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श्रीकांत दुबे की कहानी ‘ब्लेड’


बीच-बीच में कोई अच्छी कहानी कहीं पढ़ता हूं तो आपसे साझा कर लेता हूं. आज आपसे युवा लेखक श्रीकांत दुबे की कहानी ‘ब्लेड’ आपसे साझा कर रहा हूं. अच्छी लगेगी- जानकी पुल.
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जीन हमारी देहों में पैतृक लक्षणों के संवाहक होते हैं। लेकिन हमारे जिस्म की हरकतों में बहुत सारे ऐसे गुण भी छिपे होते हैं जो बिलकुल नए और अजीब कारकों से पैदा हों। उस पहले कारक, यानी जीन का असर मुझ पर यूं है कि मैं पिता की तरह फिजूल लंबाई चौड़ाई का तथा मां के जैसा चुप्पा और खूबसूरत पैरों वाला आदमी हूं।
लेकिन मेरे दांतों के बीच किरकिरी होने की कोई दूसरी ही वजह है।

ऐसा होने पर हर बार मुझे लगता है कि किसी ने दांतों के बीच एक मुट्ठी रेत बुरक दी हो। मेरे दांत, दांतों से सट जाते हैं और जबड़े एक दूसरे के उपर जब्त रहते हैं। इस तरह की त्रासद किरकिरी से गुजरना मेरे साथ ऐसे किसी भी वक्त में हो सकता है, यदि कल्पना और स्वप्न से लेकर हकीकत के बीच तक कहीं से भी मेरे सामने एक ब्लेड आ जाए।
वे मेरे बचपन के दिन थे और मां एक अजूबा थी। अजूबा खूबसूरत फूलों वाला एक पौधा था। उसकी जड़ें सघन पंजे की तरह जमीन को जकड़े रहती थीं। उसकी मोटी पत्तियों पर अनेक आंखें होतीं, जहां से नन्हें कल्ले फूटते थे। धीरे धीरे कल्लों में भी जड़ें उग आतीं और फिर वे अलग पौध के रूप में दूसरी जगह रोप दिए जाते थे।

तब, मां और मैं एक दूसरे के सबसे करीब रहते और अपनी हरकतों पर आसमान की तरह छाए पिता के शासन में परस्पर के दुख दर्द बखूबी समझते थे।

पिता एक मशीन थे।

वह ईंधन की तर्ज पर खाना खाते और सजा देना अनिवार्य समझते थे। इस अघोषित, लेकिन सर्वमान्य  कानून के कारण ही उनका हुक्म बजाने वाले कमीन बार बार बदल दिए जाते थे। नए कमीन सबसे अच्छा काम करने वाले होते और नौकरी से हटाए जाने के बाद किसी और काम के लायक नहीं रह जाते थे। यह सजा देने की अनिवार्यता के कारण ही होता था, जिसके लिए अपराध का प्रावधान भी पिता खुद ही कर देते थे।

पिता से मिलने वाले दंड की दहशत पूरे घर पर बरसाती हवा में नमीं की तरह छाई रहती थी। चाचा, इसके किसी प्रत्यक्ष प्रकोप से बचने के लिए हफ्तों तक उनके सामने नहीं जाते। घंटों दिन चढ़े घर से निकलते और एक हिस्सा रात गए वापस आते थे। यह दोनों समय, क्रमशः, पिता के घर से बाहर और नींद के भीतर होने का होता था। लिहाजा चाचा को घर की खामोशी में बस एक खौफ ही बची मिलती, जिससे समझौता कर लेने की उन्हें आदत थी।

घर के पिछले हिस्से में एक बागवानी थी। उसमें कभी आम के बहुत सारे पेड़ हुआ करते थे, जो मेरे दादा के लगाए हुए थे और खास तौर से कलकत्ते से मंगाई नस्ल के थे। पेड़ों के नीचे की साफ सुथरी जमीन पर मजदूर औरतें धान की कुटाई और गेहूं की मढ़ाई किया करती थीं। घर की औरतों के लिए उंचाई पर खुलते रौशनदानों वाले बंद, दैत्याकार कमरे थे।

लेकिन दादा के गुजरने के बाद पिता ने सब कुछ अपने हाथों में ले लिया और बागवानी की तस्वीर भी समूची बदल डाली। सारे पेड़ काट दिए गए और उनके बीच खुदा गहरा कुआं भी बंद कर दिया गया। उसमें गांव के मजदूरों का प्रवेश भी रोक दिया गया तथा उंची चारदीवारी से घिरकर वह एक विशाल आंगन में तब्दील हो गया। उसके भीतर विदेशी घास के मखमली पौधे रोपे गए और जगह जगह लीची तथा पोस्ता फूल के पौधे लगा दिए गए। अब पिता की अनुपस्थिति में, घर की औरतें भी बागवाली में घूम टहल सकती थीं। सो, मां ऐसा करने भी लगीं। लेकिन पिता की आहट भर से उन्हें कोप भवन सरीखे कमरों की कतार में कहीं घुस जाना होता था। औरतों को मिली किसी भी तरह की छूट का वे कोई दूसरा उपयोग न कर सकें, इसलिए घर के अंदरूनी काम काज उन्हीं के जिम्में छोड़े गए थे। मसलन रसोई घर से जुड़ते प्रसंग और बच्चों की देख रेख और साफ सफाई के सारे काम।

पिता के खाने में नमक मिर्च के अनुपात का उनकी पसंद से अलग हो जाना, तथा हमारे स्कूली सफेद कपड़ों पर धूल का कतरा भी उन्हें बर्दाश्त नहीं हो सकता था। लिहाजा रसोई में थाली की झनकार तथा किसी भद्र गाली के बाद एक नए नियम की ललकार कभी भी सुनाई दे जाती थी।

उन दिनों तक, लोग अपने जीवन में तकनीकी विकास को पर्याप्त जगह देने लगे थे। लेकिन, जाहिर तौर पर पिता की जिंदगी के अपने कायदे थे, जिसमें किसी बदलाव की गुंजाईश तभी थी, जब उनकी ऐसी मर्जी हो। मेरे सहपाठियों के पिता, जहां दाढ़ी बनाने का रेजर और आॅफ्टर शेव लोशन खुद से इस्तेमाल कर लेते थे, पिता की हजामत उस्तरे से बनती थी। जिसके लिए नाई नाम का एक आदमी सदा तत्पर रहता था।

मैं स्कूली शिक्षा की शरुआती दो कक्षाएं पार कर चुका था। और इन वर्षों के अनुभव से मैं स्कूल को पिता के प्रभाव से मुक्त मानने लगा था। इसका एहसास मां को भी था और इसीलिए वह हर रोज मुझे उत्सुकता से तैयार करतीं, स्कूल भेजती थीं।

डाॅली, प्रवीन, नीलू और मैं, जो कक्षा में सबसे जहीन तथा परस्पर अच्छे दोस्त थे, स्कूल में दोपहर के खाने के वक्त एक दूसरे के डिब्बे बदल लेते थे। यूं अकसर तो हमारी पसंद के मुताबिक यह पहले से तय रहता था कि किसके डिब्बे का खाना कौन खाएगा, लेकिन कभी कभार वाद विवाद शुरू हो जाने पर हम एक छोटे से खेल के द्वारा इसका निर्धारण करते। तीन लोग मिलकर चारो के डिब्बों के लिए एक से लेकर चार तक की संख्याएं निर्धारित करते और फिर चैथे से पूछते कि फलां नंबर डिब्बा किसका? उत्तर के बाद अकसर हममें से किसी को भी अपनी पसंद का डिब्बा नहीं मिल पाता, लेकिन खेल के द्वारा हुए इस फैसले की हम पूरी कद्र करते और जिसके हिस्से में जो भी डिब्बा आता, उस रोज वह उसी डिब्बे का खाना खाता था। मुझे प्रवीन के डिब्बे का खाना खूब भाता, जिसमें उजली वृत्ताकार रोटियों के बीच गुड़ की डली या फिर ढेर सारा पीलापन लिए आलू की सब्जी रखी होती थी। कत्थई रंग के गुड़ तथा सब्जी के पीलेपन से सटी रोटियां रंगीन, खूबसूरत, यूं मेरे लिए आकर्षक बन जाती थीं। डाॅली चुपचाप किसी के भी खाने को खा लेती, प्रवीन को नीलू के डिब्बे से ब्रेड बटर और चाॅकलेट पसंद आते और नीलू को मेरे डिब्बे में अलग अलग खानों में सजे पराठे, भुजिया और मिठाई की तहजीब अच्छी लगती थी।

हम सभी अपने घरों से स्कूल तक पैदल पहुंचते थे। इसके लिए सबसे लंबी प्रवीन को तय करनी पड़ती थी। प्रवीन के घर से स्कूल के रास्ते में इमली का एक बगीचा भी आता था। जिसमें कई पेड़ों की गांछें काफी नीचे तक आती और थोड़ी सी मेहनत कर, वह अच्छी तादाद में इमली की फलियां हथिया लाता था।

इमलियों का मौसम दांतों को सनसना देने वाले खट्टे स्वाद से भरा होता, जो प्रवीन के बस्ते में कैद रहता था। हम चारो, अपनी मर्जी के अनुसार, जरूरत भर की सनसनी और खट्टापन यानी इमली की फलियां निकाल लेते। लेकिन औरों के ऐसा करने पर रोक थी। इसके लिए उन्हें प्रवीन की रहमदिली का इंतजार करना पड़ता था। ढेर सारी मिन्नतें सुन लेने के बाद प्रवीन बस्ते से एक इमली की एक फली निकालता, किसी तानाशाह के उंगली की तरह उसे हवा में उठाता, फिर उसके टुकड़े टुकड़े कर लड़कों में बांट देता।

यूं ही एक दिन उसने एक और इमली की फली निकाली, लेकिन उसे बांए हाथ में ही रखा, और हवा में लहराया एक ब्लेड। वह उंगलियों के ताकत की जगह ब्लेड की हरकत से इमली के कई टुकड़े कर दिया। हम चारो अपने हिस्से की कतरनें उठा लिए। ब्लेड द्वारा इमली पर बनी काट, मुझे उसके खट्टेपन और दांतों की सनसनी से अधिक रोचक लगी। मैंने देर तक उसकी काट को जीभ से छूकर खट्टा सा महसूस किया। और अगली तलाश में प्रवीन के बस्ते से इमली की फली के साथ ब्लेड भी खोज लिया।

मैंने ब्लेड को चुपके से अपने पैंट की जेब के हवाले कर दिया। कक्षाएं खत्म होने पर, दो मजबूर पैरों ने मेरे थके जिस्म को घर पंहुचा दिया।

अगली सुबह भी रोज की ही तरह हुई और मैं स्कूल पहुंचा। मैंने प्रवीन के बस्ते से इमली की एक फली निकाली और उसे काटने के लिए अपनी जेब से ब्लेड की तलाश करने लगा। ब्लेड वहां से नदारद था। दरअसल मां ने मुझे दूसरा पैंट पहना दिया था और पहले को सफाई के लिए अपने पास रख लीं थीं। उस दिन का बाकी हिस्सा बाकी दिनों से इस मामले में अलग था कि वह अनजाने ही उस महीनें की आखिरी तारीख निकल आया। महीने की आखिरी तारीख को हमारी छुट्टी आधे ही दिन की पढ़ाई के बाद हो जाती थी। क्योंकि बाकी के आधे दिन में शिक्षक पूरे महीने में विद्यार्थियों की उपस्थिति और फीस आदि का लेखा जोखा ठीक करते थे। दोपहर में ही घर लौटते हुए मैंने फैसला किया कि अपने साथ वापस हो रहे डिब्बे का खाना, मां की तमाम व्यस्तताओं के बावजूद, जिद करके उन्हीं के हाथों खाउंगा। खुशी में मेरे पैर औसत से बड़े और तेज डग भरते हुए घर में दाखिल हुए।

लेकिन वहां मंजर कुछ और ही था। पैंट को धुलते वक्त उसमें पड़े ब्लेड ने मां की तर्जनी वाली उंगली में गहरी काट लगा दी थी। सफेद रंग की गीली पैंट पर खून का लाल धब्बा था और चाचा की उपस्थिति में कोई डाॅक्टर राम जतन उंगली पर पट्टी लपेट रहा था।

हुआ शायद यूं होगा कि सबसे पहले मां ने मेरे पैंट को दूसरे कपड़ों के साथ डिटरजेंट पाउडर वाले पानी में भिगो दिया होगा। फिर वे रसोई में आकर मेरे लिए मूंगफली भूंजने या फिर मसालेदार चना तैयार करने लगी होंगी। कुछ देर के बाद अचानक उन्हें स्कूल में बैठे हुए मेरी याद आई होगी। मेरी पूरी, छोटी सी देह की याद, और उसे ढके हुए छोटे सफेद शर्ट और वैसे ही पैंट की याद। फिर मां की याद अचानक आंगन में बालटी में भिगोए कपड़ों पर कूद गई होगी, उसमें भी मेरे छोटे से सफेद पैंट पर। मां मेरे पैंट से शुरू कर बारी बारी से सभी कपड़ों को धो देने का फैसला कर आंगन में आ गई होंगी। जाती ठंड और आती गर्मी का मौसम होने के नाते पानी रखे रखे ठंडा हो गया होगा। मां ने उसमें से मेरा पैंट निकाला होगा और उसकी जेब में किसी कागज के कमल, रबर, शर्पनर या एकाध चवन्नी, अठन्नी के निकल आने की उम्मीद कर अपना हाथ डाला होगा। पैंट की लटकती जेब में पड़े ब्लेड की दिशा उध्र्वाधर रही होगी और उसकी एक ओर की धार मां के दांए हाथ की तर्जनी के ठीक नीचे आ गई होगी। मां के हाथ को तब तक पानी के ठंडेपन की आदत पड़ चुकी होगी और तब तक वे मेरे ही किसी खयाल में गहरे तक डूब गई होंगी। इसीलिए पैंट की जेब में नीचे की ओर बढ़ते हाथ को यह समझने में थोड़ी देर लग गई होगी कि ब्लेड की धार तर्जनी के अगले हिस्से के मांस को काटता जा रहा है। मां को यह बात पूरी तरह से तब पता चली होगी जब ब्लेड उंगली के सामने के हिस्से के मांस को काटता हुआ उसके नाखून पर आकर रुक गया होगा। उसके बाद हाथ को बाहर निकालने की हड़बड़ी में मां की उंगली के साथ वह ब्लेड भी जेब के मुहाने तक आ गया होगा। मां ने चुपचाप ब्लेड को देखा होगा, पैंट को नीचे छोड़ दी होंगी और उंगली से टपकते खून को रोकने की जुगत में उसे दूसरे हाथ की किसी उंगली से दबाकर देर तक बैठी रही होंगी। इस बीच शायद चाचा के दिन के खाने का वक्त हो गया होगा, सो वे आंगन से होकर रसोई की ओर गुजर रहे होंगे कि मां को यूं बैठा देख कुछ पूछ पड़े होंगे। यूं आगे डाॅक्टर राम जतन को बुलाया गया होगा।

घर में मेरे दाखिल होते ही, पैंट पर और आंगन में खून का धब्बा देखते ही, मेरी नजर मां से मिल गई। मां झट से अपने दूसरे हाथ से आंखें पोछने लगीं। डाॅक्टर राम जतन द्वारा उंगली पर पट्टी बांध दिए जाने के बाद मां उठकर मेरी तरफ आने लगीं। लेकिन मुझे जहां होना था, मैं उसके आस पास कहीं नजर नहीं आया। वह बेचैनी के साथ ढूंढते हुए मेरे नाम की कई आवाजें लगाईं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। फिर वह एक कोने में चैखट से सिर टिकाकर बैठ गईं। और दूर दूर तक किसी के न होने से आश्वस्थ होकर पहले धीरे धीरे फिर थोड़ा जोर से रोने लगीं।
मैं अनाज रखने के कमरे यानी बखार में, जहां अंधेरे में भूतों के होने के डर से मैं कभी नहीं जाता था, गेंहू की बोरियों के उपर चुपचाप बैठ गया। मां मेरी आंखों के सामने रोशनदान के उस पार बैठी थी। मैं, तब तक कई दफा अपने सपनों और खयालों में मां के साथ बदसलूकी करने वालों के लिए फिल्मी तरीकों से हिंसक और अत्यंत खूंखार भी बन चुका था। लेकिन यहां मां का अपराधी खुद मैं था। और स्वयं को भी कोई सख्त सजा दे देना चाहता था। मुझे किसी खाई में कूद जाने के लिए एक पहाड़ की जरूरत थी। डूब जाने के लिए किसी पोखर तथा जेल की सजा के लिए खाकी रंग की अदद पुलिस की जरूरत थी। अगर मैं बोरियों की उंचाई से भी कूद जाता, तो हद से हद कुछ खरोंचे ही आतीं, जो मेरे अपराध की सजा बतौर कतई नाकाफी था।
रौशनदान से दिख रही मां और मेरे बीच की दूरी मेरे अपराधबोध से बेतहाशा भरी थी, जिसे मैं खुद को कोई दंड देकर ही घटा सकता था। और इसके लिए मैं वहां से देर तक नहीं हटने वाला था। लेकिन सूरज की लाल होती रोशनीऔर अपनी थम रही सिसकियों के साथ मां अपनी जगह से उठने लगीं। ज बवह छूटे पड़े कामों के लिए रसोई घर की ओर जाने लगीं, उनके गोरे चेहरे और रोने से लाल हो आई नाक से एक आत्मविश्वास की झलक आ रही थी। जैसे उन्होंने अभी अभी कोई दृढ़ फैसला किया हो। मुझे यह फैसला अपने खिलाफ लगा। और मां का मेरे खिलाफ होना, कल्पना में भी मेरे लिए असह्य था। बखार घर के अंधेरे में छुपे सारे भूतों ने एक साथ मुझ पर हमला कर दिया था। दिल में दहशत, अपराध और शर्म की भावनाएं अपना चरम पार कर गईं थी और एक पतली हूक के साथ मैं रोने की शुरूआत कर चुका था। मां और मेरे पैर एक दूसरे की ओर दौड़ गए। मां ने मुझसे कुछ नहीं कहा और बांहों में समेटकर फिर से फूट पड़ीं।
तारी खामोशी के बीच शाम ढली और वक्त आया पिता के खाने का। दो एक निवाले निगलने के साथ पिता ने डाक्टर राम जतन के आने की वजह पूछ दी। मां बताया कि गर्म पतीले से उंगली जल गई थी। पिता ने कहा कि जले पर पट्टियां नहीं लगतीं और गांव के भरोसेमंद, लेकिन बिना डाॅक्टरी डिग्री वाले चिकित्सक राम जतन के पिछले कई पुस्तों को अपशब्दों से नवाजने लगे। डाॅक्टर राम जतन को भी उसके किए की सजा देने को तत्पर पिता ने चाचा से उसे बुला लाने का हुक्म दिया।

वह एक फैसले की घड़ी थी।

मां का झूठ अब देर तक नहीं टिकने वाला था। और झूठ के साबित हो जाने पर मां को सजा मिलना तय था। मां को मिलने वाली सजा के बदले मेरे अंदर कुछ भी कर देने का भाव दृढ़ हो चुका था। थोड़ी देर की चुप्पी को चाचा के श्ब्दों ने तोड़ा, ष्उंगली जली नहीं थी, कट गई थी।ष् कहने के साथ चाचा आगे की कार्रवाही से हट जाने के लिए बाहर जाने लगे। लेकिन पिता की आवाज ने उन्हें फिर से रोक लिया। तभी एक दुस्साहस के साथ मैं बोल पड़ा, ‘मैंने पैंट की जेब में ब्लेड रखा था। धोते वक्त मां की उंगली कट गई।

सब कुछ जहां का तहां रुक गया। मां और चाचा की फटी निगाहें मेरे चेहरे पर तथा पिता की आंखें पहले फर्श और फिर उपर की छत पर।

खाना नहीं खाया गया। और कार्रवाई का अंत एक नई घोषणा के साथ हुआ, ष्कल से यह स्कूल नहीं जाएगा और अगले हफ्ते इसे भइया के पास (शहर) पहुंचा दो।

अगले कई रोज तक मां, मौके बेमौके मुझे खुद से चिपकाकर सिसकती रहीं। फिर एक दिन, मैं चाचा के साथ शहर लाया गया, जहां मेरी बड़ी बहन को वर्षों पहले, कुछ ऐसे ही हालात में भेज दिया गया होगा। तब से अब तक हम दोनों बहुत सारी पढ़ाइयां पूरी कीं। दीदी इस दौरान ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन होते हुए परिवार के साथ अमेरिका में बस गईं। मैं भी समय समय पर दुनिया के विभिन्न शहरों की उड़ानें भरता रहता हूं।

समय के इस लंबे अंतराल ने जबकि हम दोनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कल पुर्जों में बदल डाला है, हमारी दूरियों के केंद्र में बसती मां भी, अब यह पूछने के लिए नहीं बचीं कि, ‘छुट्टियाँ कब हो रही हैं?’|


‘पक्षधर’ से साभार.
 
      

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15 comments

  1. जानकीपुल का आभार ,अच्छी कहानी पढ़ाने के लिए , बचपन याद आ गया।

  2. कहानी अच्छी लगी|

  3. हिंदी में माँ पर जो मार्मिक कहानियाँ लिखी गयी हैं , उनमे से एक है ये कहानी .इतनी अच्छी कहानी के लिए लेखक को बधाई और जान्कीपुल का आभार

  4. बहुत भावपूर्ण…साकार हो गया जैसे सब कुछ…इतनी अच्छी कहानी पढवाने के लिए आभार…|
    प्रियंका

  5. बांधलिया कहानी ने …बचपन और दहशत सब याद आ गया ..बेहतरीन….

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