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खाकर वे सो रहे हैं जागकर हम रो रहे हैं

 ये अशोक वाजपेयी की नई कविताएँ हैं. करीब अर्ध-शताब्दी से अशोक वाजपेयी हिंदी कविता में दूसरी परम्परा की सबसे बड़ी आवाज के तौर पर मौजूद हैं, बेहद मजबूती से. उनकी कविताओं में हिंदी कविता की अनेक परम्पराओं की गूँज सुनाई देती है, लेकिन कविता में उन्होंने अपनी परंपरा भी बनाई. होने न होने धुंधलके के इस कवि ने कविता में जितने प्रयोग किए हैं शायद ही किसी समकालीन कवि ने किए हों. उनकी कविताएँ हर दौर में प्रासंगिक लगती रही हैं. अशोक वाजपेयी की इन कविताओं को पहली बार प्रस्तुत कर जानकी पुल गौरवान्वित महसूस कर रहा है- जानकी पुल.
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1.
मैंने
मैंने एक दरवाजा खोला:
तो सामने
बुझती-बुझती सी रौशनी में
परीचेहरा लोग चुपचाप
हाथ पर हाथ धरे बैठे थे.
मैंने एक खिड़की खोली:
तो सामने
आकाश में
झिलमिलाते आंसुओं की एक डार
उड़ रही थी.
मैंने कविता से पूछा
तो उसने कहा:
तुम्हारी दुनिया में
अब थोड़ी सी रौशनी, बहुत सारे अँधेरे
और थोड़े से विलाप के अलावा
अब बचा क्या है.
२६ मई २०१२ नान्त
2.
अब तो
अब तो
चीत्कार को भी कोई नहीं सुनता
विलाप की कौन कहे!
अब तो
भरी-पूरी ट्रेन रूकती है स्टेशन पर
लेकिन कोई नहीं उतरता,
न ही चाय वाले से कोई चाय खरीदता है!
अब तो
मारा जाता है दिनदहाड़े कोई बीच सड़क पर
और कोई नहीं रुकता!
अब तो
किसी के पास इतना धीरज नहीं बचा
कि कोई इससे लंबी कविता लिखे या सुने!
नान्त २६ मई २०१२
3.
इतनी भर
दुनिया इतनी भर बची है
जितनी एक कविता में आया जाए.
दुनिया इतनी भर है अब
जितनी एक उपन्यास में समा  जाए.
दुनिया इतनी भर बाकी है
जितनी एक बच्चे की किलकारी में विहँस सके.
दुनिया इतनी भर बचेगी
जितनी एक खाए फल के छिलके में हिलगी रह सके.
दुनिया उससे बहुत कम निकली
जितना उसके सपने में हम समझे थे.
नान्त २६ मई २०१२
4.
‘जागै अरु रोवै’
खाकर वे सो रहे हैं
जागकर हम रो रहे हैं.
क्या यह तय था
कि ज्यादातर सोयें
कि कुछ ही जागें और रोएं?
सोनेवालों में से कुछ की नींद में
क्या कभी कोई सपने नहीं जागते,
कोई विलाप नहीं उभरता?
कविता सब कुछ के बीतने पर
अविरल विलाप है—
पर जो हँस-खेल कर
अपने दिन बिताना चाहते हैं
वे क्योंकर इस विलाप पर ध्यान दें.
१६ जून २०१२ नान्त
5.
सब कुछ बीत जाता है
सब कुछ बीत जाता है—
समय और सपने,
पीठ का दर्द और
दांतों के बीच फंसे रेशे की अकुलाहट,
बिना सवारी
दूर तक खींचे गए सूटकेस का थकाऊ बोझ,
हरियाली से घिरकर
सघन हुआ उल्लास, पंखुरी पंखुरी खुलती देह—
सब कुछ बीत जाता है.
सुबह की चिड़िया की तरह
स्मृति फुदकती है
इधर से उधर
तेजी से याद आती और धूमिल पड़ती
छबियों पर—
कोने में अनबुहारे पड़ा
सपनों का कचरा,
अंतःकरण पर छब गया कीचड़—
सब कुछ बीत जाता है.
शाम की आखिरी ट्रेनों के बाद
सुनसान पड़े प्लेटफॉर्म पर
हम खड़े रहते हैं
बिना जाने कि अब रैनबसेरा कहां होगा?
सब कुछ बीत जाता है—
सुनसान भी, शाम भी, रैनबसेरा भी.
२२ मई २०१२ नान्त
6.
धूप
धूप में इतनी खिलखिलाती हरियाली
चिड़ियों की ऐसी चहचहाहट
क्या धूप ऐसे ही गाती है
जब थोड़ा-सा अलसाकर
वापस आती है!
२ जून २०१२ नान्त
7.
इतने सारे रास्ते
नदी.
नदी पर लंबा पुल.
नदी-किनारे लंबा रास्ता.
नदी में पानी के कई रास्ते.
बीच-बीच में उड़ते कई पक्षी
बनाते अधर में अपने रास्ते चिह्नहीन.
रास्तों पर लोग, पशु-पक्षी, कीड़े.
सब कहीं न कहीं जाते हुए—
कुछ यों ही भटकते हुए:
हमारे पास पाने-गंवाने के लिए
कितने रास्ते हैं!
१४ जून २०१२ नान्त
8.
फिर भी
वह जो देख रहा है, कितना कम देख रहा है!
वह जो सुन रहा है, कितना कम सुन रहा है!
वह जो कर रहा है, कितना कम कर रहा है!
वह जो कह रहा है, कितना कम कह रहा है!
उन्हें पता है फिर भी
जिंदगी में कुछ है
जो न देखा जा सकता है, न सुना!
न किया जा सकता है, न कहा!!
कम है और कितना ज्यादा है!!!
१६ जून २०१२ नान्त
9.
 
      

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30 comments

  1. नये तरह की अच्छी कविताये .अशोक जी अभी उर्जा बची हुई है /
    वे हमारे समय के युवा कवियो की तरह है वेचैन और उल्लासित
    स्वप्निल श्रीवास्तव

  2. सशक्त और प्रभावशाली रचना…..


  3. दिनांक 27/01/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ———–
    'हो गया क्यों देश ऐसा' ………हलचल का रविवारीय विशेषांक…..रचनाकार….रूप चंद्र शास्त्री 'मयंक' जी

  4. सच कहा आपने ओम जी.. स्वत: बहते हुए निर्मल जल के झरने की तरह ..

  5. कौन सी कविता के विषय में बात करूँ यहाँ हर कविता परिपक्व अनुभूति से परिपूर्ण ..न क्लिष्ट शब्द, ना क्लिष्ट बिम्ब.. केवल सहज और सरल भाषा द्वारा भावों को संप्रेषित करती हुईं सीधे मन में प्रवेश कर गयीं… आभार जानकीपुल… साभार अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना चाहती हूँ प्रभात जी …

  6. ताजगी भरी कविताएं…संपादक जी शुक्रिया !

  7. हमारे पास खोने के लिए कितने रास्ते हैं.. कितना गूढ़ दर्शन है इसमें.. कीड़े की पंछी की पशु की यात्रायें भी एक रास्ता बनाती हैं.. और हम सिर्फ अपने ही गंतव्यों में भटकते रहते हैं शायद अंत में कहीं नहीं पहुँचते.. यात्रा का सुख भी खो देते हैं..

  8. अशोक वाजपेयी जी की कविताएं मैं पसंद करता रहा हूं. ये भी अच्छी कविताएं हैं. शुभकामनाएं

  9. haan ek baat or in kavitaon ko padhte vakt saath saath rahi,,,,,,vo he ambaadaas ji ke chitra. ve bhi apne rango or bunaavat se inhi samvedano ko chute he or aaj ke jivan ko prashnaankit karte he.

  10. kavita -7 itane saare raaste ki chouthi pankti me shaayad galati se do baar me likh gayaa ke kripayaa dekhen.dhanyavaad
    ashok ji ki in nayi kavitaon ko padhane kaa avasar janakipul ne diyaa,aabhaari hu.
    ye kavitaaen kai prashn lie he.or shayad ye prashn ham sabhi ke bhi tar hi he par in kavitao ko padh kar ham inhe sun paaye.

  11. दुनिया इतनी भर बची है
    जितनी एक कविता में आया जाए.

    दुनिया इतनी भर है अब
    जितनी एक उपन्यास में समा जाए.

    दुनिया इतनी भर बाकी है
    जितनी एक बच्चे की किलकारी में विहँस सके.

    दुनिया इतनी भर बचेगी
    जितनी एक खाए फल के छिलके में हिलगी रह सके.

    दुनिया उससे बहुत कम निकली
    जितना उसके सपने में हम समझे थे.

  12. दुःख लौटता है हर बार /जैसे भटककर वापस घर आया हो
    सुख की तो याद भी दुःख होती है’’ .. |ये पंक्तियाँ अशोक बाजपेई जैसा कुशल और परिपक्व कवि ही लिख सकता है ..|
    दरअसल कविता , स्वप्नदर्शी अनुभूतियों (विषयों)का लेखा जोखा मात्र नहीं है वस्तुतः कविता का उद्देश्य सामाजिक परिवेश और उसकी विसंगतियों को ना सिर्फ उद्घाटित करना बल्कि मानवीय संवेदनाओं को बचा पाना भी है |यूँ कविता का काम संवेदनाओं,मूल्यों ,आदि के लिए संघर्ष करना है सिर्फ उसे ज़ाहिर करना या रुदन नहीं |
    अशोक जी स्वयं स्वीकारते हैं कि ‘’यह एक ऐसा समय है जिसमे जीवन को संकुचित करने ,उसे रोकने प्रभावित करने के सारे दैत्याकार उपकरण हमी ने विकसित किये हैं |ऐसे में जीने की इच्छा का जो आग्रह है,मै उसका कवि हूँ |
    ‘’मै वहीं जाउंगा
    जहाँ निशीथ के एकांत अन्धकार में
    चट्टानें विलाप करती हैं ‘’…….
    वहीं होगा मेरा ठिकाना
    प्रार्थना और विलाप के बीच
    बढ़ती हुई धुंध के नज़दीक
    म्रत्यु भी शायद वहां से ज्यादा दूर ना होगी
    मै वहीं जाउंगा |(शीर्षक -वहीं जाउंगा )
    अशोक बाजपेई की कविताओं में रोजमर्रा के विषयों और दृश्यों के साथ एक सीधा संवाद और सरोकार दिखाई देता है |
    ‘’मै स्तुति करना चाहता हूँ उसकी जो दीवार पोतता है
    और कड़ी धूप में इमारतों में लगाने के लिए
    ईंटें सिर पर ढोता है
    उसकी जो देर रात गए सब्जियों की दूकान
    मोमबत्ती जलाकर खुली रखता है
    और उसकी जो कहीं और जगह ना पाकर
    फुटपाथ पर अखबार बिछाकर
    थककर सो जाता है …..
    (अंतिम दो पंक्तियाँ )-
    बिना जाने या जताए कि वे ऐसा कर रहे हैं
    आज मेरी कविता सिर्फ उनकी स्तुति है |
    अशोक बाजपेई की कविताओं की ये खासियत है कि उनकी कवितायेँ ज्यादातर गद्यात्मक होती हैं और शब्द इतने सीधे सरल कि आम आदमी भी आसानी से समझ सके |जैसे निर्मल वर्मा की कहानियों में सर्वनाम का प्रयोग बहुतायत में किया गया है वैसे ही अशोक बाजपेई की कविताओं में तत्सम शब्दों का प्रयोग ज्यादातर देखने को मिलता है
    शब्दों की व्यर्थ की लफ्फाजी ,कथावस्तु या शिल्प की उलझन में उलझे बिना पाठक आसानी से कवि का मंतव्य समझ जाता है |
    अशोक बाजपेई की प्रेम कवितायेँ भी बेहद अलग और औरों से अनूठी हैं जैसे
    ‘’प्रेम जो दूर करता /पास लाता है
    जिसे पास लाता है उसे दूर करता है
    प्रेम ,पास और दूर की आवाजाही है
    जो सिर्फ हमारे बीच संभव है |’’
    सीमित और सीधे शब्दों में गहन अर्थ …
    ‘’दुःख का कोई इतिहास नहीं ना विलाप का
    जैसे ना पानी का ना धूप का
    (दुःख ही जीवन की कथा)
    उनकी प्रेम कविता का एक रंग ये भी ….
    ‘’आकाश में होने से पहले
    सूर्योदय उसकी आँखों में होता है
    संसार से पहले पहल सूर्योदय का आश्चर्य
    उसकी पलकों के नीचे अभी तक ठहरा हुआ है
    (अंत)…
    उसे देखना
    इतने कुछ को पहली बार होते देखना है ‘’
    अशोक जी की कविताओं में ऐसा कोई आग्रह या जिजीविषा दिखाई नहीं देती जहाँ वो ज़िंदगी को एक बार फिर जिए जाने की आजादी चाहती हों |ये सुबूत उनकी इन ताज़ी लिखी कविताओं में दिखाई देता है |उनकी कवितायेँ अपने युग, परिवेश ,चलन आयुगत ,परिस्थितिगत ,राजनैतिक ,सामजिक आदि स्थितियों को ज़ाहिर करती ज़रूर चलती हैं मलाल भी लेकिन कहीं भी अतिरंजित नहीं होतीं अपनी पहले लिखी गई कविताओं से ये कवितायेँ तुलनात्मक रूप से एक लंबे अंतराल के बीच की ज़द्दोजहद और उन अनुभूतियों का प्रकटीकरण करती दिखाई देती हैं जो कवि के अब तक के जीवन का उपसंहार हैं | कहीं ना कहीं इन कविताओं में एक विवशता और अध्यात्म का मिला जुला अक्स दिखाई देता है |जैसे ये कविता …
    शाम की आखिरी ट्रेनों के बाद
    सुनसान पड़े प्लेटफॉर्म पर
    हम खड़े रहते हैं
    बिना जाने कि अब रैनबसेरा कहां होगा?
    सब कुछ बीत जाता है—
    सुनसान भी, शाम भी, रैनबसेरा भी.
    यदि कहा जाये कि ना सिर्फ कविता बल्कि साहित्य की अन्य कोई भी विधा खुद को रचनाकार की उम्र में जीती है तो गलत नहीं होगा |उम्र के पड़ाव जैसे जैसे बढते हैं कविता एक तरफ परिपक्व होती है और दूसरी ओर उतनी ही अंतर्मुखी |जैसे सुप्रसिद्ध रचनाकार निर्मल वर्मा की कहानियां प्रेम कहानियों से शुरू हो अंत में आध्यात्म की ओर मुड गई थीं ये एक सहज परिपक्व और स्वाभाविक स्थिति है |
    लोकप्रिय लेखक ना सिर्फ प्रायः अंतर्मुखी रहे हैं बल्कि ये उनसे अलग भी रहे हैं जो भीड़ के द्वारा चलाये जाते हैं स्वयं चलने का माद्दा नहीं रखते |

    ‘’उन्हें पता है फिर भी
    जिंदगी में कुछ है
    जो न देखा जा सकता है, न सुना!
    न किया जा सकता है, न कहा!!
    कम है और कितना ज्यादा है!!!
    ये कविता उनके अनुभवों और अनुभूतियों का निचोड़ है |मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए बाध्य है शैलेश मटियानी जी ने एक जगह लिखा है ‘’कविता अपने जीवन में अनुभव किये हुए को अपनी भाषा में उतर पाने का संघर्ष है और इस संघर्ष में चूक जाना ही शायद अपने मनुष्य होने में भी चूक जाना है और लेखक होने में भी |’

  13. This comment has been removed by the author.

  14. बहुत अच्‍छी कविताएं।

  15. आपकी चिंता वाज़िब है…!!!

  16. ओम जी आपका कहना बिल्कुल सही है- लगता है कि हम किसी साफ सुथरी कविता की कालोनी से गुजर रहे हैं जहॉं की आबोहवा हमारे निर्मल चित्‍त को एक नई आनुभूतिक बयार से भर रही है। सहजता और सरलता में सघनता की कवितायें हैं ये..! सुखद है इनसे गुजरना !

  17. कविता सब कुछ के बीतने पर
    अविरल विलाप है—
    पर जो हँस-खेल कर
    अपने दिन बिताना चाहते हैं
    वे क्योंकर इस विलाप पर ध्यान दें.
    ,…बेहद साफ़ सुथरी कविताये मुग्ध करती है अशोकजी और जानकीपूल का आभार,..।

  18. अरसे बाद अशोक वाजपेयी की कविताओं से गुजरना हुआ। वे गत दिनो नान्‍त की यात्रा पर थे। जाहिर है ये कविताऍं इस यात्रा प्रवास का सुखद परिणाम है। जो भी हो, इन्‍हे पढुते हुए लगता है कि हम किसी साफ सुथरी कविता की कालोनी से गुजर रहे हैं जहॉं की आबोहवा हमारे निर्मल चित्‍त को एक नई आनुभूतिक बयार से भर रही है। उनकी दूसरी ही कविता में यह कहना कि ' मैंने कविता से पूछा तो उसने कहा:
    तुम्हारी दुनिया में
    अब थोड़ी सी रौशनी, बहुत सारे अँधेरे
    और थोड़े से विलाप के अलावा
    अब बचा क्या है.
    —कविता के सामने खड़े संकट का प्रत्‍याख्‍यान है। यह वाकई ऐसा ही दौर है जब खाकर वे सो रहे हैं और जाग कर हम रो रहे हैं। जागने की सामूहिकता खत्‍म हो चुकी है। सोते हुओं को एक चौकीदार की जरूरत है आज जो रह रह कर यह हॉंक लगाता फिरे –जागते रहो। क्‍या सोते हुए समाज को कविता जगा सकती है। यह यह आवाज भी अब बेअसर हो चुकी है। पर जो समाज जागता हुआ भी सोता हुआ-सा लगे उसे कोई कैसे जगा सकता है। कहने में संकोच नहीं कि आज
    ऐसा ही समय है जब हम सभी अपने अपने उत्‍तरदायित्‍वों से विरत हैं। अपने सपनों में दुस्‍वप्‍नों से मुठभेड़ करते हुए एक चीत्‍कार के साथ सुबह का आवाहन करते हुए।
    अशोक वाजपेयी ने इस रूपक को अपनी कविताओं में सहेजा है और उस निरुपायता को चिह्नित किया है जो हमारे समाज का स्‍थायी भाव बनता जा रहा है। ये पंक्‍तियॉ वास्‍तव में इस समय का रूपक हैं:
    वह जो देख रहा है, कितना कम देख रहा है!
    वह जो सुन रहा है, कितना कम सुन रहा है!
    वह जो कर रहा है, कितना कम कर रहा है!
    वह जो कह रहा है, कितना कम कह रहा है!

    इस कितने कम से संतोष करते हुए आखिर हम एक बेहतर समाज कैसे बना सकते हैं।

    कविता के परिदृश्‍य में अशोक जी की इन कविताओं का हम हार्दिक स्‍वागत करते हैं। कृष्णमोहन झा जी, अज्ञेय की इतनी उपेक्षा के बावजूद गये दिनों वे हमारे लिए किंचित और ही प्रासंगिक हुए हैं। वे ऐसे कवि हैं जिन्‍हें हम ब्रेख्‍त, नेरूदा,ईलियट, मोंताले और क्‍वेसी ब्रेव के सम्‍मुख रख सकते हैं। उनके स्‍वर में सनातनता का सौंदर्य है वह भले ही आज के कवियों को काम्‍य न हो।

  19. अशोक जी की कविताओं की स्वच्छता,ताज़गी और पारदर्शिता के क्या कहने!जो शब्द कहीं और खोखले, निरर्थक और मृत लगते हैं,वे अशोक जी की कविताओं में पुनर्जन्म लेते हैं। एक समय अज्ञेय के साथ हमारे साहित्यकारों ने जैसा सलूक किया था वैसा ही व्यवहार वे आज अशोक वाजपेयी के साथ कर रहे हैं।पता नहीं, एक अरसे के बाद समकालीन हिन्दी कविता का इतिहास ट्रैजिडी बनना पसंद करेगा या फार्स बनना।

  20. '' सब कुछ बीत जाता है—
    सुनसान भी, शाम भी, रैनबसेरा भी.''… मैं इसे अंत की शुरुआत नहीं शुरुआत का अंत पढ़ रहा हूँ.. अमेजिंग !

    कितनी सहज..कितनी आसान..हर बात [शास्त्र,शिल्प,बिम्ब] से कितनी मुक्त कवितायें.. पढने का सुख दिलाती कवितायें.. स्वागत है अशोक वाजपेयी जी का जानकीपुल पर.. शुक्रिया जानकीपुल

  21. bahut sunder kaviyaye …

  22. शुभ प्रभात सी कविताएँ..जीवन के स्वाद की शुरुआत से सांझ के नमकीन तक जाती हुई ..शुक्रिया जानकीपुल .

  23. "दुनिया इतनी भर बची है
    जितनी एक कविता में आया जाए.

    दुनिया इतनी भर है अब
    जितनी एक उपन्यास में समा जाए.

    दुनिया इतनी भर बाकी है
    जितनी एक बच्चे की किलकारी में विहँस सके."…..लाजवाब !!! 'कभी कभार' जानकी पुल पर बहुत अनमोल मिल जाता है..!!! प्रभात जी आभार आपका !

  24. kavitaayen padhkar subah ka nasta huaa

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