पटना लिटरेचर फेस्टिवल में जो लोग शामिल हुए उनके लिए शायर कलीम आजिज़ को सुनना भी एक यादगार अनुभव रहा. शाद अज़ीमाबादी की परंपरा के इस शायर ने उर्दू के पारंपरिक छंदों में कई ग़ज़लें कही हैं और वे बेहद मशहूर भी हुई हैं. उनकी कुछ ग़ज़लें इमरजेंसी के दौरान भी प्रसिद्ध हुई थी. यहां प्रस्तुत हैं वे चार ग़ज़लें जो उन्होंने पटना लिटरेचर फेस्टिवल में सुनाई थी- जानकी पुल.
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1.
दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो
मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो
हम खाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो
हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
यूं तो कभी मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो
बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.
2.
मुँह फकीरों से न फेरा चाहिए
ये तो पूछा चाहिए क्या चाहिए
चाह का मेआर ऊंचा चाहिए
जो न चाहें उनको चाहा चाहिए
कौन चाहे है किसी को बेगरज
चाहने वालों से भागा चाहिए
हम तो कुछ चाहे हैं तुम चाहो हो कुछ
वक्त क्या चाहे है देखा चाहिए
चाहते हैं तेरी ही दामन की खैर
हम हैं दीवाने हमें क्या चाहिए
बेरुखी भी नाज़ भी अंदाज भी
चाहिए लेकिन न इतना चाहिए
हम जो कहना चाहते हैं क्या कहें
आप कह लीजे जो कहना चाहिए
कौन उसे चाहे जिसे चाहो हो तुम
तुम जिसे चाहो उसे क्या चाहिए
बात चाहे बेसलीका हो कलीम
बात कहने का सलीका चाहिए.
3.
गम की आग बड़ी अलबेली कैसे कोई बुझाए
अंदर हड्डी हड्डी सुलगे बाहर नजर न आए
एक सवेरा ऐसा आया अपने हुए पराये
इसके आगे क्या पूछो हो आगे कहा न जाए
घाव चुने छाती पर कोई, मोती कोई सजाये
कोई लहू के आँसू रोये बंशी कोई बजाए
यादों का झोंका आते ही आंसू पांव बढाए
जैसे एक मुसाफिर आए एक मुसाफिर जाए
दर्द का इक संसार पुकारे खींचे और बुलाये
लोग कहे हैं ठहरो ठहरो ठहरा कैसे जाए
कैसे कैसे दुःख नहीं झेले क्या क्या चोट न खाए
फिर भी प्यार न छूटा हम से आदत बुरी बलाय
आजिज़ की हैं उलटी बातें कौन उसे समझाए
धूप को पागल कहे अँधेरा दिन को रात बताए
4.
इस नाज़ से अंदाज़ से तुम हाय चलो हो
रोज एक गज़ल हम से कहलवाए चले हो
रखना है कहीं पांव तो रखो हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चले हो
दीवाना-ए-गुल कैदी ए जंजीर हैं और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाए चले हो
जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
जुल्फों से जियादा तुम्हों बलखाये चले हो
मय में कोई खामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चले हो
हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाए चले हो
वो शोख सितमगर तो सितम ढाए चले हैं
तुम हो कलीम अपनी गज़ल गाये चले हो.
ये ग़ज़लें ‘वो जो शायरी का सबब बना’ पुस्तक से ली गई हैं. जिसे उपलब्ध करवाने के लिए हम डॉ. राहिला रईस के आभारी हैं.
ये ग़ज़लें ‘वो जो शायरी का सबब बना’ पुस्तक से ली गई हैं. जिसे उपलब्ध करवाने के लिए हम डॉ. राहिला रईस के आभारी हैं.
सचमुच कलीम साहब ने दिल ले लिया और प्रभात भाई ने दिमाग ! कलीम साहब को बहुत बधाई ! क्या कहूँ जब इस तरह से बात करो हो !मुद्दत हुई और आज मुलाक़ात करो हो !!
बेहतरीन गज़लें हैं ,हैदराबादी लहजे में बड़े खूबसूरत शेर कहे हैं कलीम साहब ने । शुक्रिया इस पेशकश के लिए प्रभात जी ।
बहुत खूब …एक एक शेर बेशकीमती
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