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यह हमारा स्वयं का चुना हुआ भ्रम है


आज वंदना शुक्ल की कविताएँ– जानकी पुल. 


(१)
भ्रम

बहुत ऊँचाइ पे बैठी कोई खिड़की 
बुहार देती हैं उन सपनों को
जो बिखरते हैं हमारे भीतर
झरते हुए पत्तों की तरह
बाँहों में ले
बहलाती हैं विविध दृश्यों से
उन खिलौनों की तरह 
जो सच से लगते हैं
पर होते नहीं
जानते हुए हम खिड़कियों के ये खेल
भ्रमों को पोसते रहते हैं
उम्मीदों की तरह

(२)

आशंका

(१)
होगा किसी दिन ऐसा
नहीं उगेगा सूरज
सुबह भटकेगी पहनकर अँधेरे
ढूंढते रह जायेंगे पक्षी अपनी उड़ाने
उतारकर रख देंगे सिरहाने पंख
पहनकर थकानसो जायेंगे
गहरी नींद
………….

(२)

होगा कभी ऐसा
कि 
मौसम अलसाकर कह उठें किसी रोज
बहुत हो चुका अब  
नहीं जायेंगे इस बार
धरती के शहर.
हवा में सूखती नमी 
खुश्क हो चुकी धूप की त्वचा
आ गई हैं खरोंचें ओस के बदन पर
उभर आये हैं धब्बे
ऋतुओं की स्मृतियों में 
पत्तियों पर जम चुकी हैं
प्रश्नों की मोटी गर्द
करेगी कुछ अदृश्य यात्राएं पृथ्वी तब
अंतरिक्ष की
आँखों में चुभेगा कोई कंकड
और 
पिघलने लगेंगे सारे बुत
ग्लेशियर –से  
…………….

(३)
होगा एक दिन ऐसा
सौंप कर किसी अँधेरे को
अपने धूल भरे/ धुन्धलाये  युग
चली जायेंगी उकताई थकी धरती 
घूमने किसी परलोक में,
जाने से पहले
वेदों की तमाम ऋचाओं को
प्रथ्वी सूत्र की समस्त प्रार्थनाओं को
लपेटकर भविष्य के लाल वस्त्र में
दबा जायेगी अंतरिक्ष के किसी
प्रिय कोने में.
………………
(4)
ऐसा भी होगा कभी
पेश होना होगा समुद्र को
आसमान की कचहरी के कटघरे में
यकी दिलाना होगा
दृश्यों को 
कि वो ऑंखें नहीं है जिनमे
डूब जाते हैं सपने
वो तो समुद्र हैं
पूरा का पूरा…


 ३

मैंने नहीं रची कोई रणनीति किसी महायुद्ध की
ना ही काम पिपासा को शांत न करने की
सज़ा स्वरुप
श्राप दिया किसी अप्सरा को धरती पर जाने का
मैंने तो धर्म रक्षा के लिए
छोड़ा भी नहीं अपनी गर्भवती पत्नी को
घने बीहड़ में
ना ही किसी औरत को अपमानित किया
किसी प्रणय निवेदन पर
मै तो भूला भी नहीं
अपनी प्रेमिका को किसी क्रोधी ऋषि के श्राप से
ना ही आँखों पर पट्टी बांधे पुत्र मोह में ,
होते देखता रहा नर संहार
अन्याय और धोखे की शिकार अपनी पत्नी को
क्रोधवश पत्थर भी नहीं बनाया मैंने तो,
श्रापों और षड्यंत्रों की हरी भरी परम्परा के
इस महादेश में
महानुभाव ….
अब भी यदि आप मुझे संत य देवता जैसे शब्दों से
सम्मानित करेंगे
हो सकता है कि मै इसे अपना अपमान समझूँ

(४)

भ्रम     
              
दीवारें आजकल हो गई हैं इतनी पारदर्शी कि
देख लो उसमे किसी के दिल के आर पार
इतनी तरल कि छू लो
किसी के ज़ज्बात
इतनी रहस्यमयी कि इसमें घुस
ढूंढते फिरो निकलने के रास्ते
और गुम जाओं अपने ही भीतर 
और इस कदर निर्मम कि
चाहो जब तक छूना तुम किसी के अहसास
बदल दें वो अपना पृष्ठ
और खड़े दिखो किसी
दूसरे के आंगन की अनजान दीवारों के बीच|
नए युग के नए नवेले घर में ,
लिखना चाहों यदि अपनी ही दीवार पर अपना नाम
बहुत मुमकिन है कि
ऊपर किसी और के नाम की तख्ती टंगी पाओ
ये हमारा स्वयं का चुना हुआ भ्रम है 
(५)
प्यास
गर्म भपाती धरती ने जब
तिलमिलाकर
देखा होगा कोई पहाड़
उठाई होगी सीली हथेली
प्रार्थना में
सूरज की तरफ
एक चिड़िया उड़ने लगी होगी सहसा
आकाश की चोहद्दी में
बैठ गई होगी धुरी की
सबसे दुरूह ऊँचाइ पर.

उड़ानों को
हवा ने जिस की बुना होगा
रेशमी उजालों से  
समय के केनवास पर
तिनके को रात की स्याही में डुबा
खींची होंगी कुछ लकीरें
नन्ही चोंच से
चिड़िया ने,
हरहरा बह निकली होगी कोई नदी
डुबोई होगी जिसमे चिड़िया ने
अपनी प्यास.
 
      

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9 comments

  1. Great
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  2. सभी कविताएं बहुत अच्‍छी हैं, लेकिन मुझे 'मैंने नहीं रची कोई रणनीति किसी महायुद्ध की' बेहद पसंद आई। बहुत बहुत बणाई वंदना जी को और प्रभात जी का शुक्रिया।

  3. अच्छी रचनाएँ हैं ..
    बधाई वंदना जी .आभार प्रभात जी..

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