दिल्ली में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद हुए आंदोलन के में लेखकों-लेखक संगठनों की भूमिका को लेकर आज जनसत्ता में संपादक ओम थानवी और निर्मला जैन के लेख प्रकाशित हुए हैं. ओम थानवी ने पिछले हफ्ते जो लेख लिखा था उसे लेकर सोशल मीडिया में बड़ी बहस चली. इस लेख को उन बहसों के सन्दर्भ में भी देखे जाने की जरुरत है. हालांकि यह सवाल अपनी जगह बरकरार है कि विकट दौर में साहित्यकार की भूमिका क्या होनी चाहिए. इसको लेकर इस लेख के माध्यम से जानकी पुल बहस आमंत्रित करता है.
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यह नाम का मामला है ही बड़ा पेचीदा। भूल मुझसे ही हुई जो अपनी टिप्पणी में बलात्कार के प्रतिरोध में इंडिया गेट पहुँचने वाले कुछ शुरुआती नाम गिना दिए। उससे अपना नाम उछालने की होड़-सी मच गयी है। मुझे कोसते हुए हैरानी भी जताई है कि संघर्ष के हक में मेरे जैसे (अज्ञेयवादी?!) कैसे बोलने लगे; जैसे बोलने का अधिकार भी किसी वामपंथी लेखक संगठन की सदस्यता के बाद हासिल होता हो! एक उत्साही निंदक ने मुझे प्रतिक्रियावादी बताते हुए संघ परिवार की पांत में बिठा दिया है; दूसरे ने यहाँ तक लिख डाला कि “दिल्ली गैंग रेप जनसत्ता के लिये एक सेलिबरेशन बन गया”!!
हालांकि निर्मला जी को छोड़ और कोई लिखी प्रतिक्रिया मुझे सीधे नहीं मिली है। एक वामपंथी संगठन जन संस्कृति मंच के लोग (लेखक?) जरूर खफा हैं। मेरा वामपंथी लेखकों से कोई विरोध नहीं। इसका सबसे प्रमाण इन पंक्तियों के लिखने के दौरान घोषित शमशेर सम्मान है, जिसके निर्णायकों में सब जाने-माने वामपंथी साहित्यकार हैं। इस बात को मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूँ। मैं उन संगठनों की जरूर आलोचना करता आया हूँ जो अजीबोगरीब राजनीति करते हुए चुनिन्दा लेखकों को साहित्येतर कारणों से खारिज करते हैं। इस मतभेद के बावजूद उन संगठनों के कार्यक्रमों में मैं ख़ुशी से शिरकत करता हूँ।
अपने लेख में असल सवाल विकट दौर में साहित्यकार की भूमिका को लेकर उठाया था। आन्दोलन के शुरुआती दौर के सन्दर्भ में मैंने लिखा था: “हैरत की बात है कि संघर्ष की प्रेरणा देने वाले संगठन उस वक्त सोए हुए थे, जब स्वतःस्फूर्त आन्दोलनकारी राजपथ और इंडिया गेट के गिर्द पुलिस की लाठी खा रहे थे..”।
टिप्पणी में नाम सिर्फ यह बताने के लिए दिए कि आन्दोलन उठा तब दिल्ली में अहम साहित्यकार निष्क्रिय थे। न वे अन्यत्र मुखर थे। लम्बी सूची बनानी होती तो मैं और नाम भी जोड़ सकता था। प्रभात रंजन, आशुतोष कुमार के नाम मेरे ध्यान में थे। प्रकाश के रे ने प्रतिरोध के दौरान जो लेखक या पत्रकार नजर आए उनकी सैकड़ों तस्वीरें ली थीं, कुछ फेसबुक पर लगाईं भी। मेरे मित्र आनंद प्रधान, आदित्य निगम, रवीश कुमार, अविनाश दास, विनीत कुमार, मिहिर पांड्या आदि अनेक लेखक वहां थे। पर मैंने केवल साहित्य की दुनिया में सक्रिय रचनाकारों का मुद्दा उठाया था। कहीं किसी तस्वीर में कोई जाना-पहचाना साहित्य का हस्ताक्षर आपको कहीं दिखाई दिया? नहीं, तो प्रतिवाद किस बात का?
सच्चाई यह है कि प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ ने इस आन्दोलन में पूरी उदासीनता दिखाई। उनसे जुड़ा कोई प्रमुख साहित्यकार उन आयोजनों में भी नहीं था जो उनकी विचारधारा की अगुआ सीपीआई और सीपीएम से जुड़े संगठनों ने आयोजित किए। उनका बैनर भी पूरे पखवाड़े दिल्ली में कहीं नहीं दिखाई पड़ा। न ही जन संस्कृति मंच का। तीनों संगठनों से जुड़े लोगों ने फेसबुक पर खूब तस्वीरें और वीडियो लगाए हैं। कोई एक बैनर उनकी अपनी तस्वीरों में नहीं है; एपवा, आइसा-इनौस, एक्टू के जरूर मिलेंगे।
जन संस्कृति मंच का कहना सही है कि उसने ने प्रेस नोट जारी किये थे। हालाँकि न वे मेरे देखने में आये न सहयोगी राकेश तिवारी, फजल इमाम मलिक या किसी अन्य के। इसमें हम हमारा दोष मान लें, पर उन विज्ञप्तियों में लिखा क्या था? अब तो अपनी सक्रियता के प्रमाणस्वरूप नेट पर उन विज्ञप्तियों का बहुत प्रचार है, उन्हें फिर से पढ़ा जा सकता है।
जो विज्ञप्ति 19 दिसंबर को जसम अध्यक्ष मैनेजर पाण्डेय के हवाले से जारी हुई, उसकी भाषा देखिए: ” … उसके यौनांगों में लोहे के रॉड से हमला किया गया, उसके विवरण काफी दिल दहलाने वाले …”; ” …लोहे के रॉड, बोतल या किसी अन्य वास्तु से यौनांगों पर किये गए प्रहार … “। क्या यह मानवीय सरोकार रखने वाले किसी संवेदनशील साहित्यकार की भाषा हो सकती है? दूसरी बात, पीड़ित युवती ने पहला बयान अस्पताल में अपनी मां के समक्ष एसडीम को 21 दिसंबर को दिया था। वहशी बलात्कार के “विवरण” जसम को 19 तारीख को कहाँ से मिल गए, 16 को बर्बर हादसा होने के सिर्फ के तीन बाद? ऐसी बयानबाजी को छापना न छापना दूसरी बात ठहरी, पर मुझे शक है कि मैनेजर पांडे के नाम से यह विज्ञप्ति किसी और ने लिखी होगी।
जसम का दूसरा प्रेस नोट 23 दिसंबर का है। उसमें लिखा था कि अन्य संगठनों के साथ उस रोज उनके प्रदर्शनकारी पुलिस के बैरीकेट तोड़कर इंडिया गेट पहुंचे और सभा की। उसमें कौन थे? “जसम की ओर से कवि मदन कश्यप, पत्रकार आनंद प्रधान, आशुतोष, सुधीर सुमन, मार्तंड, रवि प्रकाश, कपिल शर्मा, उदय शंकर, खालिद भी”। अगर एक मदन कश्यप का नाम लेकर जसम के जुझारू यह कहना चाहते हैं कि साहित्यकार इंडिया गेट पर थे मुझे अपना तर्क दुबारा पुष्ट करने की जरूरत ही नहीं है।
हाँ, कुछ हवाले मुझे लाहौर से लौटने के बाद मिले। उनका भूल-सुधार जरूरी है। कवि-संपादक विष्णु नागर ने अपनी पत्रिका ‘शुक्रवार‘ में सम्पादकीय लिखा था। कवयित्री सविता सिंह ने भी उसमें टिप्पणी की। वीरेंद्र यादव ने प्रभात खबर में लिखा था। गिरिराज किशोर ने अमर उजाला में लिखा। राजपथ से आन्दोलन के हटने के बाद दिल्ली और देश भर में जगह-जगह प्रदर्शन हुए, शिक्षण संस्थानों में भी सभाएं हुईं। जसम, दिल्ली की भाषा सिंह हमेशा सक्रिय रहती हैं। उन्होंने एक गोष्ठी महिला प्रेस क्लब में की, जिसमें लेखकों में मैत्रेयी पुष्पा, प्रेमलता वर्मा, सविता सिंह, नीलाभ आदि शरीक हुए।
पर जसम के तीनों बड़े पदाधिकारी मैनेजर पांडे, मंगलेश डबराल और प्रणय कृष्ण जसम की उपर्युक्त गोष्ठी में नहीं थे! तीनों 19 दिसंबर के इंडिया गेट प्रदर्शन में भी नहीं थे, जिस रोज मैनेजर पाण्डे के नाम से बयान निकला। न ही तीनों 23 दिसंबर को जसम के इंडिया गेट पर आयोजित प्रदर्शन में थे। इनमें दो तो दिल्ली में ही रहते हैं।
इस सम्बन्ध में आलोचक वीरेंद्र यादव की बात मुझे सम्यक लगी, जिन्होंने लेख की प्रतिक्रिया में फेसबुक पर यों लिखा: “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी का लेखक समुदाय और संगठन समाज और साहित्य के गंभीर मुददों पर अपनी असरदार भूमिका का निर्वाह करने में कमतर सिद्ध हो रहे हैं। संवेदनाओं की सामूहिक सामाजिक अभिव्यक्ति होना और इसका दीखना निहायत जरूरी है …आपने सही ध्यानाकर्षण किया है …. यह सही है कि लेखक समुदाय का सामूहिक हस्तक्षेप सामने नहीं आया है ..इसकी आलोचना भी ठीक है और लेखक समुदाय और संगठनों को आत्मालोचना की भी जरूरत है।”
आत्मालोचन? क्या ओम भाई, चील के घोंसले में मांस तलाश रहे हो…
धुंध ही धुंध है …
नापतौल करने वाले लेखक
और संस्कृति कर्मी ही ज्यादा है,
नितांत मानवीय पक्षधरता का अभाव …
सोनाली ठीक कहती हैं। मेरी मुराद उन लेखकों से थी जो संघर्ष के नारे लगाते हैं, उसकी प्रेरणा देते हैं, पर संघर्ष के क्षण नदारद रहते हैं।
-ओम थानवी
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कुछ लोग आस- पास की भाषा सुधारने में भी लगे हुए थे …..सबके अपनेअपने तरीके होते है विरोध करने के ……कुछ लोग न्याय के लिए लड़ेंगे ……कुछ सुसंस्कृत समाज में निर्णायक भूमिका अदा करेंगे यहाँ तक की आप उस लेखिका को भी अनदेखा नहीं कर सकते जो इस दौरान अपने बेटे को महिलायों का आदर करने की सीख दे रही थी / है …..
मैं एक अदना सी पाठिका हूँ पर फेसबुक और ब्लोगस पर प्रकाशित बहसों और पोस्ट्स को पढ़ने के बाद यही विचार मेरे मन मे उपजा कि "writers or rioters?"….या कहीं एक दूसरे के पर्यायवाची तो नहीं ये?
सुनीता
यह हम हिंदीवालों की आदत है। हम इन सब जगहों पर सक्रिय नहीं होते। हम वहाँ सक्रिय होते हैं, जहां हमें लगता है कि इससे हमारी वैल्यू बढ़ेगी। हमें तो किसी को सुनने कि भी आदत नहीं। यह कृपणता कैसे और कहाँ से आई, इस पर सोचने और इन प्रवृत्ति से लड़े जाने की ज़रूरत है।
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