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हिंदी साहित्य में ‘पप्पू’

बिहार के दागी नेताओं का हिंदी प्रेम पिछले कुछ दिनों से चर्चा में रहा है. कुछ समय पहले जेल में सजा काट रहे मुन्ना शुक्ल ने हिंदी उपन्यासों पर पीएचडी करके चर्चा बटोरी थी. इधर जबरदस्त चर्चा है कि पप्पू यादव की आत्मकथा जल्दी ही बाजार में आने वाली है. इसको लेकर चर्चाओं और विवादों का नया सिलसिला शुरू हो गया. इस विषय को लेकर प्रियदर्शन ने बहस के कुछ ठोस बिंदु ‘तहलका’ में प्रकाशित अपने इस लेख में उठाये हैं. जिन्होंने इस लेख को पत्रिका में न पढ़ा हो उनके पढने के लिए और बहस के लिए हम इस लेख को  प्रस्तुत कर रहे हैं- मॉडरेटर.
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सोशल साइट्स पर इन दिनों यह चर्चा भरपूर है कि सीपीएम नेता अजित सरकार की हत्या के जुर्म में जेल काटने वाले बिहार के दागी नेता पप्पू यादव की आत्मकथा जल्द ही बाज़ार में आने वाली है जिसके संपादन में हिंदी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की है। पप्पू यादव अगर लेखक होना चाहें तो इससे किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए। अगर कोई अपने आपराधिक अतीत से बाहर आना चाहता है, अगर अपने अपराधी बनने की विडंबनाओं को समझने या समझाने के लिए किताब लिखता है, अगर लेखन में वह अपना पुनर्वास देखता है तो हमें इसका सम्मान करना चाहिए- साथ में यह शर्त जोड़ते हुए कि वह कम से कम अपने पिछले जीवन का प्रायश्चित करे। हालांकि क्या लेखन या साहित्य की दुनिया को ऐसी शर्त जोड़ने का नैतिक अधिकार है? क्या वह ऐसे संतों की दुनिया है जो अपने किए-अनकिए को लेकर शर्मसार हों या पछतावा करते हैं?

तो पप्पू यादव को हक़ है कि वे लिखें। मगर यब सवाल हिंदी समाज के सामने है कि वह पप्पू यादव का अपने परिसर में किस तरह स्वागत करे- पप्पू यादव के अतीत को ध्यान में रखते हुए उनका बहिष्कार करे या उनके बदलाव की उम्मीद करते हुए उन्हें रास्ता बताए? वैसे यह सवाल भी एक तरह से पीछे छूट चुका है। पप्पू यादव को संपादक भी मिल चुके हैं और प्रकाशक भी। जाहिर है, पप्पू यादव के अतीत में दिलचस्पी और सनसनी का जो तत्व है, उनकी जो बदनाम शोहरत है, उसकी अपनी एक यूएसपी है। लेकिन क्या इसीलिए किसी संपादक को उनकी मदद करनी चाहिए या किसी प्रकाशक को उनकी किताब छापनी चाहिए? क्या हम राजनीति के अपराधीकरण के बाद साहित्य का अपराधीकरण देखेंगे? शायद यही उदास करने वाला एहसास है जिसकी वजह से हिंदी के बहुत सारे संवेदनशील लेखक पप्पू यादव का विरोध कर रहे हैं। उदय प्रकाश ने बहुत मार्मिक सवाल उठाया है- आज पप्पू यादव की आत्मकथा आ रही है, कल दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड के आरोपी की आएगी तो हम क्या करेंगे?

जवाब आसान नहीं है। कुछ कलेजा कड़ा करके कहने की इच्छा होती है कि हमें उसे भी लिखने का हक़ देना होगा। अपनी बहुत सारी खामियों के बाद कम से कम अपने इस सैद्धांतिक रूप में हमारी न्यायपालिका बहुत मानवीय है कि वह हर किसी को अपना पक्ष रखने का अधिकार देती है। साहित्य के संविधान को और मानवीय होना होगा- उसे बिल्कुल अमानवीय से आंख मिलाकर देखने का अभ्यास विकसित करना होगा। 

मुश्किल यह है कि हमारे लेखकीय समाज में यह बड़प्पन कम है। उसकी जगह एक ओछापन दिखता है जिसका एक नतीजा यह है कि बहुत सारे फ़र्जी लोग विशेषाधिकार प्राप्त लेखक बने हुए हैं। पप्पू यादव के आने से साहित्य का अपराधीकरण बाद में होगा, अभी तो हम उसका राजनीतिकरण, अफसरीकरण और कारोबारीकरण देख रहे हैं। इस हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर केशरीनाथ त्रिपाठी, कपिल सिब्बल और रमेश पोखऱियाल निशंक तक अपनी बहुत ही मामूली, कच्ची और बिल्कुल तुक्कड़ों जैसी तथाकथित कविताओं के बल पर हिंदी कवि बन जाते हैं और मधु कोड़ा के भाषणों की किताब छप जाती है। ऐसे दूसरे नेताओं और अफ़सरों की सूची छोटी नहीं जो किताब बिकवाने या किसी तरह की दूसरी मदद करवाने की हैसियत रखते हैं और इसलिए बड़े लेखक बने हुए हैं। यही नहीं, समीक्षाओं, सम्मानों और लोकार्पण के आयोजनों तक में उनका दबदबा बताता है कि हिंदी साहित्य की प्राथमिकताएं किस ढंग से तय हो रही हैं। जबकि इसके समांतर बहुत सारे लेखक हिंदी में बहुत उत्कृष्ट लेखन कर रहे हैं, लेकिन अनदेखे-अचर्चित रह जा रहे हैं क्योंकि या तो वे सत्ता केंद्रों के क़रीब नहीं हैं या फिर उनकी दुराभिसंधि में शामिल नहीं हैं। निस्संदेह, इसी दुनिया में कुछ ऐसे वास्तविक और बड़े लेखक भी हैं जो सिर्फ अपने लेखन के बूते टिके हुए हैं, क्योंकि अंततः साहित्य को वैधता और विश्वसनीयता उन्हीं की मौजूदगी से मिलती है।

मगर अन्यथा कई तरह के घात-प्रतिघात और शर्मनाक समर्पणों के मारे हिंदी साहित्य में एक पप्पू यादव आ जाएगा तो क्या हो जाएगा? साहित्य, समीक्षा और सम्मान की दुनिया में पहले से चली आ रही टुच्ची ठेकेदारी कुछ बढ़ जाएगी, इससे ज़्यादा कुछ नहीं होगा। वैसे भी पप्पू यादव को हमारी व्यवस्था ने ही बनाया है। पिछड़े वर्गों और समाजों को साथ लेकर चलने में हमारे राजनीतिक नेतृत्व और संसदीय लोकतंत्र की नाकामी ने पप्पू यादव जैसे लोगों को खड़े होने और वैधता हासिल करने का मौका दिया। 

बहरहाल, पप्पू यादव छप तो जाएंगे, बिक भी जाएंगे, लेकिन क्या पढ़े भी जाएंगे और बचे भी रहेंगे? अगर वे वाकई ऐसी किताब रचने में सफल होते हैं जिससे जीवन और समाज को समझने की कोई मार्मिक दृष्टि मिलती हो, तब तो यह उनके दागी या अपराधी होने के बावजूद एक बड़ी बात होगी। लेकिन वे बस राजनीति की तरह साहित्य को भी अपनी छवि निखारने के मेकअप रूम की तरह इस्तेमाल कर रहे होंगे तो पाठक के सामने रचना की कलई खुलने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि अंततः रचना अपने रचनाकार के गुणसूत्रों से ही बनी होती है। किसी ने ठीक ही लिखा था कि पाब्लो पिकासो ही गुएर्निकाबना सकता था, तानाशाह फ्रांसिस्को फ्रैंको नहीं।

क्या पप्पू यादव के मामले में फ्रैंको पिकासो होने की कोशिश कर रहा है? अगर करे भी परेशान नहीं होना चाहिए। साहित्य लेखकों के मोह और प्रकाशकों की रणनीति से आगे जाता है। पप्पू यादव से पहले हम एक और माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव की आत्मकथा का हश्र देख चुके हैं। साहित्य या तो पप्पू यादव को बदल देगा, और अगर वह नहीं बदलेंगे तो अंततः उन्हें उनकी जगह दिखा देगा। निस्संदेह इसमें जो समय लगेगा, उसकी क़ीमत वास्तविक लेखकों को चुकानी पड़ेगी, यह अफ़सोस का विषय है। और इस दौरान हिंदी साहित्य में विवादों की जो नई कीचड़ उछलेगी, उसकी तो कल्पना ही डराती है।

 
      

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7 comments

  1. इस लेख से साहित्य के तथाकथित अभिजात्य वर्ग के घमंड की बू आती है. अटल जी और बाकी नेता या अफसरों की कविता इसलिए मायने रखती है कि उन्होंने अपने जीवन में सत्ता देखी है और उन्हें जनता सुनना चाहती है. गांधी नेहरु या आंबेडकर का साहित्य भी इसी श्रेणी का ही है। आज का बुद्धिजीवी लेखक समाज स्वान्तः सुखाय हो चुका है. अवाम से उसका नाता टूटा सा दिखता है. बहरहाल यहाँ उत्कृष्ट लेखन करने वाले होनहार लेखकों की जगह नहीं छीनी जा रही है. साहित्य सभी के लिए है, किसी की बपौती नहीं .

  2. एक दम सही कहा आपने।पप्पू यादव के आने से साहित्य का अपराधीकरण बाद में होगा, अभी तो हम उसका राजनीतिकरण, अफसरीकरण और कारोबारीकरण देख रहे हैं।

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