Home / ब्लॉग / उनके पास ज्‍यादा काम नहीं है तभी तो लिखते हैं!

उनके पास ज्‍यादा काम नहीं है तभी तो लिखते हैं!

हमारे समाज, खासकर हिंदी समाज में लेखक नाम की संज्ञा अब भी कोई खास प्रभाव नहीं पैदा कर पाती, उसे फालतू आदमी समझा जाता है. मनोहर श्याम जोशी ने एक प्रसंग का उल्लेख किया है कि एक बार उनके घर में अज्ञेय बैठे हुए थे कि तभी उनके एक रिश्तेदार उनसे मिलने आए. उन्होंने अपने रिश्तेदार को अज्ञेय से मिलवाते हुए कहा कि ये अज्ञेय हैं- बहुत बड़े लेखक. रिश्तेदार ने छूटते ही पूछा, लेखक तो हैं लेकिन करते क्या हैं! वरिष्ठ लेखक, शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा के इस लेख को पढते हुए मुझे यह प्रसंग याद आया गया. प्रेमपाल शर्मा ने बड़ी सूक्ष्मता से लेखक होने की मुश्किल को दफ्तरी सन्दर्भ में बयान किया है. एक कड़वी सच्चाई को- प्रभात रंजन.
====================================== 
                                                 
शायद ही कोई लेखक ऐसा अभागा होगा जिसे उस तंत्र और उसके गुरगों ने उसके लेखन कार्यों की आड़ में थोड़ा-बहुत परेशान करने की कोशिश न की हो। उसकी बात मत करो उन्‍हें लिखने से फुरसत मिले तब न। अरे वे तो फाइलों पर भी कहानी गढ़ देते हैं। कभी यह भी कि अरे जरा बड़ा नोट लिखते जैसे बड़े-बड़े लेख, कहानियां लिखते हो। भाईजान! हमारी तरह काम करना पड़े तो सब लिखना पढ़ना भूल जाओगे । माता रानी की कसम! हम तो अखबार भी संडे को ही पढ़ पाते हैं । ये चंद वाक्‍य हैं जो दफ्तर के बाबू किसी लेखक सहकर्मी के बारे में गुप-चुप कहते हुए सुने जा सकते हैं।

आइये संडे के संडे अखबार पढ़ने वाले, हर नवरात्रि में माता रानी वैष्‍णो देवी और देश भर के तीर्थों की यात्रा सरकारी खाते में करने वालों की मेहनत का जायजा लेते हैं। अपने मुंह से अपनी अक्‍ल की प्रशंसा में हॉफते ये तथाकथित अफसर शायद ही कभी दफ्तर समय से पहुंचते हों। चपरासी को जरूर एक दिन भी लेट आने पर उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देते हैं। वे नौ बजे के दफ्तर में भले ही ग्‍यारह बजे पहुंचे चपरासी सुबह नौ बजे ही दरवाजे पर खड़ा मिलना चाहिये। क्‍यों ? अफसर के टिफिन और ब्रीफकेश को उनके कमरे तक ले जाने के लिये। अफसरी दफ्तर में प्रवेश करते ही शुरू हो जाती है। 

कितने बड़े-बड़े काम करने होते हैं मेरे इन सरकारी दोस्‍तों को क्‍या बतायें। अपने अधीनस्‍थों को अपनी उपस्थिति की मुनादी किसी-न-किसी बहाने करने के बाद शुरू होता है चाय का दौर। खास दोस्‍तों के साथ। शुरूआत कहीं से भी हो सकती है। रिलायंस का शेयर बढ़ेगा पार्टनर, ले डालो। कुछ टाटा के भी। मैंने दोनों की रिपोर्ट देख ली हैं। इन शेयरों पर अमेरिकी मंदी का असर नहीं पड़ेगा। ये तो सीधा-सीधा गोल्‍ड है।  श्री ग भी आ गये हैं लेकिन वे अपनी चिंता में डूबे हैं। यार मैंने आयोग को दो महीने पहले शिकायत की थी गुप्‍ता को उस सीट से हटाने की। अभी तक कुछ नहीं हुआ। ब ने रास्‍ता सुझाया। बॉस से कहिये। इनके पिता और आयोग के अध्‍यक्ष विधानसभा में साथ थे। कहो तो विधानसभा में प्रश्‍न करा दें। उनकी प्राइवेट सैक्रेटरी तो बॉस की खास दोस्‍त है। बॉस जिंदादिल है। हिम्‍मती भी। यार है तो पटाका। लेकिन बात आगे नहीं बढ़ रही। किसी दिन चलते हैं। चलो तुम्‍हारे मामले के बहाने ही। बॉस खिलखिलाये। पिछली बार तो कार के मॉडल भी प्रगति मैदान में साथ-साथ देखे थे। मुझसे एक बार अमरनाथ यात्रा पर साथ जाने की कह रही थीं। द ने बताया। अरे बॉस का नम्‍बर दे दो। क्‍यों बॉस? दे दो। अमरनाथ क्‍यों मानसरोवर भी ले चलेंगे।

लंच क्‍लब में बातें पूरे शबाब पर हैं। आजकल तुम्‍हारी चमेली कहॉं गयी? उसके कपड़े तो तुम्‍हीं खरीदते हो। हा..हा..हा..। वे दफ्तर में लड़कियों, महिलाओं के अधोवस्‍त्रों,प्रेम-प्रसंगों, जाति, उपजाति की बाते करते रहें, ज्‍योतिषियों के साथ दिन भर बैठकर हाथ की लकीरों में प्रमोशन तलाशते रहें- यह सब कड़ी मेहनत के खाते में जायेगा। 
अचानक वे बात करते-करते चुप हो जाते हैं। यार! तुम लिख मत देना। क्‍यों? सच को लिखा नहीं जाना चाहिये। उनके चेहरे और पीले पड़ जाते हैं।
बातों का यही क्रम शाम देर तक चलेगा। यार घर जल्‍दी जाकर करें भी क्‍या? यहॉं चाय है, चपरासी है, ए.सी. है। एकाध फाइल भी निपटा देते हैं। लेट होगे तो घर पर भी रौब पड़ेगा। दफ्तर के बॉस, दोस्‍तों पर भी। प्रोमोशन या मलाईदार पोस्‍टों को दोस्‍तों के साथ झटकने, खाने के लिये। संसद का काम या दूसरी बड़ी जिम्‍मेदारी आये तो इन्‍हें फिर उसी लेखक की याद आती है। एक स्‍वर में सर ! उनके पास ज्‍यादा काम नहीं है तभी तो लिखते हैं। उन्‍हीं को दे दो थोड़ा व्‍यस्‍त भी रहेंगे। चलो यह भी मंजूर। कभी-कभी वह लेखक भी सांप की तरह रंग बदलता है। हरी घास में हरा तो पानी में पनियल। एक सीनियर बोले और क्‍या लिख रहे हो ? लेखक उसकी कुटिलता समझ गया। सर ! कभी लिखता था। अब तो बरसों से नहीं कुछ लिखा। इस सीट पर काम ही इतना है। सबक- नया लेखन न बॉस के सामने पड़े, न बाबू दोस्‍तों के। लेखक भरसक छिपाता है। झूठों, मक्‍कारों के साथ ऐसे ही निभा सकते हो।

ऐसे विघ्‍न संतोषी दफ्तर और बाहर भरे पड़े हैं । बेचारे को बख्‍शते साहित्‍यकार, लेखक भी नहीं हैं । कहीं अफसर-वफसर हैं तो लेखक भी बन गये । कुछ कविया लेते हैं । कुछ कवियों, कलाकारों ने ऐसा किया भी । दफ्तर ही नहीं गये और गये भी तो कविता पहले काम बाद में । लेकिन ऐसा कहां नहीं है ? विश्‍वविद्यालय से लेकर नौकरशाही तक।

लेखक को लगता है वह नितांत अकेला पड़ गया है । लेकिन वह लेखक ही क्‍या जो अकेला पड़ने से डर जाये । किसी ने ठीक ही तो कहा है दुनिया में सबसे ताकतवर वह है जो अकेला है । कैसी कही? 
प्रेमपाल शर्मा
96, कला विहार अपार्टमेंट,
मयूर विहार, फेज-1,
दिल्‍ली-91.
011-23383315 (कार्या.)
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

5 comments

  1. सर खूब कही आपने और बेहतरीन कही

  2. कैसी कही? क्‍या खुब कही प्रेमपाल शर्माजी……….इसके बावजूद भी आप इतना लिख पढ पा रहे है यह बहुत स्‍वागतयोग्‍य है. आपके इस लेख को पढकर मुझे श्रीलाल शुक्‍लजी का एक साक्षात्‍कार की याद आ रही है जिसमें उन्‍होंने कहा था कि किस तरह उनके उपर के अधिकारियों नें वर्षों तक रागदरबारी को प्रकाशित होने के राहों में नियमों का अडंगा लगाकर रोके रखा…..आप हमेशा अपने कलम के माध्‍यम से अपने परायों सबको आइना दिखाते रहते हैं यही कारण है आपके दोस्‍तों का दायरा इतना विस्‍तुत है क्‍या पता दुश्‍मनों का भी हो……

  3. I?ll right away grab your rss as I can not find your e-mail subscription link or e-newsletter service. Do you have any? Kindly let me know so that I could subscribe. Thanks.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *