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‘समन्वय’ अब अगले बरस का इंतज़ार है!

शाम को पार्थो दत्ता सर ने फोन किया. पूछा- उस लेखक का क्या नाम है जिसके बारे में तुमने कहा था कि यह कवि अच्छा है, जिसकी किताब पेंगुइन ने छापी है. मुझे याद आ गया कि उन्होंने ज्ञान प्रकाश विवेक की एक कहानी का का जिक्र किया था. वह किताब पेंगुइन ने छापी थी. मैंने उनसे बताया और पूछा- क्यों? उन्होंने कहा कि मैं यहाँ हैबिटेट सेंटर में हूँ, सामने पेंगुइन हिंदी का स्टाल है, इसलिए. पार्थो दत्ता इतिहास के प्रोफ़ेसर और विद्वान हैं, अंग्रेजी में कला पर लिखने वाले दुर्लभ विद्वान हैं, बांगलाभाषी हैं. मैंने पूछा यहाँ कैसे, बोले कि अभी एक सेशन में मुकुल केशवन भी बोलने वाले हैं, उनको सुनने आ गया.

अखबार में ‘समन्वय’ का विज्ञापन देख कर मेरे घर के पास रहने वाले एक सॉफ्टवेयर इंजिनियर दोस्त ने फोन किया था यह कहने के लिए कि अगर आप आईएचसी के लैंग्वेज फेस्टिवल में जा रहे हों, और वहां अगर आपको गुलजार के गीतों की किताब मिल जाये तो लेते आइयेगा- पैसे मैं बाद में दे दूंगा.

लगे हाथ यह भी बता दूँ के मेरे एक प्रिय गीतकार मित्र ने ‘बोलेरो क्लास’ और ‘मार्केस की कहानी’ नामक मेरी पुस्तकों को खरीदा और उनके ऊपर मेरे हस्ताक्षर भी लिए. बहुत ख़ुशी हुई. दिल से!

आज इण्डिया हैबिटेट सेंटर द्वारा आयोजित भारतीय भाषा महोत्सव ‘समन्वय’ का आज चौथा और आखिरी दिन था. शाम को घर लौटते हुए मैं यही सोच रहा था कि दिल्ली में भारतीय भाषा के अपने तरह के इस अकेले आयोजन के इस तीसरे संस्करण के बाद कि आखिर इस तरह के महोत्सवों के मानी क्या हैं?

यही हैं!

वह हिंदी जैसी भाषाओं को उस अकादमिक जकड़न से मुक्त करवाने का काम करते हैं जिसने आजादी के बाद से ही उसके डिस्कोर्स के ऊपर कब्ज़ा कर रखा है. किसी की कहानी, कविता कोर्स में लग जाए, किसी लेखक की किसी किताब के ऊपर एमफिल हो जाए. लेखक की सबसे बड़ी मुक्ति इसी में मानी जाती है. हिंदी विभागों ने लेखकों को पाठकों से मुक्त करवाया और अपना गुलाम बनाने की कोशिश की. एक तरफ हिंदी विभाग हैं, दूसरी तरफ साहित्यिक संपादक. ये पाठकों तक लेखकों को पहुँचने ही नहीं देते या अपने तरीके से पहुंचाते हैं.

‘समन्वय’ जैसे आयोजन लेखकों को उनसे मुक्त करवाने का काम करते हैं और भाषा को पाठकों से जोड़ने का भी. 25 अक्टूबर को शाम केदारनाथ सिंह-गुलजार की कविताकही का कार्यक्रम था. एक घंटे से कुछ अधिक चले उस सत्र के दौरान इस आयोजन की सबसे बड़ी भीड़ मौजूद थी. लेकिन अगर लोकप्रियता ही पैमाना है तो केदारनाथ सिंह की कविताओं के लिए इतनी अधिक तालियाँ बजी कि गुलजार का रंग पहली बार मुझे किसी सार्वजनिक आयोजन में फीका लगा. यह मेरा बौद्धिक अहंकार नहीं बोल रहा. बल्कि ईमानदारी से कहूँ तो मुझे गुलजार उसी तरह पसंद रहे हैं जैसी दो-एक पीढ़ियों को छिछली भावुकता और रोमांस के प्रतीक के रूप में पसंद आते रहे हैं. आया था मैं भी उस शाम अपने प्रिय सहकर्मी संजय कुमार जी के साथ गुलजार को सुनने लेकिन सच में उस दिन मैं केदार नाथ सिंह को सुनकर लौटा. लोकप्रियता बनाम बौद्धिकता की बहस करने वाले रविकांत टाइप विद्वानों को वह सत्र जरुर अटेंड करना चाहिए था. यह समझने के लिए कि आम पाठक-श्रोता भी खरे-खोटे का फर्क जानता है. आपने हो सकता है समझना छोड़ दिया हो. 

मैं पहले साल से ही ‘समन्वय’ में जाता रहा हूँ. इस तीसरे साल यह समझ में आया कि इसने दिल्ली में एक माहौल बनाना शुरू कर दिया है. इस बार सत्रों में लोकप्रियता-गंभीरता का बेहतर संयोजन दिखा. यह अलग बात है इसके बावजूद हिंदी का सत्र सबसे ठंढा रहा. नरेन्द्र कोहली, भगवान सिंह, नंदकिशोर आचार्य जैसे विद्वानों की मौजूदगी, संजीव कुमार के मॉडरेशन के बावजूद इस सत्र में वैसी सरगर्मी न पैदा ही सकी जैसी मुझे उम्मीद थी. किसी ने कहा इस सत्र में तीन परम्पराएँ थी और एक आधुनिकता!    

एक सेशन को मुझे रोमांचकारी लगा वह था खासी भाषा को लेकर एक जाग्रत सत्र. गुलजार-केदारनाथ सिंह के सत्र के ठीक पहले के इस सत्र में बड़ी संख्या में लोग न सिर्फ मौजूद थे, बल्कि वे गंभीरता से उनको सुन भी रहे थे. बाद में जब गुलजार साहब ने बताया कि आजकल नार्थ ईस्ट में अच्छी कविताएँ लिखी जा रही हैं तो लगा कि किसी से खासी कविता के बारे में पूछना चाहिए.

‘समन्वय’ के इस आयोजन के एक और सत्र जिसमें मौजूद रहकर बहुत अच्छा लगा, जिसमें मौजूद रहना इन्वोल्व होना रहा वह था ‘स्माल सिटिज बिग ड्रीम्स’ का सत्र, जिसमें एक तरफ मेरे कॉलेज के दिनों के स्टार अभिनेता, गीतकार, संगीतकार- कम्प्लीट थियेटर आर्टिस्ट पीयूष मिश्रा की मौजूदगी थी. मैंने इस तरह से किसी कार्यक्रम में पीयूष को बोलते हुए नहीं सुना था. उनको जब भी देखा तो अभिनय करते, गाते-बजाते ही देखा. याद आया 90 के दशक के आरम्भ का वह नाटक ‘जब शहर हमारा सोता है’, एक्ट वन ने किया था. पीयूष के गीतों ने उसे यादगार बना दिया था- ‘उजला ही उजला शहर होगा जिसमें हम तुम बनायेंगे घर/ रहेंगे दोनों कबूतर से जिसमें बाजों का होगा न डर…. चांदी के तारों से रातें बुनेंगे तो चमकीली होगी सहर….’ उफ्फ! क्या सुना क्या याद आ गया! 

उसी सत्र में शिल्पा शुक्ल भी थी, रवीश कुमार भी. जिनकी मौलिक भाषा का मैं भी बहुत बड़ा कायल रहा हूँ. बहरहाल, मनीषा और शिल्पा शुक्ल के वक्तव्य मुझे इस सत्र में बहुत कायदे के लगे. छोटे शहरों को नौस्टेल्जिया से हटकर कभी मनीषा की नजरों से भी देखना चाहिए या शिल्पा की सकारात्मक निरपेक्षता के साथ भी.
प्रकाशक मित्र खुश थे. कह रहे थे बिक्री अच्छी रही. इस बार ‘समन्वय’ सबके लिए ‘फील गुड’ रहा. कुछ दिन में आते रहे, कुछ शाम में. मेरे एक युवा मित्र कवि शाम को सात बजे आते थे. सभी साहित्य कला-प्रेमियों के लिए ‘समन्वय’ में कुछ न कुछ था. हिंदी के लिए भी. हिंदी के लेखक, प्रकाशक, संपादक… सबसे बढ़कर पाठक.

मठ-गढ़ टूट रहे हैं, हिंदी का नया पब्लिक स्फियर बन रहा है. ‘समन्वय’ उसकी बुनियाद तैयार कर रहा है. वर्ना कौन सोच सकता था कि दिल्ली में इतने बड़े-बड़े सत्ताधीशों के होने के बावजूद इसका उद्घाटन शम्सुर्ररहमान फारूकी और विनोद कुमार शुक्ल करेंगे. इस बार ‘समन्वय’ अधिक कल्पनाशील लगा. अब उसका स्वरुप स्थिर हो चला है. 

‘समन्वय’ अब अगले बरस का इंतज़ार है!  

 
      

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15 comments

  1. achhe ayojan ke liye badhai,
    regds,
    -om sapra,
    dlehi-9

  2. samanvaya par kafi achhi report hai- dhanyavad-
    mein pratyek varsh samanvaya ke karkarmon kein sammilit hota hoon
    is baar bhi english literature session mein shashi deshpandey ka statement kafi vicharotejak aur prabhavshali tha, charcha bhi achhi thi-
    iske atirikt punjabi session mein manniya poet shri surjit patar, paramjit singh, ramesh ji tatha rattan singh (All india radio, sri nagar wale) ke lecture tatha poems kafi sunder thi,
    Alha ke geet bhi achhe the
    ayojakon ko badhai
    -om sapra,
    delhi-9
    M- 09818180932

  3. समन्वय का पूरा कांसेप्ट और आयोजन….दोनों बहुत बेहतरीन लगा…. दो दिन के session ही अटेंड कर पाया… लेकिन…जान गया की अगर ना करता तो कुछ कीमती अनुभव को miss कर जाता… केदार की कविता…शुक्ल का छोटा लेकिन मर्मस्पर्शी और सटीक वक्तव्य…असुर की कविता…भोजपुरी के गीत….
    शानदार था भाषा का ये महोत्सव…
    अगले बरस फिर इंतज़ार रहेगा.

  4. nice review with informal touch

  5. बहुत अच्छी रिपोर्ट . इस अद्भुत और रचनात्मक श्रम के लिए दोस्तों को सलाम करता हूँ . कुछ अखबार नोटिस नहीं लेते, न लें .

  6. bahut badhiya.

  7. El correo electrónico no es seguro y puede haber vínculos débiles en el proceso de envío, transmisión y recepción de correos electrónicos. Si se aprovechan las lagunas, la cuenta se puede descifrar fácilmente.

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