हिंदी के वरिष्ठ कवि उमेश चौहान का काव्य संग्रह आया है ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’. प्रस्तुत है उसी संग्रह से कुछ चुनी हुई कविताएँ. संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से आया है- जानकी पुल.
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1.
१.
मौन
कौन सा संकोच या स्वार्थ
भय अथवा भ्रम
रखता है मौन हमें
अपनी आँखों के सामने ही
अपना सब कुछ लुटता हुआ देखकर भी!
ऐसा क्या है जो
जमा देता है बर्फ सा
हमारे खौलते हुए खून को!
कैसी है यह दुर्नियति
जो मजबूर कर देती है हमें
किसी अंधे की तरह
बंद रखने को अपनी आँखें
उनके सामने ही
सारी अनैतिकता का
नंगा नाच होते हुए भी!
कहाँ से उपज रही है यह जड़ता!
कहाँ से आकर फैल गया है
चारों ओर यह अंधकार!
क्यों उल्का-पिंड सा जल कर
विलीन होता जा रहा हूँ मैं
आसमान के किसी अदृश्य कोने में
धरती पर सशरीर टकराकर
कुछ बित्ता ही सही, उसके सीने में धंस कर
अपने अस्तित्व का तनिक भी अहसास कराए बिना!
जो मजबूर कर देती है हमें
किसी अंधे की तरह
बंद रखने को अपनी आँखें
उनके सामने ही
सारी अनैतिकता का
नंगा नाच होते हुए भी!
कहाँ से आकर फैल गया है
चारों ओर यह अंधकार!
विलीन होता जा रहा हूँ मैं
आसमान के किसी अदृश्य कोने में
धरती पर सशरीर टकराकर
कुछ बित्ता ही सही, उसके सीने में धंस कर
अपने अस्तित्व का तनिक भी अहसास कराए बिना!
२.
वे शक्ति-केन्द्र नहीं
वे शक्ति के केन्द्र में तो हैं
लेकिन शक्ति का केन्द्र नहीं हैं।
वे पीढ़ियों से हांसिए पर ही रहे हैं
तथा धीरे-धीरे ही परिधि से केन्द्र की ओर बढ़े हैं
अब वे क्रमशः केन्द्रीय शक्ति का हिस्सा बनने लगे हैं
लेकिन शायद कोई नहीं चाहता है कि
वे स्वायत्तताशाली बनें
इसीलिए वे शक्ति के केन्द्र तक पहुँच कर भी
शक्ति का केन्द्र नही बन पाए हैं अभी तक।
ऐसा नहीं है कि वे
शक्ति का केन्द्र बनना नहीं चाहते हैं
वे इसके लिए बहुत पहले से ही हाथ-पांव मारने लगे थे
वे अपने परिक्रमा-पथ की त्रिज्या को कम करने के लिए
धीरे-धीरे ही ताक़त लगा रहे थे
उन्हें किसी उल्का-पिंड की तरह टूट कर
नहीं पहुँचना था शक्ति के केन्द्र तक
ऐसे कि वहाँ तक पहुँच कर चमक ही खो जाय उनकी,
वे अपनी चमक को बरकरार रखते हुए
लगातार शक्ति का केन्द्र बनने की कोशिशें कर रहे थे।
३.
कचरा
बड़े जतन से खंगालता है वह
मुहल्ले के नुक्कड़ पर रखे कूड़ेदान को,
कूड़े की एक-एक थैली को खोल-खोलकर छाँटता है वह
खाकर फेंकी गई खाने की पैकिंगों में से
प्लास्टिक के डिब्बे, टूटे-फूटे खिलौने व इलेक्ट्रॉनिक के सामान,
भरता जाता है उन्हें वह लगातार
अपनी साइकिल के कैरियर पर बँधे एक बड़े से बोरे में,
उन डिब्बों से उठती सड़ियल सी बदबू से नहीं घिनाता वह जरा सा भी,
एक लंबे समय से यही बदबू ही तो सहारा बनी हुई है उसके जीविकोपार्जन का।
रोज़ सवेरे ही आ डटता है वह
उस कूड़ेदान के पास वाले पेड़ के नीचे,
अगल-बगल के घरों से जैसे-जैसे निकलकर आती हैं कचरे की थैलियाँ
वैसे-वैसे ही सक्रिय होता रहता है वह बार-बार,
नहीं तो ऊँघता रहता है वह उस पेड़ के तने से टिककर उदास सा,
कूड़ेदान तक पहुँचने वाले हर शख़्स को बड़ी हसरत से देखता है वह,
बड़े लोगों के घरों का कूड़ा लाने वाली नौकरानियों से
दुआ-सलाम भी कर लेता है वह कभी-कभी,
लेकिन सामान्यतः गृहिणियों व बहू-बेटियों के स्वयं उधर आने पर
वह दूर से ही ताकता रहता है चुप-चाप उन्हें
पानी की धार में ऊपर चढ़ती मछली को निर्निमेष ताकते बगुले की तरह
और उनके चले जाने के बाद ही लपकता है वह उस कूड़ेदान की ओर
उनकी लाई हुई कचरे की एक-एक थैली को खंगालने के लिए।
उसे नहीं पता कि क्यों समा गई है उसकी ज़िन्दगी इन कूड़ेदानों में,
उसने जबसे होश सँभाला है तब से यही कचरा ही उसकी रोटी का सहारा है,
क्षय की रोगी माँ की दवाओं से लेकर अपाहिज़ बाप की दारू की बोतल तक
सभी कुछ निर्भर है मुहल्ले के कूड़ेदानों से बीने गए इसी कचरे पर ही,
वह शुक्र-गुज़ार है ऐसे इस वक़्त का
जहाँ चारों तरफ नित्य ही पैदा होता है ऐसा ढेर सारा कचरा
जिसे मुफ़्त में एकत्र कर बेचा जा सकता है
बाज़ार में दोबारा इस्तेमाल के लिए,
वह यही मनाता है ईश्वर से कि कभी ऐसा दिन न आए
जब बाज़ार शहर से कचरा बीनने की भी कीमत तय कर दे
और वह अपनी कचरानुमा ज़िन्दगी की अनिवार्यता बने इस कचरे को
साइकिल पर टंगे अपने बदबूदार बोरे में भरकर
क़िस्मत के उन सौदागरों तक ले जाने को भी तरस जाए।
४.
बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया से गुजरती लड़की
बेटी से बहू बनने की प्रक्रिया में
कैसे–कैसे मानसिक झंझावातों से
गुजरती है लड़की। अपनों से एकाएक कटकर अलग होती,
कटने की उस तीखी पीड़ा को
दाम्पत्य–बंधन के अनुष्ठानों में संलग्न हो
शिव के गरल–पान से भी ज्यादा सहजता से
आत्मसात करने का प्रयत्न करती,
लड़की वैसे ही विदा होती है
मां–बाप की ड्योढ़ी से
जैसे आकाश का कोई उन्मुक्त पंछी
उड़कर समाने जा रहा हो किसी अपरिचित पिंजड़े में
अपने नवेले जीवन–साथी के पंख से पंख मिलाता
किसी नूतन स्वप्नालोक की तलाश में। अपने बचपन की समस्त स्वाभाविकता
अपने किशोरपन की सारी चंचलता
अपने परिवेश में संचित समूची भावुकता
कैसे–कैसे मानसिक झंझावातों से
गुजरती है लड़की। अपनों से एकाएक कटकर अलग होती,
कटने की उस तीखी पीड़ा को
दाम्पत्य–बंधन के अनुष्ठानों में संलग्न हो
शिव के गरल–पान से भी ज्यादा सहजता से
आत्मसात करने का प्रयत्न करती,
लड़की वैसे ही विदा होती है
मां–बाप की ड्योढ़ी से
जैसे आकाश का कोई उन्मुक्त पंछी
उड़कर समाने जा रहा हो किसी अपरिचित पिंजड़े में
अपने नवेले जीवन–साथी के पंख से पंख मिलाता
किसी नूतन स्वप्नालोक की तलाश में। अपने बचपन की समस्त स्वाभाविकता
अपने किशोरपन की सारी चंचलता
अपने परिवेश में संचित समूची भावुकता
अवध का होने के नाते अवधी में लिखी यह कविता और फिर आज के परिदृश्य में मौजूँ इस रचना ने वाकई दिल छू लिया। कितना मुश्किल समय है यह किसान के लिए। उमेश चौहान साब को दिल से बधाई।
उमेश जी को संग्रह के लियें हार्दिक बधाई ..
रचनाएं अच्छी हैं …