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प्रेमचंद की परंपरा से क्या तात्पर्य है?

विद्वान् लेखक अपूर्वानंद ने हाल में संपन्न हुई ‘हंस’ की सालाना गोष्ठी और उसमें शामिल न होने को लेकर प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता एवं कवि वरवर राव के बयान को लेकर अपने इस लेख में कुछ गंभीर सवाल उठाये हैं. उनके ऊपर बहस होनी चाहिए तथा उनके जवाब भी ढूंढे जाने चाहिए. पढ़िए यह विचारोत्तेजक लेख- मॉडरेटर.
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हर वर्ष इकतीस जुलाई को दिल्ली में ‘हंस’ पत्रिका की ओर से किसी एक विषय पर एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया जाता रहा है. बातचीत का स्तर जो हो, यह एक मौक़ा होता है तरह-तरह के लेखकों, पाठकों और साहित्यप्रेमियों के एक-दूसरे से मिलने का. कई लोग तो वहीं सालाना मुलाकातें करतें है. मेरी शिकायत हंस के इस कार्यक्रम से वही रही है जो दिल्ली में आमतौर पर होने वाले हिंदी साहित्य से जुड़े अन्य कार्यक्रमों से है: इंतजाम के हर स्तर पर लापरवाही और लद्धड़पन जो निमंत्रण पत्र में अशुद्धियों और असावधानी से लेकर कार्यक्रम स्थल पर  अव्यवस्था, मंच संचालन में अक्षम्य बेतकल्लुफी तक फैल जाता है.प्रायः वक्ता भी बिना तैयारी के आते हैं और जैसे नुक्कड़ भाषण देकर तालियाँ बटोरना चाहते हैं.ऐसे हर कार्यक्रम से एक कसैला स्वाद लेकर आप लौटते हैं. श्रोताओं के समय, उनकी बुद्धि के प्रति यह अनादर परिष्कार के विचार का मानो शत्रु है. मैं हमेशा अपने युवा  छात्र मित्रों को ऐसी जगहों पर देख कर निराशा से भर उठता हूँ : ये सब यहाँ से हमारे बारे में क्या ख्याल लेकर लौटेंगे?
यह भी हिंदी के कार्यक्रमों की विशेषता है कि जितना वे अपने विषय के कारण नहीं उतना आयोजन , आयोजक और प्रतिभागियों के चयन से सम्बद्ध इतर प्रसंगों के कारण चर्चा में बने रहते हैं. चटखारे लायक मसाला अगर उसमें नहीं है तो शायद ही मंच पर हुई ‘उबाऊ’ चर्चा को कोई याद रखे. अक्सर सुना जाता है कि फलां को तो बुलाया ही इसलिए गया था कि  विवाद पैदा हो सके. विवाद अपने आप में उतनी भी नकारात्मक चीज़ नहीं अगर उससे कुछ विचार पैदा हो. लेकिन प्रायः विवाद और कुत्सा में अंतर करना हम भूल जाते हैं. विवाद में फिर  भी मानसिक श्रम लगता है, कुत्सा में मस्तिष्क को  हरकत में आने की जहमत नहीं मोल लेनी पड़ती.
नियमानुसार इस वर्ष के ‘हंस’ के कार्यक्रम ने भी विवाद पैदा किया.सूचना ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ नामक विषय पर बोलने के लिए अशोक वाजपेयी , अरुंधती राय , वरवर राव और गोविन्दाचार्य के आने की थी. अरुंधती और राव के न आने से श्रोताओं को बदमजगी हुई. खीज आयोजकों की निश्चिंतता पर भी थी: आधे वक्ता न आएं तो आखिर कार्यक्रम कैसे अपना वांछित उद्देश्य पूरा कर लेगा!
अगले रोज़ अनुपस्थित वक्ताओं में से एक वरवर राव का वक्तव्य प्रसारित हुआ जिसमें उन्होंने अपनी अनुपस्थिति  की सफाई दी: उन्होंने आयोजकों  पर भरोसा करके हामी भर दी थी, इसकी परवाह नहीं की थी कि  कौन , कहाँ बुला रहा है. इतना ही नहीं उन्होंने इसे भी तवज्जो नहीं दी कि  मंच पर उनके  साथ बोलने वाले कौन हैं! (  आप इसे उनका बड्डपन मानें कि उन्होंने अन्य वक्ताओं का चरित्र प्रमाण पत्र नहीं माँगा!) तात्पर्य  यह कि उनके लिए उनका बुलाया जाना ही पर्याप्त था क्योंकि यह मौक़ा था अपनी कुछ बात कहने का. लेकिन जब दिल्ली आकर उन्हें पता चला कि उन्हें अशोक वाजपेयी और गोविन्दाचार्य के साथ मंच साझा करना होगा तो कार्यक्रम में शामिल होने के अपने निर्णय को उन्होंने बदला. वे लिखते हैं, “प्रेमचंद जयंती पर होने वाले इस आयोजन में अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य का नाम वक्ता के तौर पर देखकर हैरानी हुई। अशोक वाजपेयी प्रेमचंद की सामंतवाद-फासीवाद विरोधी धारा में कभी खड़े  होते नहींदिखे। वे प्रेमचंद को औसत लेखक मानने वालों में से है। अशोक वाजपेयी का सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट सेक्टर के साथ जुड़ाव आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसी तरह क्या गोविंदाचार्य के बारे में जांच पड़ताल आप सभी को करने की जरूरत बनती है? हिंदुत्व की फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद की जी हूजूरी में गले तक डूबी हुई पार्टी, संगठन के सक्रिय सदस्य की तरह सालों साल काम करने वाले गोविंदाचार्य को प्रेमचंद जयंती पर अभिव्यक्ति और प्रतिबंधविषय पर बोलने के लिए किस आधार पर बुलाया गया!”
राव के पत्र के पहले हिस्से को याद करें जिसमें उन्होंने कहा है कि निमंत्रण स्वीकार करते समय इसे उन्होंने  तवज्जो ही नहीं दी थी कि  मंच पर उनके साथ कौन होने वाला है! फिर बाद में हैरानी क्यों? एक क्रांतिकारी दल के साथ, जो अपना हर काम मिलिटरी बारीकी और सटीकता से करता है, काम करने वाला व्यक्ति अपना मंच चुनने में कैसे ऐसी चूक कर सकता था ! जैसा पहले हमने लिखा, पत्र के उस हिस्से में वे इस बेपरवाही को अपने उदारचेता होने के एक प्रमाण के रूप में पेश करते जान पड़ते हैं. लेकिन बाद में अगर उन्हें लगा कि इससे इन दो के साथ मंच साझा करने पर उनकी छवि धूमिल हो जाएगी.  लेकिन अगर यह चूक हो ही गयी थी तो क्या उन्हें इसकी कीमत नहीं चुकानी चाहिए थी? जब आप किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में अपनी शिरकत की स्वीकृति देते हैं तो आयोजकों से ही नहीं, उस कार्यक्रम के अन्य  भागीदारों से भी आप प्रतिश्रुत हो जाते है. तो क्या राव अपनी पवित्र क्रांतिकारी छवि को अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य के दूषण से बचाना चाहते थे और इसलिए पत्र के पहले हिस्से को नज़रअंदाज  करने में उन्हें कोई  नैतिक हिचक नहीं हुई?
हम किससे बात करें, किससे नहीं , यह हमारा फैसला है और इस पर  किसी दूसरे का अख्तियार नहीं. लेकिन जब आप सार्वजनिक व्यक्तित्व की भूमिका ग्रहण करते हैं  तो अनेक बार आप सार्वजनिक कर्तव्य के तहत ऐसे लोगों से भी बात करते हैं जिन्हें आप चाय पर कभी न बुलाएंगे. भारत में, जो अभी भी एक-दूसरे से बिलकुल असंगत  विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व वाला देश है,किसी विचार को चाह कर भी सार्वजनिक दायरे से अपवर्जित करना संभव नहीं है. उदार लोकतंत्र की यही खासियत है. यही कारण है कि इसकी जड़ में मट्ठा डालने के लिए वरवर राव जैसे लोग भी प्रायः स्वतंत्र हैं, स्वतंत्र ही नहीं राज्य पोषित संस्थानों से आजीविका की सुविधा भी उन्हें है ताकि निश्चिन्त होकर वे क्रांतिकारी काम कर सकें. इसकी भी आश्वस्ति राव जैसे लोगों को है कि अगर राज्य ने अपनी सीमा का अतिक्रमण किया तो ये ‘उदार लोकतंत्रवादी’ अपने विचार से मजबूर राज्य की आलोचना को मुखर होंगे.
इसी  उदारवाद  से मजबूर अशोक वाजपेयी  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर होने के बावजूद हिंदी के  पहले  लेखक और कुलपति  थे जिन्होंने 2002 के गुजरात के कत्लेआम का सार्वजनिक रूप से व्यक्तिगत प्रतिवाद ही नहीं किया, संस्कृतिकर्मियों के विरोध को संगठित भी किया. उनके सहकर्मी होने के  कारण  मुझे याद है कि तत्कालीन मानव संसाधन मंत्रालय ने उनसे उनकी इस भूमिका को लेकर जवाब तलब किया था. उसका निर्भीक उत्तर भी मुझे याद है जिसमें अशोक वाजपेयी ने सरकार को यह बताया था कि विश्वविद्यालय का कुलपति कोई सरकार का मातहत नहीं बल्कि  एक बौद्धिक, अकादमिक समुदाय का, जोकि विश्वविद्यालय होता है, प्रमुख है और वह अपने विचार रखने और व्यक्त करने को स्वतंत्र है.
हिंदी में  सत्ता प्रतिष्ठान के पर्याय के रूप में कुख्यात अशोक वाजपेयी ने राज्य संपोषित ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष होते हुए ‘राजद्रोही’ बिनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद हुए सार्वजनिक प्रतिवाद में शामिल होने में एक सेकेण्ड का समय नहीं लिया था. जब दिल्ली में बिनायक की गिरफ्तारी के एक साल पूरा होने पर राज्य के दमन के विरुद्ध सार्वजनिक विरोध के लिए जगह की तलाश हो रही थी तो राजकीय अकादेमी का परिसर देने की अनुमति अपने हस्ताक्षर से अशोक वाजपेयी ने दी. जाहिर है, इसे वे अपने उदार लोकतंत्रवाद के कारण सहज ही मानते हों और असाधारण वीरता के कृत्यों की गिनती में न रखें. क्रांतिकारी कदम तो यह किसी तर्क से नहीं कहा जा सकता!
वरवर राव ने प्रेमचंद की परंपरा की याद दिलाई है और उसमें अशोक वाजपेयी की वे कोई समाई नहीं देखते. हिंदी साहित्य के लिए यह परंपरा एक बड़ी समस्या है. प्रेमचंद की परंपरा से क्या तात्पर्य है? लम्बे समय तक और एक तबके में अभी भी जैनेन्द्र और अज्ञेय को इस परंपरा से बाहर रखा जाता रहा है. यह भूल कर कि जैनेन्द्र को प्रेमचंद ने  हिंदी का गोर्की कहा था और  उनके बाद की पीढ़ी में वे उनके  कुछ सबसे निकट के लेखकों में थे. लेखक  के रूप में भी प्रिय!
वह ज़माना कुछ और था जब गांधीवादी जैनेंद्र ने क्रांतिकारी सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन की कहानी जेल से लेकर प्रेमचंद को दी थी और एक अनाम लेखक की रचना को हिंदी के उपन्यास सम्राट ने बिना हिचक सम्पादक के तौर पर छापा था. अज्ञेय नाम उस प्रतिक्रियावादी को सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी प्रेमचंद ने ही दिया था जो नापसंद होने  पर भी वह जीवन भर ओढ़े रहा. प्रेमचंद कभी जेल नहीं गए, किसी क्रांतिकारी ने उन्हें इसके लिए  कभी कोसा नहीं! अज्ञेय की कविता उन्होंने  कभी छापी नहीं, कहानी कभी लौटाई नहीं! क्या प्रेमचंद को अपनी परंपरा की  परवाह ही नहीं थी ? या साहित्य का अपना एक विचार होता है जो उसे सहज ही साम्यवाद हो या फासीवाद , किसी के भी दमन के विरुद्ध खड़ा कर देता है? जो उसे हर स्थिति में एक मानवीय संभावना देखने की कुव्वत भी देता है!  ईसाई तोलोस्तोय, संदेहवादी चेखव और सर्वहाराक्रान्ति के तूफानी बाज गोर्की के परस्पर आदर की और क्या व्याख्या की जा सकती है?
राव के पत्र का वह हिस्सा भी पठनीय है जिसमें उन्होंने वह बताया है जो वे ‘हंस’ के मंच से बोलने वाले थे. ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय पर अपने और अपने दल के सहयोगियों के संघर्ष और उनके दमन और उन पर खतरे की धमकियों के बयान के अलावा उसमें कुछ और नहीं. दक्षिण प्रदेश के इस कवि के पत्र में उम्मीद थी कि कालीकट विश्वविद्यालय की  अंग्रेज़ी पाठ्यपुस्तक से हिन्दू दक्षिणपंथी दबाव में आकर एक कविता के हटाए जाने या मद्रास विश्वविद्यालय के इस्लामी अध्ययन विभाग में अमरीकी विदुषी अमीना वदूद का कार्यक्रम रद्द करने के विश्वविद्यालय के अधिकारियों के निर्णय का और आलोचना  होगी. निराशा हाथ लगी. राव जिस हैदराबाद में रहते हैं ,वहीं तसलीमा नसरीन पर हमला हुआ था जिसमें उनकी जान ली जा सकती थी. शायद वह घटना पुरानी हो चुकी थी! राव और उनके सहयोगियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवाली कविता श्रीवास्तव, तीस्ता सीतलवाड़, शबनम हाशमी या हर्ष मांदर पर हो रहे हमले उतने गंभीर नहीं हैं कि एक क्रांतिकारी कवि अपने वक्तव्य में उन्हें अपने बगल में जगह इनायत फरमाए! लेखक और अध्यापक  रुक्मिणी भाया नायर ‘आउटलुक’में नरेंद्र मोदी की देह भाषा समेत उनकी शैली के अपने अध्ययन के प्रकाशन  के बाद से  धमकियों और गालियों का हमला बिना हाय-तौबा किए  बर्दाश्त कर रही हैं. वह  तो हर लेखक की नियति है!   और अभी भारत को निर्ममतापूर्वक बाजार के हवाले करने वालों की ओर से उदार लोकतंत्रवादी अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज़ पर जो तीखा हमला चल रहा है, वह तो इसलिए उल्लेख योग्य नहीं कि ये दोनों एक उदार राज्य की वकालत करके क्रान्ति की संभावना को और पीछे धकलेने का षड्यंत्र कर रहे हैं!
वरवर राव का पत्र क्रांतिकारी ब्रह्मांड को स्वतःसिद्ध और वैध मानने की प्रवृत्ति का बढ़िया उदाहरण है. इस सिद्धांत के अनुसार दुनिया पवित्र  और अपवित्र लोगों में साफ़-साफ़ बंटी है. जो असहमत है, वह अपवित्र भी है. उसका विनाश एक पवित्र क्रांतिकारी कर्तव्य है. इसलिए दल से असहमत होते ही आपके जीवन की वैधता भी समाप्त हो जाती है. यह आत्मकेंद्रित क्रांतिकारिता अपने अलावा और किसी मानवीय गतिविधि को उल्लेखयोग्य तो क्या ध्यान दने योग्य भी नहीं मानती. इतिहास नामक ईश्वर द्वारा चुनी इस क्रांतिकारिता के पास हर किसी  हर किसी को प्रमाण पत्र देने का प्रश्नातीत अधिकार है. साम्यवादी अतीत ही नहीं उसका वर्तमान भी यही बताता है.लेकिन प्रेमचंद तो कहते हैं कि  हर व्यक्ति में एक देवत्व का अंश है और इसलिए उनके लिए हर चरित्र मानवीय संभावना का एक रूप है. आत्मग्रस्त और आत्ममुग्ध क्रान्ति में क्या एक समय असुविधाजनक प्रेमचंद के इस पक्ष  का भी अपवर्जन नहीं किया जाएगा? 
‘जनसत्ता’ से साभार      
 

 
      

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11 comments

  1. विवाद ही होते जो औकात को बढ़ा देते है और हमारी ये आदत है की उपस्थित से ज्यादा अनुपस्थित की चर्चा करते है

  2. Bahut suchintit lekh! Varvar Rao aur Arundhati ka asahyog aur Rao ki chitthi apne-aap mein abhivyakti par pratibandh lagaane waali maansiktaa kaa udaahran hai. Yahaan bhi jo log lekhak ki baton ka jawaab dene ke bajaaey is bhashaa mein gussa pragat kar rahe hain ki अपूर्वानंद की कोई हैसियत नहीं कि वरवर राव की निष्ठा पर सवाल खड़े करें, we bhi pratibandh lagaane wali maansikta hi ujaagar kar rahe hain.

  3. लोकतांत्रिक, चाहे वह कितना भी त्रुटिपूर्ण क्यों न हो, वातावरण में विचार और संवेदना के प्रसंग में आत्यंतिक बहिष्कार की राजनीतिक मनोवृत्ति और दूसरों को 'हैसियत' बताने की कोई भी बौद्धिक पद्धति न तो वैध हो सकती है और न स्वीकार्य।

  4. शत प्रतिशत सहमत।

  5. बढिया.. आपने शानदार तरीके से इस नये किस्म के जातिवाद का पर्दाफाश किया है… इनमें और प्राचीन काल के ब्राह्मणवादियों में फर्क ही क्या है… आपने सही कहा है कि ये अपने अलावा हर किसी को जीने लायक नहीं मानते, मिटा देना चाहते हैं … आज तक किसी ने अपनी बात को एकमात्र सच साबित करने के लिए इस तरह की हिंसक प्रतिक्रियाओं का सहारा नहीं लिया था… भारत में तो परंपरा रही है अपनी बात को सच साबित करने के लिए शास्त्रार्थ की… बुद्ध से लेकर शंकराचार्य तक वैचारिक संतों ने देश भर में घूम-घूम कर विरोधी मत वाले लोगों से बहस किये और अपने तर्कों से उन्हें अपनी बात मानने के लिए सहमत किया… संवाद की गुंजाइश बनी रहनी चाहिये…यह मानना गलत है कि दुनिया में हमारा सच तभी स्थापित होगा जब इससे मतभेद रखने वालों को मिटा दिया जाये… यह करते हुए आप सिर्फ हिटलर की परंपरा का अनुमोदन करते हैं…

  6. वरवर राव, अरुन्धती नहीं आए तो नहीं आए। इस में इतना बवाल मचाने की जरूरत कहाँ है?
    हाँ वरवर राव और अरुन्धती ने यह गलती जरूर की कि उन्हें आने की स्वीकृति देने के पहले यह जान लेना चाहिए था कि अन्य वक्ता कौन आ रहे हैं। भविष्य में उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी गलती न हो।
    प्रेमचन्द की परम्परा जो है सब जानते हैं। कम से कम गोविन्दाचार्य और अशोक बाजपेयी उस परंपरा के नहीं हैं, अपितु उस परंपरा को ध्वस्त करने वाले अवश्य हैं यह तथ्य भी सर्वविदीत है इसे सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वरवर राव और अरुन्धति यदि किन्हीं जन संघर्षों का हिस्सा हैं तो उन जनसंघर्षों के साथी यदि ये समझते हैं कि उन्हों ने हंस की गोष्ठी में न जा कर संकीर्णता बरती है तो वे इस सवाल को उठा भी सकते हैं और उन से जवाब तलब भी कर सकते हैं और वे जवाबदेह भी हैं। लेकिन यदि इस राग को व्यवस्था समर्थक लोग उठाते हैं तो उस का कोई अर्थ नहीं है। वह आयोजकों और आयोजन से लाभ उठाने के अपने लक्ष्य में असफल हो जाने का रुदन मात्र है। जो समय के साथ समाप्त हो जाएगा। क्यों उस पर ध्यान दिया जाए। हाँ कुछ लेखक इस रुदन से वांछित लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा रखते हैं तो वह हंस, अशोक वाजपेयी, जनसत्ता और सत्ता से उन्हें मिल ही जाएंगे।

  7. अपूर्वानंद की कोई हैसियत नहीं कि वरवर राव की निष्ठा पर सवाल खड़े करें, कि उन्होंने यह नहीं किया और वह नहीं किया।.या तब क्यों नहीं बोले वाले अंदाज में उनकी आलोचना करना। गोविंदाचार्य के साथ मंच पर बैठने से गोविंदाचार्य का तो कुछ नहीं बिगड़ता था पर वरवर राव की प्रतिष्ठा जरूर धूल में मिल जाती। वह सामाजिक वैधता और प्रतिष्ठा जो अपूर्वानंद जैसे एनजीओवादी और अवसरवादी की समझ से परे हैं। अरुंधति राय के बायकाट पर नंद महाशय चुप्पी साध गए क्योंकि अरुंधति की अंग्रेजी जगत में पहचान है जिनसे अपूर्वानंद जैसे लोग भयभीत रहते हैं।

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