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काफ़िर जिसे सुन नहीं सकते

गिरिराज किराडू की कविताएँ बगैर किसी हो-हल्ले के, बगैर कोई चीख-पुकार मचाये बहुत कुछ कह जाती हैं. ८ जुलाई की शाम इण्डिया हेबिटेट सेंटर में ‘कवि के साथ’ में दिल्लीवालों के लिए इस निराले कवि को सुनने का अवसर होगा जो कविता में सहजता का कायल है. हिंदी की दूसरी परंपरा के इस कवि का मुहावरा समकालीन हिंदी कविता में सबसे अलग है, संवेदना सबसे भिन्न है. एक ऐसा कवि जो कविता को कविता के शिल्प में संभव करना चाहता है. प्रस्तुत हैं हिंदी के एक काफिर कवि की दस कविताएँ- जानकी पुल.
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१. मातृभाषामृतभाषा
राजस्थानी कवि और मित्र नीरज दइया के लिए

वह कुछ इतने सरल मन से, लेकिन थोड़ा शर्मसार खुद पर हंसते हुए यह बात बोल गया कि यकीन नहीं हुआ यह सचमुच प्रेम में होने वाली भूल जैसी कोई बात है
उसे कविता उसके जीसा सौंप गये थे या शायद कविता को उसे जीसा जिन्होंने कभी कोटगेट पर कोई कविता नहीं लिखी पर आपनी एक कविता में जीसा का श्राद्ध करते हुए उसने एक पत्तल कोटगेट के लिए भी निकाली थी और मुझे तो उसे देखते ही उसके उन्हीं जीसा की भावना होती थी कभी देखा नहीं जिन्हें मैंने
हाँ सिर्फ प्रेम में ही ऐसा हो सकता है मैंने देखा मेरे सामने चार भाषाओं के नाम लिखे हैं और उनमें एक मेरी भाषा भी है हाँ यह प्रेम ही था मृत को मातृ पढ़ा मैंने और चाहे कोई गवाह नहीं था किसी ने नहीं देखा पर अपनी भाषा को मृत कहा मैंने यकीन मानो यह सिर्फ़ प्रेम के कारण हुआ वह भाषा जो जीसा सौंप गये थे मुझे उसे मृत लिखा मैंने
यह उसके कहे हुए का अनुवाद है
मैं कविताउसकीमातृभाषा में नहीं लिखता
यह जानता है वो
अनुवाद में जीसा को जीसा ही लिखना कहा उसने
२. जहाँ से
जहाँ कच्ची ईंटें बनती हैं उस जगह को देखते हुए लगता कई घर खड़े हैं
बल्कि थोड़ी ऊँचाई
जैसे कि छत से
दिखता कि
कोई बस्तीसी है
बल्कि थोड़ी और ऊँचाई
जैसे कि आकाश से
मालूम होता कि
कोई नगर है एक दूसरे के आँगन में खुलते कई दरवाजे हैं शामियाने जैसी लम्बी एकल छत है दरारों जैसी गलियाँ हैं जिनमें अपने बचपन में हम कई एक दूसरे को ढूँढ रहे हैं
बल्कि थोड़ी और ऊँचाई
जैसे कि कविता से
झाँकता कि
शामियाना कई छतों में विसर्जित हो रहा है दरारें गलियों में बँट रही हैं ढूँढना छिपने में खुल रहा है घर फिर से ईंटें हुए जा रहे हैं
और
वे इतनी कोमल हैं कि हम देखने से वापस लौटते हुए कई सारी थैले में भर लाए हैं

३. हमशक्ल
कैसे भले लोग हैं
अब भी देख रहे हैं मेरी ओर
उसी प्यार उसी गर्मजोशी से हाथ मिला रहे हैं
उसी गहरे विश्वास और उसी कांपती उम्मीद से
सोच रहे हैं अपनी व्यथा कहने की मुझे
कैसे भोले लोग हैं
अकेले खाना तक नहीं खा सकते
इसीलिए थोड़ा बहुत हमेशा ही निकल आता है मेरे लिए
रोटी पूड़ी अचार कभी कभी दाल दही
मौका टटोल रहे हैं
कब बात कहें
कब कंधें पर सर रख दें
कब अपनी गठरी को धीरे से खोलकर
रख दें थोड़ी व्यथा
वहां से सर को हटते हुए
कैसे लोग हैं
इन्हें कोई अंदाज़ नहीं
मैं उस आदमी का हमशक्ल भर हूँ
जिसने कल रात अपने ही घर में ख़ुद को मार दिया था 
४. सकुशल
यह कुछ इतनी सादा सरल भोली बात है
की आप इस पर शक करेंगे
मुझे मूर्ख नहीं मक्कार समझेंगे
फिर भी बताना चाहता हूँ
वे जो जला दिये गए
जिन्हें गोली मार दी गई
लटका दिया गया
वे मेरे भीतर आबाद बस्ती में सकुशल हैं
जो डूब गये
नसें काट ली
ज़हर पी लिया
वे वहाँ बिल्कुल ठीक हैं
आपको भरोसा तो नहीं दिला पाऊँगा
लेकिन उनमें से कुछ को रोज़गार मिल गया है
कुछ का घर बस गया है
कईयों की इज्ज़त बन गई है
आप इसे चाहे तो षडयंत्र समझें पर
जो गायब कर दिये गये
भुला दिये गये
फेंक दिये गये
वे वहाँ अपने पूरे कुनबे के साथ राजी खुशी हैं
आपसे नहीं पूछूंगा आपके भीतर ऐसी कोई बस्ती है कि नहीं?
५. उसके मुहल्ले में
उसके जिस्म में उतरना अपनी संकरी गली से उसके लंबे चौड़े मुहल्ले में उतरना है
उसके जिस्म में कसाईबाड़े के आसपास के पूरे मुहल्ले की महक है
बकरियों और लटके हुए मुर्गों की भी
उसके जिस्म में पतंगों के नीलेपीलेकाले रंग हैं
डफलियों की थाप है
मरम्मत के लिए आयी कुर्सियों की चरमराहट है
हुक्के की गुडगुड है
मैं उसे जिस भाषा में प्रेम करता हूँ
वह लिख कर मेरी अपनी नहीं रहती
वह मुझे जिस भाषा में प्रेम करती है
वह बोलकर उसकी अपनी नहीं रहती
बीच बीच में लुढ़कते हैं हम इस शहर की बोली में
भाषा के इधर उधर डोलते हुए
हम एक दूसरे को एक दूसरे के
कपड़े छूते हुए देखते हैं
दो
उसके ज़िस्म में दबी प्रार्थनाएँ मैं सुन या समझ नहीं पाता
मैं अपना ज़िस्म टटोलता हूँ
उसमें कहीं कोई प्रार्थना दबी हुई नहीं
तुम्हारे ज़िस्म में पिछली नमाज़ की बुदबुदाहट है
काफ़िर जिसे सुन नहीं सकते
वह मेरी इच्छाओं को कपडों की तरह पहन अपने को ढकती है
मैं उसके काफ़िर ज़िस्म में दबी प्रार्थनाओं में उतरता हूँ
तीन
उसका ज़िस्म फैलकर पूरा मुहल्ला हो जाता है
जिसमें
मैं अजनबी सैलूनों और पान की दुकानों में में हतप्रभ बच्चे सा घूमता हूँ
जिसमें
उसकी अम्मी अफ़सोस कर रही है मेरी डफली वे अब तलक ठीक नहीं कर पाई हैं
जिसमें
मैं उसके अब्बू की दुकान पर चाय पी रहा हूँ
                              वे मेरी जूठी गिलास धोना चाह रहे हैं
मैं टोंटी के नीचे गिलास धो रहा हूँ
                        वे पैसे गुल्लक में रख रहे हैं
वे उन्हें बख्शी इज्ज़त से भौचक मेरी ओर देख रहे हैं
                        मैं मुहल्ले से या शर्म से भागकर अपने कमरे में आ गिरता हूँ
वह अपना कुर्ता ठीक कर रही है
चार
उसके अब्बू मेरे घर के पास वाली गली में लगभग गुमशुदा से चल रहे हैं
उन्हें बरसों से कम दिखता है
उनसे अपनी चप्पलें भी खो गई हैं
वे नमाजियों से दूर छिटक आए हैं
(उसकी आँखों से आँसू शब्दों की तरह
मेरे कपड़ों या हाथों पर गिर रहे हैं)
वे उसी समय छत पर बने इस कमरे के नीचे से गुज़र रहे हैं

पाँच 
अब्बू ढपली के टांकों को आखिरी बार देख रहे हैं <

 
      

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13 comments

  1. इन कविताओं से गुजरना गिरिराज भाई के मोहल्ले से गुजरने जैसा है… इन दिन यह मौका हासिल हो रहा है… जाहिर है, उसके मोहल्ले में सबसे अधिक पसंद आयी…

  2. उम्मीद का अभिनय तो बहुत किया है
    अभिनय को उम्मीद बनाने की कला आज़मा रहा है..:)

  3. मुझे किराडू का गद्य ज्यादा प्रभावशाली लगता है

  4. जहाँ कच्ची ईंटें बनती हैं उस जगह को देखने वाली नजर को सलाम

  5. गिरिराज किराडू जी की कविताएँ मुझे हमेशा से जादू की तरह लगती है…कुछ समझ…कुछ समझ से परे… इस दफ़ा तो जैसे पूरे का पूरा जादू महल ही बना रखा है। बहुत पसंद आईं कविताएँ…

  6. बहुत अच्छी कवितायें !

  7. "मातृ भाषा-मृत भाषा", "जहां से", "सकुशल", "हमशक्ल" और "उसके मोहल्ले में" बहुत अच्छी लगीं. भाषा, शिल्प, संवेदना – हर दृष्टि से. गिरि की कविताएं अपने अन्य समकालीनों से भिन्न मिजाज़ की हैं, बेशक. बधाई. वह फलें-फूलें!

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