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चंदन पांडे की कहानी ‘भूलना’

यह खबर पढ़ी कि स्मृतियों से देश-महादेश रचनेवाले लेखक मार्केस को भूलने की बीमारी हो गई है तो मन को बड़ा धक्का लगा. शब्दों से जादू रचने वाले उस महान कथाकार को शायद हम हमेशा एक जादूगर की तरह देखते रहना चाहते थे- एक से एक पात्रों, स्थानों की रचना करते हुए. लेकिन शायद इंसानी दुनिया की यही त्रासदी है कि हर सुंदर चीज एक दिन नष्ट हो जाती है. और हमें उनको भूलते हुए आगे बढ़ जाना पड़ता है. मुझे युवा कथाकार चंदन पांडे की कहानी ‘भूलना’ याद आई. न-न, इस कहानी का भूलने की बीमारी से कोई संबंध नहीं है, न ही मार्केस से. यह तो मध्यवर्ग के सपनों की एक त्रासद-कथा है. मैं अपनी यह प्रिय कहानी गाब्रिएल गार्सिया मार्केस को समर्पित करते हुए आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं- अगर आप ‘भूलना’ को न भूले हों तो- जानकी पुल.   
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                                          भूलना 
          सामने से जो महिला आ रही है वह इतनी खूबसूरत है कि याद रखने लायक है। इस महिला के साथ  जो पुरूष है, वह मेरी ही उम्र का होगा ।
         उस सड़क के किनारे किनारे इतने अच्छे अच्छे फूलों के पेड-पौधे हैं कि मैं उनके नाम भी नहीं जानता हूँ। सामने से आ रही महिला फूलों के पेड़ के पास खड़ी हो गई है और उसे फूल चाहिए। साथी पुरूष उसे समझा रहा है कि नीचे पड़ा फूल ले लो। वह ताजा और तुंरत का तोड़ा हुआ फूल चाहती है। बासी और कुचला हुआ नहीं। पुरूष उसे तर्कों से ढांप देता है और महिला मसोस कर नीचे पड़ा फूल ले लेती है।
        मुझे हंसी आ रही है, वह भी इतनी जोर से कि मुझे अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमाना पड़ेगा। पहले हंस लूं। आप ही बताइए, अगर कहीं मेरी भी कोई प्रेमिका होती; जबकि मेरी एक सात साल की बिटिया भी है, और वह ऐसी ही कोई जिद करती, तो मैं खूब उंचे पेड़ की सबसे उंची टहनी से लगा फूल तोड़ कर ला देता। वह भी एक नहीं दो दो। और दो भी क्यों, ये फूल इतने सुंदर हैं कि अगर कोई मेरी प्रेमिका बनती है तो उसे, जरूर ऐसे सैकड़ों फूल चाहिए होंगे। उससे क्या, मैं सैकड़ों फूल ले आउंगा।
       मैं क्या नहीं कर सकता हूँ ? फल तोड़ना, या  शायद मैं अभी फूल तोड़ने की बात कर रहा था, तो फिर भी एक आसान सा दिखता काम है, कल ही की बात है, चन्दू भाई ने बताया कि लखनऊ में आसानी से काम बंट रहा था। काम जरा कठिन था।
      दरअसल, कल शताब्दी एक्सप्रेस का लखनऊ से दिल्ली पहुंचना निहायत जरूरी था। उस गाड़ी में राज्य के सर्वेसर्वा अपनी प्रेमिका के साथ बैठे थे। सर्वेसर्वा लगभग बूढे थे, प्रेमिका लगभग जवान थी और प्रेमिका की नाक के दाहिनी कोर पर एक फुंसी उग आई थी जिसके इलाज के लिए ये लोग दिल्ली जा रहे थे।
       पर हुआ यह कि शताब्दी के प्लेटफार्म छोडने के पहले ही उसके इंजन की हेडलाइट फूट गयी। तुर्रा यह कि प्रेमिका ने उसमें साजिश भांप ली, कहा कि इसी गाड़ी और इसी इंजन से जायेंगे और मुंह फुला कर बैठ गयी।
       शताब्दी एक्सप्रेस की फूटी हेडलाइट तथा प्रेमिका की जिद को देखते हुए सरकार ने आनन फानन में एक भर्ती खोल दी। उसमें उम्र की कोई सीमा नहीं थी। बस आप दौड़ने वाले हों। काम बस इतना ही था कि माथे पर गैस बत्ती लेकर शताब्दी एक्सप्रेस के आगे आगे दौडना था। सभी दौड़ने वालों को दस हजार प्रति मिनट मिलता। दस हजार प्रति मिनट !
       हजारों लोगों की भीड लग गयी थी। अपने कम्पार्टमेंट से देखते हुए सर्वेसर्वा की प्रेमिका नाक की फुंसी के दर्द के बावजूद उछल पड़ी थी। प्रेमिका ने जवान लोगों को दौडते हुए देखना कितना अच्छा लगेगा कहा था और सर्वेसर्वा की तरफ हिकारत से देख कर मुंह फेर लिया था।
       मैं भी अगर लखनऊ रहा होता और अगर दो मिनट भी दौड़ लेता तो बीस हजार रूपये। बाप रे ! बीस हजार रूपये ! पांच-छह साल का खर्च तो निकल ही आता। और अगर एक हाथ या पांव के कट जाने की कीमत पर अगला आधा मिनट भी दौड़ लेता तो पांच हजार उपर से। अगे मा गो! हे भगवान ये मैं क्या सोच रहा हूं। पच्चीस हजार ! वह भी एक साथ ! आप खडे खडे देख क्या रहे हैं, मुझे इतना ज्यादा सोचने से रोकते क्यों नहीं? मेरे भाई, मेरे बन्धु मेरी सोच को वापस खींचिए। उसे दौड़ा कर पकड़ लीजिए। मैं आपका आभारी रहूंगा। हमेशा हमेशा के लिये।
      तो देखा, मैं क्या क्या कर सकता हूँ ? फूल तोड़ सकता हूँ; जबकि मेरी पत्नी है और सात साल की बेटी भी । रेलगाड़ी के आगे दौड़ सकता हूँ बस एक मौका तो मिले.  
      हालांकि पुलिस वालों की हालत देख कर यह कहते हुए डर लगता है, पर अगर मुझे पुलिस की नौकरी में लगा दें, तो मैं दंगों पर, अपराधियों पर काबू पा लूंगा. समाज सुधार की बाबत यही कहूंगा कि मुझे समाज कल्याण अधिकारी बना कर देख लीजिए.
      और मैं कहता हूं दंगे या अपराध की नौबत ही क्यों आये, बस मुझे क्षेत्र विशेष में दंगे या अपराध से बचने के लिए किसी बडे महाविद्यालय में शिक्षक नियुक्त कर दीजिए- ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा आदि अनादि का ऐसा पाठ पढाऊंगा कि लोग दंगे और अपराध जैसे शब्द भी भूल जाएंगे. कोई मौका तो मिले.
      फिलहाल मैं अपने गांव से सटे कस्बे के एक निजी विद्यालय,  मां शारदे शिक्षा निकेतन में शिक्षक हूं और ; 275 (+5 ) रूपए प्रति माह की तनख्वाह भी है. इस विद्यालय में मैं वही सब पढाना चाहता हूं जिससे कि अपराध और दंगे न हों. यहां मेरे पढाने का एक फायदा यह भी है कि वहीं मेरी बेटी शालू पढती है और उसकी फीस नहीं देनी पड़ती है।
      मेरी बेटी शालू , अभी सात साल की है और कक्षा चार में पढती है. जब वह बात करती है तो मन खुश हो जाता है. उसकी बातों से सारा बोझ, सारी थकान उतर जाती है. मेरी पत्नी तो बडे प्यार वाली फटकार से कहती है-‘‘बस दिमाग थोडा तेज है, और कुछ खास नहीं.” मेरे पिताजी की तो जान शालू में बसती है. माँ की भी जान. पिताजी के पैरों में चौबीसों घंटे रहने वाला भयानक दर्द नहीं होता तो पिताजी, हो सकता  शालू  के साथ विद्यालय भी आते जाते. बाकी समय शालू माँ और पिताजी के साथ ही रहती है.
     मैं समझता हूँ.
     शालू उन्हें मेरे छोटे भाई गुलशन का आभास कराती है. मुझे भी उतनी ही सुन्दर, उछलकूद में भी वही बचपन वाले गुलशन जैसी और पढाई में भी उतनी ही तेज लगती है.
     शालू  की पढाई का आलम यह है कि हर साल उसे एक क्लास फँदाना पडता है। सम्बन्धित शिक्षक बताते हैं – कि पूरी किताब ही रट जाती है – कि मुझे शालू को किसी बड़े शहर के बड़े स्कूल में प्रवेश दिला देना चाहिए – कि शालू  बडी होकर खूब नाम करेगी। सोचिए जरा, इन बातों मुझे कितनी खुशी होती होगी?
     मुझे भी लगता है कि मेरे भाई गुलशन की देखने-सुनने की क्षमता के असामयिक लोप से उपजी सारी असफलताओं से जो कुछ भी सपनों सरीखा हममें छूट गया था, वह मेरी बिटिया रानी पलक झपकते ही पूरा कर देगी.
     सपने भी सभी तो रहे नहीं, दवाओं के एक्सपायरी डेट की तरह सपनों की भी उम्र होती होगी. जैसे उन दिनों मेरी छोटी बहन सीमा का सिरदर्द. उसका सिर वीभत्स तरीके से फूल जाया करता था. भीषण दर्द की वजह से उसके सिर की नसें सूज जाती थीं. चेहरा विकृत हो जाया करता था. सीमा अपने माथे को प्लास्टिक की मोटी रस्सी से खूब कस कर बांध लेती थी. रह रह कर उठती उसकी चीख से दीवारें, जैसे डोलने लगती थीं.
     अपने तईं हमने बहन का बहुत इलाज कराया। कोई पागलपन की दवा देता था, कोई नींद की और कोई पेट की दवा देता था. एक आखिरी इलाज हम लोगों के पास था – भाई की नौकरी, जो हमारे सपनों की दुकान बनने वाली थी.
     बहन के बाद वह सपना भी समाप्त हो गया. हां, ये जरूर है कि बाकी सपने जस के तस हैं. पिता जी की बीमारी,  मां की बीमारी,  दो तीन कमरों का कोई घर बने जिसमें बारिश का पानी भीतर न गिरे, दो जून का बढिया खाना- और भी ढेर सारे सपने. इतने सपनों के बीच शालू का पढाई लिखाई में इतना तेज होना.
    और तो और, अन्धा और लगभग बहरा मेरा भाई गुलशन जो चुपचाप घर के बाहर की झोपड़ी में बैठा रहता है, वह यह जान कर कितना खुश होगा कि शालू बिल्कुल उस पर गई है,  सुन्दर, उद्दण्ड (चंचल कह सकते हैं ) और तेज. सच तो यह भी है कि शालू कितनी भी बुद्धिमान क्यों न हो जाये, गुलशन को लाँघ पाना उसके लिए थोडा कठिन होगा. एक समय वह भी था, जब गुलशन ने इंटरमीडिएट की परीक्षा में समूचे शहर में पहला स्थान प्राप्त किया था.
   मेरी बेटी ने एक दिन मुझे एक पर्चा थमाया, बताया कि कक्षा में सभी को मिला था और इस पर्चे को भरना है, जो सबसे सटीक उत्तर भरेगा उसे ट्रॉफी और सर्टिफिकेट मिलना था। पर्चा मुझे याद रह गया:-
                 आतंकवाद: देश का अभिशाप
             (जागरूक देशभक्तों के लिए कुछ यक्षप्रश्न)
1.            आतंकवाद क्या है?
उत्तरः-
                                2.  आतंकवाद से राष्ट्र को क्या नुकसान है?
                उत्तरः-
                   3.  आतंकवादियों की पहचान क्या है?
                     उत्तरः-
4.            अगर कहीं आतंकवादियों से सामना हो जाये, तो आप क्या करेंगे?
उत्तरः-
             सहयोगराशि: दो रूपये मात्र।
                                                                                (हस्ताक्षर)
                                                                           अघ्यक्ष,संग्राम सेना
         वह पर्चा मैंने शालू  को वापस थमा दिया। उससे पूछा कि यह पर्चा उसे किसने दिया था और यह भी कहा कि कल प्रधानाचार्य महोदय से बात करूंगा। पता नहीं, शालू ने क्या समझा और क्या नहीं, पर कुछ देर बाद वह अपने दादाजी से उसे भरने की जिद कर रही थी। पिताजी ने उस पर्चे को नहीं फाड़ा होगा तो सिर्फ इसलिए कि वह पर्चा शालू  का था।
          आतंकवाद। इस शब्द की सवारी गांठ कर मैं अपनी बेटी से अलग होता हूं और उस पलानी में पहुंचता हूं जहां मेरा भाई बरसों से अकेला है। लगभग बहरा और पूरी तरह अंधा मेरा भाई अपने चेहरे को इस उॅंचाई से उठाये हुये है जैसे सामने खड़े किसी व्यक्ति से मुखातिब हो, और उस पर उसका लगातार मुस्कुराना। पलानी में नीमअन्घेरा है। भाई कुछ टटोल रहा है, शायद माचिस की तीली, अब कान खोदेगा।
         मेरे भाई गुलशन के चेहरे पर सात-आठ वर्षों पहले की वह गली उभरती है। व्यस्त सडक से बहुत तीखा मोड़। सॅंकरी गली। मुर्गे-मुर्गियों की भाग-दौड। नालियों में बैठे बत्तख। भिनभिनाहट सा शोर। बर्तनों के गिरने की आवाज घरों के बाहर तक ही पहुंच रहे थे। सरकारी नलों के पास बैठे लोग। नहाते,कुल्ला करते,कपडा फींचते लोगों के बीच राजनीतिक चर्चा का घमासान। सुबह की घूप। अक्षयवर चाचा का रिक्शा गली पार कर रहा है कि बहुत जोरों की आवाज होती है।
        भाई के चेहरे से वो गली गायब हो जाती है। मुझे हॅंसी आ रही है।
        मुझे सब याद है।
        जब वह बहुत तेज वाली आवाज हुई थी,तो गली के लोगों की भीड़ रिक्शे की तरफ दौड पड़ी थी। उसमें मैं भी था। हम लोग दौड पडे थे, हॅंस रहे थे और आतंकवाद के खिलाफ नारे लगा रहे थे।
        अक्षयवर चाचा के रिक्शे का अगला टायर बोल गया था। यह आवाज वहीं से आई थी। हम सब ने भी महज तफरीह के लिए उन्हे घेर लिया था। वरना तो, वो हमारी ही गली में रहते थे। बाद में हमने लाख समझाया कि ये सब मजाक था, पर अक्षरवर चाचा डर गये थे।
        दिक्कत तब हुई थी जब शोर सुन कर गली के तुरन्त बाहर मुख्य सडक के चौराहे पर वाहनों से वसूली के लिए चौबीसों घण्टे तैनात रहने वाले पुलिस के लोग भी गली में आ गये थे। हम सबने पुलिस के लोगों को समझाया और वह मान भी गये पर जाते जाते उन लोगों ने रिक्शे में सीट हटा कर देखा, रिक्शे के नीचे देखा, कहीं बम तो नहीं है, हिदायत दी – टायर ट्यूब सही रखो नहीं तो डाल दिये जाओगे। हम सबको भी डण्डा दिखाया- ज्यादा जवानी चढ गयी है क्या?
        इस घटना के होने तक हमारे शहर में नये एस.पी. का आना नहीं हुआ था, इस तरह वह नियम तो दूर दूर तक लोगों के ख्वाबों में भी नहीं था, जो एस.पी. ने शहर में आने के बाद अपराध और आतंकवाद कम करने के लिए लगाया था जिसमें हरेक पुलिसकर्मी को रोज एक अपराधी पकडना होता था।
        अक्षयवर चाचा वाली घटना से डरे तो हम भी थे पर अक्षयवर चाचा से कम ही डरे थे। फिर भी हमारे बीच आतंकवाद का मजाक, आतंकवाद की गाली, आतंकवाद का खेल सब चलता रहता था। हम दोस्तों को सालाबाद मे आतकंवादी कहीं कापहले कहा करते थे। उन दिनों देश का माहौल ही कुछ ऐसा था। समाचारपत्र, पत्रिकाएं, टेलीविजन, शासन का बहाना सब कुछ आतंकवाद से शुरू होकर आतंकवाद पर ही समाप्त होता था।
        गांव चले आने के कारण इन दिनों के हालात के बारे में हमें विशेष जानकारी नहीं हैं। दरअसल उन्हीं दिनों एक साथ कुछ ऐसी बातें हो गयी थीं कि हम गांव चले आये थे। पिताजी की सिनेमाहाल वाली दरबानी छूट गयी थी। मेरे ट्यूशन भी पर्याप्त नहीं थे, मां का दूसरे घरों में बर्तन पोछे का काम भी ठीक नहीं चल रहा था। फिर भी भाई की पढाई अगर जारी रही होती तो हम कुछ भी कर-धर के शहर से चिपके रहे होते।
        उन्नीस सौ अस्सी में जन्मा मेरा भाई मुझसे पांच साल और पिताजी से पूरे पूरे तैंतीस साल छोटा है। पच्चीस की उमर में ही वह पिछले सात आठ सालों से लगातार बैठा हुआ है और न जाने कितने सालों तक ऐसे ही बैठा रहेगा। इतनी कम उम्र में भी उसे कुछ सुनाने के लिए उसके कान को अपनी दोनों हथेलियों की गोलाई में समेट कर और हथेलियों की उस गोलाई में मुंह घुसा कर खूब तेज तेज चिल्लाना पडेगा,  तब जाकर वह कहीं कुछ सुन पायेगा। देख तो, खैर, वह बिलकुल भी नहीं पाता है।
        जिन दिनों गुलशन ऐसी हालत में पहुंचा था, उन दिनों हम सोचते थे कि जो कुछ भी महत्वपूर्ण घट रहा हो, उसे गुलशन को बताया जाना चाहिए। क्रिकेट की खबरें, फिल्मों की बातें, विशेष तौर पर शाहरूख खान की फिल्मों की कहानियां हम उसके कान में चिल्ला चिल्ला कर बताते थे। पर धीरे धीरे हमारा उसकी इतनी सघनता से देखभाल करना कम होता गया।
        हमारे पास न तो इतनी उर्जा है और न ही उसकी कोई जरूरत कि गुलशन के कान में चिल्ला कर सब कुछ बतायें। यह काम अब मनबहलाव के लिए गांव के बच्चे करते हैं या फिर कोई खुशखबरी सुनानी हो तो शालू यह काम करती है।
        अकेले पलानी में पड़े-पड़े गुलशन को जब भी कोई जरूरत हुई तो एक बार जोर से मुझे, शालू  को, या मां को पुकार लेगा। तब जिस किसी के पास फुर्सत हुई वह उसके पास आ जायेगा, वरना गुलशन को लम्बा इन्तजार करना पड़ सकता है। हमेशा मुस्कुराते रहने का उसने शगल पाल लिया है।
        जब गुलशन के खाने का समय होता है तब भी वह मुस्कुराता ही रहता है। पहले जो होता रहा हो, पर अब हम उसके हाथ धुला कर उसकी कोई उंगली खाने में डुबो देते हैं, वह खाने लगता है। तकलीफ तब होती है, जब उसे चाय, गर्म दूध; कभी कभार या कोई गर्म खाना देना होता है।
        अपनी तरफ से हम भरपूर कोशिश करते हैं कि चाय या गर्म खाना गुलशन के शरीर के किसी कठोरतम हिस्से से छुलायें ताकि उसे न के बराबर तकलीफ हो। पर होता यह है कि जब हम उसे चाय छुलाते हैं तो मुस्कुराते हुए ही वह बुरी तरह कांप जाता है,  दांत पर दांत चढा कर आंखें और मुठ्ठियां भींच लेता है। उसका चेहरा विकृत हो जाता है; मुस्कुराता रहता है।
     या फिर अगर कोई आकर गुलशन की बांयीं बांह छू ले तो गुलशन, अपने अनुमान से उसी तरह अपना सिर इतना उपर उठाता है जितनी एक व्यक्ति की लम्बाई हो सकती है। अगर वह बायीं बांह छूने वाला आदमी भाग कर दायीं तरफ आ जाये तो भी गुलशन अपने को पूरी तरह चैतन्य दिखाने की कोशिश में बायीं तरफ ही सर उठाये, हाथ मिलाने के लिए दाहिना हाथ उठाता है, तमाम प्रश्न पूछने लगता है, कैसे हैं, क्या हो रहा है, क्रिकेट मैच हो रहा है या नहीं- या फिर – (कभी कभी) मुझे पेशाब करना है। गुलशन यह जताने की कोशिश करता है कि वह सामने वाले को देख सकता है, सुन सकता है।
      इस बात पर दूसरों की जो हालत होती है, वह तो होती ही है, वह भाई का मजाक उड़ाने वाला आदमी भी भाई की इस दशा पर उदास हो जाता है।
        मेरा भाई, गुलशन, ऐसा नहीं था।
         
             उन दिनों हम बनारस में रहा करते थे, जब मेरे भाई गुलशन को इण्टरमीडिएट की परीक्षा में समूचे शहर में पहला स्थान प्राप्त हुआ था। फिर तो हमारे ख्वाबों के पंख लग गये।
         लम्बा-चौडा मेरा भाई इतना सुन्दर था कि रामाशीष चाचा की उस बात से सभी लोग पूरी तरह सहमत थे। रामाशीष चाचा का कहना था कि ऐसे खूबसूरत नौजवान को सिर्फ सपनों में दिखना चाहिए। सपने ऐसे कि ये लडका घोडे पर चढा हो, उस सपने में एक तरफ समुद्र और दूसरी तरफ पहाड़ होने चाहिए, घोडे पर भागता हुआ ये लडका आपसे ही मिलने आ रहा हो।
         गुलशन चेहरे मोहरे में पूरी तरह मां पर गया था। इसीलिए हमें शुरू से पता था कि वह बेहद भाग्यशाली होगा। मेरे घर तथा पडोस में इस नियम को बेहद उत्साह से देखा जाता है, जिसमें अगर बेटे का चेहरा मां से और बेटी का चेहरा पिता से मिले तो ऐसे बेटे बेटियां भाग्यशाली होते हैं। इस लिहाज से बहन को भी भाग्यशाली होना था। मैं जरूर भाग्यशाली नहीं था और छब्बीस-सत्ताईस की उम्र में दो दो सौ के पांच और तीन सौ का एक, कुल छह ट्यूशन पढा रहा था।
         इण्टरमीडिएट में इतने बढिया के बाद हमारी, मेरी और पिताजी की, दिली तमन्ना थी कि गुलशन देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियरिंग की पढाई करे। फिर वह चाहे तो कलक्टरी कर ले या फिर वह सलीके से दलाली वाला काम,  मैं उस काम की विशेष सज्ञा भूल रहा हूं, वही जिसमें खूब मोटी तनख्वाह होती है, मुनीमी जैसा काम है वो, भाई, जिसमें रातों दिन लोगों को ज्यादा लूटने की योजनाएं बनायी जाती हैं।
         भाई को लेकर जो हमारी सबसे क्रूर ख्वाहिश थी, वह अमीर बन जाने की थी। गुलशन की नौकरी को लेकर हम दस रूपये तक ही सोच पाते थे। दस हजार रूपये के पार की तनख्वाह तक जैसे ही हमारी बात पहुँचती (मेरी, पिताजी, सीमा, मां) – तो मेरे पेट में कैसी तो हुदहुदी मच जाती थी, मैं उत्तेजित हो जाता, मेरे हाथ पैर कांपने लगते थे। हम सभी की हालत कमोबेश ऐसी ही होती।
         सबसे होशियार क्षणों में भी जब हम सब दस हजार और उससे ज्यादा रूपयों के बारें में सोचते तो यही सोचते कि हम लोग इतने रूपये का आखिर करेंगे क्या?
         ऐसी बातों के दरमियान भाई के सामने आते ही हम सभी बातचीत समेट लेते थे। हममें से कोई गुलशन की तरफ मुस्कुराते हुए देखता। पिताजी और मां की मुस्कान हम भाई बहन की मुस्कान से जरा अलग होती थी – नर्म। एक साथ हम सभी गुलशन को यह एहसास दिलाना चाहते थे कि, देखो, तुम हमारे लिये क्या हो?
         हमारी क्रूर ख्वाहिश के अलावा अन्य ख्वाहिशों में पिताजी के पैरों में अनवरत रहने वाले उस दर्द का इलाज कराना था, जिस दर्द को हम टटाना कहते थे।
         पन्द्रह-सोलह साल पहले हम गांव से आये थे, तभी से पिता जी सरस्वती सिनेमा (लक्सा रोड पर है) की दरबानी कर रहे थे। पिताजी के पैरों की पिण्डलियों का वह दर्द सरस्वती सिनेमा की दरबानी में लगातार खडे रहने से उपजा था। जितने समय पिताजी घर पर रहते, भाई को पैरों पर चढाये रहते थे। कई बार पूछने पर बताया था कि दर्द हमेशा रहने लगा है, चलने के क्रम में दर्द इतना बढ जाता है कि आगे घिसट पाते हैं, लगता है कि पैर अररा कर कट जायेंगे।
         मैं सुनता रहा था।
         ठीक ऐसा ही बहन दर्द को लेकर भी था, जिसके बारे में शायद, अभी तक मैं बता नहीं पाया, तमाम दवाईयों, प्लास्टिक की रस्सी से सिर बांधना, चीख। होता ये था कि हमारी बातचीत अगर हंसी की पराकाष्ठा पर पहुंचती तो अचानक मेरी बहन हंसते-हंसते सिर पकड़ लेती थी। उसके ऐसा करते ही हमारा दिल बैठने लगता था। हम जान जाते थे कि अब बहुत पैसा होगा।
         हम सभी शाश्वत बीमार थे। ऐसा इसलिए क्योंकि हमें लग रहा था कि, हमें अपने सुख, दुःख, तीज, त्योहार को तब तक के लिए टाल देना था जब तक गुलशन किसी नौकरी में न आ जाये। पिताजी के पन्द्रह सौ और मेरे तेरह सौ में से घर खर्च हटा कर बाकी बचा पूरा पैसा गुलशन पर निवेश हो रहा था। अब तो हम त्योहारों की तिथियां तक ध्यान में नहीं रख पाते थे और इससे मां को बहुत परेशानी होती थी, मां का कोई न कोई व्रत हमेशा छूट जाया करता था।
         सब कुछ बस सपनें पूरे होने वालें हैं’ , जैसा चल रहा था।
         हमारी भावी एंव भव्य योजनाओं पर भाई ने यह कह कर पानी फेरने की कोशिश की थी, मुझे याद है, कि वह तो बिना इंजीनियरिंग की पढाई किये भी अच्छी नौकरी पा लेगा। भाई के इस उद्दण्ड उवाच से मैं सकपका गया था। मुझे लगा कि, कहीं मेरे उद्दंड भाई के दिल में कोई मासूम कोना तो नहीं उभर आया था, या कि ये कौन सी खुराफात थी?
         मुझे लगा था कि कहीं वह अपने खेलते कूदते रहने की योजनाओं को विस्तार तो नहीं दे रहा था क्योंकि जितना कम समय अब तक वो पढाई पर देता आया था उतने में तो प्रथम श्रेणी भी लाना मुश्किल हो जाता, शहर में प्रथम स्थान पाना तो फिर भी एक बात है।
         क्रिकेट और फिल्मों के बेतरह शौकीन

 
      

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6 comments

  1. agar aansuon kee koi zubaan hoti to main is kahani ko padhne ke baad hui halchal ko thheek se koi shabd de paati.. chandan pandey ki lekhni ko salaam..

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