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रति अग्निहोत्री की कविताएँ

रति अग्निहोत्री की कविताएँ.  समकालीन संवेदना के साथ समकालीन शब्दावली को पिरोनेवाली यह कवयित्री संगीत और कविता को लेकर प्रयोग करती रही हैं, कार्यक्रम करती रही हैं. फिलहाल उनकी कुछ कविताएँ- जानकी पुल.
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चंद लफ्ज़
चंद लफ्ज़ों
के कम्पन
को
यूं अतिशयोक्ति
के रस में डुबा
व्यापकता का जामा न पहना
क्योंकि जो व्यापक है
वास्तव में,
वह तेरे पहचान पत्र के साफ्ट्वेयर को छोड़
खुद आकाश में जा समायेगा.
सोच में डूबी हुई सी रात
सोच में डूबी हुई सी रात
कभी स्याही बन, कभी खून बन
हमारी नींदों को बिस्तर से समेट
हमें चेतन अवचेतन के कटघरे में घसीट
हमसे पूछ्ती है,
क्यों ये पल पल बरसती उन्माद की बारिश
यूं अचानक विषाद में तब्दील हो जाती है?
क्यों ये तेरी मदिरामयी आंखों के लाल डोरे
एकाएक काले घेरों में बदल जाते हैं
क्यों ये अनुभुति की छींटों का जादू
यूं अचानक हलक में अटक सांसों का दुश्मन बन जाता है
और क्यों ये पल पल बढ‌ता घटता चांद
तेरी आंखों में अक्सर खून बन उतरता है?”
रात के इन बेहिसाब सवालों की मौजूदगी में
हम अक्सर घबरा कर यथार्थ की नब्ज़ टटोलते
और देते उसे
अपने खाने पीने, उठने बैठने, सोने जागने
का पूरा ब्योरा
लेकिन रात हमारी एक न सुनती
और कभी स्याही बन, कभी खून बन,
हमारी तमन्नाओं के चिथड़े लपेट
हमारी भावनाओं के जुगनू समेट
हमसे पूछ्ती……….
शब्द, ध्वनि और सांस
सांस लेना
या ना लेना
आंसुओं को दबा देना
या बहने देना
व्यर्थ की औपचारिकताएं हैं सब
सांस आंसू बहना रुकना दबना
तेज़, कम, हौले, मद्धम
पर्यायवाची हैं सब
एकदम निष्क्रिय
बर्फी पर लगे वर्क सी
सजावट है ये सब
जब कभी गलती से ही
खुद की ही उंगली दांतों के बीच दबा लेते हो
तो दर्द का एह्सास होता है
बर्फी का टुकड़ा कुतरते हो
तो मीठे का एहसास होता है
तिनका तिनका कर किसी को दिल से बाहर
निकाल फेंक्ने की कोशिश करते हो
तो सांसों में खिंचाव होता है
किसी बिलखते हुए भिखारी बालक की सूनी आंखों को
अपने मासिक कविता पाठ के बीच में नहीं आने देते
तो अपने पर ही खीज होती है
जलेबीनुमा बातें कर
बुबुद्धिजीवी होने का रास रचाते हो
तो खुद की माया पर ही फख्र होता है
और कभी कभी तो होने न होने के बीच की
न जाने कितनी ही अवस्थाओं से गुज़रते हो
तो फिर क्या कागज़ कलम ले हिसाब लगाते हो
कि कितने प्रतिशत चेतन मन किस कटघरे में था
और उसका अचेतन साथी कहां कुलांचे ले रहा था
खुद ही शब्द बनाते हो
अपने को बचाने के लिये
कि क्रिया, संज्ञा, विशेषण की जबरन थोपी गयी
व्यवस्था का सहारा लेकर
बच पाओगे उस अव्यवस्था, उस अराजकतावाद से
जो तुम्हारे मूल में ही बसी हुई है
जो तुम्हें मजबूर करती है
शब्द, ध्वनि और सांस के बीच झूलने को…
वाकई क्या यह वही आदमी है?
गुस्सा
तो
आता
था
कभी
अब तो मैं खुद
सायनाइड के गोले चूसता हूं
इंसानी खून की सबसे उत्कृष्ट किस्मों का सेवन करता हूं
तुम्हारे आंसुओं से बने गुलाबजल का फेसपैक लगा दिन ब दिन निखरता हूं
और जब इन नैसर्गिक अय्याशियों की सारी चरम सीमा पार कर लेता हूं
फिर सड़क किनारे बैठ
भावभीनी मुद्रायें गढ़
खुदी की बेशुमार तस्वीरें उतरवाता हूं
और मजाल है जो कोई पहचान पाए
कि अरे ये तो वही बहुरूपिया है
जो इंसानी भेष में इंसानों की ही अस्मिता लूट्ता है
वो जो कागज़ पर चित्र बना
अपने कमरे की दीवारों पर लटकाता है
और अगर चित्र बनाने की प्रक्रिया के दौरान
कोई इंसान उसके पास जाता है
तो उसे ज़िंदा कील पर ठोंक
उस का भी चित्र उतारता है
वाकई क्या यह वही आदमी है?
जो सायनाइड के गोले चूसता है
और इंसानी खून की सबसे उत्कृष्ट किस्मों का सेवन करता है…
किस्से कहानियों में रहने वाले लोग
हम तो किस्से कहानियों में रहने वाले लोग थे
तुमने परदा हटाकर सारा खेल ही बदल डाला
अपने ठोस और शुष्क समीकरणों से
लूट लिया हमारा वो आसमां
जो पल पल पिघलता था
एकाएक यूं रंग बदलता था
वो आसमां जो अब तक बचा था
खूंखार शब्दों के गलीचे से
उसे
आवाज दे
शब्द दे
नाम दे
जबरन
तुमने तो उसका मर्म ही छीन लिया
वो जो अस्तित्वमयी है बिना किसी रूपरेखा के
क्या इतना ज़रूरी है उस पर जबरन कील ठोंकना?
और वो आसमां
आज भी यूं बार बार रोता है
कि क्यों उसके नरमदिल अधपके केनवास को बना दिया
यूं झूठी मूठी का परिपक्व, सुदृढ़ और सख़्त?
अब हैरान न होना तुम
और न ही भय खाना
अगर वो आसमां आग बरसाये तुम पर
वो जो इतने खून के आंसू आज रोता है
आखिर कुछ तो मुआवजा बनता है
और हम
हमारी तो तुम बात ही न करो
हम तो बनते बिगड़ते रहते हैं
रेत की मानिंद
बस हमें कैद न करो
कि हम तो किस्से कहनियों में रहने वाले लोग थे….
चित्रों की जाली दुनिया में
सब कुछ कांपता सा, बुझा बुझा सा लगता है.
रात की मत्सय लीला मुझे यूं डसने सी आती है
आखिर अब तो चित्रों की जाली दुनिया में ले चलो
मुझे
खौफ नहीं परछाइयों के पाश का
ऐसी आंखों से जो कल कल कर
पथरीला पानी बरसाती हैं
मुझे खौफ है उन
सीप नुमा आंखों का
वो आंखे जो मुझे घूरती हैं सिर से पांव
फिर ढूंढती हैं सिरा मेरे होने या ना होने का
वो जो रेशम से नरम जलवों में
मुझे कांच का तोहफा दिये जाती हैं
जो कांच
मेरे दिल में बैठ
मेरी स्याही को लहुलूहान कर देता है
अब ऐसे में भला क्या लिखूं मैं
क्या रचूं जो इस तिलिस्म से आज़ादी दे
मुझे अब चाह है उन रंगों की
उन जज़्बों की …
जो कि मेरे दिल के बाहर मिलते हो
अब तो ले चलो मुझे, हाँ ले ही चलो
चित्रों की जाली दुनिया में…
भीख मांगता बच्चा
सड़क के किनारे भीख मांगता बच्चा भी समझता है
मार्केटिंग़ के मूलभूत सिद‌हांत
मैन्युफैक्चर्ड मासूमियत भरी निगाहों से तुम्हारी तरफ देख
तुम्हे यहां वहां छूकर दया भड़काने की कोशिश करता है
और जब लगा कि तुम कुछ नहीं दोगे
तो तुम्हे ताने मारता हुआ आगे बढ़ निकलता है
ठीक वैसे ही जैसे किसी दुकान का मालिक
तुम्हारी आवभगत कर चाय पानी पूछ्ता है
और जब तुम बिना कुछ खरीदे ही चलते बनते हो
तो खीस निपोरता रह जाता है
पर सबसे शातिर होता है शोरूम का मालिक
तुम्हे तंग नही करता
बेशुमार विंडो शापिंग करने की इजाज़त भी देता है
और तुम सोचते हो, कि वाह, कुछ तो बात होगी
इस मल्टीनेशनल पिंजरे में
कि मैं उसमे आराम से घूम फिर सकता हूं
और तुम बिना कोई ना नुकुर किये
वही चीज़ पांच हज़ार रुपये में खरीद लेते हो
जो वो रेहड़ी वाला पांच सौ में बेच रहा था
ऐंड आइ टेल यू
मैं तो बेइज़्ज़ती भी फ्रेंच वाइन की बोतल के साथ प्रेफर करती हूं
और वैसे भी कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज्म
और बेइज़्ज़ती में बहुत फर्क होता है
खैर कल मिला था वो भिखारी बच्चा मुझे
हाव भाव से तो बिल्कुल बौराया हुअ लग रहा था
बोला कि शोरुम खोल लिया है
जहां भूख से मरे हुए बच्चों के कंकाल बेचे जाते हैं
जितना पुराना कंकाल, उतनी बड़ी बोली
बोला कि उसका शोरुम जल्द ही स्टाक ऐक्स्चेंज में लिस्ट होने जा रहा है
लोकल चैनल तो सब धड़ल्ले से स्टोरी निकाल चुके हैं
अब तो विदेशी मीडिया की होड़ है
लेकिन इतने सारे कंकाल सोर्स करने के लियी बड़ी मेहनत करनी पड़ती है
खैर…

 
      

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5 comments

  1. nice poem.

  2. behatar kavitaaen.

  1. Pingback: 다시보기

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