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मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ- मंटो

आज सआदत हसन मंटो की जन्मशताब्दी है. आज उनका यह लेख पढते हैं- जानकी पुल.
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मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? यह क्यों करमेरी समझ में नहीं आया। क्यों करका अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है – कैसे और किस तरह?
अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ। यह बड़ी उलझन की बात है। अगर मैं किस तरहको पेशनज़र रखूँ को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाता हूँ। कागज़-क़लम पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके अफ़साना लिखना शुरू कर देता हूँ। मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं। मैं उनसे बातें भी करता हूँ। उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए सलाद भी तैयार करता हूँ। अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर अफ़साना लिखे जाता हूँ।

अब कैसेसवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ।

अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना क्योंलिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है।

मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़साना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है।

मैं अफ़साना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी।

मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है। मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ। यूँ तो मैने 20 से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुकद्दमे चलते रहते हैं। 

जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूँ जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी।

अफ़साना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती। मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफ़साना निकल आए। कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूँकता रहता हूँ मगर अफ़साना दिमाग से बाहर नहीं निकलता है। आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ।

अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका हूँ। इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है। करवटें बदलता हूँ। उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ। बच्चों का झूला झुलाता हूँ। घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ। जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ। मगर कम्बख़्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ।

जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता।

सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है। मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता। लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ।

मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ। उन पर कोई जादू कर रहा हूँ।

माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया। किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफसाना क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ।

अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई और उसने मुझसे कहा– आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।

मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई अफसाना उछलकर बाहर आ जाता है।
 

मैं खुद को इस दृष्टि से कहानीकार, नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?

 
      

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3 comments

  1. MANTO KEE ZEB KAA KYA KAHNA ! KAEE BEMISAAL KAHANIYAN NIKLEE HAIN
    USKEE ZEB SE . TOBA TEK SINGH KO TO MAIN AB TAK PADH RAHAA HUN .

  2. बेमिसाल मंटो का कोई जवाब नहीं ! एक अकेला कहानीकार जो आज भी अकेला है क्योंकि वह उस आदमी के साथ खड़ा है जिसे वक़्त ने अकेला कर दिया है ! मुझे ताज्जुब होता है कि मंटो ने जिस सफर को छोड़ा उस पर चलने की हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई !यदि दिखाई होती तो इंसानी जेहन के भीतर जो एक नर्क है उसकी कुछ और झलकियाँ हम देख पाते ! सलाम मंटो !!

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