युवा लेखक आशुतोष भारद्वाज हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य पर- जानकी पुल.
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माहौल इस कदर खौफनाक हिंदी में क़िबला कि कहीं शिरकत करें तो पहले मेजबान से सभी संभावित-असंभावित प्रतिभागियों-श्रोताओं की सूची और उनकी विस्तृत जन्मकुंडली मंगा लें, जन्मोपरांत उनकी सभी गतिविधियों का बारीकान्वेषण समेत. नहीं तो आपके बगल में कोई अनजान लेखक-कवि बैठा होगा या आप समारोह के बाद खाने पर किसी श्रोता से बतिया रहे होंगे, आपके अनजाने वह लेखक या श्रोता किसी कुख्यात गैंग का सदस्य होगा, कोई आपकी उनके साथ तस्वीर खींच लेगा, आपको गैंग्रीन-ग्रस्त साबित कर देगा. मांगिये फिर आप आजीवन मुआफी, दीजिए भर भर पेटी अपनी मासूमियत के सबूत. कोई फर्क नहीं पड़ेगा आप गुनाहगार साबित कर दिए जायेंगे.
जुर्म की इस कदर कट्टर पुलिसियाना तफ्तीश और फैसलापरस्त उतावली बीहड़ के थानों या काफ्का के पन्नों में भी नहीं मिलेगी. दिलचस्प कि फरमानबाजी की तलवार एक ऐसी प्रजाति, लेखक, का वाशिंदा भांजता है जिसे सर्वाधिक संवेदनशील, सहिष्णु माना जाता है. यह लेखक है या सर कलम करने को उतारू जल्लाद? फरमानबाजी का इतिहास यही बतलाता है. एक मामूली सी कहीं शिरकत और पूरा चरित्र-जीवन स्वाहा.
इसकी एक वजह अगर कुछ लोगों की टंगड़ी चलाती डाह है जो माहौल को मरियल और मुरदार बनाती है तो दूसरी सीमा-पार व्यापार उर्फ क्रॉस-बोर्डर मूवमेंट की प्रक्रिया, मानदंडों पर आम सहमती नहीं है कि किस हद तलक किसी विरोधी/दागदार मंच पर भागेदारी जायज है, किस कदर ‘दागी’ व्यक्ति को अपने मंच पर बुलाया जा सकता है, न्यूट्रल मंच पर आसीन किसी विरोधी से या विरोधी मंच से खुद विरोधी के ही द्वारा कोई सम्मान/पुरस्कार ग्रहण करना कितना उपयुक्त है. पत्रिका के लिए विज्ञापन और प्रकाशक. और अंतिम, खुद लेखक की नौकरी.
वाम-दक्षिण सीमा-पार व्यापार की हालिया कुछ चर्चित घटनाएँ मसले को स्पष्ट करेंगी. पहला, मंगलेश डबराल का एक विरोधी मंच से पर्चा पाठ. वकीलाना-कातिलाना अंदाज में कईयों ने उनसे स्पष्टीकरण चाहा. लेकिन क्या मंगलेशजी का लेखक-जीवन कर्म इतना हल्का रहा है कि कहीं जा अपने विचार फकत व्यक्त करने के लिए जवाबदेही हो? क्या वे अपने विरोधी से उपकृत हुए, उससे कुछ उचित-अनुचित हासिल किया? अपना पर्चा पढ़ा, लौट आये. बस. साठ वर्ष पूरे कर चुके एक निष्ठावान कवि से ऐसे प्रश्न खुद प्रश्नकर्ता की मंशा और मसलों पर उसकी नासमझी बतलाते हैं. उन्होंने फिर भी विनम्र कहा कि चूक हुई उनसे. लेकिन माफ़ी क्यूँ मांगें वे? चूक कहाँ और क्या थी? क्या लेखक को इतना भी अधिकार नहीं कि वह अपनी बात अपने विरोधी को कह सके? उसके शब्द सिर्फ उसके अनुयायियों के लिए क्या?
दूसरा, कान्हा शिविर. तीसेक लेखकों के बीच एक संयोगिक उपस्थिति. मंगलेशजी को तो भी मालूम था, यहाँ किसी को इस उपस्थिति की पहचान तलक नहीं थी. क्या इत्ते सारे लेखकों का बायोडाटा इतना पोला-पिलपिला था कि मनसे या जनसे या रामसे का कोई लेखक उन पर पौंछा मार चला जाता. फिर भी बवाल मचाया गया. फिर से माफियाँ, एकदम गैरजरूरी, आयीं. लेखकों को एकदम तन, अकड कर खड़ा रहना था — हाँ, हम थे वहाँ.‘वह’ भी था. लेकिन हमें नहीं मालूम था, और मालूम होता तो भी क्या? बोलो क्या करोगे?
तीसरा, रायपुर में प्रेमचंद सम्मान. विधान सभा अध्यक्ष और एक भाजपाई मंत्री ने मिलकर उदय प्रकाश को हाल ही सम्मानित किया. दोनों ख्यातिमान्य जन प्रेमचंद सम्मान उदयजी को दे रहे थे, और अंत में प्रार्थना के लेखक और दोनों नेताओं के ललाट का लाल तिलक उस सुबह अखबार की फोटू से बाहर फूट रहा था. उदयजी के साथ कुछ वर्ष पहले भी गोरखपुर में ऐसा ही हुआ था, तब उन्होंने अज्ञानता जतलाते हुए पारिवारिक समारोह में विरोधी की सांयोगिक उपस्थिति को कहा था. इस मर्तबा लेकिन आमंत्रण पत्र में भी स्पष्ट उल्लेख था —- उदयजी, मंत्री और विधान सभा अध्यक्ष की फोटू परिचय समेत छपी थी.
चौथा, पांचवा, दो संस्थाओं के बहिष्कार की कुछ लेखकों द्वारा अपील. भारत भवन भाजपा की सांस्कृतिक नीति का रूपक है जिसे सरकार अपने हितों के लिए साध रही है, यह लेखक कहते हैं; तो वर्धा विद्यालय उस कुलपति का आसन है जिन्हें उन्हीं के दलित छात्र प्रमाण दे जातिवादी साबित करते हैं. सीएजी रिपोर्ट में करोड़ों का गोलमाल, अनुसूचित जाति के छात्रों हेतु आये पैसे का दुरूपयोग, अदालत के आदेश पर फर्जी प्रमाण पत्र जारी करने के आरोप में कुलपति पर दर्ज हुई एफआईआर, स्त्री लेखिकाओं के आरोप अलग हैं.
छठा, कुछ साल पहले हिंसा की प्रकृति पर हंस के आयोजन में छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस प्रमुख की शिरकत का घनघोर विरोध. राजेंद्र यादवजी के साथी उनसे खूब झगड़े थे उन्होंने क्यों यह न्योता दिया, हंस का धवल मंच क्यों किसी भाजपाई राज्य का पुलिसवाला मैला करे. लेकिन क्या हंस की वैचारिक नींव इतनी मरियल थी कि उसे कोई खाकी उपस्थिति नेस्तान्बूद कर जाती? और हिंसा पर क्या सिर्फ वामपंथी ही बात करेंगे, ज्यादतियों के लिए पुलिस का विरोध करो लेकिन यह सिपाही बस्तर के बीहड़ में मृत्यु के मुहाने पर तैनात है, इस लड़ाई का दूसरा पक्ष है, उसकी आवाज तो सुन लो. पुलिस प्रमुख को न्योता दे हंस उपकृत हो रहा था न उन्हें कोई उचित-अनुचित लाभ, सम्मान दे रहा था. सिर्फ अपनी बात रखने की जगह.
यह घटनाएं विभिन्न मंचों, पत्रिकाओं में भागीदारी, उनसे उपकृत होने इत्यादि के शायद सभी पहलुओं को समेट लेती हैं. भले मानक अभी या कभी तय न हों, एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इतनी जगह होनी चाहिए कि पहले, दूसरे और छठे उदाहरण में भागीदार/आयोजक लेखक को कतई दोषी न माना जाये, इतना अधिकार लेखक को देना ही होगा कि वह अपने विलोम के घर जा भी अपनी बात कह सके, उसे अपने घर बुला उसकी बात सुन सके. तीसरी घटना लेकिन मंचीय साझेदारी की नहीं थी, उदय पर्चा पढ़ने नहीं पुरस्कार लेने गए थे. उनके घनघोर वैचारिक-जैविक विरोधी (यहाँ मान लिया गया है कि उदय प्रकाश का दक्षिणपंथी भाजपा से अनिवार्य द्वन्द का सम्बन्ध है, अगर ऐसा नहीं है तो फिर इस उदहारण के कोई मायने नहीं) उन्हें सम्मानित कर रहे थे, वह भी ऐसे कथाकार के नाम पर स्थापित सम्मान जो सम्मानदाताओं की विचारधारा का धुर विरोधी रहा था. खुद पुरस्कृत होते लेखक ने उस कथाकार और उसकी दिखलाई प्रगतिशीलता को अपना अंतिम आदर्श कहा था. यानी अखिल भारतीय प्रेमचंद सम्मान एक शक्तिशाली, सत्ताधारी, असाधारण, उत्पीडक भाजपा मंत्री द्वारा एक “निर्बल, बेरोज़गार, सत्ताहीन, साधारण, उत्पीड़ित नागरिक और संपूर्ण अर्थों में हिंदी के एक स्वतंत्र लेखक” (उन ढेर विशेषणों में से कुछ जो उदय प्रकाश ने गोरखपुर घटना के बाद अपने ब्लॉग पर लिखे वक्तव्य में अपने लिए प्रयुक्त किये हैं) को दिया जा रहा था.
इस सम्मान को कोई चाहे तो उदय द्वारा किया समझौता कह सकता है कि साहित्यिक पुरस्कार किसी भ्रष्ट ( भाजपा के इन दोनों महानुभावों का ट्रैक रेकोर्ड फुर्सत में कभी फिर!) और अपने धुर विरोधी नेता के हाथों नहीं लेना चाहिए, तो यह भी कि आखिर भाजपा नेताओं ने भी उनके रचनाकर्म को स्वीकारा और यह असल में लेखक के विचारों का प्रसार ही है.
याद लेकिन यह भी रखिये कि जब कुछ साल पहले मुख्य न्यायाधीश ने गुजरात के मुख्यमंत्री के साथ मंच साझा किया था तो कई लेखकों ने हल्ला काटा था.
चौथे, पांचवे उदहारण में कुछ लेखक बहिष्कार की मांग करते हैं. कुछ अन्य लेखक इस मांग को बेवजह मान इन संस्थाओं से जुड़े रहे हैं, इनके कार्यक्रमों में शिरकत करते, इनसे उपकृत होते रहे हैं. बहिष्कार फ़तवे की तरह आदेशित नहीं किया जा सकता, किसी लेखक को किसी संस्था से हटने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर लेखक होना नैतिक, सामाजिक और कहीं ज्यादा एक रूहानी दायित्व है, तो कहीं कोई सीमारेखा खींचनी ही होगी – अपने नहीं तो अपनी भाषा के सम्मान के लिए. यहाँ यह अनुमानित है कि किसी शैक्षणिक-साहित्यिक संस्था के बहिष्कार की अपील विपक्ष द्वारा ससंद के बहिष्कार की मांग सरीखी राजनीति-प्रेरक नहीं है, भाषा के प्रति सच्ची निष्ठा से संचालित है. तो फिर हमें उन प्रमाणों को परखना होगा जो बहिष्कार मांगते ये लेखक देते हैं. क्या भारत भवन और वर्धा के विरुद्ध दिए गए तथ्य सामूहिक बहिष्कार के लिए काफी हैं, या यह प्रमाण कम रैटोरिक अधिक है? या भले ही अकाट्य सबूत हों, जब तलक हम सीधे तौर पर प्रभावित न हों, हम उपकृत होते चलें हमें क्या फिक्र?
इन सबसे परे एक मसला और. लगभग सभी पत्रिकाओं में सरकारी और निजी विज्ञापन छपते हैं. कई लेखक निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करते हैं, कुछ सरकारी विभागों में हैं. इनमें से अनेक लेखक घोषित तौर पर निजी कंपनियों और सरकार की मुखालफत करते हैं. क्या विज्ञापन लेना भर गुनाह है, या उस विज्ञापन की शर्तों में खुद को बाँध लेना?
कई लेखक बंधु ऐसे अखबार-पत्रिकाओं में हैं, जिनके मालिक पत्रकारिता और साहित्य का श्राद्ध अरसा पहले कर दुनिया भर का सामान बनाने और बेचने की दुकान खोल चुके हैं. इनके लिए अखबार महज एक साधन है अपनी दुकान चलाते रहने का. क्या इन सभी लेखकों को तुरंत इस्तीफ़ा देना चाहिए, नहीं तो अपने मालिकों का तख्तापलट करना चाहिए?
सीमा-पार व्यापार और उस पर भर्त्स्नाएं जाहिर है इतनी सरल नहीं है. पेंच और पहेलियाँ कई हैं. लेकिन हाँ, सारी चीजें साफ़-सार्वजनिक हैं. भागीदारी में मानक तय करने के लिए हमें किसी से सलाह की जरूरत नहीं. अगर खुद अपने भीतर टटोलें तो उत्तर मिल जायेगा कौन सा मंच बहिष्कारनीय है, कहाँ भागीदारी पर आपत्ति महज एक शोर-शोशा. समस्या लेकिन यही — खुद अपने गले में घंटी कौन बांधेगा? खुद से कहाँ हम प्रश्न करते हैं,प्रश्नाकुलता और फैस्लाकुलता तो दूसरों पर केंद्रित. जब डाह और टंगड़ीबाजी और मौकापरस्ती सवाल के मरकज में हो जनाब तो साहित्य और संवेदनाएं पिछले दरवज्जे से बाहर धकेल दिए जाते हैं. इतना तो लेकिन न्यूनतम होना ही चाहिए जो इंसान खुद सीमा-पार व्यापार में तल्लीन हो वह दूसरे पर टिपण्णी करना, खुद को निर्बल, बेरोज़गार, सत्ताहीन, स्वतंत्र विशेषण देना बंद करे.
नहीं तो डाह करो, टंगड़ी मारो, जल्दी जल्दी डाह करो, याद लेकिन रखो तुम पर निगाह रखी जा रही है.
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