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पालतू आदमी कुछ भी हो सकता है लेखक नहीं!

28 अक्‍तूबर के जनसत्‍ता में अशोक वाजपेयी जी ने सार्वजनिक रूप से साहित्‍य निधि बनाने की घोषणा की है। वे नाम भी गिनाये हैं जो उनके साथ हैं। लेकिन सत्‍ता, प्रतिष्‍ठान, पीठ, पुरस्‍कार से इतर या शामिल ब‍हुसंख्‍यक लेखकों का ऐसे कुबेर कोष के प्रति क्‍या नजरिया है इस बहस को आमंत्रित करती लेखक-शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा की टिप्‍पणी- जानकी पुल। 

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सुना है जब से साहित्‍य कलानिधि उर्फ लेखक राहत कोष बनाने की बात शुरु हुई है कई ठीकठाक, चलते-फिरते लेखक कराह कर चलने लगे हैं। किसी का गठिया सामने आ गया है तो किसी की आंखों और घुटनों का ऑपरेशन होना है। कुछ लोग अपनी गंभीर बीमारियों को जिन्‍ना की बीमारी की तरह गोपनीय बनाये हुए हैं। लेखक बनने की खातिर कई कवि दर्जन भर कविता संग्रहों को लेकर प्रकाशकों की तलाश में घूम रहे हैं। उन्‍हें उम्‍मीद है कि जितने प्रकाशक को देने पड़ेंगे उससे ज्यादा तो लेखक राहत कोष से मिल जाएंगे। लेखक कह रहा है आखिर राहत कोष में ज्यादातर पैसा है तो जनता का ही यानी सरकार का तो यदि तुम्हें कहानीकार के नाते मिल सकता है तो मुझे गजल, गीत, शायरी के लिए क्यों नहीं? मैंने तो ऐसे-ऐसे मंचों पर कविता पढ़ी हैं जहां हजारों श्रोता बैठे होते हैं। आप कह लें तुकबंदी। आपकी उस गद्यकविता से तो अच्छी हैं जिन्हें चार लोग भी नहीं सुनते और याद रखना कवि और कविता की कमजोरी माना जाता है।

लेखक राहत कोष का चैयरमेन अपने बाल नोंच रहा है। आखिर किस घड़ी और किस की सलाह पर मैंने यह कुर्सी संभाली? जिसे देखो वही लेखक, कलाकार। बारात के बैंड में गाने वाले, बजाने वाले तक का आवेदन स्‍थानीय संसद सदस्‍य और मुख्‍य मंत्री की सिफारिशी चिट्ठी के साथ आया है। मैंने तो सोचा था कि लेखक माने जिन्हें मैंने भारत भवन बुलाया या जिन्‍हें कुछ आजा, राजा पुरस्‍कार दिये या बहुत से बहुत वे जिन पत्रिकाओं में मैं संपादक था और वहां इनकी रचनाएं छपीं। कुछ और खींच-खांचकर साहित्‍य अकादमी उत्तर-प्रदेश, बिहार अकादमी से पुरस्कृत हुए लेखक, नौकरशाह आदि।

      लेखक राहत कोष की नेक नीयती पर कोई शक नहीं कर सकता। विशेषकर जब दो अक्‍तूबर गांधी जयंती के दिन ऐसा फैसला किया गया हो। लेकिन तुरंत सुझाव के खिलाफ भी सिर के सारे बाल खड़े हो जाते हैं। क्‍या किसी लेखक, कलाकार की बीमारी ही आपको दु:खी करती है? क्‍या लेखक के कराहने और हजार दु:ख से तड़पते आम आदमी की चीख में कोई अंतर होता है? दिल्‍ली शहर के किसी भी सरकारी अस्‍पताल में चले जाइये। अंदर एक-एक बेड पर तीन-तीन मरीज हैं तो सर्दियों में मरीज फर्श पर भी पड़े हैं और उनके नाते-रिश्‍तेदार छत्‍तीसगढ़, बिहार, बुन्‍देलखंड से आए हुए आसपास की सड़कों पर। आजादी के हर दशक के बाद यह भीड़ दिल्‍ली में भी इतनी बढ़ गई है कि शायद सरकार ने भी हाथ खड़े कर लिये हैं। और आप इन अस्‍पतालों से रियायत मांग रहे हैं। अब लेखक इस कोष के चेयरमैन, सचिव द्वारा हस्‍ताक्षरित वी.पी.एल. नुमा कार्ड लेकर अस्‍पताल जाया करेंगे। आंकड़े बताते हैं कि सरकारी अस्‍पतालों में साठ से सत्‍तर प्रतिशत डॉक्‍टरों के पद खाली हैं। डॉक्‍टर खुद इन अस्‍पतालों में नौकरी करने से डरने लगे हैं। दिन में सैंकड़ों मरीजों को देखने, आपरेशन करने के बाद कब किसका गुंडा रिश्‍तेदार उनका कालर पकड़कर तमाचा जड़ दें, कब प्रैस कौन-सा आरोप लगा दे,नहीं कह सकते।

      लेखक और अनुभवी प्रशासक होने के नाते क्‍या अशोक वाजपेयी जी और दूसरे सम्‍मानीय वरिष्‍ठ लेखकों की निगाहें अपनी बिरादरी के लेखकों से परे जाकर इन मरीजों की तरफ भी कभी गई? यदि जा‍तीं तो वे पिछले कई वर्षों से फ्रांस, इंग्‍लैंड, अमेरिका की दुहाई देते हुए हिन्‍दुस्‍तान के कोने-कोने में कलादीर्घाएं बनाने की वकालत नहीं करते। एम्‍स से लेकर दिल्‍ली के किसी भी अस्‍पताल की खस्‍ता हालत पर शायद ही कोई शब्‍द इन्‍होंने जाया किए हों। निश्चित रूप से वे भी कहीं महंगे निजी अस्‍पतालों में देश और विदेश जाते होंगे जहां सत्‍ता के शीर्ष पर बैठे हुए मंत्री से लेकर नौकरशाह तक जाते रहे हैं।  

      हिंदी लेखक और लेखन से जुड़ा हुआ एक और पक्ष- क्‍या कभी इन महान लेखकों ने यह भी देखा है कि हिंदी दिल्‍ली के स्‍कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई भी जा रही है? दिल्‍ली के नब्‍बे प्रतिशत से ज्‍यादा निजी स्‍कूल पहली कक्षा से ही अंग्रेजी माध्‍यम में पढ़ाने का ढोंग करके बड़ी रकम  खींच रहे हैं। यहां तक कि बच्‍चों की कापियों में यह लिख कर भेजते हैं कि घर पर हिंदी में बात न करें। और दिल्‍ली में बैठे सैंकड़ों लेखकों, कलाकारों में से आज तक किसी ने यह जुर्रत नहीं दिखाई कि उस स्‍कूल के बाहर प्रदर्शन करें, या उस मुख्‍य मंत्री को सख्‍त पत्र लिखें जिनसे इस राहत कोष में मदद की उम्‍मीद पाले हैं। कम-से-कम हिंदी के पक्ष में अपनी मेज पर हर समय रेडीमेड उस अपील को ही जारी कर देते। आखिर दिल्‍ली में दसवीं तक अपनी भाषा हिंदी अनिवार्य क्‍यों नहीं? ये तो खुद उपकुलपति रहे हैं और वह भी हिंदी के नाम पर बने महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के। इनकी बात तो सुनी भी जाएगी। क्‍या कभी उन्‍होंने दिल्‍ली, जामिया या जे.एन.यू. के उपकुलपति से किसी बैठक में ये कहा कि जब यहां पढ़ने वाले नब्‍बे प्रतिशत से अधिक हिंदी भाषी हों तो हिंदी माध्‍यम में पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा देने की सुविधा क्‍यों नहीं? जैसे-तैसे कोठारी आयोग समिति की सिफारिशों से 1979 में सिविल सेवा परिक्षाओं में मातृभाषाओं में उत्‍तर देने की छूट मिली थी, 2011 से प्रारम्भिक परीक्षा में अंग्रेजी के प्रवेश ने कोठारी समिति की सिफारिशों की उल्‍टी गिनती शुरू कर दी है। हिंदी के लेखकों, उपकुलपतियों, प्रशासकों, प्रोफेसरों ने इसके खिलाफ कोई आवाज उठाई?

फिर अचानक किन लेखकों की किस बीमारी की कराह से किन पापों को पुन्‍य (ब्‍लैक को व्‍हाइट) में बदलने का प्रस्‍ताव आयायकीन मानिये काले धंधों में डूबे कई व्‍यक्ति, संगठन तुरंत इस निधि के मंदिर में पुन्‍य कमाने जुट जायेंगे। और आप हर बार नये तर्क से उन्‍हें स्‍वीकार करेंगे। विशेष रूप से गौर करने की बात है कि देश भर में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ चल रही मुहिम के पक्ष में शायद ही किसी हिंदी लेखक ने अपनी आवाज उठाई हो। यह उनकी सार्वजनिक उदासीनता या कायरता का एक और प्रमाण है। पी.वी. राजगोपाल के नेतृत्‍व में जन सत्‍याग्रह यात्रा भूमिहीनों के पक्ष में सरकार पर दवाब बनाने में सफल हुई है। अन्‍ना टीम भ्रष्‍टाचार को उजागर करती हुई सरकार की नींद खराब कर रही है लेकिन हिंदी लेखक अपनी भाषा साहित्‍य, पुस्‍तकों के पक्ष, पठन पाठन में किसी लड़ाई की सोचता तक नहीं है। उन्‍हें चिंता है तो सिर्फ पुरस्‍कारों की, पीठ की राहत राशि या विदेश यात्राओं की। इसीलिए कभी-कभी लेखकों को परजीवी भी कहा जाता है।

      फिर कहीं किसी नये सत्‍ता केन्‍द्र की तलाश में तो ऐसा नहीं हो रहा? लेखक राहत कोष के आविष्‍कर्ता होने के नाते आप चाहे उसके अध्‍यक्ष हों अथवा सलाहकार या साधारण सभा के सदस्‍य किसी भी लेखक को पैसा तो आपकी आंख के इशारे से ही मिलेगा। मुझे नहीं लगता कि कोई स्‍वाभिमानी लेखक इस पैसे को स्‍वीकार करेगा ? हाल ही में दिवंगत अरुण प्रकाश और उनके परिवार वालों ने हिन्‍दी अकादमी को साफ मना कर दिया। 2012 में जिन रामविलास शर्मा की जन्‍मशती मनायी जा रही है उन्‍होंने हिंदी अकादमी के शलाका पुरस्‍कार समेत हर बार पुरस्‍कार राशि देश में साक्षरता, शिक्षा के लिये ही यह कहते हुए वापिस कर दी कि इस पैसे से पहले देश के बच्‍चों को शिक्षित होना चाहिए। हिंदी पढ़ने-पढ़ाने के लिये। क्‍या राहत कोष के आविष्कर्ताओं के पास ऐसा कोई सार्वजनिक स्‍वप्‍न बचा है?

लेकिन जैसे बाजार भूख जगाता है वैसे ही ऐसे कोष जगाएंगे। यानी मुझे भी दो और मेरे संगठन, मेरी पार्टी के दोस्‍तों को भी। सत्‍ता में रहे लोगों को पता है कि कैसे लोगों को पालतू बनाए जाता है। सच्‍चाई यह भी है कि पालतू बनने में जिनका इतिहास रहा हो वो पालतू बनाने में भी यकीन रखते हैं। क्‍या ऐसा आदर्श रास्‍ता संभव है कि इस कोष में एक कौड़ी भी सत्‍ता यानी कि केन्‍द्र या राज्‍य सरकार से नहीं लेंगे। टाटा, बिड़ला, अम्‍बानी और अजीम प्रेमजी से भी नहीं जिनसे मदद लेने की गुजारिश कुछ महीने पहले की जा चुकी है। वाजपेयी जी बड़े लेखक हैं, संवेदनशील हैं। भोपाल में भारत भवन और दूसरी सांस्‍कृतिक साहित्यिक शुरूआतों के लिये पूरा देश उनका आदर करता है। इसलिए वे इस बात को भी समझते होंगे कि ऐसे राहत कोष के लिए जो भी मदद देगा वो प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष बदले में आपको पालतू भी बनाएगा और पालतू आदमी कुछ भी हो सकता है लेखक नहीं।

यदि मंदिर-मस्जिद के आगे भिखमंगे न हों तो बड़े-बड़े दानियों, धर्मात्‍माओं की हवा निकल जाये। प्रत्‍यक्ष, अप्रत्‍यक्ष किसी भी सरकारी मदद से बढ़ाया जाने वाला ऐसा कोई भी कदम हिंदी लेखक और साहित्‍य दोनों के लिए आत्‍मघाती होगा। कहीं ऐसा न हो इस बंदरबांट में महान सोवियत सत्‍ता के दिनों की तरह कुछ लेखक सत्‍ता पक्ष के और कुछ विरोधी खेमों में बंटकर रह जायें।

      क्‍या यह पूरा कर्म, आयोजन लेखक, लेखन के और पूरे कला कर्म के खिलाफ नहीं होगा?

      इसी पक्ष से जुड़ा एक अनुभव- पिछले दिनों रवीन्‍द्र विश्‍वविद्यालय/कलकत्‍ता के एक कॉलेज में जाकर पता लगा कि वहां इतिहास, राजनीति शास्‍त्र जैसे विषय पढ़ने वाले नब्‍बे प्रतिशत से ज्‍यादा छात्रों की माध्‍यम भाषा बंगला है। जब जनता बंगला पढ़ेगी तो किताबें भी बिकेंगी और किताबें बिकेंगी तो उसका कुछ अंश लेखक के पास भी पहुंचेगा। यदि दिल्‍ली के स्‍कूल और कॉलेजों में हिंदी पढ़ी, पढ़ाई जाती तो किताबों के संस्‍करण दो सौ, तीन सौ तक नहीं सिमटते। हाल ही में कथा सम्राट प्रेमचंद से संबंधित एक लेख पढ़ने को मिला। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोजे वतन 1907 में ब्रिटिश सरकार ने जब्‍त कर लिया था। मैजिस्‍ट्रेट के सामने पेशी हुई और प्रेमचंद से पूछा गया कि कितनी प्रतियां छापी हैं? प्रेमचंद ने बताया एक हजार। तीन सौ बिक गई हैं, 700 बाकी हैं। यानी आज से सौ वर्ष पहले जब हिंदी अपने पैरों पर पूरी तरह खड़ी भी नहीं हुई थी तो उसकी एक हजार प्रतियां छपती थीं और आज सत्‍तर करोड़ की आबादी के बीच तीन सौ प्रतियां। और आप तीन सौ प्रतियों के लेखक को अपने सर्टीफिकेट से लेखक मानेंगे? हो सकता है मौजूदा राहत कोष बनाने की घोषणा होते ही हिंदी के कुछ वे बड़े बन चुके प्रकाशक भी तुरंत कुछ लाख देने की घोषण कर दें जो अपने लेखकों को न रायल्‍टी देते,न उसका हिसाब। वैसे रिश्‍वत और सरकारी खरीद पर आश्रित ऐसी परजीवी कौम से उम्‍मीद भी क्‍यों?

एक और प्रश्‍न। लेखक कौन?  क्‍या सिर्फ दिल्‍ली वाले?छत्‍तीसगढ़, या दूर झारखंड के गांव में बैठकर लिखने वाले को तो आप लेखक भी नहीं मानेंगे। यानी लेखक वह जिसे राहत कोष के मैनेजर मानें या जाने। हो सकता है कल लेखकों के बच्‍चे भी अनुदान मांगने लगे कि वे तो सारी जिन्‍दगी लिखते रहे हमारे लिये क्‍या किया। कि हमारे पास खाने को नहीं है आदि-आदि । यही यथार्थ है इस देश का। पिछले दिनों पिछड़ा घोषित होने के पीछे ऐसी ही होड़ रही है और हर तरह के प्रमाण पत्र भी मिल जाते हैं। नब्‍बे प्रतिशत तथाकथित हिंदी साहित्‍यकार अटल बिहारी वाजपेयी को लेखक नहीं मानते लेकिन हजारों पाठक हैं जो उनकी कविताओं को हर मंच पर गाते-बजाते हैं। एक खेमा वी.पी. सिंह को कलाकार नहीं मानता तो दूसरा अपनी पत्रिका के कवर पर उनकी पेंटिंग्‍स छापता है। दोनों में बस समानता एक ही है। एक कवि और दूसरा कलाकार बना प्रधानमंत्री पद पाने के बाद ही। कलाकार होने के नाते राहत कोष से कुछ पाने का हक तो इन्‍हें भी है।

      मैं चाहता हूँ कि मेरी आशंका गलत हो। आशंका यह कि एक बार बड़े पदों पर रहने की आदत हो जाए तो वह जल्‍दी नहीं छूटती। आप इतनी सुख-सुविधाओं के आदी हो जाते हैं जिनका बयान नहीं किया जा सकता। हाल ही में एक केन्‍द्रीय मंत्री ने यह स्‍वीकार किया कि उनके विधि मंत्री के कार्यकाल में उन्‍हें सबसे बुरा तब लगता था जब हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के न्‍यायाधीश तक रिटायरमेंट के बाद किसी पोस्‍ट की ख्‍वाहिश रखते थे। कार्मिक मंत्रालय से सूचना के अधिकार में ऐसी सूचनाएं उपलब्‍ध हैं जिसमें सैंकड़ों आई.ए.एस., आई.पी.एस. और दूसरे अधिकारी रिटायरमेंट के बाद किसी-न-किसी कमेटी या कमीशन पर कब्‍जाए हुए हैं। साठ से बासठ, बासठ से पैसठ, पैसठ से सत्‍तर और सत्‍तर से भी आगे प्रोफेसर, प्रोफेसर इमरीटस। कभी यहां के चैयरमेन तो कभी वहां के अध्‍यक्ष। दुनिया के सबसे नौजवान देश की पीढि़यां वर्षों से इनके सरकार पोषित संस्‍थानों से रिटायरमेंट का इंतजार कर रही है। कहां तो शमशेर, त्रिलोचन,मुक्तिबोध थे जिन्‍होंने कभी कोई पद और कुर्सी स्‍वीकार नहीं की  बल्कि जनता के हित में ऐसे सत्‍ता केन्‍द्रों को खत्‍म करने की बात करते रहे हैं। हाल तक राजेन्‍द्र यादव सत्‍ता के ऐसे केन्‍द्रों से दूर रहे हैं। उम्‍मीद है अब अंतिम दिनों में भी वे ऐसे चोंचलों से दूर रहेंगे।

      क्‍या हमारे वरिष्‍ठ लेखक कुलपति, उप कुलपति, प्रोफेसरों ने कभी दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय या साहित्‍य अकादमी पुस्‍तकालय के वे रीडिंग रूम देखें हैं जहां देश भर की सारी प्रमुख पत्रिकाओं को होना चाहिए। आप पाएंगे कि न वहां बरसों से हंस है, न ज्ञानोदय, कथादेश या दूसरी सैंकड़ों पत्रिकाएं। वहां आती हैं तो सिर्फ वो पत्रिकाएं जो संपादक द्वारा मुफ्त में भेजी जाती हैं। ये पुस्‍तकालय पिछले बीस-पच्‍चीस वर्षों में और भी बियावान हुए हैं। हिंदी की पचास-सौ प्रमुख पत्रिकाओं पर कितना खर्चा आएगा? बड़ी-बड़ी तनख्‍वाहों के मुकाबले शायद चुटकी भर। इन सभी पुस्‍तकालयों के फर्नीचर तो बदल गये हैं लेकिन उसी अनुपात में पत्रिकाएं गायब हो गई हैं। क्‍या हिंदी लेखक का नाम तभी सुनने को मिलेगा जब वे बीमार हों या उन्‍हें कोई पुरस्‍कार मिले। दोनों ही स्थितियों में हिंदी लेखक के पीछे-पीछे ऐसे कोष, निधि की सत्‍ता को भी वाह-वाही मिलेगी। हिंदी लेखक बिना पढ़े दुनिया से कूच भी कर जाए तब भी हिंदी समाज पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला इन स्थितियों में।

      मेरी राय में इस कोष में सिर्फ लेखकों से व्‍यक्तिगत अनुदान लिया जाये। सरकार, संगठन, उपक्रमों, अकादमियों से एक कौड़ी भी नहीं। किसी भी सूरत में। सत्‍ता की इसमें एक भी कौड़ी आयी तो उसी अनुपात में राजनीति या विचारधारा की दखलंदाजी आयेगी। सरकार चाहे किसी भी रंग की हो। आश्‍चर्य है कि आप इस निधि की शाखाएं सभी हिंदी राज्‍यों में भी खोलने का सपना पाले हैं। क्‍या खूबसूरत ख्‍याल है? ऐसा ख्‍याल अपनी भाषा हिंदी को स्‍कूलों, कॉलिजों में पढ़ाने का कभी क्‍यों नहीं आता? जब वी.सी. से लेकर डी.एम., थानेदार तक सत्‍ता के रिश्‍ते के आधार पर तैनात किये जाते हों तो क्‍या फंड से सिर्फ जरूरतमंद और गरीबी के आधार पर मदद दी जायगी? हरगिज नहीं। शायद खुद्दार लेखकों को बधिया करने का यह 21वीं सदी का नायाब नुस्‍खा होगा। अत: इससे हर हालत में दूर रहने की जरूरत है।

ज्यां पॉल सात्र ने ऐसे किसी पुरस्‍कार, निधि को आलू का बोरा यूँ ही नहीं कहा था। और हम हैं कि आलू के बोरों की फैक्‍टरी डालना चाहते हैं। सत्‍ता के साथ ऐसे किसी भी जुड़ाव से मुक्ति की राह तलाशिये, सुझाइये! मेरे आदरणीयों!

      यह प्रश्‍न बहस के लिये इसलिये उठाया जा रहा है कि क्‍योंकि यह मसला लेखकों, कलाकारों का है। लोकतंत्र के नये दर्शन में जनता की भलाई के नाम पर बनाये जाने वाले किसी भी कानून या काम में उनकी राय सबसे महत्‍वपूर्ण है।
 
      क्‍यों? आप क्‍या सोचते हैं
      और अंत में सर्वेश्‍वर की कविता :-
      यदि तुम्‍हारे घर के
      एक कमरे में आग लगी हो                     
      तो क्‍या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो?
      यदि तुम्‍हारे घर के
      एक कमरे में लाश पड़ी हो
      तो क्‍या तुम
      दूसरे कमरे में गा सकते?
      प्रार्थना कर सकते हो ?
      यदि हां
      तो मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना है।
संपर्क- फोन नं. 011-23383315 (कार्या.)
      011-22744596 (घर)
 
      

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11 comments

  1. Prem Pal ji ne wakai bahut si zaroori baaton pr dhyan khincha hai. kisi bhi yojna ke swaal esi bahas ke baad hi koi prastaw banana chahiye. yadi bahas ke nateeje yojna ke virudh bhi jate ho tou use sweekarna chahiye. ek swasth democratic mahul ke liye yah zaroori bhi hai. aabhar bhai prabhat ji is mahtwpurn aalekh ko prastut karne ka.

  2. PREM PAL SHARMA KAA YAH LEKH PADH KAR BHEE AGAR HINDI KE MOORDHANYA
    LEKHKON KEE AANKHEN NAHIN KHULTE TO SAMAJHIYE ——–

  3. bahut steek baat likhi hai. bahastalab

  4. सिर्फ लिखना ही काफी नहीं..
    लेखक के पास अनुभवों का ढंर होना चाहिए !!

  5. बढ़िया

  6. Very well presented. Every quote was awesome and thanks for sharing the content. Keep sharing and keep motivating others.

  7. Some really excellent info Sword lily I detected this.

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