करता है। मृत्यु के इतने शेड्स हैं। इसलिए मैं मृत्यु पर भी लिखता हूँ।
रोहित प्रकाश: थोड़ा उलटकर इसको मैं पूछता हूँ? मृत्यु में रहकर जीवन को देखना, जीवन में रहकर मृत्यु को देखना-ये भी तो एक बात हो ही सकती है।
प्रियंवद: नहीं!
रोहित प्रकाश: अपने साहित्य में मृत्यु को आप देख ही रहे हैं तो उसमें कितना धंसकर जीवन को देख पा रहे हैं? प्रियंवद: देखिए, जीवन में धंसकर अगर आप मृत्यु को देखने लगेंगे तो जी नहीं पाएँगे। मृत्यु में रहकर जो जीवन देखना है वो तो सिर्फ रचनात्मक क्षणों की बात है। रचनात्मक क्षणों में अगर आप जीवन में मृत्यु को देखने लगेंगे तो फिर नहीं जी पाएँगे। वो तो एक दूसरी स्थिति होगी।
रोहित प्रकाश: मुझे तो अक्सर लगता रहा है कि लोग जीवन में धंसकर मृत्यु की कामना भी करते हैं। मतलब आज जो दौर है 21वीं सदी का। उसमें दुनिया में जो चीजें बदली हैं, लोगों में लगातार आत्महत्या के मामले देख रहे हैं। मृत्यु के प्रति आकर्षण सिर्फ लेखन के स्तर पर ही नहीं है। मतलब जीवन में एकदम धंसा हुआ आदमी, जो जीवन की सारी दुनियावी चीजें करता है, दिन-रात उसमें लगा रहता है- वो लगातार मृत्यु के बारे में उतना ही सोचता है। 
प्रियंवद: आप जो कहना चाहते हैं वो मुक्ति है- जब उसे मुक्ति चाहिए होती है तो मृत्यु के पास जाता है। मृत्यु मुक्ति है। कुछ कहते हैं निर्वाण है, कोई कहता है बुझ जाना है, कोई कहता है वस्त्र बदलना है। सबने कुछ न कुछ कहा है। आत्महत्या को तो उस तरह नहीं जोडि़ए, वो तो मुक्ति है। रचनात्मक क्षणों में अगर जीवन को देखना है तो पीछे लौटकर मृत्यु की स्थितियों में जाइए।
प्रेम भारद्वाज: अच्छा, मृत्यु की तरह आपके यहाँ कई पात्र जो असामान्य होते हैं, अर्धविक्षिप्त हैं, या सनकीपन भी कह सकते हैं, एबनार्मल लोग। वे बहुत आते हैं।
प्रियंवद: देखिए, ऐसे पात्र समाज में होते हैं। मतलब ये ऐसे पात्र नहीं हैं जो वास्तविक जीवन में नहीं होते।
प्रेम भारद्वाज: बूढ़े के उत्सव में गिरगिट, छिपकली का नशा करना…? 
रोहित प्रकाश: मैं एक बात जोर रहा हूँ… समाज में होते हैं लेकिन चरित्र के रूप में आपका चुनाव वही क्यों होते हैं। प्रियंवद: ये सब समाज में होते हैं। बूढ़े का उत्सव कहानी का पात्र… उसके अनुभव की सारी तात्विकताएँ,
 
      

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10 comments

  1. मुझ जैसे beginners के लिए काफी उपयोगी बातें है इसमें।

  2. badhia interview

  3. उनके लिए आपने एक बहुत अच्छा काम कर दिया है जिन्हें किसी कारणवश 'पाखी' नहीं मिल पायी होगी. प्रियम्बद जी ने जिस तरह से खुल कर यहाँ बात-चीत की है, वह एक आइना है उन साहित्यकारों के लिए जो अपना इंटरव्यू तो चाहते हैं पर बहुत से प्रश्नों का टालमटोल वाला जवाब देते हैं कि कहीं उनकी छवि न ख़राब हो जाए. बहुत बहुत शुक्रिया जानकी पुल. मैं आपके इस प्रयास को फेसबुक पर शेयर कर रहा हूँ.

  4. अच्छी बातचीत ..कुछ प्रश्नों के उत्तर .. जिन्हें लेकर इनहिबिशन अधिक रहते हैं और अक्सर हम उन्हें टाल जाते हैं .. उनके उत्तर हैं यहाँ ..

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  6. It’s nearly impossible to find experienced people for
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