Home / ब्लॉग / साहित्य को श्रद्धा नहीं उसमें निहित सामाजिक प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण बनाती है

साहित्य को श्रद्धा नहीं उसमें निहित सामाजिक प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण बनाती है

दिनेश्वर प्रसाद का निधन हो गया. वे हिंदी के एक प्राध्यापक थे, लेकिन मठाधीश नहीं. साहित्यसेवी थे. रांची में रहते थे. बरसों से फादर कामिल बुल्के के कोश को अपडेट करते रहते थे. उनको याद करते हुए विनीत कुमार ने बहुत आत्मीय ढंग से लिखा है- जानकी पुल.
—————————————————-

पटना से निरालाजी ( तहलका ) ने मैसेज( 14 अप्रैल) किया- दिनेश्वर प्रसाद नहीं रहे. मुझे धक्का लगा. मैं पिछले सप्ताह निरालाजी से हुई बातचीत को याद करने लगा. उनका फेसबुक पर बिदेसिया रंग नाम से अकाउंट है. पोक करते हुए उन्होंने कहा था- आप रांची से है, मुझे इधर पता चला जब आपने अपडेट्स लगाए थे. मैंने थोड़ी बातचीत की और पूछा-आपका नाम क्या है ? उन्होंने कहा- निराला. उनका सीधा सा सवाल था- रांची में आपके परिचित कौन हैं ? मैंने पहला नाम लिया था- दिनेश्वर प्रसाद, पता नहीं, अब उन्हें याद भी न होगा कि नहीं मेरे बारे में. इस बातचीत के सप्ताह भी नहीं बीतें होंगे कि निरालाजी ने उनके गुजर जाने की खबर दी. मेरे अनुरोध पर उनकी एक तस्वीर भी भेजी..पुराने दिन याद आ गए
.
आइआइएमसी (विज्ञापन एवं जनसंपर्क), दिल्ली की लिखित परीक्षा का रिजल्ट लेकर उनके सामने बैठा था. वो इस रिजल्ट से खुश थे लेकिन उससे कहीं ज्यादा उदास भी. उन्हें मेरी इस सफलता पर जितनी उदासी हुई थी, उतने उदास वे तब भी नहीं हुए थे,जब मैंने लगभग रोते हुए उनसे कहा था- मेरा जेएनयू ( एम. ए. हिन्दी ) में नहीं हुआ सर. उस समय उन्होंने कहा था- कोई बात नहीं,दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दू कॉलेज है, वहां कोशिश करना, हो जाएगा. लेकिन इस रिजल्ट के बाद बुझे स्वर में कहा-
तो अब तुम विज्ञापन बनाने का कोर्स करोगे, पीआर बनोगे. जैसे बाकी लोग पैसे के पीछे भागते हैं,तुम भी भागोगे ? एक बार फिर से विचार करना अपने इस फैसले पर..उनकी कही ये आखिरी लाइन थी जिसके बाद संयोग ऐसा बना कि दोबारा कभी उनसे मिलना न हो सका..लेकिन आखिर में मैंने हिन्दू कॉलेज से हिन्दी साहित्य से एम.ए.ही किया. उनके कहने भर से नहीं लेकिन उस भरोसे से कि अगर मुझे आगे साहित्य पढ़ने कहा है तो कुछ तो सोचा होगा. खैर,
दिनेश्वर प्रसाद मेरे कॉलेज या कोर्स टीचर नहीं थे. उन्होंने कभी क्लासरुम में मुझे पढ़ाया भी नहीं. वो अक्सर बुल्के शोध संस्थान आया करते और लाइब्रेरियन रेजिना बा बताती कि बहुत विद्वान शख्स हैं. फिर मैंने बुल्के जयंती पर दो साल लगातार बोलते सुना तो उनका कायल हो गया. साहित्य को श्रद्धा के बजाय उसमें निहित सामाजिक प्रतिबद्धता और बदलाव का दस्तावेज जैसी समझ पहली बार उनसे ही सुना,सीखा. कार्यक्रम खत्म होने के बाद कहा-सर, आपसे मिलना चाहता हूं. कुछ बात करना चाहता हूं. उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- हां-हां क्यों नहीं, मैं तुम्हें अक्सर यहां टेबल पर बैठकर पढ़ते देखता हूं, अच्छा लगता है,कभी भी आ जाओ मेरे घर पर. ये कोई बीए सेकण्ड इयर की बात होगी. लेकिन तब हम उनके पास नहीं गए.
थर्ड इयर तक आते-आते साहित्य का ऐसा नशा छाया कि लगा इसमें एम.ए. करना है, दिनेश्वर प्रसाद जैसा ही विद्वान बनना है. बुल्के शोध संस्थान की आवोहवा कुछ ऐसी थी कि हमें साहित्य से लगातार बांधे रखती थी. मेरी सीनियर थी नीतू नवगीत. अच्छी दोस्त. शादी के बाद अब हम उन्हें नीतू दी कहते हैं. उन पर भी कुछ ऐसा ही नशा छाया था. एक दिन गर्मी की इसी तरह की दुपहरी में हमने बन बनाया कि आज दिनेश्वर सर के यहां चलेगें. बुल्के शोध संस्थान से थोड़ी ही दूर पर उनका घर था. हम गए.
हमारे जाने पर वो बहुत खुश हुए. खुद उठकर पानी,लड्डू लाने चले गए. बहुत प्यार से बिठाया. हमने आने का कारण बताया. नीतू दी टू द प्वाइंट बात करती थी सो साहित्य के बाकी छात्रों की तरह बड़ी-बड़ी भारी-भरकम अभिव्यक्ति में न फंसकर सीधे कहा- सर,मुझे जेएनयू से एम ए करना है,आप गाइड करें. वो अपने साथ सिलेबस और पुराने साल के सवाल लेकर आयी थी. दिनेश्वर प्रसाद ने एकबारगी उसे पलटा और फिर एकदम से कहा- देखो, बाकी चीजें तो ठीक है,सिलेबस,लेखक,कविता लेकिन सबसे पहले कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ो. इसके बाद बाकी चीजों पर बात होगी. नीतू दी अपने मिजाज के अनुरुप चाहती थी कि दिनेश्वर प्रसाद उन्हें जेएनयू प्रवेश परीक्षा के लिए बाकायदा ट्यूशन दें जो कि उनके मिजाज के अनुरुप नहीं था. शायद इसलिए उसने एक-दो बार के बाद उनके पास जाना छोड़ दिया. लेकिन मेरा जाना और उनके बताए अनुसार साहित्य पढ़ना जारी रहा. इसकी एक वजह ये भी थी कि मेरे पास एक साल का समय था और मैं सचमुच कोर्स के अलावे भी साहित्य पढ़ना चाहता था. हम मिलते रहे और वो कुछ-कुछ बताते रहे.
देखते-देखते थर्ड इयर निकल गया. जेएनयू का फार्म भरने का समय भी आ गया. हम जैसे बिहार-झारखंड़ से आनेवाले लोगों के लिए जेएनयू तब एक ऐसा विश्वविद्यालय हुआ करता जिसे लेकर सोच थी कि एक बार घुस गए तो जिंदगी संवर जाएगी. वो हमारे लिए पढ़ने से कहीं ज्यादा फैंटेसी की दुनिया थी. हम चाहते थे कि परीक्षा देने के पहले एक बार यहां आकर देखें तो कि कैसा है ? हमने ये बात दिनेश्वर प्रसाद को बतायी. वो खुश हो गए- ये तो बहुत अच्छी बात है. वहां वीर भारत तलवार है. उनसे मेरे बारे में बताना और मिलना. वो तुम्हें सही निर्देशन देंगे.
उत्साह में मैंने झारखंड स्वर्णजंयती ट्रेन पकड़ी और दिल्ली चला आया. ये मेरी जिंदगी की दूसरी ट्रेन यात्र थी और इतनी दूर की पहली. दिल्ली पहुंचकर वीर भारत तलवार से मिला. उनका हुलिया देखकर पहले ही डर गया. लेकिन पता नहीं क्यो, जब पास गया तो शायद थोड़ा ज्यादा सटकर खड़ा हो गया और कहा- सर,मैं रांची से आया हूं और दिनेश्वर प्रसाद ने मुझे आपसे मिलने कहा है. उन्होंने कोई कारण पूछने के बजाय डपटते हुए कहा- रांची से आए हो तो मेरे भीतर घुस जाओगे. थोड़े दूर खड़े हो जाओ. खैर, फिर मुद्दे पर बात की. कुछ किताबों के नाम बताए और कहा चलो मेरे साथ. मैं उनके साथ उनके घर तक गया. वो अंदर गए. अपनी किताब रस्साकशी दी और कहा इसे रवि भूषणजी हैं रांची में पहुंचा देना उनके पास. मुझे लगा, झारखंड का जानकर कुछ खाने को कहेंगे, थोड़ी देर बैठने को भी. लेकिन कहा- चलो फिर, तैयारी करो. मैं तब एकदम रॉ था. तुलना करने लगा दिनेश्वर प्रसाद से. साहित्यकारों को लेकर बिल्कुल तब अलग समझ थी मेरी. साधु-संतों से जितनी नफरत करता था, उसकी मूल आदिम प्रवृति की तलाश साहित्यकारों में खोजता फिरता था. मेरी वीरभारत तलवार से तब से आज दिन तक की आखिरी मुलाकात थी.

रांची लौटकर दिनेश्वर प्रसाद से मिला. उन्होंने पूछा- और मिले वीर भारत तलवार से. मैंने उदास मन से कहा- हां सर लेकिन वो आपके जैसे नहीं हैं. सर, साहित्यकार लोग ऐसे भी होते हैं. कुछ दिया भी उन्होंने मेरे लिए. मैंने कहा-नहीं सर, रविभूषणजी के लिए रस्साकशी दी है. वो चुप हो गए. फिर सहज भाव से कहा- परेशान मत हो, अच्छे से प्रवेश परीक्षा दो. बहुत अच्छे शिक्षक हैं वो. मुझसे भी ज्यादा जानते हैं,खूब पढ़ाएंगे तुम्हें. पता नहीं क्यों, मेरा जेएनयू के प्रति तभी उत्साह मर गया. लगा,हो भी जाएगा तो ये तलवार ही पढ़ाएंगे न. मैंने प्रेवश परीक्षा दी और मेरा नहीं हुआ. मन पहले से और उदास हो गया. लगा जेएनयू में हुआ ही नहीं तो साहित्य पढ़कर क्या करेंगे ? तब मीडिया के भी फार्म भरे, विज्ञापन और जनसंपर्क के भी.
मुझे तब बात उतनी समझ नहीं आती थी कि दिनेश्वर प्रसाद साहित्य के जरिए हमें क्या समझा रहे हैं ? लेकिन अब जब साहित्य पर होनेवाले विमर्शों से गुजरता हू तो महसूस करता हूं कि उन्हें चीजों की कितनी बारीक समझ थी. भाषा के कितने अच्छे जानकार थे. बुल्के की डिक्शनरी को पिछले 15 सालों से वही अपडेट करते आए थे. साहित्य अकादमी से डॉ. कामिल बुल्के पर छपी किताब उन्होंने ही लिखी. रिटायर होने के बाद उतना जूझकर पढ़ते हुए मैंने आसपास के शिक्षकों को नहीं देखा. वही उनका बरामदा, ताड़ के पंखे से गर्मी भगाते हुए दिनेश्वर प्रसाद. किसी के व्यक्तित्व का कितना असर होता है. उनको अक्सर एक ही शर्ट में देखकर खुद कपड़े की दूकान होते हुए भी मैंने उनकी तरह ही रहना शुरु कर दिया था. बहुत ही गिनती के कपड़े.
झारखंड़ में गरीबों और आदिवासियों की जमीन हड़पकर जैसे कई लोगों ने महल खड़े कर लिए. दिनेश्वर प्रसाद की वाचिक शैली को पन्ने पर उतारकर, उनकी सामग्री का इस्तेमाल करके लोगों ने किताबों की लड़ी खड़ी कर ली. झारखंड़ की लोकसंस्कृति के असल इनसाइक्लोपीडिया वही थे. ये अलग बात है कि उन्होंने लिखा बहुत कम. बाद में कांची का अंक थमाते हुए कहते- कभी इसके लिए कुछ लिखने की कोशिश करना.आज दिल्ली में बैठकर जब यूसीबी,पार्क एवन्यू और जोडियॉक की शर्ट के बटन लगाता हूं तो अक्सर उनकी कमीज याद आ जाती है जिनमें कई बार ब्लाउज के बटन तक लगे होते थे.
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

11 comments

  1. Dineshvar ji ko vinamr shradhanjali .ila di aapke dukh ko samjha sakti hoon
    rachana

  2. Dineshwar Prasad ji ko meree vhavbheenee shraddhaanjali. unke viral vyaktitwa ko mera shat -shat nama ! Ila Prabhu tumhe is sadme ko bardaasht karne kee shakti de !

  3. Dineshwar prashad par vineet kumar ji kaa aatmiyta se bhraa lekh padh kar
    abhibhoot ho gyaa hun . divangat aatma ko bhaavbheenee shraddhanjli . Kash ,
    aese samarpit vyakti ko sabhee shrddha ke phool bhent karte !

  4. विनीत जी,

    दिनेश्वर प्रसाद को उनकी बेटी इला प्रसाद (ह्यूस्टन-अमेरिका) से परिचय के बाद जाना और जाना तो जानता ही गया. कभी मिला नहीं और न ही फोन पर चर्चा हुई, लेकिन इतना जानता हूं कि वह विद्वानों की उस पीढ़ी के थे जिनकी अब यादें ही शेष हैं. डॉ. शिवप्रसाद सिंह से पारिवारिक संबन्ध थे…बहुत ही नैकट्य –उद्भट विद्वान थे और डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के बारे में सोचते हुए एक्बारगी उनकी याद आ जाती है. डॉ. प्रसाद भी उन जैसे ही विद्वान थे. उन्हें विनम्र श्रद्धाजंलि.

    रूपसिंह चन्देल

  5. Dineshwar prashad par vineet kumar ji kaa aatmiyta se bhraa lekh padh kar
    abhibhoot ho gyaa hun . divangat aatma ko bhaavbheenee shraddhanjli . Kash ,
    aese samarpit vyakti ko sabhee shrddha ke phool bhent karte !

  6. एक महान व्यक्ति से मिलवाने के लिए आभार!
    विनम्र श्रद्धांजलि।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *