Home / Featured / नामवर सिंह पर कमलेश्वर का लेख

नामवर सिंह पर कमलेश्वर का लेख

 
यह नामवर सिंह के जन्म का महीना है. आज भी हिंदी की सबसे बड़ी पहचान नामवर सिंह ही हैं. उनके शतायु होने की कामना के साथ यह लेख जो ‘कहानी नई कहानी’ पुस्तक के लेखक नामवर सिंह पर प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर ने लिखा था- जानकी पुल.
———————————————————————————–
ज़िंदगी में लौटने के रास्ते ज़्यादातर खुले रहते हैं। सिर्फ आगे जाने वाले रास्तों पर नो एंट्रीका बोर्ड लगा रहता है।
पर मेरे साथ ऐसा नहीं था। यह एक अजीब-सी बात थी कि मुझे कभी नो एंट्रीवाली तख्ती की सड़क या दरवाज़ा नहीं मिला। मेरी गरीबी, मेरी परेशानियाँ मेरे अपने फैसलों की देन थीं। इलाहाबाद की भट्ठी और मैनपुरी की मिटटी  ने जो कुछ मुझे दिया था-वह हमेशा काम आया।
मैं कैसे भूलूँ-गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ते हुए मेरे ड्राइंग मास्टर अजहर अहमद ने मुझसे पैस्टिल पेंटिंग बनवाते हुए कहा था-बेटे, यह पेड़ ऐसे बनाओ…इसपर बायें से रोशनी पड़ती है, इसलिए इधर की पत्तियों में सुनहरा रंग भरो…
पत्तियों में ही नहीं-जीवन में सुनहरा रंग भरने का महामंत्र मुझे उनसे ही मिला था। रोशनी के स्रोत को देखने और जानने का पहला पाठ मैंने उन्हीं से पढ़ा था। अजहर अहमद ड्राइंग मास्साब से।
पतेल, जवासा, कांस, खर, पतवार, कन्नाटेरा, दूब और नरकुल से मेरा परिचय तभी हुआ था, जब मैं स्कूल पढ़ने जाता था। गोखरू, अंडी के चिये, कनेर की गुठली, कैथा, अमरख और पकते महकते बेल को मैनपुरी में ही पहचाना था…बेर, मकोई और झरबेरी के बेरों को तभी जाना था। साँप, बर्र, ततइया, लखेरी, नेउला, टिड्डी , खुटबढ़ई, गुलगुलिया, कौवे, चील, गिद्ध, बया और नीलकंठ से तभी दोस्ती हुई थी…नरकुल की कलमों से तब हमने लिखना सीखा था-मैंने, रमेश और बिब्बन ने। पटरी (तख्ती), घुटट और बुदक्का के वही दिन थे-दीवाली, होली, ईद, दशहरा और मोहर्रम के ताजियों से हमारा गहरा रिश्ता था। हम प्रार्थना भी पढ़ते थे और मोहर्रम के समय मर्सिया भी गाते थे। रावण पर तीर चलाते थे तो कर्बला में शहीद हुए हसन और हुसैन के लिए छाती कूट-कूटकर रोते भी थे। पंचामृत में तुलसीदल डालकर पीते थे तो ताजियों के नीचे से मखाने भी उठाते थे और उसी श्रद्धा से खाते थे। देवी के मंदिर में जाते थे तो खानकाह के उर्स में भी शामिल होते थे।
झम्मनलाल की मंडी में रामलीला देखते थे तो सराय की नौटंकी भी उतनी ही आकर्षक लगती थी। कहने का मतलब यह कि उस कस्बे ने मुझे अपनी जड़ों से जोड़ रखा था…गाँवों में खेत-खलिहान सब थे, लेकिन लोक जीवन की सामूहिक अभिव्यक्ति के मैदान कस्बे ही थे। आसपास के पचासों गाँवों के लोग, जो आपने गाँवों में नहीं जुड़ते थे, वे तीज-त्यौहार और मेले-ठेले के लिए कस्बे में ही आया करते थे। मैनपुरी के आसपास के गाँव किसी हस्तकला या शिल्प के लिए नहीं जाने जाते थे…वे अन्न उत्पादन के केन्द्र थे-गंहूं, गन्ना, सरसों और मूंगफली के उपजाऊ क्षेत्र। उपज कस्बे की मंडियों में आती थी और सारी आर्थिक सक्रियता कस्बे के बाज़ारों में ही रहती थी। उन दिनों, आज की तरह, स्कूल या पाठशाला भी गाँवों में नहीं थे। स्कूल, पाठशाला और मकतब भी कस्बे में ही थे। रोटी-बेटी का लेन-देन जातियों में ही सीमित था और मोहल्ले भी मूलत: जातियों के आधार पर ही बसते थे। मुसलमान अपने मोहल्ले बसाकर रहते थे और उनके सामाजिक जीवन में कोई दखल नहीं देता था।
मुसलमानों के सामाजिक और पारिवारिक कानून इतने सख्त थे कि उनकी औरतें हमेशा मुरझाई रहती थीं…ज़्यादातर वे तपेदिक की मरीज होती थीं। यह भी एक आश्चर्यजनक सच्चाई थी कि कस्बे की शत-प्रतिशत वेश्याएं मुसलमान थीं। देश के विभाजन ने मुसलमानों में एक हीनता-ग्रंथि पैदा कर दी थी। वे अजीब-से अपराध-बोध के शिकार हो गए थे…वे मिलते-जुलते थे, पर पहले की तरह किसी बात या काम में खुलकर शामिल नहीं हो पाते थे।
हालाँकि कस्बा-गाँव और शहर के बीच का पुल था, पर धीरे-धीरे कस्बे का शहरीकरण ज़्यादा हो रहा था और अधिकांशत: प्राकृतिक संपदा पर जीनेवाला समाज मनुष्य-निर्मित संपदा पर निर्भर होता जा रहा था। नीम या बबूल की दातून की जगह अब मंजन आ गया था, टूथपेस्ट अभी नहीं आया था। सुबह टहलनेवालों की तादाद कम हो गई थी पर गाँवों के लड़के ज़्यादा तादाद में स्कूलों में पढ़ने और हॉस्टलों में रहने आ गए थे। वे अभी भी अपने साथ गाँव से असली घी का पीपा और पिसे हुए सत्तू लाते थे…
गाँवों की औसत नौजवान आबादी शहरों की ओर भाग रही थी। अशिक्षित और अर्द्धशिक्षित लोग लगातार नौकरियों या मेहनत-मजदूरी के लिए शहर में भरते जा रहे थे। उच्च वर्ग और सवर्ण जातियों के ग्रामीण अपने बच्चों को कस्बा छोड़कर बड़े शहरों में भेजने लगे थे। अवर्ण और निचले वर्ग की जातियाँ सवर्णों के अधिकार और अत्याचार से पीड़ित होकर ग्रामीण अंचलों को छोड़ रही थीं…मज़दूरों और बंधुआ मज़दूरों की कमी के कारण भी खेती-बाड़ी के औजार गाँवों में पहुँचने लगे थे और हर काम में ठेकेदारी प्रथा को स्थान मिलने लगा था-शहर से सीमेंट, खाद और बीज ढोने और पहुँचाने के लिए ठेकेदारी प्रथा को स्थान मिलने लगा था-शहर से सीमेंट, खाद और बीज ढोने और पहुँचाने के लिए ठेकेदारों की बैलगाड़ियाँ किराये पर चलने लगी थीं और पल्लेदारों की फौज पैदा हो गई थी। ग्रामीण अंचलों से निकल भागनेवाली शोषित और प्रताड़ित आबादी के साथ ही उनकी महिलाएँ और परिवार भी चले आए थे…उच्चवर्गीय ठाकुर और राजपूत अपनी महिमा में मंडित, उत्पादन के एकमात्र साधन धरती से जुड़े हुए थे…इसीलिए वे लाचार थे। वे ग्रामीण धरती छोड़कर कही जा ही नहीं सकते थे। वे कोई काम-धंधा करने लायक ही नहीं थे और स्वयं श्रम करने के आदी नहीं रह गए थे। विकास के नाम पर अधकचरे अफसर और कर्मचारी गाँवों के दौरे करने लगे थे-कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए योजनाएँ और कर्ज़े चालू हो चुके थे। अत: संपन्न ग्रामीण उच्चवर्ग धरती-प्रेम के कारण उतना नहीं बल्कि जीवनगत मजबूरियों के कारण अधिक धरती-प्रेमी दिखाई देने लगा था। निम्न जातियाँ गाँव छोड़कर शहरों की तरफ भाग रही थीं और मजबूर ग्रामीण उच्चवर्ग शहरों से लोहा और सीमेंट ढो-ढोकर गाँवों में अपने पक्के मकान और हवेलियाँ बनवा रहा था। जो लोक संपदा और परंपरा उसने पैदा नहीं की थी, शहरों की ओर भाग जाने वाले मालिकोंके अभाव में-वह उच्चवर्ग उस लोक संपदा और परंपरा का मालिक बन बैठा था।
नई कहानी के उस दौर का यह ज्वलंत यथार्थ था…
शहरी बनाम ग्रामीण कहानी के विवाद में दुखद यह था कि यथार्थ को विस्तृत फलक पर स्वीकार नहीं किया जा रहा था और ग्रामांचलों की तरफ रोमानी रुझान को ज़्यादा तरजीह दी जा रही थी। प्रेमचंद के नाम पर बहुत सीमित दृष्टि से यथार्थ को देखने, मानने और मनवाने पर ज़ोर दिया जा रहा था और इस आंशिक यथार्थ को वर्चस्व देते हुए, मात्र उसे और उससे आप्लावित लेखन को ही संगत और मूल धारा का लेखन स्थापित करने की पेशकश की गई थी। इस असंतुलित ज़िद में हमारे कथाकारों का उतना हाथ नहीं था जितना कि विकसित होते समीक्षकों, गोष्ठी चतुर विवेचकों और संपादकों का था। आलोचक तो अभी पैदा ही नहीं हुआ था…उसे जन्म लेना था।
नई कहानी जन्म ले चुकी थी-जितेन्द्र, ओमप्रकाश श्रीवास्तव, शिवप्रसाद सिंह, राकेश, मार्कंडेय, वीरेंद्र मेंहदीरत्ता, राजेन्द्र यादव, विद्यासागर नौटियाल, अमरकांत, शेखर जोशी, केशवप्रसाद मिश्र, मधुकर गंगाधर, रांगेय राघव, भीष्म साहनी, कमल जोशी, भैरवप्रसाद गुप्त (लेखक के रूप में), उपेंद्रनाथ अश्क, राजेन्द्र अवस्थी और अन्य बहुत-से लेखक रचनारत और सक्रिय थे। नई कहानी का दौर शुरू हो चुका था और नई कहानी को नई कहानीनाम देते हुए दुष्यंत कुमार का लेख 1955 में कल्पना (हैदराबाद) में छप चुका था। राजेश्वरी त्यागी-अपनी पत्नी के नाम से भी दुष्यंत धर्मयुग में नई कहानी की अवधारणा को स्थापित कर चुका था। अभी नामवर सिंह का जन्म नहीं हुआ था।
यह प्रसंग एक पुराकथा या परिकथा जैसा लगेगा-है भी पुरमज़ाक, पर गलत नहीं है। यह है सत्य। हुआ यह था कि दुष्यंतकुमार नई कहानीपर अपनी अवधारणाओं के बाद एक आलोचक की तलाश में था. आलोचना लिखने का धीरज उसमें था नहीं और फिर वह मूलत: कवि था। इन्हीं दिनों कलकत्ता से राजेन्द्र यादव ने मोहन राकेश के पास जालंधर एक तराशा भेजा था। यह लेख, जिसका तराशा भेजा गया था, यह छायावाद पर था और इस लेख के लेखक थे डा. नामवर सिंह। राकेश ने यह जानकारी मुजे दी थी। इत्तिफाक की बात कि दादा कृष्णदास-अमृत पत्रिका दैनिक के संपादक के घर डॉ. नामवर सिंह आए। श्रीकृष्णदास की पत्नी और हम सबकी भाभी सरोज और डॉ. नामवर सिंह का गाँव एक ही था। शायद वे उसी रिश्ते से आए भी थे। मार्कंडेय उन दिनों श्रीकृष्णदास के घर ही रहता था। दादा दास बाबू अतिरेक और अतिशयोक्ति में विश्वास करते थे। हम तीनों मार्कंडेय, दुष्यंत और मैं-उनके प्रखरतम और जीनियस राइटर्स थे।
दादा दास बाबू और सरोज भाभी ने तब हम लोगों का परिचय डॉ. नामवर सिंह से कराया था। राकेश की भेजी खबर से यह नाम मेरे दिमाग में टकराया था और दुष्यंत भी एकाएक चेतन्न हो गया था। जैसी कि दुष्यंत की आदत थी-उसने तत्काल यह तय कर लिया था कि नई कहानीके लिए उसे जिस आलोचक की तलाश थी, वह संभवत: मिल गया है। शाम को यह बात दुष्यंत ने मार्कंडेय और मुझसे कही और हम तीनों के बीच मज़ाक-मज़ाक में यह तय हुआ कि नई कहानीका आलोचक पैदा किया जाए।
दूसरे दिन सुबह अन्य साहित्यिक बातों के बाद डॉ. नामवर सिंह से कहानी पर चर्चा चली। नामवर शुरू-शुरू में कुछ कतराए, कहानियाँ उन्होंने कम पढ़ी थीं, इसका ज़िक्र भी हुआ। फिर जमकर कहानियों पर चर्चा हुई। नामवर ने नई कहानीको लेकर तरह-तरह के सवाल किए। कथानक और कहानीपन, सोद्देश्यता और सार्थकता के सवाल उठे। प्रयोग और शिल्प पर बातें हुई। कहानी में आए आंतरिक परिवर्तन का ज़ायज़ा लिया गया। नाटकीय अंत और झटका-मरोड़वादी पुरानी कहानी का पोस्टमार्टम किया गया…और अंत में दुष्यंत ने हम दोनों की ओर आश्वस्ति से देखा…यह ज़ाहिर करते हुए कि पहले दिन के लिए इतनी खुराक बहुत है।
और तब डॉ. नामवर सिंह से पेशकश की गई कि वे अब कहानी पर अपने विचार लिख डालें। मार्कंडेय के कमरे में उन्हें अकेला छोड़ दिया गया। बीच-बीच में खाने के लिए ककड़ी रख दी गई। दोनों दरवाजे बन्द कर दिए और हम तीनों साइकलों पर घूमने निकल गए। शाम को लौटे तो चार-पाँच पन्नों का छोटा-सा लेख नई कहानीपर तैयार था। नामवर ने बड़ी प्रखरता और साहित्यिक समझबूझ से नई कहानी का प्रश्न उठाया था…कहानी के बदले हुए रूप को रेखांकित किया था। उसे प्रगतिशील मूल्यों के संदर्भ में रखकर देखने और समझने की प्रस्तावना रखी थी। नयी कहानीके आलोचक का जन्म उसी दिन हुआ था।
दुष्यंत की तलाश पूरी हो गई थी। राजेन्द्र के इशारे को दिशा मिल गई थी और मार्कंडेय कल्पना (हैदराबाद) में छद्म नाम से लिखने से मुक्त हो गया था। हम तीनों तब डॉ. नामवर सिंह को श्रीपत राय जी से मिलवाने कहानी कार्यालय ले गये थे। श्रीपत जी लेख प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए थे और वह लेख तब कहानीके सन् 1957 के विशेषांक में छपा था। श्यामू संन्यासी उस लेख से असहमत और नाखुश थे। भैरव भाई खुश थे। हालाँकि भैरव भाई कहानीके संपादक थे पर सरस्वती प्रेस इलाहाबाद से श्यामू संन्यासी का सघन संबंध था और कहानीपत्रिका के लिए एकाध अनुवाद कर देता था और जरूरत पड़ने पर कहानियों के शीर्षकों की डिजाइंस भी बना देता था। कहानीका मुखपृष्ठ तब अल्पना शैली का था, जो हर अंक के लिए अलग-अलग रंगों में छपता था-वह मुखपृष्ठ हंस प्रकाशन के आर्टिस्ट कृष्णचंद्र श्रीवास्तव ने बनाया था।
इन्हीं कृष्णचंद्र आर्टिस्ट ने मेरे शुरू के दोनों कथा संकलनों के मुखपृष्ठ भी बनाए थे। राजा निरबंसिया का भी और कस्बे के आदमी का भी। शहरी बनाम ग्रामीण कहानी की बहस के बीच ही कस्बे की कहानी का ज़िक्र उठाकर मेरी पीठ इस मतलब से ठोकी गई कि मैं ग्रामीण कहानी के शिविर में आ जाऊँ, क्योंकि कस्बे और गाँव की यथार्थ चेतना बहुत निकट की चेतना थी…कि कस्बा गाँव के ज़्यादा नज़दीक था बनिस्वत शहर के। राजेन्द्र यादव को बहस में पटखनी देने के लिए कुछ विवादी और संघर्षवादी लोगों ने मुझे महत्ता देकर तटस्थ बना देने की कोशिश की ताकि मैं अपने कस्बाई कथ्य की महत्ता को भुनाते हुए वीतराग बना रहूँ।
भैरव भाई में एक बड़ी विशेषता थी-वे कह-कहकर और विश्वास दे-देकर कहानियाँ लिखवाते थे। खासतौर से विशेषांकों के लिए। नये लेखकों को वे भरपूर प्रोत्साहन देते थे। छापने से पहले वे कहानी को एक कोमल बच्चे की तरह सहेजकर रखते थे। कहानी की रचनाशीलता को काट-काटकर संपादक होने का दंभ नहीं दिखाते थे। कहानी पढ़ने के बाद वे उस कहानी पर बात करते थे…बाहर से आई नई कहानियों का ज़िक्र करके वे और सार्थक लिखने के लिए प्रेरित करते थे और छापने से पहले अपने महीन सुलेख में वे हमारी कहानियों की नोंक-पलक दुरुस्त कर देते थे। हर महीने में, खासतौर से विशेषांकों में, वे जैसे कहानियों की नहीं, अपने बच्चों की जमात लेकर उपस्थित होते थे। अनुप्रेरित और गर्वीले स्काउट मास्टर की तरह। हम सब लेखक जैसे उनकी सीटी पर परेड करते थे और वे हमारी पीठ थपथपाकर आगे के लिए उत्साह से भर देते थे।
और फिर वहीं बैठते थे श्रीपत जी-और आते थे बनारस से जगत शंखधर-श्रीपत जी रचना और फैशनपरस्त रचना का भेद समझाते थे…विश्व की आधुनिक रचनाशीलता की लगातार जानकारी देते थे, वे सार्थकता के उतने समर्थक नहीं थे जितने कि रचनाशीलता के। श्रीपत जी भदेस के बिल्कुल विरुद्ध थ। वे रूमानी संस्पर्शों को तो स्वीकार करते थे, परंतु भद्दे रोमांसवाद को नहीं-वे स्वयं पेंटर थे और पेंटिंग की लय और सौंदर्य को तरजीह देते थे। इसीलिए अज्ञेय उनके निकटतम मित्र थे, परंतु वे सधा हुआ समर्थन नये कहानीकारों और उनकी कहानियों को देते थे।
जगत शंखधर हरफनमौला, बहुत जीवंत और घोर मार्क्सवादी प्रगतिवादी थे। साथ में थे प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त। भैरव भाई तो थे ही-अत: अपने-अपने सापेक्ष यथार्थ में जूझते हुए हर नया कहानीकार अपनी प्रगतिकामी चेतना को भी प्रखर कर रहा था-सोच के स्तर पर भी और रचना के स्तर पर भी। प्रेमचंद के बाद एक बार फिर यथार्थवादी युग साक्षात् सामने खड़ा था।
दुष्यंत गीतों की गलियों से निकलकर मुक्त छंद की ओर बढ़ चुका था. उसका संकलन सूर्य का स्वागतआया था। गिरजाकुमार माथुर, रमानाथ अवस्थी, गिरधर गोपाल प्यासा रहा जाता नहीं अब बादलों की छाँव मेंके गीतकार के रूप में नये प्रयोग कर रहे थे और तभी डॉ. भारती का प्रयोगवादी-यथार्थवादी उपन्यास सूरज का सातवां घोड़ाएक धमाके की तरह आया था और फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचलउपन्यास ने, राजकमल से पुनपर््रकाशित होते ही पूरा परिदृश्य बदल दिया था।
रेणु के आंचलने संकद पैदा कर दिया था। मैला आंचलके विराट और सघन यथार्थ ने ग्रामांचली कहानियों को लघु बनाकर लघु प्रसंग में बदल दिया था। इस तक और भी घटनाएँ हो चुकी थीं। कस्बे की कहानी के धूल-धक्कड़ में भाई अमृतराय ने अपने पुरातन कथा-संग्रह तिरंगे कफ़नका नाम बदलकर कस्बे का एक दिनरख दिया था।
ओंप्रकाश ने नई कहानियाँका प्रकाशन शुरू किया था और भैरव भाई नई कहानियाँ के साथ-साथ इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली चले आए थे। यह नई कहानी आंदोलन और उसकी शक्ति तथा रचनाशीलता का ही सबूत था कि नई कहानियाँ पत्रिका निकली, इसी नाम से निकली और कहानीपत्रिका ने हिन्दी कहानी के क्षेत्र में जिस नये युग का सूत्रपात किया था, उसी परंपरा को वह निरंतर आगे बढ़ाती रही। इसमें भैरव भाई की दूरदृष्टि का योगदान था। यह उनकी संपादकीय क्षमता का अक्षत योगदान था। शायद यही वह वक्त भी था, जब नामवर काशी छोड़कर सागर विश्वविद्यालय चले गए थे। और शायद यही वह समय भी था जब काशी विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद डॉ. नामवर सिंह कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर एकाएक चुनाव में कूद पड़े थे।
तभी आचार्य हजारीप्रसाद द्बिवेदी से आकस्मिक भेंट हुई थी। मैं उनसे किसी और सिलसिले में मिला था। आचार्य जी नामवर प्रसंग को लेकर कुछ दु-खी और उदास थे…कुछ बातों के बाद। वे चुप लगा गए थे।
इन्हीं दिनों नामवर का कविता-प्रेम कुछ ज़्यादा ही उमड़ने लगा था और अज्ञेयवादी प्रयोगवाद की तरजीह देते हुए वे कहानी में कविता की तलाश की ओर चल पड़े थे।
देवीशंकर अवस्थी उस समय अपनी प्रखर विवेचना दृष्टि से कहानी को देख रहे थे और जैनेन्द्र जी नई कहानी आंदोलन के मुकाबले किसी भी स्तरहीन आंदोलन को समर्थन देने के लिए तैयार खड़े थे।
नई कहानी आंदोलन और उस दौर में लिखी हुई कहानियों ने हर लेखक-कवि को संकट में डाल दिया था। कहानी साहित्य की केन्द्रीय विधा के रूप में स्थापित हो चुकी थी और किसी भी लेखक-कवि को साहित्यकार कहलाने के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि वह कहानी की कसौटी पर अपनी स्वर्ण रेखा स्थापित करे।
नई कहानी आंदोलन सहसा सही समीक्षा और रचना की केन्द्रीयता से हटकर मुड़ने लगा था और बातें व्यक्तियों पर केन्द्रित होती जा रही थीं-यह कार्य भी नामवर सिंह ने ही संपादितकिया था और तब वे संगत कहानीकारों को छोड़कर तेजबहादुर चौधरी, शशि तिवारी और निर्गुण को रेखांकित करने लगे थे…सही बात यह है कि बनारस से निकलकर जब नामवर बाहर आए तो वे एक हीनता ग्रंथि से ग्रस्त हो गए…दुनिया-भारतीय दुनिया भी बनारस से बहुत बड़ी और बहुरंगी थी, जिसे सामने पाकर नामवर चमत्कृत थे।
नई कहानी में रचना के आधार पर नहीं, व्यक्तियों के आधार पर विभाजन शुरू किया गया। नामवर कहानी में कविता की खोज करते हुए लयबद्ध गद्य की ओर मुड़ गए और भैरव भाई ने अपनी वर्ग चेतनाके मुताबिक ग्रामीण परिवेश के नाम पर भदेस और रचनात्मक रूप से कमज़ोर कहानियों को रेखांकित किया और यहीं से नामवर सिंह की हीनता ग्रंथि से ग्रस्त आलोचना दृष्टि आधुनिकता के नाम पर भारतीय यथार्थ को नकारकर फैशनपरस्त लेखन की ओर मुड़ गई और यही वह मोड़ था जहाँ से अपनी जड़ों से ज़िद के साथ जुड़े रहने और उपस्थित यथार्थ को बरतरफ करके घटिया ग्रामीण, चरित्र-प्रधान उच्चवर्गीय ग्रामीण संवेगों की कहानियों को प्रधानता देते हुए भैरव भाई की संपादन दृष्टि का दूषित होना शुरू हो गया।
साभार : प्रभात वार्ता
=====================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब की समीक्षा

‘अक्षि मंच पर सौ सौ बिम्ब’ अल्पना मिश्र का यह उपन्यास हाल ही (2023 ई.) …

13 comments

  1. shaandaar aalekh.

  2. मुसलमानों के बारे में स्टीरियोटाइपिंग जैसे …ज्यादातर मुसलमान महिलाएं तपेदिक की मरीज थीं, ….शत प्रतिशत वेश्याएं मुसलमान थीं. इनसे बचा जा सकता था.

  3. दिलीप जी, पुस्तक का नाम है 'जो मैंने जिया'. यह पुस्तक १९९४ में राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुई थी. उसमें यह लेख है. आप चाहे तो देख सकते हैं. जानकी पुल की दिलचस्पी कभी सनसनी फ़ैलाने में नहीं रही है. खैर, मुझे खुशी है कि आपने जानकी पुल की यात्रा की और इस सूक्ष्म पहलू की ओर ध्यान दिलाया.
    सादर.

  4. दिलीप जी, असहमति के तमाम बिंदु हैं पर लेख कमलेश्वर के न होने की कोई वजह मुझे नहीं दिखती.यह लेख मूलतः नई कहानी आंदोलन पर है जिसके वे अगुआ थे. कमलेश्वर मूलतः एक लेखक थे, बाद में पत्रकार. आप उनका उपन्यास 'एक सड़क सत्तावन गलियां' पढ़िए. देखिये, कहां कहां की कितनी प्रामाणिक जानकारी उनको थी.
    सादर.

  5. इस संदेह की वजह? प्रभात भाई ने स्रोत दिया है…तलाश कर लिया जाना चाहिए.

    असहमति के तमाम बिंदु है पर लेख मजेदार है…बहसतलब

  6. कमलेश्वर डॉक्टर थे? और वेश्यालयों की इतनी बारीक जानकारी? शत प्रतिशत का मतलब? सेंसस किया था क्या? मुझे संदेह है कि यह कमलेश्वर ने लिखा है.

  7. लेख तो दमदार है. पर इसमें कमलेश्वरजी का बड़बोलापन दीखता है. उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि नई कहानी अपने उत्तरार्ध में भटक गयी थी और खुद कमलेश्वर डिमांड पर कहानी लिखने लगे थे. वे यह भी बताने कि कोशिश कर रहे हैं कि नामवर को हमने पैदा किया और वो अपनी आलोचकीय मौत के लिए जिम्मेदार हैं. जैसे नामवर जी का अपना कुछ नहीं और कहानी निर्दोष रही तब भी जब वो धारा से भटक गयी थी.

  8. दशकों पहले का बांचा हुआ यह दस्‍तावेजी आलेख आज अलग और रोमांचक अनुभूतियां जगा गया। अग्रजों के निर्माण का इतिवृत, उनके आपसी रिश्‍तों का बनाव-तनाव, मानस-मानचित्र और मिजाज-तासीर… अधिकांश चीजें जैसे इस बार खुलकर सामने आ गईं। नामवर जी के जन्‍मदिन के मौके पर इसे पढ़ना अधिक सुखकर लगा। उपलब्‍ध कराने के लिए 'जानकीपुल'का हार्दिक आभार…

  9. Recapturing literary history…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *