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ये आंदोलन कहीं ज्‍यादा सोशल-मीडिया के हैं

दिल्ली में बलात्कार की नृशंस घटना के बाद जिस तरह से छात्र-युवा सड़कों पर उतरे हैं, उसके बाद इस आंदोलन की प्रकृति को लेकर बहस शुरु हो गई है. राकेश श्रीवास्तव के इस लेख को भी इसी सन्दर्भ में देखा जा सकता है- जानकी पुल.
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…यह महज उच्‍च जातियों या प्रभु वर्गसे बने शहरी मध्‍यवर्ग की आकांक्षाओं और विश्व दृष्टि का प्रोजेक्‍शन हैं या इसका अर्थ इससे दूर तक जाता है…
बलात्‍कार  की उस निर्मम रेयरेस्‍ट ऑफ द रेयर घटना के विरूद्ध इंडिया गेट से लेकर रायसीना हिल पूरे राजपथ पर जबरदस्‍त प्रदर्शन। एक से अधिक चैनल उस प्रोटेस्‍ट के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए भी उसे बार-बार राजपथ पर जुटी भीड़ का नाम दे रहे थे। क्‍या अन्‍ना आंदोलन में पहली बार बहुत प्रभावी रूप से सामने आई यह प्रवृत्ति जिसकी पुनरावृत्ति हो रही है वाकई एक भीड़ है, आंदोलन है या आंदोलन की पारंपरिक समाजशास्‍त्रीय परिभाषा का अतिक्रमण करते हुए भी एक महत्‍वपूर्ण प्रवृत्ति है। यह महज सामान्‍यत: उच्‍च जातियों या प्रभु वर्ग से बने शहरी मध्‍यवर्ग की आकांक्षाओं और वल्‍र्ड व्‍यूह का प्रोजेक्‍शन हैं या इनका अर्थ इससे दूर तक जाता है। क्‍या छात्र समुदायों के बीच कंयूनिस्‍टों या राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ आदि ने जो पीछे काम कर रखा है और वह जो एक सांगठनिकता की पृष्‍ठभूमि है ऐसी भीड़ के प्रथम दौर का मोबलाइजेशन उससे होता है फिर पीछे पीछे मीडिया की शोर की बदौलत और लोग जुटने लगते हैं या ऐसे आंदोलन राजनीतिक संगठनों के लिए भी अचंभे की बात साबित हो रहे हैं। कई लोग तो इन्‍हें खुले तौर पर मीडिया प्रायोजित फैड तक कहते हैं। या फिर युवा एक विशिष्‍ट और अंतिम रूप से प्रभावी समाजशास्‍त्रीय इकाई बनकर उभर रहे हैं।
बलात्‍कार की यह घटना नृशंस थी। ऐसी विदारक जिसकी कोई हद नहीं। सबकी रूह कांप उठी। पूरे देश और दिल्‍ली का व्‍यक्ति-व्‍यक्ति व्‍यथित था। यह घटना-विशेष तो सभी आम-आदमी के लिए एक मुद्दा है। इसलिए राजपथ पर जो भीड़ जुटी उससे सबने रिलेट किया होगा यह निश्चित है। पर इस प्रसंग में मेरे लिए जो कहना महत्‍वपूर्ण है वह यह कि यह भीड़ जो जुटी थी वह युवाओं की थी जिसमें लड़कियों का अनुपात पहले के ऐसे आंदोलनों की तुलना में अधिक था। बलात्‍कार की इस घटना ने युवाओं विशेषकर लड़कियों के असुरक्षा-बोध को हलक पर ला दिया है। विशेषकर वह असुरक्षा जो कम्‍यूट करने के दौरान राउडी टाईप नाम से जानी जाने वाली दिल्‍ली और उसके आस-पास की एक डिस्टिंक्‍ट जनसंख्‍या के लोगों से हमेशा बनी रहती है। शिक्षित मध्‍यवर्ग के लोगों और इन राउडी टाईप में हमेशा-ही एक सामाजिक-दूरी का संबंध रहा है। इस हमेशा से वलनिरेवल संबंध-व्‍यवस्‍था के भीतर इस बार एक चरम दुर्घटना घटी है।
हमारा प्रसंग यहां आंदोलन की प्रकृति है। यह सच है कि यह भीड़ अपनी प्रकृति में वही थी‍ जो अन्‍ना आंदोलन के शुरूआती दौरों की भीड़ थी। अन्‍ना आंदोलन में भी केंद्रीय रूप से भीड़ शहरी शिक्षित मध्‍यवर्ग विशेषकर इस वर्ग के युवा लोगों की भीड़ थी। बाद में अन्‍ना आंदोलन में  परिधि पर वह भीड़ जुटने लगी जिसे आमआदमी का वृहत्‍तर क्रौस-सेक्‍शन कह सकते थे। कल की भीड़ भी शहरी शिक्षित मध्‍यवर्ग युवाओं की भीड़ थी। कई दलित-चेतना के विद्वानों ने इसे मूलत: सवर्णवादी विश्‍व-दृष्टि वाले युवा कहा है, और कहा है कि यह वही भीड़ है जो आरक्षण-विरोध के नाम पर इकट्ठी होती आई है। अरूंधती रॉय ने भी इशारा कहा है कि यह भीड़ वह चेतना ली हुई भीड़ नहीं है जिसे हर प्रकार के बलात्‍कार की चिंता है।  यानि इन्‍हें देश के हर जगहों पर हर जाति और वर्ग में होने वाले बलात्‍कारों  की चिंता नहीं है बल्कि इनकी चिंता मात्र वैसे संभावित बलात्‍कार से है जिसका डर इन्‍हें भी समाया है।
मेरा मानना है कि यह तो सच है कि चाहे अन्‍ना आंदोलन हो या बलात्‍कार पर क्षोभ प्रकट करता यह आंदोलन, ये प्रधानत: श्‍हरी मध्‍यवर्ग के आंदोलन हैं। पर इनकी जो भावात्‍मक उर्जा है वह वर्गीय हितों का अतिक्रमण करती है और भविष्‍य के नाम कुछ महत्‍वपूर्ण संकेत-सूत्र छोड़ती है।    
      कल के आंदोलन के बारे में कुछ कंयूनिस्‍ट छात्र-संगठन यह इम्‍प्रेशन छोड़ रहे हैं जैसे यह आंदोलन उनका जुटाया हुआ है और उन्‍होंने जो मुद्दे आर्टिकुलेट किए हैं वही इस आंदोलन के मुद्दे हैं। यह सही प्रतीत होता है कि जेएनयू के छात्रों का  मोमेन्‍टम खड़ा करने में योगदान था‍ पर यह संदेहास्‍पद ही है कि पूरे के पूरे मोमेंटम पर उनकी नैतिक दावेदारी उचित है, और यह भी कि महिला-मुद्दों के बारे में जो वामपंथी छात्र संगठनों का वैचारिक स्‍टैंड है वही इस आंदोलन से पुश हो रहा है।
      जब अन्‍ना आंदोलन की शुरूआत हुई थी तो उसे लोकप्रिय होने की संभावना देख उसे आरएसएस ने भी हवा दी थी, शायद इस आशा के साथ कि एंटी- इस्‍टैवलिशमेंट भावनाएं अंतत: तो हमारे ही झोली गिरेंगी और उस आंदोलन से पैदा वैधता अपने काम आएगी। अन्‍य राजनीतिक दलों ने भी इसमें अपने लाभ की संभावनाएं तलाशी थी। पर मूंगेरीलालों के हसीन सपने पूरे न हुए थे।
      अन्‍ना आंदोलन के समय से अब तक युवाओं का और उनके पीछे-पीछे आम आदमी का यह हुजूम इतनी बार खड़ा हो गया कि उसकी बारंबारता में एक पैटर्न और एक भविष्‍य को पढ़ा जा सकता है। यह युवा अभी मात्र शहरी मध्‍यवर्गीय  युवा तो है, पर इसकी क्रोड़ में वर्गीय हितों से ऊपर युवा-मात्र होने की संभावना छिपी है जिसके साथ देश के सभी क्षेत्रों और वर्गों के युवा कालक्रम में अपनी उर्जा मिला डालेंगे, विशेषकर सि‍स्‍टम में सुधार से संबंधित मैक्रो स्‍तर के मुद्दों के संदर्भ में।
      भारत के मध्‍यवर्ग की आलोचना पिछले दशकों में होती रही कि यह प्रभुवर्ग मानसिकता रखने वाला, संकीर्ण नजरिये वाला और दूरगामी सामाजिक-सक्रियता से कोसों दूर वर्ग है। पर तब से अब तक गंगा में अगर नहीं बहुत-ज्‍यादा तो भी अच्‍छा-खासा पानी बहा है। आज मध्‍यवर्ग अंतनिर्हित रूप से बहुविध हो चला है जिसमें गांवों से शहर आकर यहां सफल हुए और जम गए लोग, सभी जाति समूहों के लोग अच्‍छी खासी संख्‍या में शामिल हैं। बहुविध स्रोतों से बना मध्‍यवर्ग बाह्य रूप से शैक्षणिक- सांस्‍कृतिक धरातल पर समरूप भी हो चला है। यह कहना तो अभी दूर की कौड़ी है कि भारतीय-मध्‍यवर्ग के चरित्र में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया  है, पर यह जरूर है कि भारतीय नव-मध्‍यवर्ग का मुहावरा तो उलझ ही गया है।  अन्‍ना आंदोलन या वर्तमान राजपथ आंदोलन को भारत के पारंपरिक मध्‍यवर्ग के संकीर्ण हितों का प्रोजेक्‍शन मात्र कहना मेरी नजर में ज्‍यादती है और इसका सही अर्थ तभी निकलेगा जब देश के अन्‍य पुराने और हालिया प्रवृत्तियों के साथ इसकी संगति बैठाई जाएगी। मेरे द्वारा कल के आंदोलन के नाम के साथ अन्‍ना आंदोलन का नाम लेने का यह अर्थ कदापि न समझा जाए कि मैं कल के आंदोलन का श्रेय किसी भी प्रकार अन्‍ना आंदोलन से उभरे नेताओं  को देने का प्रयास कर रहा  हूं। इस दोनों का नाम एक साथ लेने का अर्थ मात्र इतना है कि मैं सामाजिक मुदृों के लिए शहरी शिक्षित मध्‍यवर्ग के बार-बार जुटने के निहितार्थों की चर्चा कर रहा हूं। 
      आजादी के बाद के भारत में विचारधाराओं के इर्द-गिर्द बुने सांग‍ठनिक आंदोलन जिनमें राजनीतिक दलों के आंदोलन और जल-जंगल-जमीन के जुझारू आंदोलन दोनों शामिल हैं की सुगठित धाराएं तो रही ही हैं, इनके अतिरिक्‍त एक नियमित प्रवृति और रही है जो है क्षणिक स्‍वत:-स्‍फूर्त जन-प्रस्‍फोटों की और स्‍थानीय स्‍तर पर किसी सामाजिक कार्यकर्ता या प्रशासक को नायक बनाकर छोटे समय के जन-उभारों की। क्रोधों का ऐसे सड़क पर उतरने या किसी स्‍थानीय जुझारू कार्यकर्ता को नायक बनाने के पीछे सिस्‍टम की असफलताओं से जनित कुंठाएं काम करती रही हैं। जहां हमारे चुने हुए प्रतिनिधि और सरकारी-तंत्र हमारी आकांक्षाओं को तुष्‍ट करने में असफल होते थे वहां जनता का गुस्‍सा समय समय पर सिस्‍टम—जनित किसी दुघर्टना पर निकलता रहता था। या जनता की परिकल्‍पना में उसकी तात्‍कालिक मनोविज्ञान को तुष्‍ट करता कोई मसीहा बैठ जाता था। यह सब देश के हर क्षेत्र में विशेषकर सत्‍तर के  दशक से लगातार चल रहा है। इन लघु-अवधि जन-उभारों और नेताओं के पीछे मोटिवेशन सिस्‍टम में व्‍यापक सुधार की गहरी बैठी आकांक्षा होती थीं। यानि इन्‍हें  संगठित अच्‍छे- बुरे सभी आंदोलनों के समानांतर एक स्‍वतंत्र धारा कह सकते हैं। जहां जल-जंगल-जमीन के विचारधारात्‍मक आंदोलन अपने केंद्र में किसी माइक्रो इस्‍यू को रखते हैं जिस बिंदु से वे बड़े परिवर्तन के तर्कों को क्रमश: बिल्‍ड-अप करते हैं, वहीं उक्‍त छोटी अवधि के जन-उभारों की कल्‍पनाशीलता में ऐसे प्रतीक होते थे जो सिस्‍टम में आमूल-चूल सुधार की आकांक्षा को प्रत्‍यक्ष- अप्रत्‍यक्ष एड्रेस करने वाले होते थे।  ऐसे कई उभारों के नेता अक्‍सर स्‍थानीय जल-जंगल-जमीन के नेता भी हुआ करते थे। स्‍वयं अन्‍ना हजारे ने ऐसे कई उभारों का नेतृत्‍व किया है।  
देश भर में ऐसे तमाम छोटे छोटे जन-उभारों में ऊर्जाएं संग्रहित होती आ रही हैं। बड़ी युवा जनसंख्‍या, मीडिया और सोशल मीडिया के उभार ने फैले हुए जन-उभारों में फंसी उर्जाओं को समेकित कर दिया है। वही जो छिटपुट प्रवृति रही है अब बड़े रूप में दिख रही है। अन्‍ना आंदोलन से लेकर कल के प्रोटेस्‍ट तक को हम इसका ही पुराने जन-उभारों की परंपरा का नया अवतार कह सकते हैं।  कहने का अर्थ है कि इन उभारों को उनके जेनेसिस पर जाकर पकड़ें तो हम पाएंगे कि यदा-कदा तात्‍कालिक प्रतिक्रियाशीलताओं के प्रदर्शन के बावजूद ये प्रगतिशील और अंतर्निहित रूप से  सिस्‍टम को ओवरऑल दुरूस्‍त करने की आकांक्षा वाले उभार या आंदोलन रहे हैं। इन्‍हें अंतर्निहित रूप  से प्रभु-वर्गीय कहना गलत है। यह जल-जंगल-जमीन और दलित आकांक्षाओं के आंदोलनों से नहीं बने हैं पर उनका विरोधी भी नहीं है। यह सभी आंदोलन एक दुरूस्‍त सिस्‍टम के लिए युवा-वर्ग का मनोवैज्ञानिक स्‍तर पर विश का प्रोजेक्‍शन है। और बात जब विश करने की है तो हम ऐसा विश कर सकते हैं कि कालक्रम में इस शहरी शिक्षित और प्रभु-वर्ग से दिखने वाले युवा के साथ अन्‍य युवा जुड़ते जाएंगे। हम यह विश कर सकते  हैं कि युवा सिस्‍टम—मेंकिंग के मुदृों को आर्टिकुलेट करता और क्रमश: बड़े आंदोलन खड़े करता चला जाएगा।  
     
       ये आंदोलन मुख्‍य धारा मीडिया के जितने नहीं हैं उससे कहीं ज्‍यादा सोशल-मीडिया के हैं। ये आंदोलन मुख्‍य धारा मीडिया से जितने नहीं बने हैं उससे ज्‍यादा मीडिया इनके कंधे की सवारी करता है।     
      रंग दे बसंती में सभी नायक अलग-अलग सामाजिक-पृष्‍ठभूमियों के हैं, पर अपने भीतर जमी अपनी पृष्‍ठभूमियों को तोड़कर नए युवा बनते हैं। क्‍यों न एक समाजशास्‍त्रीय यथार्थ-भूमि पर एक विश को खड़ा करें। आखिर राजनीति वह क्षेत्र है जिसमें संभावना है असंभव को संभव बना डालने की।  
 
      

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23 comments

  1. अच्छा विश्लेषण है,हालांकि भाषा और शैली बोझिल होकर मुख्य मुद्दे पर हावी हो गई है।
    इस तथ्य के बावजूद कि अन्यत्र भी आंदोलन का स्वरूप कमोबेश शहरी ही रहा है,जिस तरह से इस आंदोलन का देश के अन्य हिस्सों में प्रसार हुआ है,उसमें मुख्यधारा की मीडिया की ही भूमिका प्रमुख लगती है। यह बात हाल के अन्य आंदोलनों के बारे में भी कही जा सकती है।
    अपराध के बढ़ने में सबसे ज्यादा भूमिका युवा की होती है,चाहे वह उसकी उच्छृंखलता का परिणाम हो अथवा निष्क्रियता का। इस लिहाज़ से,हाल के आंदोलनों में युवाओं की बढ़ती भागीदारी उत्साह जगाती है। युग का जुआ जिसके कंधे पर है,उसे जगना ही होगा,चाहे वह जिसके प्रयास से जगे।

  2. पूरा लेख पढ़ा. आपने अपने इस लेख में आंदोलन की शुरूआती दशा और दिशा का सटीक विश्‍लेषण किया है.मैं स्‍वयं शनिवार को ग्राउंड जीरो पर मौजूद था और इस बात का साक्षी बना कि कैसे एक निहायत ही शांतिपूर्ण प्रदर्शन को व्‍यवस्‍था की नाकामी ने सरकार विरोधी आंदोलन में तब्‍दील कर दिया. और ये आंदोलन कैसे खड़ा हुआ कैसे मूमेंटम पकड़ा इसे समझने के लिए सरकार के नुमांइदों को तकनीक में पीएचडी की आवश्‍यकता नहीं है. फेसबुक ने तहरीर चौक के बाद एक बार फिर दुनिया के दूसरे हिस्‍से में विजय चौक को एक ऐतिहासिक घटनाक्रम का साक्षी बना दिया. अब इस आंदोलन की ऊर्जा पर यदि कोई राजनीतिक दल, या कोई अन्‍य समूह अपनी मुहर लगाने की कोशिश करता है तो यह पूरी तरह स्‍वाभाविक है….ऐसे दलों या समूहों की आदत ही बहती गंगा में हाथ धोने की होती है. पर इस पूरे घटनाक्रम में दुखद बात यह है कि हमारे जनप्रतिनिधी और व्‍यवस्‍था के कर्णधार इस आंदोलन समझने में भारी भूल कर गए. शायद इसीलिए कहा गया है कि लम्‍हे खता करते हैं और सदियां सजा पाती हैं. इस बेहतरीन लेख के लिए बधाई.

  3. आप की 'वृहत्तर क्रॉस सेक्शन' वाली बात के भी गहरे निहितार्थ हैं..शायद लोकतंत्र केंचुली बदल रहा है..

  4. धन्‍यवाद सुचित…आपने ठीक कहा कि इस मोड़ से कई राहें जाती हैं..

  5. जी राम मुरारी जी….आपने ठीक कहा…हम मूलत: कलाकार लोग हैं…विश्‍लेषक तो बाद में हैं…स्‍वत: स्‍फूर्त होकर अगर कविता में अर्थ है…एक कविता की उन्‍मत्‍त भावना में उसकी मासूमियत में अर्थ है…तो फिर ऐसे आंदोलनों में भी अर्थ है..हां उस भावना को अनुशासन देना भी हमारी जिम्‍मेवारी है..

  6. धन्‍यवाद शैलजा जी….अपनी चेतना को साफ करते जाने में अपने आस-पास आप जैसे मित्रों की उपस्थिति बहुत मददगार होती है..

  7. धन्‍यवाद नरेंद्र….आपने ठीक कहा…जिसकी चेतना में ईमानदारी होगी लंबे समय टिक वही पाएगा…

  8. धन्‍यवाद शैलेंद्र…आपने बहुत जरूरी बात कही है…अच्‍छे अच्‍छे शिक्षण संस्‍थानों में पढ़ने वाले बहुत बड़ी संख्‍या में ऐसे छात्र मिलते हैं जिनके पास अपने से बाहर की जानकारी के नाम पर सिर्फ सिने-कलाकारों के बारे में जानकारी रहती है..अपने भीतर उतर कर देखना….अधकचरापन से बाहर निकलना…सामाजिक चेतना सही मायने में सामाजिक चेतना हो अपने संकीर्ण हितों का राशनलाइजेशन मात्र न हो…यह सब जरूरी है…अच्‍छी जो बात लगती है वह यह कि उक्‍त बातें आज के समय में घटती हुई भी अच्‍छी मात्रा में दीखती हैं…

  9. आपका धन्‍यवाद…

  10. एक सटीक विश्लेषण के लिए साधुवाद..यह बहुत महत्वपूर्ण बात उठाई आप ने..शायद समय पास है जब एक वास्तविक जन क्रांति होगी..जहाँ क्रांति जनता के द्वारा जनता के लिए जनता की होगी..
    यह सच है की इकठ्ठा होते होते आक्रोश बाहर आने का बहाना ढूंढ रहा था..लेकिन इस से आन्दोलन का महत्व कम नहीं हो जाता..इस मोड़ से कई राहें जाती हैं..

  11. रेप के खिलाफ पैदा हुए युवाओं के इस आक्रोश को महज शहरी मध्यवर्ग या सवर्णवादी सोच के खांचे में रखकर देखना उचित नहीं होगा. और न ही यह केवल मीडिया जनित उभार है. हां यह जरूर है कि इसमें सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन यह इसकी कमी नहीं है ताकत है. अगर कोई यह कहता है कि यह आक्रोश सिर्फ अपने वर्गीय हितों (चाहे वह सवर्ण हित हो या फिर शहरी) के चलते है तो गलत है. अगर हम आजादी के बाद के इतिहास को देखें तो जब-जब बड़े आंदोलन हुए हैं (संपूर्ण क्रांति से लेकर बोफोर्स मामले तक) उसमें इसी युवा आक्रोश की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. हालांकि बाद में इसका फायदा राजनीतिज्ञों और मठाधीशों ने अपने-अपने ढंग से उठाया और लोग खुद को ठगा महसूस करते रह गये.
    गौरतलब है कि युवाओं के आक्रोश के इस प्रदर्शन की सबसे बड़ी ताकत उनकी वह स्वत: स्फूर्त चेतना है, जिसने उन्हें बगैर किसी नेतृत्व के भी एक साथ संगठित होकर खड़ा कर दिया. हालांकि डर इसका भी है कि इस आक्रोश को कोई अपने राजनैतिक या निजी फायदे के लिए न भुना ले. यह युवा आक्रोश नेतृत्व विहीन है और फिलहाल उसे अपने नुमाइंदों पर भरोसा नहीं है. इसीलिए सजा के नाम पर उनकी डिमांड भी वैसी है, जो लोकतंत्र में न संभव है और न जायज है. बिना जांच-पड़ताल या कानूनी प्रक्रिया पूरी किये बगैर आरोपियों को फांसी. जरूरत इस आक्रोश में मीन मेख निकालने की नहीं, बल्कि इससे बेहतरी की संभावनाएं तलाश करने की है.

  12. ek badhiya lekh padhne mila rakesh ji….jo kuchh bhi hua wo dardnaak tha…aisa fir nhi hoga ye bhi kaha nhi ja sakta..par aisa kabhi na ho ye tay kiya wahan par jami bhind ne ye dhire dhire jam rahe gusse ne ek jwalamukhi sa visfhot kiya ..desh ka yua badi tasvire badal sakta hai..taaktwar hai…ladkiyon ka itani tadad me iss saghrsh me apni hessedari dikhana ye batata hai ki ab bsss….pani sar ke upar ho gya…..dar kar apne hi desh apne hi samaj me kb tak baithe rahen…badhi aapko is lekh ki..aur badhii jaage huye is yuwa warg ko….jine ka surkchha ka haq hm sabhi ko hai aur chahiye bhi…..

  13. इतने अच्छे लेख के लिए बधाई……ये सच है की ये आन्दोलन मिडिया और सोसल साईट द्वारा खड़ा किया गया है….लेकिन लोग इसमें भी अपनी राजनीतक रोटियां सेक रहे है….अखिल भारतीय वाले हो या अन्य पार्टी सभी खुद को प्रायोजित कर रहे है…..कता आम आदमी पार्टी से कुछ नहीं शीखाना चाहिए जो दिल्ली में बिना पार्टी के बैनर और प्रचार के साथ डते हुए है………

  14. बहुत अच्छा लेख है ….लेकिन युवा वर्ग को भी चाहिए मात्र ''युवा '' होने को लेकर उत्साहित न रहे,विचारों को लेकर अब भी ज्यादातर सरलीकरण ही करते हैं,चीज़ें कभी इतनी जटिल न थी,या कहें थीं,पर इस उतर-आधुनिक युग में और हो गयी हैं। युवा वर्ग को चाहिए खूब पढ़े,विमर्श करे और एक सशक्त बौद्धिक चेतना के साथ उपस्थित रहे …सिर्फ चे ग्वेवारा और लेनिन के नाम से कुछ नही होना,विचारधाराओं को गंभीरता से समझना भी होगा …….

  15. धन्‍यवाद सुधा जी….

  16. वाह…बिलकुल ठीक कहा वंदना जी…युवा चाहे तो क्‍या नहीं हो सकता..

  17. बेह्तरीन लेख राकेश जी , यह सच कहा कि ' यह आनदोलन एक दुरुस्त सिस्ट्म के लिये युवा वर्ग का मनोवेग्यानिक स्तर पर 'विश' का प्रोजेकश्न् है '………… और् खास बात कि युवा लड्को का उम्मीद से ज्यादा भागीदारी है…… बहुत बहुत बधाई………

  18. fast track court aur kadi saza bedad jaruri hai.saza bhi sarvjanik honi chahiye.kalawanti

  19. प्रदर्शनकारी जनता ने अपना बल दिखा दिया
    सरकार को भी नाकों चने चबवा दिया
    हर कोशिश कर हार रही है
    दिल्ली पुलिस हो या सरकार
    हर जगह हार रही है
    तुम डाल डाल तो हम पात पात
    ये यंग जैनरेशन ने दिखा दिया
    युवा चाहे तो क्या नही हो सकता है
    देश का तख्ता तो पल मे पलट सकता है
    बस इसी जज़्बे को कायम रखना होगा
    यूँ ही देश का भविष्य पलटना होगा
    ये बात अब आज के युवा को समझनी होगी
    क्योंकि भविष्य की नींव तो इन्होंने ही रखनी होगी
    इनका आने वाला कल कैसा हो
    ये इन्हें ही तय करना होगा
    जीयो इस देश के लालों
    अब तुम्हें ये जज़्बा कायम रखना होगा

    कौन कहता है तस्वीरें नहीं बदला करतीं
    सीने मे आग हो तो क्या नहीं कर सकतीं
    हौसलों को एक आगाज़ की जरूरत थी
    मिली चिंगारी तो कैसे नहीं भडक सकतीं

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