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‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ का एक अंश

सुष्मिता बनर्जी ने अपने आत्मकथात्मक उपन्यासों में जिनका भय दिखाया था अंततः उनके ही हाथों मारी गई. सुष्मिता बंद्योपाध्याय(बनर्जी) के उपन्यास ‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’ का एक मार्मिक अंश उनके अपने बयान के साथ, उस बहादुर लेखिका को श्रद्धांजलि स्वरुप- जानकी पुल.
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दो शब्द


किसी विशेष धर्म, धार्मिक व्यक्ति या धार्मिक दर्शन को बेवजह आघात पहुँचाने के लिए मैंने कलम नहीं थामी। समाज और जीवन में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है, मैं दिल से इसे स्वीकार करती हूँ। परन्तु धर्म के नाम पर प्रबल वीभत्सता संत्रास उत्पन्न कर, धर्म की दुहाई देकर जो लोग इनसानों के बीच अलगाव की दीवार खड़ी करते हैं, स्त्रियों की स्वाधीनता छीनकर उन्हें अन्तःपुर की अँधेरी दुनिया में भेज देते हैं, निर्विकार संहार और लोगों की हत्याएँ करते हैं, उन्हीं के विरुद्ध मैंने कलम उठाई है। धर्म नहीं, सिर्फ धर्मांधता और धार्मिक कठमुल्लेपन के विरुद्ध ही मेरा जिहाद है। अफगानिस्तान में जो कुछ घटित होते हुए मैंने देखा है, वह धर्म का विकृत व्यभिचार है, जिसने इस्लाम की पवित्रता और गरिमा को धूल में मिला दिया है। उन्होंने कुरान शरीफ की मनगढ़ंत अपव्याख्या की है। वे मानवता का अपमान कर रहे हैं। इसी संकीर्णता अपव्याख्या और अवमूल्यन की ओर ही मैंने सबका ध्यान आकर्षित करना चाहा है।

इसके अलावा मैं उनकी ओर भी ध्यान दिलाना चाहती हूँ जो हमारे इस हिन्दुस्तान से अफगानिस्तान जाकर विपरीत स्थितियों में जीवन गुज़ार रहे हैं। उनकी अपने देश में वापसी कभी सम्भव नहीं। यदि मुझमें अपराजेय साहस, मनोबल और धैर्य न होता तो शायद मैं भी वापिस न लौट पाती। मूल बात यह है कि अफगानिस्तान एक आतंक का देश है। उन्हीं में जरूर कुछ एक अच्छे लोग भी हैं। नारी के प्रति लांछना, शिशुओं की उपेक्षा, बूढ़ों की अवहेलना जो मेरी तरह ये सब नहीं जानेंगे, वे उस देश के लोगों के बारे में कुछ भी नहीं जान पाएँगे। मैं लगातर आठ सालों तक बन्दी रहने के बाद भागकर तालिबान शासन व्यवस्था को रौंदकर पाकिस्तान पहुँची और वहाँ भारतीय दूतावास के एक व्यक्ति ने किस तरह सहायता का हाथ न बढ़ाकर, मुझे लांछित करना चाहा था-इसी कहानी को लिखने की कोशिश की है। मेरी इस पुस्तक को पढ़कर यदि एक भी सहृदय पाठक प्रतिवाद में मुखर होता है तो मैं समझूँगी कि मेरी मेहनत सफल हुई। अपनी बात समाप्त करने से पूर्व मैं उनके बारे में लिखना चाहूँगी-नेपथ्य में रहकर भी जिनकी अदम्य कोशिशों के अभाव में मेरी इस कहानी का पाठकों तक पहुँचना सम्भव न हो पाता। मंटू दा ने साये की भाँति मेरे पीछे लगे रहकर मुझे लिखने को बाध्य किया। तपन और माया चक्रवर्ती जिन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया-इनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर मैं अब समाप्त करती हूँ-

सुष्मिता बंद्योपाध्याय


उपन्यास अंश: 
1.

अन्य दिनों के मुकाबले आज ठंड ज़्यादा ही है। रात कितनी गुज़र चुकी है, पता नहीं। अँधेरे में दीवार घड़ी दिखाई ही नहीं दे रही। जल्दी जल्दी रात ख़त्म हो तो चैन आए। खिड़की पर भीतर से मोटा कागज लगा है। बाहर से भी खिड़की प्लास्टिक से पूरी तरह ढकी हुई है। दरवाज़े पर मोटा कम्बल लटक रहा है। इतना कुछ होते हुए भी शीत लहर कहाँ से आ रही है, ठीक से समझ नहीं पा रही। मैंने एक मोटी रजाई ओढ़ रखी है, तिस पर पेड़ के रोओं से बनी गर्म चादर भी। फिर भी आज ठंड लग रही है। मगर कितनी भी ठंड क्यों न लगे, आधीरात को तो उठकर बैठा नहीं जा सकता। इसलिए मैं सिर से पाँव तक पूरे बदन को लपेटकर करवट लिये पड़ी हूँ। बाहर बर्फ जमी है। कल से लगातार तुषारपात हो रहा है। कभी रुकती है तो कभी बारिश की भाँति शुरू हो जाती है।

छह साल हो गए मुझे अफगानिस्तान में। यहाँ मेरी ससुराल है। स्वदेश लौटने की आकांक्षा को मन में दबाए इस अजनबी, शुष्क पहाड़ी देश में पड़ी हुई हूँ, क्योंकि इन्होंने मुझे बन्दी बना रखा है। लेकिन बन्दी बनाने का जो शब्दकोशीय अर्थ है, उस तरह बन्दी बनाने की यहाँ ज़रूरत ही नहीं पड़ती। इस देश में महिलाएँ अकेली एक कदम भी नहीं चल पातीं। हर तरफ तालिबान प्रहरियों की कड़ी निगाहें लगी रहती हैं। फिर मुझे गाड़ी कहाँ मिलेगी ? काबुल में सभी दूतावास तो बन्द पड़े हैं। यदि खुले भी हों तो भी युद्ध के तांडव से बचकर दूतावास तक पहुँचना और दुर्गम हिमालय लाँघना दोनों ही बराबर हैं। सच तो यह है कि कोई महिला अगर कोशिश करे तो हिमालय भी पार कर सकती है, परन्तु इस देश में किसी महिला के लिए घर की दहलीज लाँघना असम्भव है।

काबुल शहर से अपनी ससुराल तक पहुँचने में पूरे अठारह घंटे लगते हैं। जुलाई 1998 के प्रथम सप्ताह मैंने अपने पति जानबाज खान के साथ कोलकाता से काबुल की ज़मीं पर पहला कदम रखा। ससुराल वालों से मिलने की तीव्र आकांक्षा ने ही मुझे पश्चिमी एशिया के इस देश में आने को बाध्य किया था, जहाँ मध्युगीन रूढ़िवादिता का अँधेरा अभी भी छँटा नहीं है। उस वक्त तो पता नहीं था कि यह एक ऐसा देश है, जहाँ प्रवेश का रास्ता तो है, पर निकलने का रास्ता नहीं है। मैं जब यहाँ आई थी, तो पूरे काबुल शहर में रूसी सेना चहलकदमी करती थी। सुना है अठारह से अड़तीस साल की उम्र का कोई भी दाढ़ी वाला नौजवान गाँव से शहर नहीं जा पाता था, क्योंकि रूसी लोग उन्हें पकड़कर कैदखाने में डाल दिया करते थे। बाद में समयानुसार उन्हें सेना में भर्ती कर लिया जाता था। उनकी इच्छा हो या न हो सोवियत सेना में उन्हें शामिल होना ही पड़ता था, वर्ना उन्हें फायरिंग स्कवॉड के समक्ष खड़े होना पड़ता था।

दूसरी तरफ सोवियत सेना में शामिल होने के परिणामस्वरूप अपने गाँव, अपने घर लौटपाने का रास्ता सदा के लिए बन्द हो जाता था। उधर गाँव के मुजाहिद 1979 से सोवियत सेना के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा रहे थे। मुजाहिद लोग सोवियत सरकार और उनके हाथ की कठपुतली बने डॉ. नजीबुल्लाह को देश का चरम शत्रु मानते थे। अतः वे सभी खाल्कीयानी देशद्रोही थे। देश के मन्त्री पद पर आसीन होकर नजीब ने देश को सिवयत के हाथों सौंप दिया था। इसलिए नजीबपन्थी देश के शत्रु थे। दूसरी ओर, मुजाहिद लोग देश में इस्लामी शासन लागू करना चाहते थे। अतः मुजाहिद समर्थक देशभक्त कहलाते थे।

जिन दिनों लोग काबुल शहर जाने से डरते थे, ठीक उन्हीं दिनों मैं जानबाज का हाथ थामकर वहाँ पहुँची थी। आश्चर्य की बात है कि इतनी सख्ती के माहौल में भी मुसाफिर उन दिनों शहर में आराम से घूम-फिर सकते थे। जानबाज के एक चाचा नजीबपन्थी खाल्कीथे। वे सपरिवार काबुल में ही थे। एक चाचा नजीब के बेहद क़रीबी थे। इसलिए नजीब सरकार के ट्रेडमार्क स्टार वाली गाड़ी हमेशा चाचा के पास रहती थी। काबुल आकर इसी चाचा के घर मैंने पहली रात गुज़ारी थी।
एक तो मैं नई थी, तिस पर चारों ओर मुसीबत-ही-मुसीबत मुँह बाए खड़ी थी। देश के भीतर इतनी जटिलताएँ हैं, इसका मुझे पहले से ज़रा भी अंदेशा नहीं था। यहाँ आकर सब पता चला। इस तरह की भयानक परिस्थितियों से दो चार होना पड़ेगा, इसे क्या कभी मैंने पहले सोचा था ? जब पता चला तो मेरा पूरा बदन मानो थर-थर काँपने लगा था। ऐसे लगा मानो पैरों तले से ज़मीन सरकती जा रही हो। आँखों के समक्ष अँधेरा छा रहा था। जीवन में पहली बार मैं विस्मय और आतंक से गूँगी हो गई थी; परन्तु थोड़ी देर बाद ही मानो सैकड़ों समुद्रों की असंख्य लहरें मेरे मन और शरीर को झकझोरने लगीं, जब मैं सुना कि शहर छोड़ते ही युद्ध का साया हट जाएगा।

मन से युद्ध का खौफ मिटते ही मन के कोने में एक अज्ञात फिक्र ने प्रवेश करके मुझे सावधान करते हुए मेरे कानों में चुपके से कहा, सुमि अब एक और सत्य का सामने करने के लिए तैयार हो जाओ। क्या तुमने ज़रा भी सोचा है कि तुम एक भिन्न देश की बंगाली हिन्दू नारी हो। तुम्हें कैसे स्वीकार कर लेंगे वे लोग ? और, तुम ही कैसे उन्हें स्वीकार कर पाओगी, जिन्हें देखने की तीव्र इच्छा लेकर तुम यहाँ आई हो ?’

आश्चर्य ! कई हज़ार मील दूर आकर आज मैं जो सोच रही हूँ, वह पहले क्यों नहीं सोचा। जबकि सबसे ज़्यादा ज़रूरी बात तो यही थी। दरअसल मुसीबत की बात सोचते सोचते मैं एक दुर्घटना चक्र में चक्कर लगाने लगी थी। इसीलिए इस साधारण-सी चिन्ता पर अपना ध्यान नहीं केन्द्रित कर पाई थी। मन ही मन सोच, जो इतने दिनों तक नहीं किया अब करके क्या फायदा ?
जानबाज के चाचा के घर से हम तड़के पाँच बजे चले थे। उसके चाचा ने ही एक गाड़ी तय कर दी थी। गाड़ी का चालक रूसी था। वह हमें गजनी शहर पहुँचा देगा। वहाँ से दूसरी गाड़ी लेनी होगी। रूसी लोग गजनी से आगे नहीं जा सकते क्योंकि गजनी से मुजाहिदों का इलाका शुरू हो जाता है। गाड़ी हमें लेकर दौड़ पड़ी। खिड़की से हवा का एक ठंडा झोंका स्पर्श कर गया। मैंने बाहर देखा, सुन्दर चौड़ा रास्ता था। सड़क के दोनों किनारे दुकानों की कतारें थीं। इस समय वे बन्द थीं। रूसी सैनिक बन्दूक लिये खड़े थे। खिड़की से बाहर मैं काबुल का सौन्दर्य निहार रही थी और साथ-साथ रूसी सैनिकों को भी।

लम्बा कोट पहने सोवियत सैनिक कतारबद्ध खड़े होकर सबको गौर से देख रहे थे। कुछेक मिनट बाद दो सैनिकों ने फटाक से बन्दूक कन्धे पर उठाई। फिर बूटों की आवाज करते हुए ताल मिलाकर डग भरते हुए स्तब्ध शहर में अदृश्य हो गए। उसी समय समीप ही गोलियों की आवाज़ सुनाई दी। भगदड़ शुरू हो गई। सड़क पर जितने लोग थे वे बदहवास इधर-उधर दौड़ने लगे। बेहद शोरगुल हो रहा था। सैनिकों की टुकड़ियाँ दौड़ी आईं, बन्दूक उठाकर वे चीखकर धमकाने लगे। भयावह शोरवाले एक टैंकर को आगे आते देख हमारे ड्राईवर ने स्टेयरिंग घुमाकर दूसरा रास्ता पकड़ा और अपनी भाषा में जानबाज से पता नहीं क्या कहा। मैंने उससे पूछा, ‘‘ड्राईवर ने क्या कहा ?’’ जानबाज ने मुझे बताया कि ड्राईवर कह रहा है, जल्दी तोप के गोले दगेंगे। राकेट चलेंगे। गोलियां चलेंगी। इसीलिए उसने रास्ता बदल दिया। हम जिधर मुड़े उधर अभी माहौल शान्त है। जानबाज की बात सुनकर मैं घबड़ाकर काँपने लगी।

दिन की रोशनी में शहर झिलमिला रहा था। युद्ध का परवाना न होता तो शहर और भी सुन्दर लगता। अचानक सैनिकों की एक टुकड़ी ने हमारी गाड़ी के सामने आकर रास्ता रोक दिया। एक फौजी टैंक कर्कश ध्वनि से हमारी गाड़ी के पास से गुजर गया। गाड़ी से उतरकर हमारे ड्राइवर ने सैनिकों से कुछ कहा। तब उन्होंने हमें पासपोर्ट दिखाने को कहा। जानबाज ने जल्दी से एक कागज निकालकर सैनिकों के हाथ में दिया। सैनिकों ने धीरे-धीरे अक्षर-अक्षर जोड़कर काग़ज़ पढ़ा। फिर हमें सिर से पाँव तक देखा और फिर छोड़ दिया। गाड़ी फिर दौड़ने लगी। थोड़ी दूर जाते ही देखा कि सड़क के किनारे दाहिनी ओर चार पाँच टैंक खड़े थे। खबर मिलते ही चल पड़ने के इन्तजार में चारों ओर बेपरवाही का माहौल था। साथ ही मौत की आँख-मिचौनी भी। अब हम शहर छोड़ काफी दूर आ पहुँचे थे। अब सड़क बीच बीच में टूटी हुई थी, ऊबड़-खाबड़ थी। सैनिकों की घूरती आँखें और डाँट-डपट को पीछे छोड़कर हम काफी दूर आ गए थे। सड़क के दोनों किनारों पर काफी फासले पर कोई-कोई नज़र आ रहा था। थोड़ी दूर सड़क के दोनों किनारों पर काफी फासले पर कोई कोई नज़र आ रहा था। थोड़ी दूर और जाने के बाद गाड़ी पहाड़ी रास्ते पर चल पड़ी। कभी सीधा, कभी टेढ़ा-मेढ़ा कहीं ऊँचा, कहीं नीचा। कहीं-कहीं एक आध घर भी नज़र आ रहे थे।

हाँ, अगर मुझे बताया नहीं जाता, तो मैं समझ ही नहीं पाती कि ये घर हैं। चारों ओर ऊँची दीवारों से घिरे हुए तीन मंजिला मकानों के बराबर ऊँची दीवारें। चौड़ाई का दूर से सही अंदाजा मुश्किल था। उनके भीतर घर हैं और उनमें लोग रहते हैं इस पर तो मैं यकीन ही नहीं कर पा रही थी। हम जब गजनी शहर पहुँचे, तो घड़ी बारह बजा रही थी।



2


‘‘साहब कमाल, साहब कमाल, उठो ! सुबह हो गई है।’’ अचानक हड़बड़ाकर नींद से उठ बैठी। सिर तक ओढ़कर सोने की वजह से पता ही नहीं चला कि कब सुबह हो गई। यहाँ आने के बाद जानबाज के एक चाचा ने मेरा नया नाम रखा है-साहब कमाल। इसका अर्थ मैं नहीं जानती। फिर भी अंदाज से कह सकती हूँ साहब का मालऔर क्या ? यहाँ मुझे इसी नाम से बुलाते हैं, मेरा असली नाम भी आज अतीत का हिस्सा बन गया है। छह सालों का अतीत। उन दिनों की बहुत याद आती है। कोलकाता की भीड़ में चलना, कर्जन पार्क में गोलगप्पे खाना, कौवे की तरह बारिश में भीगकर घर लौटना, उदास दोपहरी या ऐसी ही शामों में सपनों के जाल बुनना, पार्क स्ट्रीट या ग्रैंड के आर्केड में खरीदारी करना, स्मृतियों के ऐसे अनेक टुकड़े दिल में उथल-पुथल मचाते हैं।

विभिन्न अनुभूतियों से सराबोर और पीछे छूटचुके दिनों की स्मृतियों के घेरे से मैं बाहर निकल आई। देखा मेरे तीनों देवर बर्फ साफ कर रहे हैं। रोज की भाँति हुई एक और अफगानी दिन की शुरुआत। वही एक-सी ज़िन्दगी। यहाँ की नित्य की ज़िन्दगी में कोई विविधता नहीं है। फिर भी चल रही हूँ, चलना पड़ रहा है। जिन्दा रहने के लिए खाना पड़ता है, बातचीत करनी पड़ती है वर्ना समय कैसे गुजारूँगी ?

अफगानिस्तान में पूरे तीन साल गुज़र गए। जानबाज असाम चाचा के साथ हिन्दुस्तान चला गया था। नरम-गरम नोंक-झोंक में समय ठीक ही गुज़र रहा था। जानबाज को पाकर सब दुःख दर्दभूल गई थी। परन्तु जानबाज का साथ मेरे भाग्य में ज़्यादा दिनों तक नहीं बदा था। एक रात उसका इन्तज़ार करते-करते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला। आधी रात को अचानक आँख खुल गई। कमरे में एक लालटेन जल रही थी। इससे पहले भी कई रातों को जानबाज घर लौटा था। पर कभी भी मेरा मन इतना चिन्तित नहीं हुआ। लगा, आज रात भी वह शायद घर नहीं लौटेगा। सुबह चेहरे पर मृदु मुस्कान लिये मेरे सामने कपटी क्षमाप्रार्थी की मुद्रा में आ खड़ा होगा। रात को न लौट पाने की कैफियत देगा। परन्तु धीरे-धीरे मेरा मन विचलित होने लगा। उसका घर न लौटना पता नहीं क्यों मेरे मन में एक भय का संकेत दे रहा था। असाम चाचा भी तो घर पर नहीं हैं। मुझमें यही एक बुराई है-असाम को कभी चाचा कहती हूँ तो कभी काका। बीते कल अपनी दोनों बीवियों और अन्य सबसे विदा लेकर वो हिन्दुस्तान गया है।

ठीक चौबीस घंटों बाद जानबाज का इस तरह रात को घर न लौटना, मुझे अस्वाभाविक-सा लग रहा है। बीती रात बिस्तर पर उसका व्यवहार और दिनों-सा नहीं था। यह बात मुझे दिनभर याद नहीं रही थी फिर यह कोई याद रहने जैसी बात भी तो नहीं। रात के अँधेरे में बिस्तर के एकान्त में पति-पत्नी के बीच बहुत-सी वास्तविक और अवास्तविक घटनाएँ घटती हैं, जिन्हें दिन की व्यस्तता में कोई भी याद नहीं रखता। परन्तु अब मुझे स्पष्ट याद आ रहा है, कल रात उसके प्यार की रंगत ही कुछ और थी, रोज जैसा नहीं था। मानो वह मुझसे बहुत दूर चला जा रहा हो। शायद फिर कभी मिलना न हो या बहुत दिनों बाद मिलन हो। अब मुझे लग रहा था कि उसके व्यवहार में एक दबी हुई वेदना-सी थी। परन्तु वह वेदना क्या थी ? तो क्या वह मुझे यहाँ छोड़कर हिन्दुस्तान चला गया ? पर क्या यह कभी सम्भव है ? वह तो मुझे प्यार करता है। मैं उसकी बीवी हूँ। कोई भी पति अपनी बीबी से झूठ नहीं बोलता। पति की सभी गोपनीय बातें कोई और भले ही न जाने, बीवी को जरूर पता होती हैं। नहीं-नहीं, जानबाज कभी भी ऐसा निष्ठुर काम नहीं कर सकता। वह मुझे प्राणों से भी ज़्यादा प्यार करता है। क्या किसी मुजाहिद ने उसे गलती से गोली तो नहीं मार दी ? लालटेन की लौ टिमटिमा रही है। पूरे कमरे में रोशनी और प्रकाश की विचित्रता छाई हुई थी। मन ही मन सोचा, कल सुबह लौटने पर सख्ती से जानबाज से कहना पड़ेगा कि मुझे इस तरह बिना बताए कहीं बाहर न रहें। इससे मुझे तकलीफ होती है, अनाप-शनाप चिन्ताएँ सताती हैं। यह क्या बेहूदगी है ? रात को घर से बाहर रहना ? मैंने क्रोध में करवट बदली।

अगला दिन ! बारह बज रहे होंगे। जानबाज नहीं लौटा। मरीज देखने में भी मेरा मन नहीं लग रहा था। इतनी देर तो वह कभी नहीं करता ! उस दिन मुझे बिना बताए बुआ के घर गया था। रात को घर नहीं लौटा था, पर तड़के ही आ पहुँचा था। सबकुछ शायद ठीक है, फिर भी मेरा मन अनजान आशंका से काँप रहा था। बार-बार, रह-रह सिर्फ यही विचार मन में कौंध रहा था कि जानबाज कहीं दूर चला गया है। मेरी आवाज़ उस तक नहीं पहुँच रही है। घर का माहौल भी कुछ बदला-बदला-सा है ? सभी लापरवाह से दिख रहे थे। सिर्फ गुलगुटी को छोड़कर। गुलगुटी मेरी चचेरी देवरानी है। उसकी दोनों आँखें लाल थीं। मानो बहुत रोई हो। यद्यपि अपनी किस्मत की परिणति के लिए वह अक्सर रोती है। मेरे देवर भी अन्य दिनों की भाँति शान्त नहीं थे। जरा ज़्यादा ही साहसी लग रहे थे। मेरी मँझली देवरानी सादगी से और दिनों इस तरह घर की दहलीज में टाँगें पसारकर नहीं बैठती। आज बरामदे में टाँगें पसारकर चाय के साथ किशमिश खा रही थी। वह अपने पति काला खान के के साथ जोर-जोर से बातें कर रही थी जोकि एकदम असम्भव सी बात थी क्योंकि जानबाज की उपस्थिति में कोई भी अपनी बीवी के साथ इस तरह बात नहीं करता।

एक बज रहा है। बेचैन निगाहों से घर के मुख्य द्वार के सामने बने ठीहे पर बैठी थी। अचानक देखा, असाम चाचा की दोनों बीवियाँ पाबूल और नक्सिरा, और आबू तथा सेरिना, चाची (आबू ताई सास और सेरिना चाची सास) आद्रामान भाई की बीवी सभी हमारे घर की ओर आ रहे हैं। मैं चौंक गई। खत्म मेरा सबकुछ खत्म हो गया। नहीं, जानबाज अब कहीं नहीं है। मैं चीत्कार करके भी अब उसे वापिस नहीं पा सकूँगी। मैंने उठकर दीवार से सिर टकराना शुरू कर दिया। रुलाई फूट पड़ी। थोड़ी देर में जानबाज की लाश हमारे आँगन में लाई जाएगी। सबकुछ खत्म हो गया। मैंने पागलों की भाँति जाकर आबू को जकड़ लिया। सबने मेरे सिर पर हाथ रखा। मैंने रोते-रोते ही कहा, ‘‘किसने किया यह काम ?’’ अपने जीते जी मैं उसे नहीं छोड़ूँगी। उसके वंश का कोई भी नहीं बचेगा। मैं सबको मार डालूँगी। अचानक असाम चाचा की बड़ी बीवी बोली, ‘‘सेइदा, जे बूम गोरम।’’ अर्थात् मैं देखूँगी तुम क्या करती हो ? पाबलू चाची की बात सुनकर दुःख और क्रोध से मैंने उसके मुँह पर एक घूँसा मारा। पाबलू चाची उई-उई की आवाज़ करके ज़मीन पर बैठ गई।
आबू तब मुझे पकड़कर नीचे बिठाकर बोली, ‘‘दागसायके’-ये क्या ? देता अईली बिना के ? मतलब उसे क्यों मार रही हो ? ता मेरो आक्पले उराल। अर्थात् तुम्हारा शौहर खुद ही चला गया है।

कितना समय गुज़र गया नहीं मालूम। थका-थका-सा बदन लिये किसी तरह मैं गिरते पड़ते अपने कमरे में आई। रुलाई थम गई थी। विलाप भी बन्द हो गया था। सिर्फ लग रहा था मानो कुछ थम गया हो। दिन की रोशनी को परास्तकर रात का अँधेरा पृथ्वी पर छाने लगा है। मरुभूमि की शुष्क हवा साँय-साँय बह रही है। कुएँ के सामने गाएँ लगातार रम्भा रही हैं। मुर्गियाँ अपने डैने फड़फड़ाते हुए गंतव्य की ओर जा रही हैं। एक मुर्गी को एक मुर्गा दौड़ा रहा था, ठीक उसी वक्त कलगी उठाए दूसरे मुर्गे ने आकर पहले वाले मुर्गे को परे हटा दिया। मैं खिड़की के सामने बैठकर सूनी निगाहों से निहार रही थी। पलकें मानो झपकाना भूल गई थीं। बैठे रहना अब अच्छा नहीं लग रहा था। दुपट्टे से सिर से पाँव तक बदन को ढक कर लेट गई। जो लोग आए थे, वे मुझे थोड़ा समझा-बुझाकर चले गए। मैं भी समझ गई कि उसे न तो मौत ने, न ही मुज़ाहिदों की गोली ने शिकार बनाया है। वह भाग गया है। वह जीवित है। अतः एक न एक दिन तो उससे मुलाकात होगी ही। झूठ-झूठ; सब झूठ है। सारी मुहब्बत झूठी है। सारे वादे झूठे हैं। मैं चंगी-भली थी। किसी भी पुरुष को जीवन साथी न बनाने की प्रतिज्ञा कर चुकी थी। तो फिर मैंने क्यों शादी की ? और जब शादी की ही तो अपने देश के युवक से क्यों नहीं की ? मानो कोई मेरे भीतर से कह उठा, ‘‘इसके लिए तुम खुद ही जिम्मेदार हो।

नहीं नहीं, इस परिणति के लिए रूमा जिम्मेदार है।खुद को ही कैफियत देनी चाही मैंने। मन ने फिर प्रश्न किया, तुम सच सच बताओ तो, तुम्हारी इस परिणति के लिए क्या रूमा ही जिम्मेदार है ?’
हाँ, रूमा ही तो जिम्मेदार है। उसीने तो जानबाज से मेरा परिचय करवाया था।
गलत बात। रूमा ने परिचय जरूर करवाया था; पर शादी के लिए तो नहीं कहा था।

उपन्यास राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है.

 
      

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13 comments

  1. नीलम जी, पाठकों की इसमें कोई गलती नहीं होती । संपादक ही इसके लिए जिम्मेवार होते हैं । यहाँ अगर उल्लेख कर दिया जाता कि रचना मूल बांग्ला में है और इसका अनुवाद नीलम शर्मा अंशु ने किया है तो अनुवादक के पुनर्सृजन को भी अहमियत दी जाती, पर आपने देखा होगा कि सम्पादक ही अनुवादक को हाशिये पर रखने की गलतियाँ करते आ रहे हैं ।

  2. रत्नेश जी आपका दिल से आभार सही बात कहने के लिए लेकिन यहाँ उद्धृत अंश और अन्य पाठकों की प्रतिक्रिया देख कर तो यही लगता है कि मानो सुष्मिता बंद्योपाध्याय ने सीधे हिन्दी में लिखा है। पता नहीं अनुवादकों की मेहनत कोई मायने क्यों नहीं रखती लोगों के लिए।
    – नीलम शर्मा 'अंशु'

  3. यह गलती अक्सर हो जाती है कि अनुवादक को कोई अहमियत नहीं दी जाती । कोलकाता में रह रही नीलम शर्मा अंशु ने इस पुस्तक का उम्दा अनुवाद किया है…

  4. मार्मिक!

  5. कुछ लोग यहाँ हैं , जो तुम्हें याद रखेंगे !
    वह आग जो जला गयी,सुलगाये रखेंगे !

    कातिल मनाएं जश्न,भले अपनी जीत का
    अफगानों की छाती पे , ये निशान रहेंगे !

    बंगाली बऊ का यह हश्र ,उनकी जमीं पर
    रिश्तों की बुनावट पे, हम आघात कहेंगे !

    दुनियां से काबुली का ,भरोसा चला गया !
    वह मिट गयी पर सुष्मिता को याद करेंगे !

    बामियान,सुष्मिता के नाम,अमिट हो गए
    ये ज़ुल्म ऐ तालिबान , लोग याद रखेंगे !

    जब भी निशान ऐ खून, तुम्हे याद आयेंगे
    अफगानियों को चैन से , सोने नहीं देंगे !

  6. सीधी सादी भाषा में हृदय की बात कही गई है। पूरा उपन्यास पढने की उत्सुकता तेज हो गई है।
    आप को बहुत-बहुत धन्यवाद-इसे उपलब्ध कराने के लिए…….

  7. प्रभावशाली रचना। जितना ही बारीक चित्रण, उतना ही मार्मिक आख्‍यान.. पूरी कथा जानने की प्रबल जिज्ञासा जगाने वाला अंश.. रचनाकार की मेधा-प्रतिभा को सलाम। उपलब्‍ध कराने के लिए आभार..

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