Home / ब्लॉग / कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!!

कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!!

बांग्ला भाषा के प्रसिद्ध लेखक सुनील गंगोपाध्याय का निधन हो गया. अनेक विधाओं में २०० के करीब पुस्तकें लिखने वाले इस लेखक का पहला प्यार कविता थी. उनको श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ- जानकी पुल.
=============================

१.
ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!
ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!
तुम्हारे लिए प्रार्थना करता हू
चंचल सुख और समृद्धि की,
तुम अपने जीवन और जीवनयापन में मज़ाकिया बने रहना
तुम लाना आसमान से मुक्ति-फल —
जिसका रंग सुनहरा हो,
लाना — ख़ून से धुली हुई फ़सलें
पैरों-तले की ज़मीन से,
तुम लोग नदियों को रखना स्रोतस्विनी
कुल-प्लाविनी रखना नारियों को,
तुम्हारी संगिनियां हमारी नारियों की तरह
प्यार को पहचानने में भूल न करें,
उपद्रवों से मुक्त, खुले रहें तुम्हारे छापेख़ाने
तुम्हारे समय के लोग मात्र बेहतर स्वास्थ्य के लिए
उपवार किया करें माह में एक दिन,
तुम लोग पोंछ देना संख्याओं को
ताकि तुम्हें नहीं रखना पड़े बिजली का हिसाब
कोयले-जैसी काले रंग की चीज़
तुम सोने के कमरे में चर्चा में मत लाना
तुम्हारे घर में आए गुलाब-गंधमय शान्ति,
तुम लोग सारी रात घर के बाहर घूमो-फिरो। 
ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!
आत्म-प्रताड़नाहीन भाषा में पवित्र हों
तुम्हारे हृदय,
तुम लोग निष्पाप हवा में आचमन कर रमे रहो
कुंठाहीन सहवास में। 
तुम लोग पाताल-ट्रेन में बैठकर
नियमित रूप से
स्वर्ग आया-जाया करो।

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

2.
देखता हूं मृत्यु

मृत्यु के पास मैं नहीं गया था, एक बार भी
फिर भी वह क्यों छद्मवेश में
बार-बार दिखाई देती है!
क्या यह निमन्त्रण है…. क्या यह सामाजिक लघु-आवागमनर्षोर्षो
अकस्मात उसकी चिट्ठी मिलती है
अहंकार विनम्र हो जाता है
जैसे देखता हूं नदी किनारे एक स्त्री
बाल बिखरा कर खड़ी है
पहचान लिए जाते हैं शरीरी संकेत
वैसे ही हवा में उड़ती है नश्वरता
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा
जब भी कुछ सुन्दर देखता हूं
जैसे कि भोर की बारिश
अथवा बरामदे के लघु-पाप
अथवा स्नेह की तरह शब्दहीन फूल खिले रहते हैं
देखता हूं मृत्यु, देखता हूं वही चिट्ठी का लेखक है
अहंकार विनम्र हो जाता है
डर लगता है, छाती कंपती है
कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!!

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

3.

नारी अथवा घासफूल
मनोवेदना का रंग नीला है या कि बादामी
नदी किनारे आज खिले हैं घासफूल
पीले और सफ़ेद
क्या उनके पास भी है हृदय या स्वप्नों की वर्णच्छटा
एक दिन इस नदी के तट पर आकर ख़ुशी से उजला हो जाता हूं
और फिर कभी यहीं जो जाता हूं दुखी
मनहर मुख नीचा कर पूछता हूं
घासफूल, तुम क्या नारी की तरह
दु:ख देते हो
तुम्हीं प्रतीक हो आनन्द के भीर्षोर्षो

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी


कविता कोश से साभार 

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

9 comments

  1. मृत्यु के पास मैं नहीं गया था, एक बार भी
    फिर भी वह क्यों छद्मवेश में
    बार-बार दिखाई देती है!
    क्या यह निमन्त्रण है…. क्या यह सामाजिक लघु-आवागमनर्षोर्षो
    अकस्मात उसकी चिट्ठी मिलती है

    दुखद! हार्दिक शब्द सुमन!

  2. मुझे अब भी याद है बरसों फले पढ़ा हुआ उनकी एक पंक्ति : 'मैं चाहता हूँ मेरे शव्द अपने पैरों पर खड़े हों'.
    अभी हाल ही के दिनों में बेबजह ही उन्हें तस्लीमा नसरीन ने विवादों में घसीटा. उनका प्रतिउत्तर बहुत ही गंभीर और शालीन रहा.
    स्वतंत्र भारत के एक बड़े कवि नहीं रहे. उन्हें श्रधांजलि. मैं चाहता हूँ उनके शव्द अपने पैरों पर खड़े रहें

  3. ओह! श्रद्धांजलि!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *