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दो चाणक्यों की एक कहानी

 
‘चाणक्य मंत्र’– पुस्तक हाथ में आई तो लगा ही नहीं यह उपन्यास है. शीर्षक से से लगा शायद चाणक्य की नीतियों-सूत्रों न की कोई किताब होगी. कवर पर प्राचीनकाल की मुद्राओं को देखकर शायद कुछ अधिक लगा. लेकिन जब पलटना शुरु किया तो पढ़ता चला गया. यात्रा बुक्स तथा वेस्टलैंड लिमिटेड द्वारा प्रकाशित ‘चाणक्य मंत्र’ करीब पांच सौ पेज का उपन्यास है जो बेहद रोचक शैली में लिखा गया है. साल २०१० में लेखक अश्विन सांघी का अंग्रेजी में उपन्यास प्रकाशित हुआ था ‘चाणक्याज चैन्ट’. पुस्तक काफी लोकप्रिय रही और उसने अश्विन सांघी को एक लेखक ब्रांड के रूप में स्थापित कर दिया. उपन्यास के आइडिया में ताजगी है और शायद इसीलिए वेस्टलैंड-यात्रा ने हिंदी प्रकाशन के पहले सेट की पुस्तक के रूप में इसका चयन किया होगा. ‘चाणक्य मंत्र’ को पढते हुए एक हिंदी पाठक के रूप में कहीं भी इस बात का अहसास नहीं होता कि आप एक अनूदित उपन्यास पढ़ रहे हैं. यह केवल अनुवादक के कौशल से संभव नहीं हुआ है, बल्कि इसके पीछे उपन्यास-विषय की नवीनता भी है. हिंदी के पाठकों के लिए इसमें चाणक्य कालीन राजनीति के दांव-पेंच भी हैं और समकालीन राजनीति की बीहड़ ढलान. दोनों ही कालों में चाणक्य परदे के पीछे रहकर वार करता है. दोनों ही शक्ति के पुजारी लेकिन दोनों ही अंत में शक्तिहीन रहे.
उपन्यास की कथा दो स्तरों पर चलती है- एक २३०० साल पहले जब चाणक्य नामक एक ब्राह्मण अपने पिता की हत्या का बदला लेने की सौगंध लेता है और नन्द वंश का अंत का कारक बनता है. उसका शिष्य चंद्रगुप्त मौर्या वंश के शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना करता है मगध में. दूसरी कहानी है आज के भारत के के पंडित गंगासागर की जो अपनी शिष्या को देश के १८ वें प्रधानमन्त्री के रूप में स्थापित कर पाने में सफल हो पाता है. गंगासागर उपन्यास के अंत में अपनी शिष्या चांदनी को लिखे पत्र में लिखता है, ‘भारत की एकता और अखंडता के लिए शक्तिशाली नेताओं की जरूरत है और अक्सर ऐसे नेताओं को गंदे खेल खेलने पड़ते हैं. चाणक्य ने अपने चेले- चंद्रगुप्त- के लिए यही किया था और मैंने अपनी चेली- चांदनी- के लिए भी यही किया. हाँ, शक्ति ने शिव को पीछे छोड़ दिया- जो कि हमारे दौर का चिह्न है. मुझे कोई खेद नहीं.’ यह एक तरह से उपन्यास की कथा को पूरी तरह से संकेतित भी करता है.
 
अंतराल २३०० साल का है, के खेल के वही कायदे हैं, शिखरों की यात्रा उतनी ही दुरूह है, निजी-सार्वजनिक का वैसा ही घालमेल है. ‘चाणक्या मंत्र’ ‘थ्रिलर’ की शैली में लिखा गया समकालीन राजनीतिक उपन्यास है. लेखक ने समकालीन राजनीतिक प्रसंगों के संकेत उपन्यास में दिए हैं, उपन्यास पढते हुए बराबर यह आभास होता रहता है कि लेखक की समकालीन राजनीति पर अच्छी पकड़ है, बिना उसके केवल शोध के आधार पर ऐसा उपन्यास नहीं लिखा जा सकता जो बेहद स्वाभाविक हो. इसे मैं एक सन्दर्भ के माध्यम से बताना चाहता हूं. २००९ के आम चुनावों के बाद से लगातार इस बात को लेकर चर्चा होती रही है कि ईवीएम मशीनों के माध्यम से चुनाव-परिणामों में गड़बड़ी संभव है. नरसिंह राव ने तो इसी बात को लेकर ‘ईवीएम फ्रॉड’ नामक पुस्तक भी लिखी है. बहरहाल, उपन्यास के प्लाट में ईवीएम मशीनों के माध्यम से चुनाव परिणामों में हेरफेर का सन्दर्भ भी आता है. उपन्यास की समकालीन कथा में ऐसे तमाम तत्व हैं जो समकालीन राजनीति के उतार-चढ़ावों की याद दिलाती है. दूसरी तरफ, चाणक्य की प्राचीन कथा को भी इतनी रोचक और सहज शैली में लिखा गया है कि दोनों कथाओं के बीच किसी तरह का रसभंग नहीं होता.
 
बल्कि चाणक्य की नीतियों और गंगासागर की नीतियों में इतनी समानता है कि कई बार दोनों कथाओं का अंतराल पता भी नहीं चलता. एक प्राचीन कथा के समकालीन पाठ के रूप में इस  उपन्यास ने मुझे इस उपन्यास ने प्रभावित किया. एकदम नई शैली का थ्रिलर है. हिंदी में लोकप्रिय और गंभीर साहित्य का जो गैप बढ़ता जा रहा है यह कमोबेश उस ‘सेगमेंट’ में फिट बैठ सकता है. अनुवादक नवेद अकबर ने भाषा भी समकालीन बोलचाल की बनाये रखी है. ट्रेन की एक लंबी यात्रा में लेटे-लेटे पढ़ने वाला उपन्यास है. खासकर युवाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है, जिसे हिंदी के नए बनते पाठक भी पसंद करेंगे.
चाणक्य मंत्र- अश्विन सांघी, यात्रा बुक्स-वेस्टलैंड लिमिटेड, १९५ रुपए.
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8 comments

  1. इस उपन्‍यास के बारे में आपने बहुत अच्‍छी जानकारी दी. राजनीतिक साहित्‍य मेरा भी प्रिय विषय है अवश्‍य पढुंगा. जानकी पुल को हार्दिक धन्‍यवाद.

  2. चाणक्य मंत्र शायद यही है कि मन चाहा अंत पाने के लिए कोई भी मार्ग अपनाया जा सकता है! इसी को राजनीति भी कह सकते है और जीवन में बढ़ने का मंत्र भी. समीक्षा सुन्दर है.

  3. फर्क सिर्फ इतना है कि पहले देश हित में देसी चाणक्य पैदा होते थे… अब बहुराष्ट्रीय हित में चाणक्य नियुक्त किये जाते हैं… अगर कहानी का नजरिया यह होता तो और मजा आता..

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