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गैंग्स आफ डिसबैलेन्सपुर वाया मेडिटेशन

अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की पब्लिसिटी रिलीज होने से पहले से ही कुछ ‘चवन्नी छाप’ फिल्म समीक्षकों ने इतनी कर दी थी कि फिल्म से बड़ी उम्मीदें बन गई थीं. बहरहाल, अनुराग असल में मीडिया हाइप के निर्देशक हैं. भाई लोगों का बस चले तो उसे हिंदी सिनेमा का ‘न भूतो न भविष्यति’ टाइप निर्देशक बना दें. खैर, मैं सिनेमा का कुछ खास शैदाई नहीं हूं न जानकार होने का दावा करता हूं. लेकिन उत्तर-पूर्व को लेकर लिखे गए यात्रा वृत्तान्त ‘यह भी कोई देश है महाराज’ के चर्चित लेखक पत्रकार अनिल कुमार यादव ने जब इस फिल्म पर लिखा तो लगा जैसे किसी ने मेरे दिल की बात लिख दी. आप भी पढ़िए- जानकी पुल.
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बड़ी मुश्किल से खुद को गैंग्स आफ वासेपुर का रिव्यू लिखने से रोक पा रहा हूं। अब औचित्य नहीं है। अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं। सितारेदार प्री-पेड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है। वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है। कहानी की खामोश ताकत से अनजान निर्देशक गालियों और गोलियों पर ही गदगद है।

मैं यह फिल्म देखने लखनऊ की एक दीवार पर लाल-काले फ्रेम की एक वाल राइटिंग से प्रेरित होकर गया था जिसमें कहा गया था सीक्वेल का ट्रेलर देखना न भूलें, सो फिल्म खत्म होने के बाद भी बैठा रहा। लेकिन हाल तेजी से खाली होता जा रहा था, बिल्कुल खाली हो गया, जो अपने आप में एक प्रामाणिक प्रतिक्रिया थी। मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलते हुए मैने पाया, सिर में कई ओर तेज सेन्सेशन हो रहे हैं जो कुछ देर बाद दर्द के रूप में संगठित हो जाने वाले थे।

घर लौटकर मैं ध्यान में चला गया। जानना जरूरी था कि फिल्म की जैविक प्रतिक्रिया ऐसी नकारात्मक और तकलीफदेह क्यों है। फिल्म देखते हुए सांस कई बार उखड़ी थी, भीतर नए रसायन लीक हुए थे और दिमाग के कई हिस्से अनियंत्रित ढंग से उछल रहे थे। ऐसा उन आवाजों और कई दृश्यों के कारण था जो सीधे निर्मम जिन्दगी से अचानक आए थे। मसलन उस दाई की दयनीय आवाज जो नवजात सरदार खान को उसके बाप को सौंपते हुए एक सांस में कहती है- …(मां का नाम भूल गया)…तो मू गई लेकिन बड़ा सुंदर लइका भयल है।…कसाई टोले में लटकी भैंसों की ठठरियों के बीच एक आदमी का बोटियाया जाना जिसकी रान अधखुले दरवाजे से दिखाई दे रही है…रामाधीर सिंह का एक बच्चे को, उसी के बाप (जिसे अभी उसने कटवा दिया है) के खून का तिलक लगाते हुए कहना, तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े आदमी थे। बमों के धमाके बीच एक बूढ़े का ढोलक बजाकर कराहना- ए मोमिनों दीन पर ईमान लाओ…कुएं पर बंगालिन का एक एंद्रिक एंठन में अपना मुंह बालों में छिपा लेना…अपनी मां को एक गैरमर्द के साथ अधनंगे देख लेने के बाद बच्चे फजल का गुमसुम हो जाना…सरदार खान का एक आदमी को अनौपचारिक निस्संगता से गोद कर मारना जैसे कोई गेहूं के बोरे में परखी चलाता हो… बिना परमिशनहाथ छू लेने पर प्रेमिका द्वारा स्नब किए जाने पर फजल खान जैसे चंट गंजेड़ी का रो पड़ना आदि।

यह सब स्मृति के स्पेस में छितरा हुआ अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहा था लेकिन उन्हें आपस में पिरोने वाला धागा गायब था। धांय धांय, गालियों, छिनारा, विहैवरियल डिटेल्स, लाइटिंग, एडिटिंग के उस पार देखने वालों को यह जरूर खटकेगा कि सरदार खान (लीड कैरेक्टर: मनोज बाजपेयी) की फिल्म में औकात क्या है। उसका दुश्मन रामाधीर सिंह कई कोयला खदानों का लीजहोल्डर है, बेटा विधायक है, खुद मंत्री है। सरदार खान का कुल तीन लोगों का गिरोह है। हत्या और संभोग उसके दो ही जुनून हैं। उसकी राजनीति, प्रशासन, जुडिशियरी, जेल में न कोई पैठ है न दिलचस्पी है। वह सभासद भी नहीं होना चाहता न अपने गैंग में से ही किसी को बनाना चाहता है। उसका कैरेक्टर बैलठ (मतिमंद) टाइप गुंडे से आगे नहीं विकसित हो पाया है जो यूपी बिहार में साल-सवा साल जिला हिलाते हैं फिर टपका दिए जाते हैं। होना तो यह चाहिए था कि रामाधीर सिंह उसे एक पुड़िया हिरोईन में गिरफ्तार कराता, फिर जिन्दगी भर जेल में सड़ाता। लेकिन यहां सरदार के बम, तमंचे और शिश्न के आगे सारा सिस्टम ही पनाह मांग गया है। यह बहुत बड़ा झोल है।
अनिल कुमार यादव 

कहानी के साथ संगति न बैठने के कारण लगभग सारे गाने बेकार चले गए हैं। बिहार के लाला सरदार खान के मरते वक्त बजता है। गोलियों से छलनी सरदार भ्रम, सदमे, प्रतिशोध और किसी तरह बच जाने की इच्छा के बीच मर रहा है। उस वक्त का जो म्यूजिक है वह बालगीतों सा मजाकिया है और गाने का भाव है कि बिहार के लाला नाच-गा कर लोगों का जी बहलाने के बाद अब विदा ले रहे हैं। इतने दार्शनिक भाव से एक अपराधी की मौत को देखने का जिगरा किसका है, अगर किसी का है तो वह पूरी फिल्म में कहीं दिखाई क्यों नहीं देता।कह के लूंगा जैसे द्विअर्थी गाने की उपस्थिति इस बात का पुख्ता सबूत है कि अनुराग को माफिया जैसे पापुलर सब्जेक्ट के गुरुत्व और असर का अंदाजा कतई नहीं था। फ्लाप होने की असुरक्षा और एक दुर्निवार विकृत लालच के मारे निर्देशक फूहड़ गानों और संवादों से अच्छे सब्जेक्ट की संभावनाओं की हमेशा हत्या करते आए हैं। रचना के पब्लिक डोमेन में आने के बाद स्वतंत्र शक्ति बन जाने के नजरिए देखें तो शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं कस के लेगीइसमें कोई दो राय नहीं है।  

ध्यान में जरा और गहरे धंसने पर जब प्रतिक्रिया पैदा करने वाले सारे टुकड़े विलीन हो गए तो सांसें और उन्हें महसूस करती चेतना बचे रह गए। फिर भी खाली जगह में एक बड़ा सा क्यों कुलबुला रहा था। ऐसा निर्देशक जो कई बार कान्स हो आया है, देसी है, दर्शकों से जिसका सीधा संवाद है, जिसकी रचनात्मकता का डंका बजाया जा रहा है- वह ऐसी फिल्म क्यों बनाता है जो कोल माफिया पर है लेकिन उसमें खदान की जिन्दगी नहीं है। कोलियरी मजदूरों की बस्तियां भी नहीं है जिसका जिक्र पूरबिए अपने लोकगीतों में करते आए हैं। सीपिया टोन के दो फ्रेम और अखबारी कतरनों में उसे निपटा दिया गया जिसे समीक्षक गहन रिसर्च बता रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कई देशों के सिनेतीर्थों की मिट्टी लेकर भव्य मूरत तो गढ़ ली गई लेकिन भारतीय माफिया की आत्मा ने उसमें प्रवेश करने से इनकार कर दिया।

इस क्यों पर ज्यादा दबाव के कारण स्मृति ने कहीं देखा हुआ एक कार्टून दिखाया जिसमें एक जड़ीला संपादक एक लेखिका से कह रहा है-“We loved all the words in your manuscript but we were wondering if you could maybe put them in a completely different order.”
कैसा संयोग… किसी और शहर में ठीक वही शो कथाकार और फिल्म समीक्षक दिनेश श्रीनेत भी देख रहे थे। थोड़ी देर बाद उनका एसएमएस आया- हर बेहतर फिल्म निजी जिंदगियों की कहानी कहती है और इस तरह से विस्तार लेती है कि वह कहानी निजी न होकर सार्वभौमिक हो जाती हैकोई बड़ा सत्य उद्घाटित करती है (उदाहरणरोमान पोलांस्की की पियानिस्ट, स्पाइडरमैन, बैटमैन सिरीज़ या फिर सलीमजावेद की लिखी अमिताभ की फिल्में) यहां उल्टा है, इतिहास से चलती हुई कहानी अंत तक पहुंचतेपहुंचते एक व्यक्ति की निजी जिंदगी के फंदे में झूल जाती है।    
 
      

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49 comments

  1. ..हिंसा और बेहूदा , अनावश्यक गलियों से 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' देखकर माइग्रेन हो गया …..पता नहीं तिग्मांशु ने डाकू और बुंदेलखंड ( जहा हर बात के साथ गली प्रयोग होती है ) पर पान सिंह जैसी बढिया फिल्म कैसे बना ली……पिक्चर हाल में 5-6 लोग ही थे…..लगता है दर्शकों ने अनुराग की …

  2. pratikriya ekdum sateek hai

  3. भाई, गालिया देने क मौसम है.. हा हा..

  4. न जी प्रभावित तो नहीं हां सावधान जरूर किया था। 🙂
    देखिये इस सिनेमा के बारे में कुछ लेखों की चर्चा यहां की गयी है:
    http://chitthacharcha.blogspot.in/2012/06/blog-post_27.html

  5. मैंने फिल्म देखने के बाद एफबी पर लिखा था- गैंग ऑफ वासेपुर जाएं तो चंद एतहात जरुर बरतें- 1. साथ में सेरेडॉन ले जाएं, इन्टरवल में एक ले लें. 2. घर में पड़ा एयरलाइन्स इयर बड्स साथ ले जाएं. 3. गर्लफ्रैंड के साथ जा रहे हों तो यूट्यूब पर सारे प्रोमोज दिखा दें और लिखित अनुमति पहले से लें. 4. हल्का खाना खाकर जाएं और 5. कोशिश करें कि दिन का ही शो देखें, नाइट शो न जाएं. फिल्म में बहुत कुछ है जिस पर गंभीरता से बात होनी चाहिए, हम करने की कोशिश भी करेंगे..फिलहाल हम अनुराग की ईमानदारी के कायल हैं, हमारी कह कर ली है….!!!

  6. शुक्रिया। कहीं मैने आपकी नजरिए को प्रभावित तो नहीं कर दिया था।

  7. prabhat ji fir bhi ise samiksha kahnege jo aadypant ek pratikriya hai..samikshako ki bat jane dijiye..unke likhe se na darshak film dekhata hai , na mai…aur na aap(shayad)

  8. पिक्चर देखकर आने के बाद आपकी समीक्षा से पूरी तरह सहमत! बहुत सुन्दर समीक्षा लिखी आपने। बधाई!

  9. बेहद अच्छी समीक्षा।

  10. इसे फिल्म समीक्षा कहना इसका अपमान होगा, एक दर्शक कि शुद्ध प्रतिक्रिया हैं ये. इस दर्शक को ये अधिकार भी इसलिए मिला हैं क्यूंकि उसने अपने समय और धन का नाश किया है. वो जो कहना चाहेगा कहेगा चाहे किसी सिनेमा के विद्वान को ये बुरा लगे या भला .. फिल्म देखकर सर में दर्द हो जाए तो किसको गरियाये. हर तरफ बौधिक बहस हो रही है, उत्कृष्टता कि, बाजार कि और बहुत सारे बकवासों कि जिसका इन सबसे कोई लेना देना नहीं हैं. एक सामान्य मसाला फिल्म हैं और ढेर सारे सर खपाने वाले पढ़े लिखे लोग. समीक्षा के नाम कुछ भी गाने वाले और इसे मील का पत्थर बताने वाले महापुरुषों से निवेदन हैं कि अपना राग अलापना बंद कीजिये. बहुत हो गया.

  11. सच कहूं तो मुझे फिल्‍म शुरु होते ही लगने लगा था कि यह दर्शक की कस कर लेगी… अनिल भाई माफ करें, उनका जुमला ले रहा हूं… एक महान फिल्‍म का आइडिया लेकर हुई शुरुआत बहुत बचकानी और तर्कहीन कहानी में इस कदर घालमेल करती है कि अंत में जाते-जाते यह सवाल खड़ा हो जाता है कि यह फिल्‍म क्‍यों बनाई गई, किसके लिए बनाई गई… इसके ना बनने से क्‍या हो जाता… अगर घर आकर दो पैग नहीं लिए होते तो सरदर्द तय था…

  12. Amitesh bhai,cinema to darshak ka hi madhyam hai.film samikshak to ab pro bankar rah gaye hain.

  13. भाई अब एक दर्शक की प्रतिक्रिया को फ़िल्म समीक्षा ना कहिये..प्रतिक्रिया हमेशा आवेग में होती है जो दिख रहा है…

  14. यह तो आप मेरे मन के अंदर से शब्‍द चुराकर ले गए हैं. बहुत बधाइयां.; मैं सोच रहा था कि क्‍या देश तो छोडिए बिहार के इतिहास में वाकई ऐसा कुछ हुआ है कि मंत्रियों की औकात दो कौडी के गुंडे के सामने ऐसी ही हो जाती है. पर आप मेरी ओर से एक एक चाय जरूर पीजिएगा.. बहुत ही शानदार समीक्षा.. यह सब स्मृति के स्पेस में छितरा हुआ अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहा था लेकिन उन्हें आपस में पिरोने वाला धागा गायब था। धांय धांय, गालियों, छिनारा, विहैवरियल डिटेल्स, लाइटिंग, एडिटिंग के उस पार देखने वालों को यह जरूर खटकेगा कि सरदार खान (लीड कैरेक्टर: मनोज बाजपेयी) की फिल्म में औकात क्या है। उसका दुश्मन रामाधीर सिंह कई कोयला खदानों का लीजहोल्डर है, बेटा विधायक है, खुद मंत्री है। सरदार खान का कुल तीन लोगों का गिरोह है। हत्या और संभोग उसके दो ही जुनून हैं। उसकी राजनीति, प्रशासन, जुडिशियरी, जेल में न कोई पैठ है न दिलचस्पी है। वह सभासद भी नहीं होना चाहता न अपने गैंग में से ही किसी को बनाना चाहता है। उसका कैरेक्टर बैलठ (मतिमंद) टाइप गुंडे से आगे नहीं विकसित हो पाया है जो यूपी बिहार में साल-सवा साल जिला हिलाते हैं फिर टपका दिए जाते हैं। होना तो यह चाहिए था कि रामाधीर सिंह उसे एक पुड़िया हिरोईन में गिरफ्तार कराता, फिर जिन्दगी भर जेल में सड़ाता। लेकिन यहां सरदार के बम, तमंचे और शिश्न के आगे सारा सिस्टम ही पनाह मांग गया है। यह बहुत बड़ा झोल है।

  15. This comment has been removed by the author.

  16. अनुराग कश्यप के बारे में जैसा सुनते आए हैं कि वे
    कुछ हटकर फिल्में बनाते हैं…पर इस प्रमाणित समीक्षा को
    पढ़ने पर वैसा तो बिल्कुल न लगा…वह भी वर्तमान समय
    में बहती दबंगाई नदी में हाथ धो लेते से लगे…

    "समीक्षा तो इसे कहें… !" कहने में कोई हिचक नहीं…

  17. गैंग्स ऑफ शंघाई का नॉस्टेल्जिया है वासेपुर
    http://gangadhaba.blogspot.in/2012/06/blog-post.html

  18. अच्छा लगा इसे पढ़ना। पिक्चर देखने के बाद फ़िर पढ़ेंगे।

  19. Achchi sameeksha hai….

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