‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ के बहाने युवा लेखक त्रिपुरारि कुमार शर्मा- जानकी पुल.
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मेरे लिए युवा लेखक गौरव सोलंकी जितने परिचित/अपरिचित हैं, उतने ही भारतीय ज्ञानपीठ के तथा–कथित आका (मैं सोचने में असमर्थ हूँ कि किसका नाम लिखना चाहिए) एण्ड कम्पनी। दोनों में से किसी को भी मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। फिर आप सोचेंगे कि मैंने यह लेख ही क्यों लिखा? कारण है… प्रसंग जब एक लेखक और सम्पादक (प्रकाशन संस्था) की प्रतिष्ठा और उसके अहंकार से जुड़ा हो, तो ऐसे में अन्य लेखकों का हस्तक्षेप करना आवश्यक हो जाता है। यह बात और है कि अपने आप को पूरे प्रकरण से वाकिफ कराने और बोलने की स्थिति में तैयार कर पाने के लिए हर लेखक को समय लग जाता है। यह महज संयोग ही है कि मैं भी युवा हूँ और लेखन–सम्पादन दोनों से जुड़ा हुआ हूँ। मैं जानता हूँ कि देर–सवेर और भी लोग इस प्रसंग पर अपने विचार रखेंगे। जो लोग (लेखक) चुप हैं या रहना चाहते हैं, यह उनका व्यक्तिगत चुनाव है/हो सकता है और वे स्वतंत्र भी हैं, इसका मतलब यह नहीं कि इस प्रसंग को लेकर उन्होंने अपने मत नहीं बनाए हैं/होंगे।
मैं सिर्फ़ गौरव सोलंकी की कहानी ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की बात करना चाहूँगा। बताने की आवश्यकता नहीं कि नया ज्ञानोदय में प्रकाशित होने के बाद इस कहानी को अश्लील बताकर पुस्तक प्रकाशित करने से इंकार कर दिया गया। आप इस बात से भी नामालूम नहीं होंगे कि दोनों के प्रकाशन के समय सम्पादक एक ही थे। सम्भव है और इस बात की सम्भावना अधिक है कि आप सोचें—जब तक गौरव सोलंकी के सम्बंध आका एण्ड कम्पनी के साथ अच्छे रहे, तब तक वह छपता रहा—फिर जब सम्बंधों में कोई दरार आ गई, तो स्थिति पूरी उलट हो गई। इस पहलू पर गौरव सोलंकी अपना पक्ष पहले ही रह चुके हैं। आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं।
मैं बात कर रहा हूँ ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की। इस बात से मुँह चुराना मुश्किल है कि हम सब कभी न कभी ग्यारहवीं के लड़के/लड़कियाँ रहे हैं। ‘ए’ या ‘बी’ इससे बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ता। असल बात यह है कि हम सभी के पास इस उम्र के अपने–अपने अनुभव हैं/होंगे। गौरव जिस समय यह कहानी लिख रहे हैं…हम सभी उस समय में उपस्थित हैं और समाज में हो रहे बदलाब से वाकिफ भी हैं। आप सभी सुधी पाठक/लेखक या वे लोग जो साहित्य में तनिक भी रुचि रखते हैं—जानते हैं कि साहित्य में सेक्स का चित्रण नया है। लिखने वाले हमेशा से इस विषय पर अपनी तरह से कलम चलाते रहे हैं। हाँ, समय के साथ–साथ लेखकीय भाषा में परिवर्तन होता रहा है। ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’ की भाषा को लेकर आप कथाकार की आलोचना कर सकते हैं—अगर आपको इस कहानी की भाषा से कोई ऐतराज़ है, तो आपको आलोचना करनी भी चाहिए। मेरा विचार है कि किसी ‘भाषा का कोई कवि/लेखक नहीं होता है, बल्कि कवि/लेखक की अपनी भाषा होती है’।
जहाँ तक कहानी की भाषा का प्रश्न है, तो कथाकार यानि गौरव सोलंकी भी अपनी भाषा चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें अपने समय के अनुसार भाषा के चुनाव का अधिकार है/होना भी चाहिए। फिर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि एक लेखक जिस घर में जन्म लेता है…जिस परिवेश में पलता है…जहाँ-जहाँ से वह गुज़रता है…वहाँ-वहाँ की भाषा उसके साथ चिपकती चली आती है। यह लेखकीय रचनात्मकता पर भी निर्भर करता है कि भाषा का उपयोग किस तरह से किया जाए? मुझे नहीं लगता कि जिस ‘थीम’ या ‘सब्जेक्ट’ पर कहानी लिखी गई है, वह हमारे समाज का हिस्सा नहीं है। गहरे में हम सब जानते हैं कि यह विद्रुपता हमारे का ही एक अंग है—हाँ, इतना ज़रूर है कि हम में से कुछ लोग इसे स्वीकार करते हैं और कुछ स्वीकार करने से कतराते हैं। बात स्वीकार-अस्वीकार की नहीं है…सच…सच ही होता है। ऐसा नहीं है कि हमारे आँख बंद कर लेने से दुनिया में अँधेरा हो जाता है। हमारे मानने या न मानने से सच, झूठ में परिवर्तित नहीं हो जाता।
मैं गौरव सोलंकी सहित उन तमाम लेखकों को बधाई देता हूँ और स्वागत करता हूँ कि समाज में व्याप्त इस तरह की विद्रुपता को अपनी कहानी का थीम बनाएँ और लिखें। जहाँ तक श्लीलता और अश्लीलता का प्रश्न है, तो मैं कहना चाहूँगा कि ‘अश्लीलता चित्त में होती है न कि शब्दों में’। जिन लोगों को यह कहानी पहले श्लील लगी और बाद में अश्लील या फिर वे लोग जिनको हमेशा से ही यह कहानी अश्लील लगी है—उन्हें मैं सलाह देता हूँ कि अपनी संकुचित मानसिकता का मनन करें, अपने भीतर झाँकें, ख़ुद को कुरेदें—मुझे आशा है कि वे अपने को अवचेतन में बरसों से दबी हुई कुंठा का शिकार पाएँगे। जो लोग भी इस स्थिति से गुज़रेंगे,मैं उन्हें दोषी नहीं मानूँगा—हाँ, उनका दोष सिर्फ़ इतना है कि उन्होंने अपने स्वीकार करने की क्षमता को नहीं पहचाना है। दरअसल, यह दोष नहीं बल्कि एक मानवीय भूल है, जिसे समय रहते सुधारा जा सकता है। भूल सुधारने की प्रक्रिया में सम्भव है कि उनके अहंकार को ठेस लगे, लेकिन साहित्य और समाज की आगामी नस्लों के लिए एक मिसाल होगी।
एक बात और, इस पूरे प्रकरण में मैं न तो कौरव के साथ हूँ और न ही गौरव के साथ—मैं सच के साथ हूँ, न कि किसी व्यक्ति विशेष के साथ—यहाँ मैं यह भी बता देना चाहता हूँ कुछ ऐसे भी होते हैं जो सच को अपने साथ खड़ा कर लेते हैं। मैं बता दूँ कि सच जहाँ-जहाँ खड़ा होगा, मैं वहाँ-वहाँ आपको खड़ा मिलूँगा।
नोट : जानता हूँ कि यह लेख लिखकर मैं कई साहित्य प्रेमियों का ‘अतिरिक्त प्रेम’ मोल ले रहा हूँ। वर्तमान परिदृश्य में एक युवा रचनाकार होने के नाते मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन एक बात मैं ‘शेयर’ करना चाहता हूँ। सच के साथ होने का आनंद इतना घना होता है कि यह ‘अतिरिक्त प्रेम’ मोल लेने का साहस करना कोई बड़ी बात नहीं है। मुझे चलना चाहिए…आपके सोचने का समय शुरू होता है अब…
मैं आपके आकलन से सहमत हूं त्रिपुरारि भाई! शील और अश्लील तो बहाना है, असल बवाल सम्बन्धों में आए फ़रक और कड़ुवाहट का है जिसकी परिणिति में ये सब हुआ या किया गया है, बावजूद इसके इस प्रकरण से लेखकों और सम्पादकों की पोल खुलने के साथ-साथ शब्द की गरिमा आहत हुई है इसमें तनिक भी संदेह नहीं!
ये भी देखें –
हमनें ये एक टिप्पणी गौरव के "India Against Corruption in Literature" Facebook community पर भेजी थी पर उन्होंने अप्रूव नहीं की।
गौरव, कौरव, या गौरव ही कौरव जानने में शायद इससे मदद मिले।
पीडीएफ़ यहां है: Letter to Gaurav
आशा है प्रबुद्ध जन इसे पढ़्कर राय बनाएंगे।
क्लिकेबल पता ये है: PDF of letter to Gaurav
प्रभात जी, हमनें एक टिप्पणी गौरब के "India Against Corruption in Literature" फ़ेसबुक कम्युनिटि में भेजी थी जो उन्होंने अप्रूव नहीं की। अपने से अलग विचार सुनने से उन्हें इतना भय क्यूं है मालूम नहीं।
वह पूरी टिप्पणी यहां से PDF डाउनलोड की जा सकती है: https://sites.google.com/site/akshapadp/gaurav.pdf
आशा है कम से आप प्रबुद्द जनों को इसे पढ़ने का मौका देंगे!
निखिल जी सारी दाल तो यहीं काली हो जाती है…एक कहानी जो (एक व्यक्ति की नज़र में) एक समय में श्लील थी, कुछ समय बाद अश्लील हो जाती है… सवाल बस इतना-सा है कि उस आका एण्ड कम्पनी, 'ज्ञानोदय' में कहानी छपते समय होश में नहीं थे या बाद में उनसे होश छीन लिए गए हैं…
"‘ए’ या ‘बी’ इससे बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ता।"
मैंने लड़कों और लड़कियों के लिए क्लास के अलग-अलग सेक्शन देखे हैं। हम जब इलेवंथ में थे तो एक बार तीन बच्चों को सस्पैंड करने का वाक़या हुआ। उसके बाद हमारे क्लास टीचर ने लड़के और लड़कियों के सेक्शन अलग-अलग कर दिये थे। पिछले साल दिसंबर में जब मैंने ये कहानी पढ़ी थी तो एक बार तो मन हुआ कि फेसबुक पर अपने दोस्तों से इस कहानी का ये ए और बी वाला संजोग शेयर कर दूँ। लेकिन हिम्मत नहीं हुई। सिर्फ़ एक ही लड़के को इसका लिंक दिया।
क्या पता किन्हीं स्कूलों में ये क़ायदा होता हो कि बड़ी क्लासों में लड़के और लड़कियाँ अलग-अलग सेक्शन में बिठाए जाएँ। तभी गौरव सोलंकी को इस बात का तजुर्बा हो। (गौरवजी, आप इसे पढ़ रहे हों तो…)
आपका यह लेख ज्ञानपीठ के अश्लीलता विभाग के प्रमुख श्री शैल जी को भी पढ़ना चाहिए….उन्होंने अश्लील को श्लील बनाने का एक टोटका दिया है कि कहानी के दो मुख्य पात्रों को 'ममेरा' भाई-बहन बना दिया जाए और तब कहानी छाप दी जाए…
उन्होंने तो अपने अनुभव के बूते एक क़दम आगे बढ़कर लेखक के प्रेम-संसार की भी व्याख्या कर दी है, जिसमें उन्होंने मान लिया है कि लेखक के पास सेक्स ही उपलब्ध है, सच्चा प्यार नहीं…
ये दो बातें इसीलिए कि आपने इस लेख में राय रखी है कि लेखक को भाषा चुनने की आज़ादी होनी चाहिए…ये उसका अधिकार है…अब बताइए, ये अधिकार देने में भी इतनी नौकरशाही होने लगे तो फिर लेखक क्या करेगा….ठीक है, कि कुछ आलोचक इसे मस्तराम संस्करण कह रहे हैं तो कुछ इसे कहानी ही नहीं मान रहे, लेकिन सवाल वही कि ज्ञानोदय में ऐसी 'वाहियात' कहानी छपने के वक्त गौरव के हाथ में कौन सी जादू की छड़ी थी….
100% sahi likha hai tripurari