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‘कहानी’ में न अंटने वाला कहानीकार उदय प्रकाश

संजीव कुमार हिंदी के गंभीर आलोचकों में गिने जाते हैं. हाल के वर्षों में जिन कुछ आलोचकों को मिलने के कारण देवीशंकर अवस्थी सम्मान की विश्वसनीयता बरकरार है, वे उनमें एक हैं. बहुत खुलेपन के साथ उन्होंने उदय प्रकाश की कहानियों, उनकी कथा-प्रविधि पर लिखा है. उदय प्रकाश को पढ़ने के एक नए ढंग की ओर यह लेख हमें ले जाता है. उस उदय प्रकाश को ‘लोकेट’ करने की दिशा में जिसकी लोकप्रियता असंदिग्ध है, लेकिन हिंदी आलोचना जिससे बरसों से मुँह चुराती रही है. उदय प्रकाश की षष्टिपूर्तिके वर्ष में लिखा गया विचारोत्तेजक लेख- जानकी पुल.
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उदय प्रकाश पाठकों को अपनी बौद्धिकता से आतंकित करने वाले कहानीकार हैं।… वे कहानी के नाम पर निबंध लिखते हैं और वह भी हर तरह के गठन-सिद्धांत की ऐसी-तैसी करते अराजक बिखराव से ग्रस्त।… उनकी कहानियां रचना-दृष्टि की विपन्नता को कभी भाषिक छल और कभी अमूर्तन से ढंकने-तोपने की कोशिश करती हैं।… वे घोर मैनरिज़्म के शिकार हैं।… उनकी कहानियों में अभिप्रेत संवेदना शिल्प की अतिरिक्त सजगता से क्षत-विक्षत हो जाती है।… वह विदेशी कथाकारों की नकल मार कर, कई जगह उनका अनुवाद कर अपनी धाक जमाने में माहिर है (लैब्रिंथतो सीधे-सीधे उड़ा लाया! और मेटामौरफोसिसका पहला ही वाक्य! हद है टीपने की भी!)।… वह एक अनैतिक और निष्ठुर कहानीकार है– जिन परिचितों से सहानुभूति रखी जानी चाहिए, उन पर कहानी लिख कर उनकी खिल्ली उड़ाता है।…

उदय प्रकाश को पढ़ते हुए मुझे तीस साल हो गये और उनके बारे में ऐसे आरोपों को सुनते-पढ़ते हुए भी कम-से-कम बीस साल तो हो ही गये। इन बीस सालों में मैं हर समय इन आरोपों से अप्रभावित ही रहा होऊं, ऐसा भी नहीं है। पर इतने सालों बाद आज पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि इन आरोपों के मुक़ाबले उदय की कहानियां मेरी अपनी समझ के संसार में, और निस्संदेह वस्तुगत धरातल पर हिंदी कहानी के संसार में भी, कहीं ज़्यादा टिकाऊ साबित हुईं। आज अगर इपंले (इन पंक्तियों का लेखक) एक पेशेवर-आलोचक-टाइप पाठक की भूमिका में उदय प्रकाश की कुछ सीमाओं को चिह्नित करे भी, तो उनका संबंध उपर्युक्त आरोपों से बिल्कुल नहीं होगा। और जहां तक वस्तुगत धरातल पर हिंदी कहानी के संसारका सवाल है, उसने उदय द्वारा की गयी कई शुरुआतों की अनुकरणीयता को सिद्ध करते हुए उपर्युक्त आरोपों को चुपचाप, मगर निर्णायक तरीक़े से किनारे कर दिया है। आज की हिंदी कहानी की कई प्रवृत्तियां ऐसी हैं जिनकी जड़ें तलाशते हुए अगर आपकी निगाह उदय प्रकाश पर ही जाकर नहीं रुकती, तो कम-से-कम उनकी अनदेखी तो नहीं ही कर सकती है। बेशक, उसके बाद इस कहानीकार के बारे में आप राय क्या बनाते हैं, यह इस पर निर्भर होगा कि उन प्रवृत्तियों के बारे में आपकी क्या राय है।

जो उदय की कहानियों के मुरीद नहीं हैं, वे भी यह स्वीकार करेंगे कि दाय में मिले हुए कहानी के फ़ार्म को उन्होंने एकबारगी तो नहीं, पर आहिस्ता-आहिस्ता ख़ासा बदल डाला। उस बदलाव पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए। मुझे शक़ है कि रूपगतप्रयोगों या नवीनताओं के प्रति जिन आलोचकों का रवैया अगंभीर, यहां तक कि अवमाननापूर्ण होता है, उनके मन में कहीं-न-कहीं यह धारणा होती है कि यह दरअसल नवोन्मेषी कहलाने की महत्वाकांक्षा से उपजी कोई ख़ामख़ा की चीज़ है, या फिर किसी सुखद प्रभातवेला में रचनाकार के मन में उठे इस फि़तूर का नतीजा, कि और तो कुछ उखाड़ नहीं पा रहे, चलो, रूप में ही कुछ उलट-फेर कर डालें।
संजीव कुमार 

लिहाज़ा, सबसे पहले इस बात पर बल देना ज़रूरी है कि रूप का नयापन किसी की स्वाधीन इच्छा या दिमाग़ी फि़तूर की पैदावर नहीं होता। ज़्यादातर मामलों में वह स्थापित रूप के भीतर अपनी बात कह पाने में रचनाकार की असमर्थता का परिणाम होता है। यह असमर्थता बड़ी मूल्यवान चीज़ है, क्योंकि रूप वस्तुतः बोध के ढांचे से अनुकूलित होता है और अगर बोध का ढांचा अपरिवर्तित है तो चले आते रूपविधान के भीतर रचने का सामथ्र्य बना रहता है। बोध के ढांचे को तीसरी क़समकहानी के एक प्रसंग से समझें। कहानी का एक पात्र है, पलटदास। भगत आदमी है। थियेटर में चलने वाली नौटंकी गुलबदन और तख़्तहज़ारादेखते हुए उसकी प्रतिक्रियाः पलटदास कि़स्सा समझता है… कि़स्सा और क्या होगा, रमैन की ही बात! वही राम, वही सीता, वही लखनलला और वही राबन! सिया सुकुमारी को रामजी से छीनने के लिए राबन तरह-तरह का रूप धरकर आता है। राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं। यहां भी तख़्तहज़ारा बनानेवाला माली का बेटा राम है। गुलबदन सिया सुकुमारी हैं। माली के लड़के का दोस्त लखनलला है और सुल्तान है राबन…।

बहुत पहले तीसरी क़समपर लिखते हुए इस हिस्से को सामने रख कर मैंने यह जिज्ञासा की थी कि अगर पलटदास सचमुच का कोई इंसान रहा हो और उसने रेणु की यह कहानी पढ़ी भी हो तो उसकी क्या प्रतिक्रिया हुई होगी? मेरा ही जवाब था, ‘कोई हैरत नहीं कि पलटदास को वहां कोई कि़स्सा हाथ न लगा हो।अव्वल तो उसे लगा होगा कि राम और सीता यहां कुछ और ही तरह से व्यवहार कर रहे हैं। पता ही नहीं लगता कि ये सीता मैया राम जी को राम जी मानती भी हैं या नहीं। फिर कोई रावण भी नहीं है। और बगैर रावण के वह सिया सुकुमारी, जो पता नहीं सिया सुकुमारी है भी या नहीं, उन राम जी के हाथ से, जो पता नहीं राम जी हैं भी या नहीं, निकल जाती है। निस्संदेह, पलटदास को समझ नहीं आया होगा कि यहां कि़स्सा कहां है। अलबत्ता, ‘तीसरी क़समफि़ल्म को देख कर उसे थोड़ा संतोष अवश्य हुआ होगा कि चलो, ज़मींदार जैसे पात्र के रूप में एक अदद रावण तो आया, जिसके चलते यह समझना आसान हुआ कि सीता मैया राम जी से दूर क्यों जा रही हैं! साथ ही, हिरामन-हीराबाई को राम और सीता मान लेने की गुंजाइश भी यहां ज़्यादा दिखी होगी, क्योंकि उनका प्रेम अकथित भले ही रह गया हो, कम-से-कम दोतरफ़ा तो है!

मतलब यह, कि पलटदास रामायण के ढांचे में अंटा कर ही किसी कि़स्से को समझ सकता है, नहीं तो नहीं समझ सकता। औसत रचनाकार की स्थिति भी बहुत कुछ ऐसी ही होती है। वह उपलब्ध ढांचे से अनुकूलित रूपविधान के भीतर ही रचना कर सकता है, नहीं तो नहीं कर सकता।

इसीलिए मैंने कहा कि उपलब्ध/प्रदत्त ढांचे के भीतर अपनी बात कह पाने की असमर्थता बड़ी मूल्यवान चीज़ है, क्योंकि ज़्यादातर मामलों में वह रचनाकार के सबसे महत्वपूर्ण सामर्थ्य का प्रमाण है, उस ढांचे के भीतर न सोचने की या कहिए कि उससे बाहर जाकर सोचने की योग्यता का प्रमाण। वह इस बात का सबूत है कि वस्तुगत यथार्थ में कहीं कुछ इस तरह से बदला है कि वह आत्मगत बोध के ढांचों से टकरा रहा है। सबसे संवेदनशील रचनाकार के भीतर यह टकराहट सबसे पहले घटित होती है। यही पुराने रूपविधान को उसके लिए नाकाफ़ी बनाती है और एक नया रूपविधान उसके भीतर बजि़द उभरने लगता है। नाकाफ़ी मानने का मतलब घटिया मानना नहीं है। उसका मतलब सिर्फ़ इतना है कि कोई नयी बात पिछली रूपगतयुक्तियों में अंटने से इंकार कर रही है। इसी से यह समझ में आता है कि क्यों निराला को एक समय में छंद बंधन की तरह प्रतीत होने लगता है और इसके बावजूद छंदानुशासन में बंधी पिछली परंपरा के कई कवि उनके पसंदीदा कवि बने रहते हैं।

उदय प्रकाश की कहानियों पर आने से पहले यह चर्चा ज़रूरी थी, क्योंकि वे उत्तराधिकार में मिले हुए रूप को जगह-जगह तोड़ कर कुछ नया बनाते हैं और इसे ही कई बार शिल्प की अतिरिक्त सजगता, भाषिक छल, मैनरिज़्म इत्यादि के तौर पर समझा-बताया जाता है। उनके यहां ब्यौरों का अभूतपूर्व बाहुल्य है, वाचक बहुत सजग तौर पर मुखर है, एक बेहद आविष्ट भाषा के भीतर निबंध, भाषण और कविता के सर्वोत्तम गुणों का भरपूर इस्तेमाल है, पाठक को सीधे संबोधित करने वाली शैली है और इन सबके साथ-साथ कथा-स्थितियों के अर्थ-विस्तार के लिए सुराग़ छोड़ते जाने की युक्ति है (जिसे इपंले सर्फेस टेंशनकहना पसंद करता है)। ये सारी ऐसी विषेशताएं हैं जिन्हें आप हिंदी कहानी के भीतर बहुत हद तक ख़ास उदयप्रकाशीय स्पर्श के रूप में चिह्नित कर सकते हैं। ये उनके यहां एकबारगी नहीं आई हैं। धीरे-धीरे इनकी उपस्थिति प्रगाढ़ होती गयी है और कहीं-कहीं तो उस हद तक प्रगाढ़ हुई है जहां आपको ऊब होने लगती है। मेरे जैसे प्रशंसक को भी मोहनदासजैसी अन्यथा अभूतपूर्व कहानी पढ़ते हुए कोष्ठकों में आए कई निबंधात्मक अंशों को संपादित कर देने की झुंझलाहट भरी तलब महसूस हुई। लेकिन ये बाद की बातें हैं। महत्वपूर्ण यह है कि उदय के पास कहने को कुछ ऐसा था जो पहले से चले आते रूपविधान में अंटने से इंकार कर रहा था। दरियाई घोड़ाकी कहानियों में अंटने की यह समस्या कम है। वहां मौसा जी’, ‘दद्दू तिवारी गणनाधिकारी’, ‘पुतलाजैसी उम्दा कहानियों में भी रूप के साथ कोई बुनियादी छेड़छाड़ करने की ज़रूरत नहीं पड़ी है। टेपचूमें आकर लेखक इसकी थोड़ी ज़रूरत महसूस करता है। वह पाठकों को सीधा संबोधित करने की युक्ति का इस्तेमाल करता है और कहानी इस वाक्य से शुरू होती है कि यहां जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है। बीच-बीच में आपकह कर पाठकों से सीधे बातचीत की गयी है। फिर अंत में एक पूरा हिस्सा आपको संबोधित है, जहां वाचक पाठक से कहता है कि ये बातें उसे जितनी भी अनहोनी या असंभव लगें, पर ये सच के सिवा कुछ नहीं हैं। और अंतिम वाक्य में तो वह दावा करता है कि आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहां, जब, जिस वक़्त आप चाहें मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं।मैं नहीं जानता कि टेपचूसे पहले हिंदी की कोई कहानी इस युक्ति के इस्तेमाल का नमूना पेश करती है।

सवाल है कि क्या यह महज़ एक चौंकाने वाला रूपगतप्रयोग है?  इसका जवाब देने के लिए पहले यह समझना होगा कि टेपचूकहानी करना क्या चाहती है? यह कहानी अपने पाठक को पूरी ताक़त के साथ यह अहसास कराना चाहती है कि बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में पले-बढ़े सर्वहारा की जि़ंदगी और मौत के तर्क सामान्य मध्यवर्ग के तर्क से इतने अलहदा हैं कि उन्हें तर्क मानना ही मुश्किल लगता है। इसे यों समझें कि जब भयंकर शीतलहर चल रही हो और आप हीटर-ब्लोअर-संपन्न कक्ष में रज़ाई ओढ़ कर सोते हों, तब आप ही के शहर में खुले आकाश के नीचे हल्कू वाली कंबल (संदर्भः पूस की रात) ओढ़ कर सोते हज़ारों-लाखों लोग जीवित कैसे रह जाते हैं, यह समझना कितना मुश्किल है! क्या यह महान आश्चर्य, जो साल-दर-साल पता नहीं कबसे घटित होता आ रहा है, आपके तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है? टेपचू इसी सच्चाई की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता है। पर लेखक को पता है कि आपइस पर भरोसा नहीं करेंगे। इसीलिए वह ज़रूरत महसूस करता है कि आपको सीधा संबोधित करे और बार-बार इसके कहानी न होकर सच्चाई होने का दावा पेश करे। हम जानते हैं कि दुनिया क

 
      

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12 comments

  1. "उदय कहानी के रूपाकार की दमघोंटू (प्रतीत होती) मर्यादाओं को तोड़ते जाते हैं ।
    मर्यादाओं को इस हद तक तोड़ना इसलिए भी ज़रूरी हुआ है कि अब कहानीकार कहानी की विधा में अपने समय के सबसे बड़े सवालों से टकराने की महत्वाकांक्षा भर रहा है। ये ऐसे समय की कहानियां हैं जब हिंदुस्तान उदारीकरण की चपेट में आ चुका है; विश्व-पटल पर समाजवादी व्यवस्थाएं नष्ट हो चुकी हैं; ‘टेपचू’ का आंदोलनधर्मी आशावाद हास्यास्पद होता जा रहा है; एक ओर अमीरी बढ़ रही है और दूसरी ओर असंगठित दरिद्र सर्वहारा और हाशिये के लोगों की तादाद; पूंजी के अनैतिक, विचारहीन, आततायी भुक्खड़पन के सामने सिर्फ़ मज़दूर वर्ग के लड़ने-बचने की नहीं, पूरी मानवता और प्रकृति के लड़ने-बचने की चिंता भी दरपेश है। ऐसे समय में उदय के यहां विवरणों-ब्यौरों का विस्तार, वाचक की मुखरता, निबंध-भाषण-कविता के सर्वोत्तम गुणों का इस्तेमाल करती ‘चार्ज्ड’ भाषा– ये सब कहानी के सरोकार को साभ्यतिक स्तर तक उठा ले जाने का साधन बनते हैं, जहां इनका सहारा पाकर कहानी का मुख्य घटनाक्रम हमारे समय के सर्वातिशायी विद्रूप का प्रतिनिधि बन जाता है । "….!!

  2. ऐसे आलोचनाकर्म की अत्यधिक आवश्यकता है. उदय प्रकाश की पीली छतरी वाली लड़की और मोहनदास मैंने पढ़ी हैं. ऐसा आश्वादन विरल ही मिलता है. संजीव जी आपने जो नए रूपविधान की चर्चा की वह तो लाजवाब है. आपका परिचय तो मुझे नहीं है…पर क्या आप वो संजीव कुमार हैं जो हंस से जुड़े हुए थे? खैर आपके रचना संसार को जानकर पढकर खुशी होगी. क्या आप अपने रचनाकर्म की जानकारी देंगे?

  3. maine mohandaas aur peeli chhtri vali ladki padhi hai.. mohandaas me jis prkar se beech beech me commentry de hai vah katha ke prvaah ko is tarah todti hai ki aap katha ke saath bah rahe hain aur achaanak kathhor yatharth.. vah bhi tathyaatmk yatharth se aapke marm me doobe hriday par vaar hota hai isse kahani ka asar char guna badh jaata hai.. mohandaas padhne ke baad main kai din mohandaas ke baare me sochti rahi thi.. sanjiv ji ka lekh uday prakash ki kee rachnao ke marm kee sahi pahchan karta hai.. abhar.

  4. उदय प्रकाश की कहानियों पर लिखे गए इस आलेख को पढ़कर कोई भी व्यक्ति यह इच्छा कर सकता है कि काश, कोई उसके रचना-संसार को भी इसी तरह समझता. लेकिन ऐसा समझने के लिए उदय प्रकाश जैसा लिखना पड़ेगा, जो शायद हमारी पीढ़ी में किसी के लिए संभव नहीं है. इसीलिये उनके बारे में अनेक बार भावुकता में छिछली बातें मुंह से निकल जातीं हैं, जैसे मैंने ही कह दीं थीं. मैं जानता हूँ कि इससे उन पर कोई असर नहीं पड़ता, मगर मुझ पर तो पड़ता है. गलत मैं भी नहीं हूँ क्योंकि किसी खास वक़्त में प्रतिक्रिया देते हुए वर्तमान के दबाव तो होते ही हैं जो हमें कुछ देर के लिए लेखक के रचना संसार से धकेलकर उसके अंतर्विरोधों के पास जा खड़ा करते हैं. अंतर्विरोध किसमें नहीं होते, उदय प्रकाश में तो ज्यादा ही हैं, जिनके बारे में संजीव कुमार ने अपने आलेख के शुरू में ही बता दिया है. इस आलेख ने मेरे मन के तनाव को दूर किया, उदय प्रकाश के बारे में अपनाये गए अपने पक्ष को, जिसे मैं कुछ देर के लिए भूल गया था, उन्होंने याद दिलाया, इसके लिए संजीव कुमार और प्रभात रंजन का आभार.

  5. जैसे पुरानी पीढ़ी के फिल्‍मकार अभिनेता संजीव कुमार पर विश्‍वास किया करते थे, हमें हिंदी में आलोचक संजीव कुमार पर पूरा विश्‍वास है… मैं काफी समय से जिस चीज को सोच रहा था, उसे संजीव जी ने बहुत स्‍पष्‍टता के साथ ही नहीं बल्कि उदाहरणों से साफ कर दिया है कि नए फार्म की जरूरत क्‍यों और कैसे पड़ती है, जिसके बिना नया रचना ही संभव नहीं होता। … दुर्भाग्‍य से हिंदी आलोचना ने शोध के नए डिवाइस खोजने जब से बंद किये हैं, वह बेहद जड़ और ठस्‍स हो गई है… इसीलिये संजीव जैसे आलोचकों से नए रचनाकारों को भरोसा मिलता है कि नये को स्‍वीकारा जाएगा… संजीव जी के पास जो भाषा है वह एकाध जगह को छोड़कर पुस्‍तकीय आलोचना से बिल्‍कुल अलग है और इसीलिये पाठकों की भाषा बन सकी है… मुझे बेहद खुशी है कि मैं संजीव जैसे आलोचकों के समय में लिख रहा हूं, जो रचना को रचना के लिहाज से देखते हैं, अपने बंधे-बंधाये-बनाये प्रतिमानों से नहीं…हमारे समय की रचनाशीलता को अगर शुक्‍ल-द्विवेदी औजारों से ही देखा जाएगा तो आप पाठक को कहीं नहीं ले जा सकेंगे… और मेरा मानना है कि उदय प्रकाश जैसे लेखकों के लिए आलोचना को अपने नये उपकरण बनाने होते हैं…

  6. अच्छा लिखा है नया भी और पुराने को दुरस्त भी करता है बिना चूं चपड़ किये . बस , अक्खिरी पेज आते -आते लगा कि अरे अभी तो कुछ और कहानियों को भी समझना था. गुजारिश है कि जल्दी ही इसका एक नया संस्करण मिले. उम्मीद है जानकीपुल के प्रभात यह मुश्किल आसान काम संजीव से करवा सकेंगे.
    यह तो सदिच्छा है, लेकिन इतने भर के भी बहुत बहुत मुबारकबाद और आभार.

  7. 'कहानी'में न अंटनेवाला कहानीकार उदय प्रकाश के जरिए संजीव जहां हमें उदय प्रकाश की कहानियों की बुनावट/संरचना समझा रहे थे( पढ़ा तो बतौर पाठक ही था लेकिन लिखते वक्त शिक्षक-शिष्य की डोर में बंध गया इसलिए समझाना)हम उससे गुजरते हुए संजीव की आलोचना का कथा-शिल्प समझ रहे थे.आलोचना कहानी और उपन्यास की तरह ही आपको तल में लेती चली जाती है,एक खास तरह की गहराई में,मैं संजीव को पढ़ते हुए अक्सर महसूस करता हूं. शायद इसलिए उनका लिखा जो कुछ भी चाहे जिस भी विधा में पढ़ता हूं, कहानी का आस्वाद बरकरार रहता है. हां ये जरुर है कि इस आस्वाद में आलोचना की सामाजिकता बहुत गहरे असर करती है.

    इस लेख को पढ़ते हुए लगा कि कहीं पाठक उदय प्रकाश की कहानियों को लेकर उड़नेवाली अफवाहों(ज्ञान से आक्रांत करनेवाली)की तरह ही इस लेख को भी न ले,संजीव ने शुरुआत के दो पैरा में थोड़ी साहित्य की लोककथा को शामिल किया है जिससे पाठक को लगे कि वो उदय प्रकाश के नाम पर किसी दूसरे उपग्रह या कहानीकार की स्थापित और घिस चुकी छवि से कुछ अलग नहीं कहने जा रहे हैं. ये आमतौर पर हिन्दी में नया लिखने या कहने के दावे से अलग शैली है. डर भी है कि कहीं पाठक बिदक न जाए कि तो इसमें नया क्या है ? ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे पथ्य-अपथ्य में फंसे रोगी को पहले पानी,फिर जूस,फिर ठोस की सेवा दी जाती है.
    इस क्रम में हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं,मुद्दे की बात बहुत ही गंभीरता से खुलती चली जाती है. कहानी का सैद्धांतिक विवेचन आलोचना की कथाधारा में इस तरह घुलती-मिलती है कि हमें न तो सैद्धांतिकी को अलग से पढ़ने का तनाव होता है और न ही गैरजरुरी ही. ऐसी आलोचना से साहित्य की सैद्धांतिकी भी तर जाती है. हमें उसे जानने के प्रति आकर्षण पैदा होता है कि अच्छा चलो इसे भी थोड़ा देखते हैं. ये दरअसल उदय प्रकाश जैसे किसी कहानीकार से कहीं ज्यादा उपेक्षित सैद्धांतिकियों को चर्चा में लाना और प्रासंगिक बनाने का काम है. जिसकी जिम्मेदारी संजीव बीच-बीच में बतौर शिक्षक निभाते हैं.जाहिर है,उन्हें अपने लेखन में अकादमिक बंधनों से मुक्त पाठकों के अलावे हम जैसे छात्रों का भी ख्याल रखना होता है और रखना भी चाहिए.
    शायद यही कारण है कि हम जब-जब संजीव को पढ़ते हैं, एक ही साथ एक कहानीकार,आलोचक को तो पढ़ते ही हैं,बहुत प्यार और मुलायमियत से एक साहित्य के शिक्षक को बोलते-समझाते हुए भी सुनते हैं.

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