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इतने वर्षों तक ‘चुप’ रहने के लिए कोई अनुबंध हुआ था?

‘पाखी’ में प्रकाशित वरिष्ठ लेखक श्रवण कुमार गोस्वामी के लेख की एक दिलचस्प रीडिंग की है युवा कवि-लेखक त्रिपुरारि कुमार शर्मा ने- जानकी पुल.
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पाखी (अंक-3, दिसंबर-2012) का पन्ना-दर-पन्ना पलटने पर पता चलता है कि एक वरिष्ठ लेखक एक युवा लेखिका से कुछ-कुछ नाराज़ जैसा है। बात महज इतनी-सी है कि लगभग आठ वर्षों के बाद वरिष्ठ लेखक को युवा लेखिका की प्रतिभा पर संदेह होने लगा है। शुक्र है! वरिष्ठ लेखक अपनी डायरी का हवाला देते हुए युवा लेखिका के उपन्यास के बारे कहता है, “चूंकि यह उपन्यास एक रूपसी का है, इसलिए लोग इसे फुलाएंगे ज़रूर …कभी-कभी मुझे ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में अपना कुछ गंवा भी सकती है।” इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद इस बात का अनुमान लगाना इतना भी मुश्किल नहीं है कि वरिष्ठ लेखक की सोच युवा लेखिका के प्रति कितनी सम्मानजनक है?
पाखी की परतों में जिस युवा लेखिका का ज़िक्र है वो हैं महुआ माजी, जिनकी रचनात्मकता पर उठाए गए सवालों ने ख़ुद एक बार फिर पुरुष-प्रेत को बेनक़ाब कर दिया है। अगर सवाल यह है कि “मैं बोरिशाइल्ला” मौलिक और महुआ माजी रचित उपन्यास है या नहीं, तो सवाल यह भी होना चाहिए कि इस सवाल को पूछने वाले व्यक्ति की दृष्टि में मौलिकता की परिभाषा और उसका पैमाना क्या है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब हम किसी की तरफ़ एक ऊँगली उठाते हैं तो हमारे ही हाथ की तीन ऊँगलियाँ ख़ुद हमारी तरफ़ इशारा कर रही होती हैं।
वरिष्ठ लेखक को उपन्यास की पांडुलिपि का संशोधन-कार्य करते समय भी इस बात की चिंता थी कि लोग उसके उपन्यास की नहीं, अपितु उसके रूप की क़ीमत लगा रहे हैं। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना भी की कि वह किसी दुर्घटना का शिकार न बने। (फिर भी आगाह करने का कोई ज़िक्र नहीं) इन बातों में दूसरे की चिंता से कहीं ज़्यादा अपने शिकारीपन की प्रवृत्तियों की हार की झलक मिलती है। इच्छाओं का एक बेशर्म-नाच अपने पूरे नंगेपन के साथ नज़र आता है। चर्चित आलोचक आशुतोष कुमार की टिप्पणी इस संदर्भ में मानीखेज़ है। आशुतोष कहते हैं, “लेखक ने तो लिखकर अपने भाषा-प्रयोग से बता दिया है कि वे एक अभ्यासरत लेखिका से किस तरह की उम्मीदें पाल बैठे थे, जो, हाँ हंत, पूरी न हो सकीं। लेखिका का प्रतिउत्तर ठोस है। उसकी ओर से दी गई चुनौती कायम है।”
मुझे लगता है कि वरिष्ठ लेखक की रचनात्मकता पर उनकी बढ़ती उम्र हावी हो रही है। उनके द्वारा लिखा गया आलेख एक चिर-कुण्ठित और आत्म-व्यथित व्यक्ति के बयान के सिवा कुछ भी नहीं। मैं इस बात से इंकार भी नहीं करता कि जिस व्यक्ति से आप जुड़ते हैं, उसके व्यवहार में बदलाव पर आपको तकलीफ होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप उसकी रचनात्मक पृष्ठभूमि को कलंकित करने का व्यक्तिगत प्रयास करें। उनके सवालों के संदर्भों में कुछ बातें…
    “मैं बोरिशाइल्ला” का प्रकाशन वर्ष 2006 है और अब 2012 भी समाप्त होने वाला है। क्या इतने वर्षों तक वरिष्ठ लेखक के शरीर में कुम्भकर्ण की आत्मा ने कब्जा जमा रखा था? या फिर इतने वर्षों तक चुपरहने के लिए कोई अनुबंध हुआ था।
    एक सफ़ेद झूठ जो हर पाठक की आँख से गुज़रा होगा। वरिष्ठ लेखक रविवार, 5 दिसंबर 2004 को अपनी डायरी में लिखते हैं कि इसी तारीख को डॉ. महुआ माजी उनके घर पर अंतिम बार आईं। इस वाक्य में अंतिम शब्द का इस्तेमाल ख़ुद शक पैदा करता है कि आख़िर उनको कैसे पता चला कि उस तारीख के बाद महुआ उनके घर नहीं आएँगी। इसका मतलब है कि भविष्य में होने वाली घटनाओं और व्यक्तिगत सम्बंधों की खटास का आभास उन्हें पहले ही हो गया था।
पाखी को लिखे गए एक पत्र में महुआ माजी ने लिखा है, “जहां तक गोस्वामी जी के साथ मेरे तथाकथित पारिवारिक रिश्ते और उनमें किन्हीं कारणों से आई तथाकथित दूरी का सवाल है, मैं इसे एक बेहद निजी मामला समझती हूँ, जिससे वृहत्तर साहित्यिक समाज का कोई हित-अहित जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए इन बातों की परत उघाड़कर मैं उस स्तर तक नहीं उतरना चाहती जिस स्तर पर गोस्वामी जी चले गए।” दरअसल, वरिष्ठ लेखक को इस बात से कहीं ज़्यादा तकलीफ है
    कि युवा लेखिका अब उनके घर नहीं आतीं और उनके घर के गेट पर जो बोगनवेलिया (जिसकी पत्तियां एक साथ सफेद और गुलाबी दो रंगों की होती हैं) है, उसकी तारीफ़ नहीं करतीं।
    कि युवा लेखिका उनको देखकर सरे-राह इग्नोरकर देती हैं और आप कहाँ जाना चाह रहे हैं?’ आदि पूछने की ज़रूरत भी नहीं समझतीं।
    कि युवा लेखिका उनका हाल-चाल नहीं पूछतीं, जब वे बीमार होते हैं।
    कि हिन्दी साहित्य का केंद्र कलकत्ता, पटना, बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ से उजड़ कर दिल्ली बन गया है।
…तो इसमें बुरा क्या है? अगर दिल्ली में हिन्दी साहित्यकारों का जमावड़ा है। यह बात भारत के किसी भी शहर पर लागू होती है। समय के साथ अगर साहित्य केंद्र भी बदलते रहे हैं तो शुभ-संकेत है। मत भूलें कि पानी बहने की बजाय एक जगह जमा हो जाए, तो सड़ने लगता है। किसी भी तरह के बदलाव से डरने वाले लोग अपनी आँख में अतीत लेकर जीते हैं। मुझे अतीत के उपयोग से इंकार नहीं मगर बता दूँ कि जिनकी आँखों में भविष्य नहीं होता, वे जीवित होकर भी मरे हुए के समान हैं।   
वरिष्ठ लेखक यह भी कहते हैं, यदि कोई पाठक मेरी डायरी के संबद्ध अंशों की प्रामाणिकता को जाँचना चाहे तो उसे यह सुविधा लेखक के द्वारा उपलब्ध करा दी जाएगी।” यहाँ दो बातें समझ लेने जैसी हैं। पहली तो यह कि वरिष्ठ लेखक अपनी डायरी में महुआ माजी से जुड़े हुए हर एक प्रसंगों को एक-एक कर के नोट करते रहे। क्या उन्हें मालूम था कि भविष्य में ऐसा कुछ होने वाला है और डायरी के पन्ने प्रमाण बनकर प्रस्तुत होंगे। अगर डायरी लेखन उनका शौक़ है तो मैं यह भी जानने को उत्सुक हूँ कि महुआ माजी के अलावे और किन-किन लेखक/लेखिकाओं/व्यक्तियों का ज़िक्र है। दूसरी यह कि डायरी के प्रामाणिक होने का प्रमाण क्या है? काग़ज़ के किसी भी टुकड़े पर कुछ भी और कोई भी तारीख लिखी जा सकती है। इसीलिए निज़ी डायरी को प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत करना एक सोची-समझी नासमझी है।
अब बात करते हैं “मैं बोरिशाइल्ला के मूल लेखक की। इस बात का फ़ैसला हमें महुआ माजी की ईमानदारी पर छोड़ देना चाहिए। दरअसल,कोई भी व्यक्ति इस संदर्भ में प्रमाणिक नहीं हो सकता क्योंकि फिर उस व्यक्ति की प्रामाणिकता का प्रश्न खड़ा हो जाएगा। वो कहते हैं, “महुआ माजी को यह भी बताना चाहिए था कि उन्होंने (पुस्तक लेखन में) किसका साक्षात्कार लिया था, जिनके साक्षात्कार से उन्हें सहायता और सहयोग मिला वे कौन थे?” क्या यह ज़रूरी है कि हर रचनाकार अपने लेखन से सम्बंधित सभी पहलुओं को अलग से लिखे।
वरिष्ठ लेखक अपने आलेख में एक जगह लिखते हैं, “क्या किसी रचनाकार को इतनी छूट भी मिल जाती है कि वह शोधग्रंथ और उपन्यास को मिलाकर एक नए प्रकार की खिचड़ी पका दे?” मैं सिर्फ़ इतना पूछना चाहता हूँ कि यह छूट देने का हक़ आख़िर है किसे? क्या किसी को इतनी छूट है कि वह शोधग्रंथ और उपन्यास (जैसा कि उनका मानना है) को मिलाकर एक नए प्रकार की खिचड़ी पकाने से रोके? अगर खिचड़ी खाने वालों पसंद है, तो खिचड़ी न पचा पाने वालों को दर्द क्यों? मैं मानता हूँ कि एक लेखक को हमेशा अपने मुताबिक़ लिखना चाहिए और सिर्फ़ पाठकों से सरोकार रखना चाहिए।
मैं इस बात से इत्तफ़ाक़ रखता हूँ कि लेखक बनाए भी जाते हैं लेकिन अगर श्रीलाल शुक्ल आज होते तो मैं उनसे ज़रूर कहता, “मैं उस लेखक को महान नहीं मानता, जो बनाया गया हो।” और मेरे लिए श्रीलाल शुक्ल एक महान लेखक हैं। मैं वरिष्ठ लेखक सहित तमाम रचनाकारों से बड़ी ही विनम्रतापूर्वक कहना चाहूँगा कि सबसे पहले वो स्व-स्वामीबनें। अपनी रचनात्मकता का सही इस्तेमाल करें। और जहाँ तक पताका फहराने की बात है तो पताका चाहे किसी भी चीज़ का क्यों न हो वह अहंकार का विस्तार ही होता है।
अंत में, मैं प्रभात रंजन के कथन “मौलिकता की बात हिंदी में लेखिका के सन्दर्भ में ही क्यों उठाई जाती है?” से सहमति रखते हुए यह भी कहना चाहता हूँ कि अक्सर पुरुष की ही क्यों किसी लेखिका पर सवाल उठाते हैं? इस प्रकरण में मुझे अन्य लेखक और लेखिकाओं की चुप्पी एक बूझ क़िस्म की पहेली लगती है। मैं उम्मीद करता हूँ कि लेखक और लेखिकाएँ (फेसबुक पर फोटो अपलोड करने और म्युज़िक वीडियो शेयर करने के साथ-साथ) देर-सवेर अपना पक्ष ज़रूर रखेंगे। 
 
      

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11 comments

  1. बेहतर होता की गोस्वामीजी चुप रहते।

  2. बढ़िया तार्किक और ज़रूरी

  3. रोचक सवाल हैं। 🙂

  4. I m often to blogging and i really appreciate your content. The article has actually peaks my interest.

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