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आस्तीक वाजपेयी की कविताएँ

पहला जानकी पुल सम्मान युवा कवि आस्तीक वाजपेयी को दिया गया है. निर्णायकों संजीव कुमार, बोधिसत्त्व और गिरिराज किराडू ने यह निर्णय सर्वसम्मति से देने का निर्णय लिया. आज बिना किसी भूमिका के उनकी कुछ नई कविताएँ- जानकी पुल.
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इतिहास
हरे आइने के पीछे खड़े लोगों
मुझे क्षमा कर दो।
कोई भाग गया था
शायद मैं,
कोई भाग गया था।
इतिहास की कोठरी से
मुझे निकाल दो।
कहीं यह सर्वगत परिष्कार
मुझे खा न ले।
तुम कहते तो रूक जाता
मेरी याद भाग गयी।
काली सड़क पर,
मन्दिर के भीतर फूलों में
पानी में डूबे पाईप पर
खिलौनों के जीवन में
धूप की याद में।
मुझसे एक बार तो कह देते कि
यहाँ तेरे लिए भी जगह है।
तो शायद रूक ही जाता
फिर यह थमा समय
बिल्ली के बच्चे की आँख के
हर आँसू में जमा न होता।
गर्मी के कटे पेड़ों के बीच
उसके लिए जगह नहीं थी,
धूप में खड़ी
गाय को मैंने एक रोटी
खिलायी थी।
उस समय भी खटकता था यह ब्रह्माण्ड
देवताओं जो तुमने बताया नहीं था कि
जिद पर बदलता है और फिर नहीं
हम बदलने न देते
यदि पता होता
कि यह हमसे हो गया
तो किसी कटे पेड़ से
चिपक भी जाते
जिसमें गिलहरी की याद है।
और चिडि़यों से हर बार
स्वर्ग में उड़ जाने की
कामना नहीं करते।
कविता वह समय है
जिसे इतिहास देख भले ले,
पर दोहरा नहीं सकता।
मौज़ूदगी
जब चन्द्रमा की आहट
आसमान में होती,
चिडि़यों के शोर और
पत्तियों की सरसराहट के बीच,
हम तालाब के किनारे
अब फिर टहल रहे हैं।
अब पता चला,
इस समय की मौज़ूदगी
के लिए हमारी नामौजूदगी
ज़रूरी थी।
हिमालय
हिमालय की बहती मिट्टी,
पर सवार गंगा प्रयाग जा रही है
आसमान में उड़ती चील के टूटे पंख से
मिलने।
एक पत्ती पर
पंख अटक गया है।
जो ओस उसे रोके है
वह गिर पड़ेगी उसे लिये।
शंकर की चोटी ढीली हो गयी।
आँसू
मेरे आँसू तुम्हें देखकर
थम जाते हैं,
मेरा चेहरा हिमालय की
एक भीषण चोटी की तरह
उन्हें जमा लेता है।
मुझे पता नहीं कि तुम सामने हो,
या आँसुओं ने आँखों पर दया कर
भ्रम पैदा कर दिया।
यमन
हवा की चाल को पहचानकर,
पूर्व की ओर उड़ती गोरैयों का झुण्ड
एक नया क्षितिज बना रहा है।
कुछ धूल उड़ गयी है
अब थमने के लिए
पत्ते थम गये हैं,
पेड़ हिलते हैं हौले हौले
पहाड़ से निकलकर
रात आसमान को ख़ुद में समेट रही है।
काले पानी में मछलियाँ
हिल रही हैं, सोते हुए खुली आँखों से
एक समय का बयाँ करती
हिल रही हैं हौले हौले।
बुढ़ापे को छिपाती आँखें
हँसती हैं।
कौन सुनता है, कोई नहीं
कौन नहीं सुनता, कोई नहीं।
सदियों पहले
अकबर के दरबार में बैठे
सभागण उठते हैं,
तानसेन के अभिवादन में
दरी बिछी, तानपुरे मिले
सूरज थम गया
संगीत की उस एकान्तिकता प्रतीछा में
जो हमारी एकान्तिकता को हरा देती है।
सब मौन, सब शान्त, सब विचलित
तानपुरे के आगे बैठे बड़े उस्ताद
एक खाली कमरे में वीणा उठाते हैं
निषाद लगाते हैं।
सभा जम गयी है।

 
      

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4 comments

  1. अच्छी लगी शुक्रिया

  2. वाह …एक से बढ़ कर एक रचनाएँ ..मजा आ गया . बहुत बहुत बधाई .

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